”हुकमी हुकमु चलाये राहु।” ~ जपुजी साहिब
आचार्य प्रशांत: वो अपने हुक्म से राह पर चलता है। राह तो सामने ही है। जहाँ खड़े हो, वहीं से चलती है। हुक्मी स्वभाव ही है, तो कहीं दूर जाना नहीं है पूछने। हुक्म तब भी उल्टा-पुल्टा हो जाता है, क़दम फिर इधर-उधर पड़ते हैं क्योंकि जो दुनिया में सबसे अजीब काम हो सकता है, वो होता है कि बाक़ी सब याद रहता है, अपने को भूल जाते हैं। कैसे याद रखें कि पूछें? कैसे याद रखें कि उससे पूछकर ही करेंगे?
श्रोता: टोटल एक्सेप्टेंस (पूर्ण स्वीकृति)।
आचार्य: व्हाट? आलराइट देन। प्लीज़ एक्सेप्ट देन दैट यू हैव टू फारगेट हिम। (क्या? ठीक है तब, कृपया फिर ये स्वीकार करें कि आपको उसे भूलना है।)
श्रोता: वो भी उसी की मर्ज़ी है।
आचार्य: सच अ कन्विनिएंट थिंग, राइट? (इतना सुविधाजनक चीज़ है, ठीक?) ये भी भूल जाइए कि ये उसकी मर्ज़ी है। इफ़ यू वॉन्ट टू एक्सेप्ट एवरी थिंग, देन आल्सो फॉरगेट (अगर आपको सबकुछ स्वीकार करना है तो भूल जाइए) कि उसकी मर्ज़ी जैसी कोई चीज़ है? यही याद रखिए कि सबकुछ अहंकार है उसकी मर्ज़ी है उसी पर चलना है।
श्रोता२: जब तक अहंकार है, तब तक याद रख पाएँगे?
आचार्य: टोटल एक्सेप्टेंस इज़ नॉट द बिगनिंग। इट्स अ वेरी डिस्प्टिव थिंग टू से राइट इन द बिगनिंग। (पूर्ण स्वीकार शुरुआत नहीं है। शुरुआत में ही ये कहना एक भ्रम जैसा है।) शुरू में विवेक चाहिए। अन्त में विवेक भी नहीं चाहिए। विवेक का अर्थ ही होता है डिस्क्रिमिनेशन, नॉट टोटल एक्सेप्टेंस। हू सो एवर हैज़ टॉट यू टोटल एक्सेप्टेंस, डज़ नॉट अंडरस्टैंड। (विवेक, पूर्ण स्वीकार नहीं। जिसने आपको पूर्ण स्वीकृति की शिक्षा दी है, है, वो समझता नहीं)।
श्रोता२: बार-बार उसका एक ट्रांसलेटेड वर्जन (रूपांतरित संस्करण) आ रहा है कि टोटली एक्सेप्ट इट (इसे पूर्ण स्वीकार करो)।
आचार्य: ट्रांसलेटेड वर्जन भूल जाइए। टोटल एक्सेप्टेंस तो फिर ये भी है कि नितनेम क्यों पढ़ें? मस्त राम पढ़ें। टोटल एक्सेप्टेंस। टोटल डज़ नॉट इन्क्लूड, देन हाउ इज़ इट टोटल? इफ़ इट एक्सक्लूड समथिंग, हाउ इज़ इट टोटल देन? (पूर्ण अगर शामिल नहीं कर रहा तो ये पूर्ण कैसे है? जब ये कुछ अस्वीकार कर रहा है तो फिर ये पूर्ण कैसे है?) मैं मस्त राम की बात कर रहा हूँ। इट्स अ पोर्न मैगज़ीन। व्हेन यू से टोटल एक्सेप्टेंस, देन फॉर द मांइड इट ओन्ली मिन्स नो डिस्क्रिमिनेशन, नो डिस्क्रिशन। टोटल एक्सेप्टेंस इज़ द फ़्रूट। इनिशियली यू नीड क्लियर डिस्क्रिमिनेशन (ये अश्लील पत्रिका है। जब आप पूर्ण स्वीकार कहते हैं तो मन के लिए इसका सिर्फ़ ये अर्थ है कि कोई विवेक नहीं, पूर्ण स्वीकार फल है। पहले आपको स्पष्ट विवेक चाहिए) विवेक।
आख़िरी क़दम पर आकर अष्टावक्र कहते हैं कि “कः विवेक कः वैराग्य”। कैसा विवेक और कैसा वैराग्य? आज जो आप सुन रहे थे, वो आख़िरी बात है। साधक जहाँ शुरू करता है, वहाँ उसे विवेक चाहिए। जो शुरू कर रहा हो, वो कह रहा हो, ’न, मुझे कोई विवेक नहीं चाहिए।‘ उसको तो भेद करना पड़ेगा कि क्या लूँ और क्या न लूँ। किसके साथ रहूँ और किससे बचूँ?
