प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैंने आपका पहले वाला पुराना एक वीडियो देखा था। जिसमें आपने कहा था कि मुझे जो मिला है वह आप सबको मिलना चाहिए तो वह मतलब क्या है और कैसे हमको मिलेगा, उसके लिए क्या करना है? ये मेरा प्रश्न था।
आचार्य प्रशांत: वही तो कर रहे हैं यहाँ पर।
प्र: और कुछ करना हो तो?
आचार्य: पढ़िए, स्वाध्याय करिए और दैनिक ज़िन्दगी के प्रति सतर्क रहिए। दो ही तरीके से आदमी कि मदद हो सकती है, या तो अपनी मदद खुद करले या फिर बाहर जहाँ-जहाँ से मदद मिल रही हो, उसका लाभ उठाए। मैं समझता हूँ, हमें दोनों ही काम करने चाहिए। पहली कोशिश तो यही है कि अपनी मदद जितना ज़्यादा-से-ज़्यादा कर सकते हो करो। अपने मित्र आप बनो। ठीक है?
जब अपनी मदद कि बिल्कुल अधिकता पर पहुँच जाओगे, सीमा पर पहुँच जाओगे तब फिर बाहर से भी मदद आने लगती है और आप इस योग्य भी हो जाते हैं कि बाहर से जो मदद हो रही हो उसको पहचान पाएँ, उसका लाभ उठा पाएँ। दोनों ही चीज़ें चाहिए होती हैं, लेकिन शुरुआत तो अपनी मदद करने से ही करिए।
ज़िन्दगी जो हम जी रहे हैं न उसी ज़िन्दगी को देखना, उसी जीवन को समझना, अपने सब अनुभवों से ही जान जाना यही सब ग्रन्थों का उद्गम स्रोत है। और कहाँ से आये सब ग्रन्थ, सब शास्त्र? उनके रचनाकारों ने सब ज़िन्दगी से ही तो सीखा है। भाई, पहला ग्रन्थ भी कहीं से तो आया होगा न, उसके रचयिता ने कोई और ग्रन्थ पढ़कर तो वो ग्रन्थ लिख नहीं दिया। कहाँ से आया वो ग्रन्थ? जीवन से आया। तो सबसे पहले तो जीवन से सीखने कि कोशिश किया करिए। और फिर जैसे जीवन से सीखते जाते हैं, वैसे-वैसे जीवन जिन सहायक स्थितियों को आपके पास भेजता है आप उनसे भी लाभ उठाते जाते हैं।
भाई, जिसको आप गुरु वगैरह बोलते हैं, आमतौर पर हम किसी इंसान को ही गुरु कह देते हैं न, वो भी तो जीवन का हिस्सा है न। तो जो आदमी कहेगा, ‘मैं जीवन से सीखता हूँ’, वो फिर किसी गुरु से भी सीख लेगा क्योंकि वो कह रहा है कि जीवन में जो भी कोई मिल रहा है सिखाने वाला मैं उन सबसे सीख रहा हूँ, चाहे वो रोज़मर्रा कि कोई घटना हो, कोई किताब हो, कोई खबर हो, और चाहे कोई इंसान हो। और जो आदमी कह रहा है, ‘मैं किसी चीज़ से नहीं सीखूँगा, मैं तो सिर्फ़ गुरु से सीखूँगा’ वो यही तो कह रहा है कि मैं ज़िन्दगी से नहीं सीखूँगा क्योंकि गुरु भी है क्या?
श्रोतागण: ज़िन्दगी का हिस्सा।
आचार्य: ज़िन्दगी का हिस्सा ही तो है। तुम ज़िन्दगी के बाकी हिस्से से सीख नहीं रहे, गुरु से कैसे सीख लोगे? जो ज़िन्दगी के सब हिस्सों से सीखता है वही फिर किसी गुरु वगैरह से भी सीख पाता है। बात समझ रहे हैं?
तो सीखने का भाव लगातार रहे। सिर्फ़ तब नहीं जब आप किसी खास इंसान के सामने बैठे हैं या खास किताब के सामने बैठे हैं। जानना है, समझना है, एक उत्सुकता है, आँखें खुली हुई हैं, है न? एक हरापन है जीवन में, मुर्दा नहीं हैं भाई! क्या चल रहा है, बात क्या है? कितनी ज़िन्दादिली है न इस सवाल में! ‘बात क्या है? बात क्या है? जानना है, बात क्या है?’ गॉसिप (गपसप) करने के लिए नहीं पूछ रहें कि बात क्या है, समझना चाहते हैं भाई, बात क्या है।
तो लगातार आग्रही रहा करिए, जो कुछ भी हो रहा है ये हो क्या रहा है। देश में, दुनिया में, समाज में, अर्थव्यवस्था में, राजनीति में, खेलों में, प्राणी समुदाय में, ग्रहों में, उपग्रहों में जहाँ कहीं भी जो हो रहा हो उसके साथ थोड़ा समय बिताइए, थोड़ा उससे उलझिए। ‘ये क्या है? मामला क्या है?’ कौतूहल रखिए। इस अन्धविश्वास में मत रहिए कि हम जानते ही हैं। ज्ञान सबसे बड़ा अन्धविश्वास है क्योंकि जानते हैं नहीं और मान रहे हैं कि जानते हैं। जिज्ञासा लगातार रखिए। वो जिज्ञासा जब आप रखेंगे तो फिर किसी इंसान से भी सीख पाएँगे, चाहे तो उस इंसान को गुरु बोलें चाहे तो न बोलें, कोई फ़र्क पड़ता नहीं।