प्रश्नकर्ता: अचार्य जी, कोटि-कोटि नमन! आचार्य जी, जब से मैं अभी आपको सुन रही हूँ, अभी मुझे बस छः महीने ही हुए हैं। लेकिन बहुत सारी बातें जीवन में स्पष्ट हो चुकी हैं। आपके दो सत्र अटेन्ड किए, उनसे मुझे मेरे बहुत सवालों के जवाब स्पष्ट हो गए हैं। लेकिन इन सब चीज़ों से, जब सुना आपको, तो अब लगता है कि जैसे जीवन के लास्ट (आख़िर) के तीस साल मैंने निरर्थक कर दिया है। मुझे कुछ भी नहीं आता है। अभी बहुत कुछ सीखना है जीवन में। और बहुत सारे बंधनों में अब तक बंध चुकी हूँ। और यह चीज़ मुझे स्वीकार करने में भी तकलीफ़ हो रही है कि जिन्हें मैं सुख मानती थी अपने, वो तो मेरे बंधन हैं।
आचार्य जी, मेरा सवाल है कि सही जीवन कैसे जियें? दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या में जो कचरा मेरे दिमाग में, मन में भरते जाता है; उसको मैं अपने दिमाग से कैसे दूर करते चलूँ?
मैं ख़ुद को बहुत समझाने की कोशिश करती हूँ और समझा भी लेती हूँ; लेकिन फिर कुछ दिन बाद, कभी-कभी तो कुछ घंटों बाद ही, फिर से मतलब अपनी वही दुर्दशा कर लेती हूँ, मन की, समझा नहीं पाती ख़ुद को।
आचार्य प्रशांत: देखिए, वो जिसको आप कचरा कह रही हैं, उसकी आपको पुरानी आदत है। इतनी जल्दी आप अपनेआप को रज़ामंद नहीं कर पाएँगी कि उसे वाक़ई कचरा ही मान लें। तो तरीक़ा यह है कि अपनी दिनचर्या में से ज़्यादा-से-ज़्यादा समय उन चीज़ों को दीजिए जिन्हें आप कचरा नहीं मानती हैं। ठीक है?
हमारी दिनचर्या में बहुत सारे काम होते हैं, बहुत सारे व्यक्ति होते हैं; है न? बहुत सारी चीज़ें होती हैं। वो सब एक समान नहीं होते, उनमें अंतर होते हैं। जो चीज़ें आपको पता ही है कि निचले तल की हैं, सबसे पहले उनको आप जो समय देती हैं और जो ध्यान देती हैं और जो ऊर्जा देती हैं, उसे कम-से-कम करना शुरू करिए। और जो ऊपर वाले हैं, उन पर जो समय है, उसको बढ़ाना शुरू करिए। ठीक है?
ऊपर वाली चीज़ों पर समय बढ़ाने से यह होगा कि वहीं से पता चल जाएगा कि और ऊपर का क्या है। जैसे-जैसे ऊपर आप बढ़ते जाएँगे, नीचे वाले कामों के लिए आपके पास समय कम पड़ता जाएगा; इसी को मुक्ति कहते हैं।
हम ऐसे लोग हैं कि हमें मुक्ति भी ख़ुद को धोखा देकर हासिल करनी पड़ती है, क्योंकि ख़ुद की सुनें तो हम हमेशा ग़ुलाम ही रह जाएँ और ख़ुद से लड़ें, तो चोट हमें ही लगेगी; तो एक तरीक़े से ख़ुद को धोखा देना पड़ता है।
आप अपनेआप से यह बोलेंगी, जो आपके मज़े के काम हैं, जिनको आपने सुख कहा अभी, कि सुख वाले काम जीवन में करने ही नहीं हैं। अगर आपने अपनेआप को बोल दिया कि सुख वाले काम जीवन में रखने ही नहीं हैं; तो यह तो छोड़िए कि कोई और परेशान करेगा आपको, आप ख़ुद ही बहुत परेशान हो जाएँगी, क्योंकि उन कामों को अभी भी आप मानती तो सुख ही हैं न! कितना मजबूर करेंगे अपनेआप को सुख त्यागने के लिए?