आख़िरी क़दम पर जाकर आप कह सकते हो कि अब किसी के भी साथ रह लूँ, कोई फ़र्क नहीं पड़ता, तो टोटल एक्सेप्टेंस। अब काला और सफ़ेद एक बराबर हो गया। ‘अब मुझे कोई बीमारी लग ही नहीं सकती। तो इसीलिए मैं किसी के भी साथ रहूँ, कोई अन्तर नहीं पड़ता।’ वो परम स्वास्थ्य को उपलब्ध हो जाने के बाद है। शुरू में नहीं है।
शुरू में तो डिस्क्रिमिनेशन चाहिए। और डिस्क्रिमिनेशन का मतलब होगा रिजेक्शन (अस्वीकार)। कि कुछ है जिसको मुझे अपने से दूर रखना ही पड़ेगा। टोटल एक्सेप्टेंस बड़ा सुविधाजनक शब्द है मन के लिए। क्योंकि हमें पता है हम गन्दगी में घिरे हुए हैं। और टोटल एक्सेप्टेंस का मतलब होता है गन्दगी को कायम रहने दो। एक्सेप्ट द डर्ट। यू डोंट नीड टू नाव मस्टर द करेज टू क्लीन द डर्ट। सिम्पली से, ‘टोटल एक्सेप्टेंस’। (गन्दगी को स्वीकार करो। आपको गन्दगी साफ़ करने की साहस करने की आवश्यकता नहीं है। आसानी से कहो, ‘पूर्ण स्वीकार’)
सब उसकी मर्ज़ी है। उसने दिया है। वज़न क्यों खूब बढा हुआ है मेरा? चालीस किलो उसने दिया है एक्स्ट्रा (अतिरिक्त)! जीवन में गन्दगी-ही-गन्दगी क्यों मौजूद है? उसने दी है। अब उसने दिया है, तो मैं उसको पालूँगा। ये चित्त को बहलाने की बातें हैं, टोटल एक्सेप्टेंस नहीं, डीप रेज़िस्टेंस। डीप रेज़िस्टेंस (गहरा प्रतिरोध चाहिए) ।
व्हाट यू आल नीड एट दिज़ मोमेंट, इज़ अ डीप सेंस ऑफ़ रेज़िस्टेंस लाइक अ वॉरियर। ‘आय विल नाट अलाउ रबिश टू कंटेमिनेट माय मांइड। (कुल मिलाकर इस समय आपको एक योद्धा की तरह गहरा प्रतिरोध चाहिए। ‘मैं इस कूड़े को अपना मन ज़हरीला करने की अनुमति नहीं दूँगा’)
अप्रतिरोध रेज़िस्टेंसलेसनेस (प्रतिरोधहिनता) की दूसरी अवस्था होती है, वो बाद में आएगी। उसकी बहुत क़ीमत है, रेज़िस्टेंसलेसनस की। ’बट आय एम वन विद द फ्लो। आय डोंट रेज़िस्ट।’ बट दैट कांट बी द फ़र्स्ट स्टेप बिकॉज़ यू आर एनी वे फ्लोंइंग इन द रॉन्ग फ्लो। राइट नाउ यू फ़र्स्ट नीड टू स्टॉप दैट फ्लो इनस्टिड ऑफ़ सेइंग दैट आय एम गोइंग विद द फ्लो, यू नीड टू स्टॉप द फ्लो। आर यू नॉट फ्लोइंग? (‘लेकिन मैं बहाव में हूँ, मैं प्रतिरोध नहीं करता।’ लेकिन वो पहला क़दम नहीं हो सकता। आप ग़लत दिशा में बह रहे हैं। ठीक अभी आपको सबसे पहले उस बहाव को रोकना है, ये कहने के बजाय कि मैं तो बहाव में जा रहा हूँ। आपको बहाव रोकना है।)
