प्रश्नकर्ता : आचार्य जी, जैसा कि आप कहते हैं कि सच के रास्ते पर चलना है तो बहुत कम लोग मिलेंगे और बहुत संघर्ष करना पड़ेगा। मैं संघर्ष करने के लिए तैयार हूँ। जो कुछ भी करना चाहती हूँ, सत्य के केन्द्र से करना चाहती हूँ। मेरा सवाल यह है कि मैं कौनसा काम चुनूँ।
घरवाले कह रहे हैं कि अब मेडिकल में आयी हो तो मेडिकल में ही कुछ कैरियर करो। अभी तक मैंने घरवालों की सुनी। आप कहते हैं कि हम घरवालों को गुरु समझते हैं, लेकिन घरवालों को तो ख़ुद ही गुरु की ज़रूरत है। तो आचार्य जी, अभी तक मैं किसी गुरु के पास नहीं गयी और कोई आध्यात्मिक किताब भी नहीं पढ़ी, तो अब मैं सत्य के केन्द्र से कौनसा काम चुनूँ? मैं अपना खर्चा ख़ुद उठाना चाहती हूँ और अपने बलबूते पर कुछ करना चाहती हूँ। लेकिन थोड़ा सा डर है, पता है कि अहंकार भी टूटेगा, पर मैं वो सब करना चाहती हूँ बिलकुल निडरता से, बिलकुल घबराए बिना। लेकिन मैं कौनसा काम चुनूँ, मुझे बस ये समझ में नहीं आ रहा है।
आचार्य प्रशांत: अभी तो देखो उम्र बहुत कम है, पढ़ाई कर रहे हो। एमबीबीएस में अगर दाख़िला मिल गया है तो उसको अच्छे से पूरा करो। ज्ञान में क्या बुराई हो सकती है! मैं जो बातें आप लोगों से करता हूँ, उसमें सिर्फ़ आध्यात्मिक ज्ञान थोड़े ही शामिल है। अपनी इंजीनियरिंग में मैंने जो पढ़ा है, अपने मैनेजमेंट में जो पढ़ा है, जो मेरा कॉर्पोरेट अनुभव रहा है, इसके अलावा जो मैं दिन-ब-दिन दुनिया की और ख़बरें लेता रहता हूँ, तमाम तरह के लेखकों को पढ़ता रहता हूँ, उसका भी योगदान है न! ऐसा थोड़े है कि मैंने सिर्फ़ उपनिषद् ही भर पढ़े हैं कि भई, मुझे तो बस सनातन धर्म से मतलब है, तो मैं मात्र वेदान्त पढ़ूँगा! नहीं। तो फिर उपनिषदों के आगे चाहे पुराण हों, चाहे स्मृतियाँ हों, चाहे इतिहास काव्य हों, वो भी पढ़े हैं। ठीक?
अब कहने को ये ही आता है कि मेरे नाम के साथ लिखा जाता है — 'आचार्य प्रशांत, वेदान्त', लेकिन वेदान्त भर काफ़ी नहीं है। वेदान्त स्वयं कहता है कि अविद्या भी आवश्यक है, और सब चीज़ें भी पता होनी चाहिए। ऐसा भी नहीं कि मैं कहूँ सनातन धर्म के ही भीतर का पढ़ा है। तो फिर चाहे बाइबल हो, क़ुरान हो, दुनिया के इतने सारे और धर्म ग्रन्थ हैं, वो भी पढ़े। फिर धर्म से बाहर जाकर के जो अर्थव्यवस्था सम्बन्धित बातें हैं, राजनीति सम्बन्धित बातें, वो भी जाननी होती हैं। किसी क्षेत्र में अपनी विशेषज्ञता भी होनी चाहिए। तो वो सब भी हासिल करने में कई साल लगते हैं। तो अभी बेचलर्स की पढ़ाई शुरू भी नहीं करी है क्या?
प्र: पिछले महीने नीट का एग्जाम हुआ है।
आचार्य: मेडिकल एंट्रेंस?
प्र: हाँ, मेडिकल एंट्रेंस।
आचार्य: तो अभी बारहवीं करी है?