तो यह नहीं कहना है कि वो सुख वाले काम मुझे करने नहीं हैं। क्या कहना है? कहना है, ये पहले जो ज़्यादा ज़रूरी काम हैं ऊपर के, पहले इनको निपटा लूँ और इनको जल्दी से निपटा लेती हूँ, फिर वो सुख वाले कामों की तरफ़ जाऊँगी। और ऊपर वाले काम ऐसे तैनात कर लीजिए अपने लिए कि वो आपके पास ज़्यादा समय छोड़े ही नहीं निचले कामों के लिए।
वैसे भी जो ऊपर के काम होते हैं, चूँकि वो ऊपर के काम हैं, इसीलिए आसान लगते हुए भी वो बहुत कठिन होते हैं। वो बहुत समय साध्य होते हैं, वो आपका समय पूरा सोख लेंगे। जब समय सोख लेंगे, तो नीचे के कामों के लिए आपके पास फ़ुर्सत बचेगी नहीं। इस तरह से मुक्ति मिलती है। और यह मुक्ति का सूत्र सबके लिए है।
एक झटके में यह मत करने लग जाइएगा कि हमें पता है कि यह चीज़ मेरे लिए ठीक नहीं है, तो फ़लानी चीज़ आज से खाना बंद या फ़लाना इंसान हमारे लिए ठीक नहीं है, अब यह सामने भी पड़ेगा तो मुँह फेर लेंगे या घर पर मिलने आएगा तो उसको मार के भगा देंगे। ये सब आप कर ही नहीं पाएँगे।
अभी यहाँ पर एक माहौल है। अभी यहाँ पूरा एक क्षेत्र बनाया गया है जिसमें आपकी चेतना को ऊपर खींचा जा रहा है। तो इस माहौल में, इस प्रभाव क्षेत्र में आपको लगता है कि कुछ काम बहुत आसान होते हैं। पर उन कामों को यहाँ से बाहर जाकर के आप अपने घर में, समाज में जब करना चाहेंगे, तो वो कठिन लगेंगे। ठीक है?
तो बहुत फन्नेखाँ बनने की कोशिश मत करिएगा। औंधे मुँह गिरेंगे बिलकुल और जब औंधे मुँह गिरेंगे तो ख़ुद को तो दोष देंगे नहीं, दोष मुझे देंगे। कहेंगे, "वहाँ तो बताया था ऐसा कर लो, वैसा कर लो, यह तो बाज़ी ही पलट गयी बिलकुल।"
यहाँ सब आपके जैसे बैठे हैं तो आप सुरक्षित हैं। यहाँ सब आपके जैसे बैठे हैं तो आपको एक समर्थन मिल रहा है। यहाँ कोई भी शंका उठ रही है तो उसका तत्काल निवारण हो जा रहा है। तो इसीलिए यह बहुत अनुकूल जगह है, चेतना के लिए। यहाँ दरवाज़े से बाहर कदम रखते ही, वह अनुकूलता समाप्त हो जानी है और जिन जगहों पर आप नियमित रूप से रहते हैं, उन दरवाज़ों में प्रवेश करते ही तो प्रतिकूलता का आरम्भ हो जाना है। ऐसा लगेगा एक बार को कि जो पाया सब खो दिया।
नहीं, खोया नहीं है। यहाँ प्रशिक्षण है। अब उसका प्रयोग सावधानीपूर्वक करना है, वापस जा करके। और प्रयोग कैसे करना है? ऐसे ही करना है कि अपनी ज़िंदगी में देख लीजिए, चाहें तो लिख लीजिए सूची बना करके कि कौनसे काम ऐसे हैं, जो वाक़ई आपको करने चाहिए और कौनसे काम ऐसे हैं, जो सुख इत्यादि भले ही देते हैं, लेकिन हैं तो निचले दर्ज़े के। लिख लीजिए और उनको वरीयता दे दीजिए—एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः, सात, आठ। और फिर अपनेआप से बस यह कहिए कि जो ऊपर वाले तीन हैं, इनको ज़रा ज़्यादा समय देना है।