ज़िन्दगी जहाँ चाह रही है, ले जा रही है। यू आर फ्लोइंग। नाउ इट्स नॉट अपॉन यू टू से इन योर स्टेज दैट आय एम गोइंग विद द फ्लो। विच फ्लो? यू रिमेम्बर दैट विडियो? टू टाइप ऑफ़ फ्लोज़। द एक्सीडेंटल एंड द एसेंशियल। यू आर गोइंग विद द एक्सीडेन्टल फ्लो। स्टॉप फ्लोइंग। डोंट ट्राई टू बी हेराक्लिटस, लाओत्ज़ू और बुद्धा एट दिज़ स्टेज। दैट लाइफ़ इज़ लाइक अ रिवर एंड आय एम फ्लोइग विद द रिवर। योर्स फ्लो इज़ द फाल्स फ्लो। स्टॉप दैट फ्लो। रेज़िस्ट इट। डोंट से टोटल एक्सेप्टेंस। स्टॉप फ्लोइंग। (आप बह रहे हैं। अब इस स्थिति में ये कहना आपके ऊपर नहीं है कि मैं बहाव के साथ बह रहा हूँ। कैसा बहाव? आपको याद है वो विडिओ जिसमें दो प्रकार के बहाव की बात की गयी थी, एक आकस्मिक बहाव और एक अनिवार्य बहाव? आप आकस्मिक बहाव के साथ जा रहे हैं। बहना बन्द करिए। आप इस समय हेराक्लिटस, लाओत्ज़ू, बुद्ध होने का प्रयास मत करिए।‘ कि जीवन एक नदी है और मैं नदी के साथ बह रहा हूँ। इस बहाव को रोकिए। इसका प्रतिरोध करिए। पूर्ण स्वीकार मत कहिए। बहना रोकिए)।
जब साधक एक अवस्था पर आ जाता है, तब उसको अपनेआप अभेद दृष्टि मिल जाती है। अपनेआप मिलती है, वो कल्टिवेटेड (प्रयास से किया गया) नहीं होती। जहाँ उसको काला- गोरा, दुख-सुख एक सा लगने लगता है, वो होता है टोटल एक्सेप्टेंस, समभाव। वो कल्टिवेटेड नहीं होता कि दुख तो खूब लग रहा है पर चूँकि दुख को ख़त्म करने की हिम्मत नहीं है, तो हमने क्या कह दिया? राम की मर्ज़ी है।
और हिन्दुस्तान में खूब हुआ है कि हम नियतिवादी बन गये हैं कि गड्ढे में गिरे हुए हैं, कीचड़ से सने हुए हैं पर कुछ करेंगे नहीं। क्या कहकर? ‘जैसी हरि की इच्छा।’ अरे, हरि की इच्छा है कि तुम सड़ो? इस देश ने बड़े-से-बड़े सूत्र का खूब दुरुपयोग किया है। खूब बच्चे पैदा करो और फिर कह दो कि ये तो अल्लाह की देन है। बेहोशी के कर्म करो और कह दो, ‘वो करवा रहा है। उसका हुक्म है।’
उसका नहीं हुक्म है। फिर से आप सबसे कह रहा हूँ आप अभी ये सब बातें न करें, सर्व स्वीकार, सर्वमान्य। कुछ नहीं। आप तो अभी हिम्मत रखकर; हिम्मत वही देगा, श्रद्धा से ही आती है हिम्मत, आप तो अभी हिम्मत रखकर जड़ मूल से उखाड़ो अपनी ज़िन्दगी से वो सब जिसे ज़िन्दगी में नहीं होना चाहिए। और ये यक़ीन रखो कि उसके उखड़ने से आपका कुछ बिगड़ नहीं जाएगा।
देखो, सन्तों ने वहाँ शिखर पर बैठकर के जो बातें बोली होती हैं, वो बहुत ख़तरनाक बातें होती हैं। इससे बड़ा अभिशाप नहीं हो सकता और इससे बड़ा अपराध भी नहीं हो सकता कि उन बातों को हम उच्चारित करें। उन्होंने कहाँ से बोली थीं, किस अवस्था से? और जो उन्होंने कहा, उसको उस हालत में पहुँचे बिना हम कह रहे हैं, ‘आचरण में उतार लें’। तो फिर क्या होगा? फिर क्या होगा?
