जीवात्मा क्या? आत्मा क्या? || आत्मबोध पर (2019)

Acharya Prashant

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जीवात्मा क्या? आत्मा क्या? || आत्मबोध पर (2019)

स्थाणौ पुरुषवद्भ्रान्त्या कृता ब्रह्मणि जीवता। जीवस्य तात्त्विके रूपे तस्मिन्दृष्टे निवर्तते॥

अज्ञान के कारण जैसे खम्भे में भूत दिखने लगता है, वैसे ही ब्रह्म जीव प्रतीत होने लगता है। जीव का तात्विक रूप जान लेने पर उसका जीवभाव समाप्त हो जाता है।

—आत्मबोध, श्लोक ४५

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। परमात्मा क्या है और जीवात्मा क्या है? मैंने श्रीमद्भगवद्गीता में पढ़ा है कि परमात्मा और जीवात्मा दोनों होते हैं। क्या ये जीवात्मा ही माया है? क्या इसका कोई अस्तित्व है जब तक हम शरीररूप में हैं? कृपया मार्गदर्शन करें।

आचार्य प्रशांत: हाँ, जीवात्मा माया ही है। जीव ही भ्रम है, तो जीव की आत्मा क्या? तो जिसको जीवात्मा कहा जाता है, वो वास्तव में मन मात्र है। और आत्मा एक ही है, उसी को परमात्मा कहकर सम्बोधित किया जाता है। दो प्रकार की आत्माएँ नहीं होतीं, कि एक परमात्मा और एक जीवात्मा; आत्मा एक ही है, और वही उच्चतम है, वही परम है। क्योंकि आत्मा ही उच्चतम है और परम है, इसीलिए आत्मा को ही कहते हैं परमात्मा। जिसको आप जीवात्मा कहते हैं, इस श्लोक से स्पष्ट ही होगा कि वो भ्रम मात्र है।

शंकराचार्य कह रहे हैं, "अज्ञान के कारण जैसे खम्बे में भूत दिखने लगता है, वैसे ही ब्रह्म जीव प्रतीत होने लगता है।"

“ब्रह्म जीव प्रतीत होने लगता है।” किसके कारण? अज्ञान के कारण। तो जीव का जन्म ही किसके कारण है? अज्ञान के कारण। अज्ञान के कारण जीव प्रतीत होने लगता है, अज्ञान ना हो तो जीव प्रतीत ही नहीं होगा।

जीव ही अज्ञान की उत्पत्ति है, पैदाइश है। तो जीवात्मा क्या हुई? वो आत्मा जिसे जीव अपनी मानता है। और जीव किसको अपनी आत्मा मानता है? जीव क्या कहता है, “मैं कौन हूँ?” जीव जब आत्मा की बात करे, तो उसने किसकी बात करी? अहंकार की बात करी। तो जीवात्मा माने कह लो मन और चाहे कह लो अहंकार।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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