प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, एक ओर मेरे घर में चूहे आते हैं तो मैं मार देता हूँ, और दूसरी ओर मेरी माँ गणेश जी से प्रार्थना करती हैं; ये हम दोनों की अलग-अलग प्रकृतियाँ हैं। क्या प्रकृति पर चलना अनुचित है?
आचार्य प्रशांत: जिसको तुम प्रकृति कह रहे हो, वास्तव में प्रकृति से थोड़ा-सा आगे कुछ है; वो सामाजिक संस्कार भी हैं। तो प्रकृति पूरी तरह से दैहिक होती है, उसको लेकर के पैदा होते हो गर्भ से। और उसके बाद सामाजिक संस्कारों की भी एक तह जमती है। प्रकृति को तुम कह सकते हो ‘बायोलॉजिकल कन्डिशनिंग ’ (जैविक संस्कार), सामाजिक संस्कारों को कह सकते हो ‘सोशल कन्डिशनिंग ’ (सामाजिक संस्कार), लेकिन चाहे जैविक हो, चाहे सामाजिक हो, दोनों ही आत्मिक तो नहीं हैं।
घर में बिल्ली हो, चूहा खा जाएगी; वो चल रही है अपनी जैविकता पर — वो अपनी दैहिक प्रकृति पर चल रही है। कोई हो जो ऐसे समाज में पैदा हुआ हो जहाँ चूहे खाए जाते हैं, तो वो घर में चूहों को देखकर कहेगा, “बढ़िया! ख़ुद आए हैं पकने के लिए।” वो पकड़ेगा चूहों को और पका डालेगा — ये सामाजिक संस्कार हो गए। क्या इनसे हटकर के भी जिया जा सकता है? क्या दूसरे जीवों के प्रति कोई आत्मिक रुख भी रखा जा सकता है? निस्संदेह रखा जा सकता है, और रखा जाना चाहिए।
वो रुख क्या होगा? वो प्रत्येक परिस्थिति में अलग-अलग होगा।
तुम्हारे घर में चूहे हैं, उनके प्रति तुम्हारा क्या रवैया होना चाहिए ठीक-ठीक, एग्जैक्टली (यथार्थतः), वो मैं नहीं बता सकता, पर मैं इतना ज़रूर बता सकता हूँ कि जो तुम्हारा रवैया है, वो संस्कारित नहीं होना चाहिए, कंडिशन्ड नहीं होना चाहिए। उससे बाहर आकर के तुम चूहों के साथ जो भी करोगे वो फिर ठीक ही होगा।
एक सूत्र काम का होता है कि – किसी भी जीव की हत्या कम-से-कम तब तक मत करो जब तक कि वो तुम्हारी ही हत्या करने पर उतारू ना हो।
जब तुम ताक़तवर हो और तुम्हारे पास ये विकल्प है कि तुम किसी छोटे जीव को मार सकते हो, उसे मारने से पहले ये सवाल अपनेआप से पूछ लेना — “मैं इसको मारना चाहता हूँ, क्या ये भी मुझे मारना चाहता था?”, अगर उत्तर ‘हाँ’ है तो मार दो उसको, पर अगर उत्तर ये है कि वो तुम्हें मारना नहीं चाहता, तो उसका वध मत करो।
और अगर तुम जाओगे संतों के पास, तो वो इससे भी आगे की बात कहेंगे। वो कहेंगे — “छोटा है, वो तुम्हें मारना भी चाहता है तो मार तो नहीं लेगा। उसका इरादा भले ही है तुम्हें मार देने का, मार तो वो फिर भी नहीं पाएगा; करुणा रखो, माफ़ कर दो।” पर मैं नहीं कह रहा कि तुम संतों के आचरण का अनुकरण करो, क्योंकि अभी तुम संत नहीं हो; तुम अभी साधारण पुरुष हो।
तो साधारण पुरुष होते हुए भी इतना तो कर ही सकते हो कि कम-से-कम उसको मत मारो जो तुम्हें मारना नहीं चाहता। जब कोई बिलकुल आमादा ही हो जाए तुम्हारी जान लेने को, तब भले ही उसकी जान ले लेना। हालाँकि संत ये भी नहीं करेंगे, अगर तुम उनको मारने जाओगे तो वो तब भी तुम्हारी जान नहीं लेना चाहेंगे, लेकिन ठीक है, तुम कुछ तो संयम करो।
इतनी बुद्धि लगाते हो न जाने कितने कामों में, लगाते हो न? कहीं काम करते होओगे, वहाँ बुद्धि लगाने के ही पैसे लेते हो। हममें से ज़्यादातर लोग श्रमजीवी तो नहीं हैं, श्रमिक-मजदूर तो नहीं हैं, हममें से ज़्यादातर लोग दिमाग चलाने के ही पैसे लेते हैं। या व्यापार अगर करते हैं तो उसमें भी तुम्हें पैसे दिमाग लगाने के ही मिलते हैं। लगाते हो न बुद्धि?