याद रखो, जो भी पढ़ रहे हो, जो भी सुन रहे हो, जो भी कर रहे हो, उसकी प्रासंगिकता अपने जीवन में है। मेरा जीवन बेहतर बने और अगर मेरा जीवन बेहतर बनना है, तो सबसे पहले अपने मन को देखना होगा कि मेरा मन कहाँ खड़ा है। मेरा मन जहाँ खड़ा है, ठीक उसके अनुरूप काम करना है। मुझे सन्तों के अनुरूप काम नहीं करना है। मुझे अपने मन के अनुरूप काम करना है।
और सन्तों ने यही सिखाया है। ‘अपने मन को देखो, उसके अनुरूप काम करो।’ कबीर साहब ने तो कह दिया है,
“माला फेरूँ न जप करूँ मुख से कहूँ न राम, सुमिरन मेरा हरि करें मैं करूँ विश्राम।”
तुम भी कहो कि हम क्यों याद रखें? कैसी कांस्टेंट रिमेम्बरेंस? (सतत सुमिरन?) हरि मेरा सुमरन करेंगे मैं क्यों कांस्टेंट रिमेम्बरेंस करूँ? और मुझे कुछ याद नहीं रहता हरि के बारे में, मुझे इस बात की टोटल एक्सेप्टेंस है। आय हैव टोटली एक्सेप्टेड दैट आइ रिमेन लॉस्ट। (मैंने ये स्वीकार कर लिया है कि मैं नहीं हूँ)।
अरे, कबीर साहब कहाँ से बोल रहे हैं कि सुमिरन मेरा हरि करें? तुम्हें हक़ है कहने का अभी कि सुमरन मेरा हरि करें? है? तो तुम्हें तो ख़ुद ही सुमिरन करना पड़ेगा। पर मुझे सुमिरन करना नहीं है। मैं अपने व्यर्थ के काम-धन्धों में फँसा हुआ हूँ। तो कितना अच्छा बहाना मिल गया कि देखो जी, कबीर साहब ने ही कहा है कि “माला फेरूँ न जप करूँ”, तो न माला फेरनी है न, जप करना है। “मुख से कहूँ न राम।” और राम नाम मुख को गन्दा कर जाता है, मुख से तो राम नाम लेना ही मत। कबीर साहब ने ही तो कहा है। तुरन्त कबीर साहब उपस्थित हो गये कि कबीर साहब ने ही कहा है। हम कबीर साहब के ही कहे पर तो चल रहे हैं। कि राम नाम लेना ही मत।
अरे, कबीर साहब ने कबीर होकर के कहा है। तुम हो कबीर साहब? कृष्णमूर्ति ने कहा है, ‘किसी गुरु की आवश्यकता नहीं।‘ कृष्णमूर्ति ने कृष्णमूर्ति होकर के कहा कि अब गुरु नहीं चाहिए। जब हो जाना कृष्णमूर्ति, तब कहाँ किसी गुरु की ज़रूरत है? तुम कृष्णमूर्ति हो?