नीचे वालों की कोई बात मत करिए, क्योंकि नीचे वाले बड़े ख़तरनाक हैं। क्यों ख़तरनाक हैं? क्योंकि वो सुख देते हैं। सुख तो नीचे ही वाले कामों में है न? ऊपर वाले काम तो कर्तव्य की तरह लगते हैं, ज़िम्मेदारी की तरह लगते हैं। उनमें मज़ा थोड़े ही आता है! तो नीचे वालों की बात नहीं करनी। बल्कि अपनेआप को समझा लीजिए कि नीचे वाले तो हम यथावत रखेंगे। नीचे वाले जैसे पहले चल रहे थे, वैसे ही चलने देंगे। बस ऊपर वालों का समय बढ़ा देना है।
नीचे वाले पूछे, 'हमारा समय?' बोलिए, 'मिलेगा, बिलकुल मिलेगा, तुमसे कौन छीन सकता है? तुम तो बहुत बढ़िया लोग हो। तुम्हारा नंबर (क्रम) आएगा, बिलकुल आएगा।'
बस ऊपर वालों का वज़न थोड़ा बढ़ा दीजिए और कह दीजिए कि नीचे जाएँगे, बिलकुल जाएँगे, एकदम जाएँगे, जाने ही वाले हैं, बस ऊपर वाले काम ख़त्म कर लें, फिर नीचे जाना है। ऐसे।
और यह कोई अफ़सोस की बात नहीं है कि तीस साल तक हम सोए पड़े थे, आज पता चल रहा है कि सोए थे। सोए तो पड़े ही थे और अतीत को बदल नहीं सकते। तथ्य को झुठलाना कैसा! अब यह राहत की बात है और ख़ुशी की बात है कि कम-से-कम आज पता चल गया कि अभी तक बेहोश थे या अफ़सोस की बात है? कहिए!
आपको देखकर ऐसा लग रहा है
प्र: खुशी की बात है।
आचार्य: "अँ.. खुशी की बात है।" (रोने का अभिनय करते हुए)
प्र: आचार्य जी, अब तो लगता है कि मतलब बहुत सारे बंधन में बंध गयी। अब तो मेरा बच्चा है छः महीने का।
आचार्य: अरे! तो बच्चा है तो अच्छी बात है न! हर बच्चा अपनेआप में एक संभावना ले करके आता है। जब बच्चा हो जाए, यह नियम है, जो पैदा हो गया उसको ले करके कभी अफ़सोस मत करिएगा। सोचने का, विचारने का, विवेक का समय होता है, उसके पैदा होने से पहले।
पहले सही निर्णय कर लीजिए, बहुत अच्छी बात है। लेकिन एक बार बच्चा पैदा हो जाए, फिर यह मत कहिएगा, "अरे! यह तो बंधन आ गया!" बंधन-वंधन कुछ नहीं है, अब वह एक रौशन संभावना है। ठीक है? और उसको बहुत ऊपर तक लेकर जाना होता है फिर।
थोड़ा सा आप ग़ौर किया करिए। बीमारी का पता चल जाए, यह ख़ुशी की बात होती है। क्योंकि ऐसा तो है नहीं कि बीमारी सदा छुपी रहती, पता तो वो चलती ही। पर जितना विलम्ब से पता चलती, उतना काट खाती।
आप तो राहत की साँस लीजिए कि तीस साल में ही सही, पता चल तो गया। बहुत ऐसे हैं जिन्हें पचास में पता चलता है, बहुत ऐसे हैं जिन्हें सत्तर में पता चलता है और बहुत ऐसे हैं जिन्हें कभी पता नहीं चलता। वो जीवन भर सड़ते रहते हैं, उन्हें पता नहीं चलता वो सड़े क्यों। उनको लगता है, सड़ना ही तो ज़िंदगी है।
आप बुज़ुर्गों को देखिए। आमतौर पर वृद्धावस्था में शक़्ल कैसी विकृत हो जाती है, देखा है? ऐसा सा मुँह हो जाता है (विकृत चेहरा बनाते हुए), बहुत ही अजीब लगते हैं। वो इसलिए नहीं लगते कि दाँत गिर गए हैं या चेहरे की माँसपेशियाँ ख़राब हो गयी हैं या खाल लटक गयी है, सिर्फ़ इसलिए नहीं।
वह जो उन्होंने सड़ा हुआ जीवन जिया होता है, वह बुढ़ापे में आ करके अपना पूरा असर दिखाने लगता है, इसलिए ज़्यादातर बूढ़े लोग बहुत अजीब हो जाते हैं। एकदम कुरूप से दिखते हैं फिर वो, विकृत। जैसे उनके चेहरे को लेकर किसी ने मसल-वसल दिया हो।
वैसा होना है या तीस की उम्र में कुछ पता चल गया, तो बेहतर बात है?
