प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जीवन में विराट कैसे उतरे?
आचार्य प्रशांतः छोटा क्या है, इससे शुरू करो। छोटा समझते हो? तुम्हें कोई लड्डू दे कि लो खाओ, कब बोलोगे कि ये छोटा है? जब जी न भरे। तो क्षुद्र की मेरी यही परिभाषा है — जिससे जी न भरे। अन्यथा कैसे कहें कि क्या क्षुद्र है, क्या विराट? क्या कहें कि क्या छोटा, क्या बड़ा?
दुकान में तो इतने कपड़े रखे रहते हैं, तुम यूँ ही किसी कपड़े को देखकर कह सकते हो कि ये छोटा है? न, दुकान में जो कपड़े रखे हैं, न वो छोटे हैं न वो बड़े हैं। छोटे वो तब हैं जब उनसे तुम्हारा तन न ढके। मत पूछो कि बड़ा क्या है, ये देखो कि जीवन में तुम्हारे क्या-क्या छोटा है। कौनसे ऐसे कपड़े पहन रखे हैं जो नाप के नहीं हैं? कौनसी ऐसी पहचान पकड़ रखी है जिनसे सुकून नहीं मिलता? क्या-क्या चीज़ें लिये चल रहे हो जिनको लेकर के तो चल रहे हो पर वो काम नहीं आ रहीं? वो सब छोटी चीज़ें हैं।
छोटे का त्याग करना ही बड़प्पन है।
और ये कोई बड़े परोपकार की बात नहीं है कि छोटा था कपड़ा तो हमने त्याग दिया है, कोई और पहनेगा। ये तुम्हारे विशुद्ध स्वार्थ की बात है। छोटी चीज़ से आगे बढ़ोगे तो तुम्हारा ही तो लाभ होगा न। छोटा सा तुमको लड्डू दे दिया, लार बहाये घूमो। छोटे लड्डू की जगह अगर बड़े लड्डू की ओर जाओगे तो तुम्हारा ही फ़ायदा है न। अध्यात्म यही है — छोटे लड्डू से बड़े लड्डू की ओर जाना, जिसमें जी भर जाए।
तो मुझसे मत पूछो कि बड़ा लड्डू क्या है; बड़ा लड्डू इसी में है कि छोटे लड्डू को छोड़ो। जिनका काम छोटी-छोटी चीज़ों से चल रहा होता है उनको फिर बड़ी मिलती नहीं। देने वाला भी कहता है कि तुम तो छोटे से ही काम चलाये ले रहे हो, तुमको फिर कुछ बड़ा क्यों मिले। पहले तो तुमको थोड़ी ज़िद दिखानी पड़ती है कि ये छोटा-मोटा मामला हमें स्वीकार नहीं है। फिर वो ऊपर से कहता है, ‘बड़ा दे देंगे पर महँगा है।‘ तुम फिर नीचे से थोड़ा साहस दिखाओ और बोलो, ‘ठीक है, कितना महँगा है? दाम बता देना, चुका देंगे।‘ कुछ इस तरीक़े की बातचीत होनी चाहिए।
ज़रा खनक हो! लुंज-पुंज, लचर बातचीत नहीं कि अस्सी किलो के हो और देने वाले ने दो रोटी फेंक दी और तुम कह रहे हो कि बस इसी में पेट भर जाएगा। भर जाएगा? नहीं भर रहा तो उसको साफ़-साफ़ बताओ न कि जैसी ज़िन्दगी अभी चल रही है उसमें भीतर कुछ है जो भर नहीं पा रहा। और जवाब न दे तो कहो, ‘जो तुम दे रहे हो वो नहीं लेंगे।‘
ऐसा कई दफ़े जब करोगे कि जो वो दे रहा है उसको नहीं ले रहे, तो फिर उसको मजबूर होकर कहना पड़ेगा, 'भाई तू बड़ा विद्रोही हो रहा है, हमारे दिये माल को अस्वीकार कर रहा है। और ज़्यादा उत्तम कोटि का, विशाल श्रेणी का माल चाहिए तो उसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी।' और तब मैं तुम्हें पहले से ही बता रहा हूँ, तुम्हें क्या बोलना है — ‘क़ीमत किसको बताते हो, माल भेज दो, जो भी दाम होगा चुका देंगे। बिल लगा देना।‘
बेपरवाही होनी चाहिए, पूछो भी मत कि माल का दाम क्या है, बोलो, 'भेज दो, हाथ के हाथ भुगतान कर देंगे। और एडवांस (अग्रिम) चाहिए तो वो भी बता दो, अग्रिम राशि मिलेगी। तुम्हारी ही औलाद हैं, हमें ग़रीब समझ रखा है क्या! तुम वहाँ बैठे हो कृपानिधान बनकर के और हमारे पास छोटी-मोटी निधि भी नहीं होगी? हमारे पास भी खजाना है, हम भी लुटा देंगे, पर छोटे से राज़ी नहीं होंगे।' ज़रा ऐसे तेवर रखो। बात में ज़रा धार होनी चाहिए, थोड़ी आग होनी चाहिए, फिर मिलती है बड़ी चीज़।
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