“हुकमी हुकमु चलाए राहु”। एक बड़ी खूबसूरत बात कैम्प में अचानक से आयी थी। व्हाट इज़ द मेडिसिन? द रिमेम्बरेंस ऑफ़ द डॉक्टर इज़ द मेडिसिन (दवाई क्या है? चिकित्सक का स्मरण ही दवाई है)।
ऐसे तरीक़े अपनेआप को उपलब्ध कराओ जिनसे लगातार सुरति बनी रह सके। कोई और विकल्प है ही नहीं। कोई और विकल्प बिलकुल भी नहीं है। तुम्हें अपनेआप को उसको उपलब्ध कराना होगा, इसके अतिरिक्त और कोई तरीक़ा नहीं है। और इससे सरल कुछ हो भी नहीं सकता। कुछ करना नहीं है, कुछ पढ़ना नहीं है, याद कर लेना है। ऐसी स्थिति पैदा कर लेनी है कि याद उठ जाए, उतना काफ़ी है। जान जाओगी किस राह चलना है। ऐसी स्थिति पैदा कर लो बिलकुल सामने आ जाए। हो गया काम।
देखिए, जब कबीर साहब राम के अलावा सबकुछ अपने जीवन से निकाल देते हैं कि एक “चिन्ता राम की, दूजी चिन्ता न कोई।” जब कबीर साहब राम के अलावा सबको जीवन से निकाल देते हैं, तब जाकर के कभी अन्ततः वो वहाँ पहुँचते हैं, जहाँ कहते हैं कि “मुख से कहूँ न राम”। आप शॉर्टकट चाहते हो। पहला क़दम तो यही है कि राम के अलावा जीवन में कुछ शेष रहने न दूँगा। वो ले जाता है वहाँ तक कि जहाँ पर राम का नाम लेने की ज़रूरत नहीं पड़ती। क्योंकि राम हृदय में बैठ गये हैं। अब नाम क्या लेना है? बल्कि अब नाम लोगे, तो बड़ा अजीब सा लगेगा जैसे औपचारिकता निभा रहे हो।
बोधिधर्म जो बुद्ध की शिक्षा को भारत से चीन ले गया, वो अपने शिष्यों से कहता था कि बुद्ध का नाम बड़ा ख़राब है। जब भी बुद्ध का नाम लो, उसके बाद कुल्ला किया करो। मुँह गन्दा हो जाता है। आप भी यही करिए कि कभी राम का नाम लें, तो कुल्ला करिए। मुँह गन्दा हो गया।
बोधिधर्म ये कह पाया क्योंकि उसने अपना पूरा जीवन ही बुद्ध को समर्पित कर दिया था। और वो जिनसे कह रहा था, वो उसी के शिष्य थे। एक स्तर को प्राप्त हो चुके थे, तो उनसे कह रहा था कि अब नाम लेना ठीक नहीं। अब बुद्ध को नाम देना बिलकुल ठीक नहीं। अब बुद्ध नहीं है, अब बोध मात्र है। आप भी यही करिए कि ‘बुद्ध’, नाम ले लिया बुद्ध का, मुँह से कुल्ला करेंगे। आपकी अभी वो पात्रता है?
और ये दिक्क़त होती है जब ज़िन्दगी में अभी न राम उतरे हैं, न बुद्ध उतरे हैं पर ग्रन्थ हाथ में आ गये हैं। ज़िन्दगी भय में और असुरक्षा में बीत रही है और हाथ में ग्रन्थ हैं। अब बड़ी विद्रुपता की स्थिति है। कि जैसे चूहा बता रहा हो कि बीस किलो की तलवार कैसे भाँजी जाती है। अरे, अपनी शक्ल देखो? तुम्हें हक़ है ये बात करने का कि बीस किलो की तलवार मैदान में कैसे भाँजेंगे और अहंकार को मारना कैसे है? पर चूहों का आनन्द ही इसी में है। बातें खूब करो कि मैं फ़लाने हाथी के ऊपर चढ़ गया और हाथी मेरे बोझ तले दब गया। सारे हाथी मेरी चिंघाड़ से थर्राते हैं। ये चूहों की गोष्ठी चल रही है।
थोड़े विनीत रहिए। ज़रा विनम्रता दिखाइए। बड़ा बुरा सा लगता है जब आप बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। थोड़ा तो आँख खोलकर अपने जीवन को देखिए और पूछिए अपनेआप से, ‘मुझे ये बात करने का हक़ है? मैं बोल भी कैसे देती हूँ ये सारे शब्द?’ अर्जित करना पड़ता है न। अर्जित किया? क़ीमत अदा करी? सन्तों का प्रसाद है। वो तो उछाल देते हैं कि लो। किसी के भी हाथ में पड़ सकता है। लेकिन काम उसी के आएगा जो पात्र है। बाक़ियों के हाथ में प्रसाद पड़ेगा और मृत हो जाएगा।