नहीं। होश उड़े हुए हैं बिलकुल। (प्रश्नकर्ता को देखते हुए)
(मायूसी व रोने का अभिनय करते हुए) "नहीं आचार्य जी। बिलकुल बेहतर बात है यह। मैं तो जानती हूँ, सबसे अच्छे दिन वो थे, जब मुझे आप मिले थे। आग लगे यूट्यूब को।"
(श्रोतागण हँसते हैं)
अरे! थोड़ा मुस्कुरा दीजिए। आज हमारा जन्मदिवस है।
प्र: अरे! बहुत ख़ुश हूँ मैं कि आप मिलें, मैंने आपको सुनना शुरू किया।
आचार्य: आप ऐसे खुश होती हैं!
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: अभी बस अपने जीवन से थोड़ा परेशान हूँ, बहुत।
आचार्य: सब परेशान होते हैं। उसी परेशानी के बीच आनंद पाना होता है। ठीक?
अब जो है, सो है। जिस भी स्थिति में आप हैं, वह स्थिति तो एक तथ्य है, वह है। अब आपको देखना है कि आगे कैसे बढ़ना है। उस स्थिति के प्रति आप अभी तक अनभिज्ञ थीं, यह कोई अच्छी बात नहीं थी। अब आपको पता चल गया है कि ऐसा है।
जैसे आप एक कमरे में बैठी हों, उस कमरे में अंधेरा हो और आपका अनुमान यह है कि कमरे में कई प्रकार के पकवान रखे हुए हैं और कमरे में कुछ आवाज़ें आ रही हैं, वहाँ आपके सब बंधु-बांधव बैठे हुए हैं और कमरे में फूल खिले हुए हैं, गुलदस्ते रखे हैं और तमाम तरह की ख़ुशनुमा चीज़ें कमरे में मौजूद हैं। और ये सब आपका अनुमान है, कमरे में अंधेरा है। और तभी कोई आकर कमरे में प्रकाश कर देता है और आपको पता चलता है कि कमरे में क्या है?
प्र: प्रकाश।
आचार्य: प्रकाश तो है। पर प्रकाश में दिखा क्या?
प्र: गंदगी
आचार्य: हाँ! कमरे में कचरा भरा हुआ है। कमरे में अगर गमले रखे भी हुए हैं, तो उसमें कुछ सूखे हुए पौधे हैं। कुछ ऐसा कोई हरीतिमा नहीं है। जो भी आपकी कल्पनाएँ थीं, कमरे को ले करके, रोशनी पड़ी तो पता चला कि वो तो नहीं हैं।
और हो सकता है, कमरे में कोई ख़तरे की चीज़ भी हो, जो अंधेरे कारण आपको दिख नहीं रही थी। यह अच्छा हुआ या बुरा की रोशनी आ गयी?
प्र: बहुत अच्छा।
आचार्य: बहुत अच्छा हुआ न, आप ख़तरे से बच गयी हैं!
प्र: जी।
आचार्य: हाँ! तो उसमें इतना कोई मुँह लटकाने की बात नहीं है, नहीं है, वाक़ई नहीं है।
प्र: जी।
आचार्य: सपना टूटने को बुरा नहीं मानते। सपना अगर टूटता है, तो आदमी यथार्थ में उठता है न?
प्र: जी।