पैसा कमाने के लिए तो इतनी बुद्धि लगा लेते हो, थोड़ी बुद्धि इस बात पर भी लगा लो कि — घर में कॉकरोच बहुत हो गए हैं तो उन्हें मारे बिना भी उनसे छुटकारा कैसे पाएँ। तुम इतने बड़े-बड़े पुल बना लेते हो, इतने बड़े-बड़े जहाज़ बना लेते हो, तुमने इतने बड़े शहर खड़े कर दिए, तुमने ऐसे-ऐसे कंप्यूटर खड़े कर दिए, तुम्हारे पास कॉकरोच का ही इलाज नहीं है?
तुम कहते हो, “नहीं, सब कुछ हो सकता है लेकिन कॉकरोचों को तो मारना ही पड़ेगा।” कोई निकालो न तरीक़ा कि कॉकरोच मरे भी नहीं, और तुम्हें परेशान भी ना करें। कोई निकालो न तरीक़ा कि चूहा मरे भी नहीं, और तुम्हें परेशान भी ना करे।
(बल्ब की ओर इंगित करते हुए) ये सब तरीक़े ही हैं न? ये क्या है?
प्र: बल्ब।
आचार्य: ये एक तरीक़ा है; बल्ब नहीं है, ये एक तरीक़ा है। तुम्हारी एक इच्छा है और उस इच्छा को पूरी करने का यह एक तरीक़ा है। ये क्या है (सामने रखे मग की ओर इंगित करते हुए), ये भी एक तरीक़ा है। ये सब कैमरे वगैरह क्या हैं? ये तरीक़े हैं न। ये छत क्या है?
प्र: बैठने का उपाय।
आचार्य: हर चीज़ का उपाय कर लेते हो, तो एक चूहे को बचाने का भी कर लो।
प्र२: आचार्य जी, क्या भगवान शिव और हनुमान की पूजा करने से कोई आध्यात्मिक लाभ होता है?
आचार्य: लाभ के लिए नहीं पूजा की जाती, प्रेम हो जाता है तो आदमी मूर्ति में भी अमूर्त को खोजता है। जैसे आदमी अपने बच्चे की फोटो लेकर चलता है न। अब फोटो ही तो है, बच्चा तो नहीं है, पर फ़िर भी उसको लेकर क्यों चल रहे हो?
प्र२: प्रेम है।
आचार्य: प्रेम है।
इसी तरीक़े से जब निराकार से प्रेम हो जाता है, तो आदमी उसे तरह-तरह के नाम, रूप, रंग, आकार देकर के पूजता है। कभी वो उसे ‘शिव’ का नाम दे देता है, कभी ‘हनुमान’ का नाम दे देता है। चाहे तुम ‘शिव’ कहो, चाहे तुम ‘हनुमान’ कहो, वास्तव में तुम्हें प्रेम सत्य से हुआ है।
और चूँकि तुम ख़ुद सशरीर हो, साकार हो, ससीम हो, इसीलिए तुम असीम की कल्पना तो कर नहीं सकते; तो तुम कल्पना भी किसी सीमित व्यक्ति-वस्तु की ही करते हो। तो कभी तुम सत्य को इंगित करने के लिए शिवलिंग का सहारा लेते हो, कभी तुम हनुमान की मूर्ति का सहारा लेते हो। सब अच्छा है, बशर्ते तुम्हें पता हो कि तुम पत्थर में तलाश परमात्मा को ही रहे हो।
ये बात याद रखनी होगी।
प्र३: आचार्य जी, कार्यालय में बॉस के सामने भय लगता है और दीन-हीन महसूस करता हूँ। क्या करना चाहिए?
आचार्य: तुम अपनेआप को जितना दीन-हीन समझोगे, तुम जितना ये मानोगे कि वीज़ा ऑफ़िसर, या दुकानदार, या कोई ऐग़ज़ामिनर या तुम्हारा सीनियर तुम्हारा उद्धार, कल्याण कर सकता है, उतना ज़्यादा उसके सामने तुम्हें डर लगेगा।
सबसे पहले तो तुम्हें ये पता हो कि तुम दीन-हीन हो नहीं। अगर हो सके तो अपूर्णता की भावना को ज़रा दूर ही रखो। और अगर वो नहीं कर सकते, तो दूसरा उपाय है। दूसरा उपाय है कि कहो, “भले ही मैं दीन-हीन हूँ, लेकिन मेरी दीनता अगर कोई दूर कर सकता है, तो बस ‘राम’।”
“ये वीज़ा ऑफ़िस थोड़े ही मेरी दीनता दूर करेगा। इसके सामने मैं क्यों झुकूँ, दबूँ या दबाव अनुभव करूँ? अगर मेरी हालत ख़राब भी है, तो मेरी ख़राब हालत सिर्फ़ एक ही है जो ठीक कर सकता है, कोई दूसरा नहीं। जब सिर्फ़ ‘वही’ है जो मेरी ख़राब हालत ठीक करेगा, तो ये दुनियादारों के आगे घुटने टेकने से क्या फायदा?”
फिर भीतर एक ठसक रहेगी, मेरुदंड सीधा रहेगा; आसानी से झुकोगे नहीं, दबोगे नहीं।
प्र२: इसीलिए, हमेशा उस परमात्मा के आगे झुके रहो।
आचार्य: ये बात!
जो ‘उससे’ जुड़ा हुआ है, उसको ज़रूरत नहीं रह जाती कि दुनिया में इधर-उधर तलवे चाटता फिरे।