ये बात पक्का समझिएगा। उन्होंने तो दे दिया कि लो। जिसको चाहिए, लो। कबीर साहब की वाणी सबके लिए है। नानक के वचन सबके लिए हैं। पर हमारे हाथ में पड़ेंगे, तो वो वचन मृत हो जाएँगे। हमें लगेगा ज़रूर कि मिल गया, हमें नहीं मिला। वचन हमारे हाथ में पड़कर मृत हो जाता है। एक जीवन्त हृदय चाहिए। जब उसके समीप वो वचन आता है तब जी उठता है, तब अपनेआप को प्रकट करता है अन्यथा नहीं करेगा। अन्यथा बस शब्द है। उससे खेलते रहो। शब्द से खेलकर क्या मिल जाएगा? जीवन में कोई रूपान्तरण नहीं होना।
तो ये ज़रा ईमानदारी से अपनेआप से हम पूछें कि इस चर्चा का, इन बातों का कितना भाग जीवन से आ रहा है? छोटे सवाल पूछिए। वो छोटे सवाल आपके लिए ज़्यादा उपयोगी हैं। ये बात मैं कम-से-कम पचास बार दोहरा चुका हूँ। ईमानदार सवाल रखिए। वो मुद्दे रखिए जो वास्तव में जीवन में मौजूद हैं। वो ज़्यादा ठीक है। इसीलिए कहा कि यही मत लिखो कि एक पंक्ति उठायी, कि एक पौड़ी उठायी, एक दोहा उठाया और लिख दिया। बताओ कि इसमें तुम कहाँ अटक रहे हो। तुम्हारे जीवन से उसका क्या सम्बन्ध है? अब जो उत्तर होगा, वो काम आएगा। अब उसकी सार्थकता है।
ऐसे ही एक और बौद्ध भिक्षु हुआ है। उसने कहा कि बुद्ध कहीं दिख जाए न सड़क पर, तो मार देना। आप भी मारिए। मार ही दीजिए। कह रहें हैं कि सन्तों के वचन हैं। कोई बुद्ध सड़क पर देखा जाए, तो तुरन्त उसको मार न सको, तो कम-से-कम दो-चार जूते तो लगा ही दो। कहाँ से बोल रहा है वो, समझिए। आपके लिए इतना ही काफ़ी है समझना कि वो जहाँ से बोल रहा है, मैं वहाँ नहीं हूँ।
पर अहंकार को बड़ी प्यारी बात लगेगी ये कि ये पहला आदमी है, जिसने कोई ढंग की बात करी कि बुद्ध दिखे नहीं कि चार जूते लगाओ। मैं तो हमेशा से यही कह रहा था। आज पहली बार ग्रन्थों का अनुमोदन मिला है। लाना भाई, बड़ा वाला, सड़ा वाला जूता। कीलें-वीलें निकली हैं जिसमें। लगाएँ ज़रा। और सबसे पहले तो इन्हीं को लगाएँ जो संडे (रविवार) ख़राब करते हैं। (श्रोतागण हँसते हैं)।
ग्रन्थों को पढ़ते समय एक मूल विवेक है, जिसको ध्यान में रखिए। क्या? मैं कहाँ खडा हूँ? क्योंकि पढने वाला अहंकार है। और कौन पढ़ेगा? वही सबकुछ कर रहा है। वो ये न भूले कि मैं कहाँ खड़ा हूँ। और उसी दृष्टि से देखे कि अब मेरे लिए क्या उपयोगी है। बड़ी पीड़ा होगी ये देखकर के कि जो कुछ भी ऊँचा है, आकाशीय है, सुन्दर-से-सुन्दर है, वो तो मेरे लिए उपयोगी ही नहीं है। बिलकुल मेरे लिए उपयोगी नहीं है। मेरे लिए तो बड़ी छोटी-छोटी बातें उपयोगी हैं। आप जो निन्यानवे प्रतिशत बातें करते हैं, वो आपके लिए फ़िज़ूल हैं। उनकी आपके लिए कोई सार्थकता, उपयोगिता है ही नहीं। वो बस मुँह चलाने के काम आती हैं।
सच्ची बात करें, सार्थक बात करें। अगर आपको ये सवाल उठता है कि फ़ायदा क्यों नहीं होता? तो उसकी वजह ये है कि आप बीमारी छुपा रहे हो। जो स्वास्थ्य का ढोंग कर रहा हो, उसे कोई दवा लग सकती है? जब आप यहाँ बैठकर के स्वास्थ्य का ढोंग करते हो कि मुझे समझ में आता है और खूब मुँह चलाते हो, तो आपको क्या दवाई लगेगी? सबसे पहले तो ज़रा विनम्र होकर के स्वीकार करिए कि मैं महारोगी हूँ। फिर आपको आपके अनुकूल दवाई मिलनी शुरू भी हो। ये दवाइयाँ हैं, पर उनके लिए नहीं जो अभी स्वास्थ्य का ढोंग कर रहे हैं।