प्र: हाँ।
आचार्य: अभी तो बेटा दुनिया का तुम्हें बहुत ज्ञान लेना है, और कई सालों का अनुभव लेना है। उपनिषद् मात्र पढ़कर मैं आपसे वो बातें नहीं कर पाता जो आज करता हूँ। उसके लिए बहुत कुछ और भी है जो पढ़ना पड़ता है, अनुभव करना पड़ता है, आज़माना पड़ता है। विज्ञान को जानना पड़ता है; विज्ञान जाने बिना मैं आपसे बात नहीं कर पाता। साइंस की समझ नहीं है तो आप सत्य के केन्द्र से कैसे जी लोगे?
साइकोलॉजी (मनोविज्ञान), फ़िलोसॉफ़ी (दर्शन) सब पढ़ने पड़ते हैं, तब जाकर के जीवन के प्रति एक समग्र समझ आती है। नहीं तो उपनिषद् तो मुट्ठी भर हैं — जो मान्य उपनिषद् हैं — उनको तो कोई चाहे तो कुछ महीनों में निपटा दे और बोले, ‘मैं भी हो गया वेदान्त मर्मज्ञ।’ उतने से नहीं हो जाओगे, क्योंकि वेदान्त ख़ुद कहता है कि जाओ दुनिया को समझो। सिर्फ़ ब्रह्म की बात करने से नहीं होगा, संसार को भी तो समझो कैसे चल रहा है।
ये राजनीति कैसे चलती है, ये दुनिया की अर्थव्यवस्थाएँ कैसे चलती हैं, ये आयात-निर्यात का खेल क्या है, ये जियोपॉलिटिकल (भू-राजनीतिक) पूरा तमाशा क्या चल रहा है — ये सब पता होना चाहिए न। इतिहास की समझ होनी चाहिए; हिस्ट्री (इतिहास) आपने पढ़ी होनी चाहिए। मैं अभी भी पढ़ता रहता हूँ।
तो सत्य के केन्द्र का ये मतलब नहीं है कि पढ़ाई-लिखाई सब छोड़ देनी है, ‘अब एमबीबीएस भी नहीं करेंगे।‘ जब मैंने ही नहीं छोड़ी तो आपको कैसे बोल दूँ कि छोड़ दो? और अगर मैं नहीं गया होता आइआइटी, न ही आइआइएम गया होता, तो अभी मैं आपसे जो बात बोल रहा हूँ वो इससे थोड़ा निचले स्तर की ही होती। यूपीएससी ने जनरल अवेयरनेस (सामान्य जागरुकता) की लत लगा दी, वो अभी तक बाक़ी है, अभी भी पढ़ता रहता हूँ, आपको भी पढ़ना चाहिए।
तो जो छात्र वर्ग है, जो बार-बार पूछता रहता है, ‘क्या करें, क्या करें?’, उनसे कहूँगा कि सबसे पहले तो पढ़ाई पूरी कर लो। और पूरी से मेरा क्या आशय है कि इतना तो करो कि दुनिया के तौर-तरीक़ों का तुम्हें कुछ ज्ञान हो जाए। अर्थव्यवस्था जाननी ज़रूरी है, संविधान को जानना ज़रूरी है। दुनिया में इतनी क्रान्तियाँ हुई हैं, उनका इतिहास जानना ज़रूरी है। धर्म कैसे शुरू हुए, क्या उनका रास्ता और कैसी गति रही — ये सब जानना ज़रूरी है। भारत ही नहीं, पश्चिम में जो प्रमुख दार्शनिक हुए हैं, उनको जानना ज़रूरी है। वेदान्त के साथ-साथ मैंने इनको भी पढ़ा है। वरना आज के समय जैसी दुनिया है, वो आप नहीं समझ पाओगे।
उदाहरण के लिए, अगर आप बिलकुल नहीं जानते हो कार्ल मार्क्स को — जो पूरी कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो (कम्युनिस्ट घोषणापत्र) है, उन्हीं से तो आया है न। इसी तरीक़े से हम इतनी बातें करते हैं कि ये अर्थव्यवस्था किस तरीक़े से आपको बन्धक बनाकर रखती है। कैपिटलिज़्म (पूँजीवाद) क्या है, उसका दर्शन क्या है? वो सिर्फ़ एक व्यवस्था नहीं है, उसके पीछे एक फ़िलोसॉफ़ी है, वो क्या है? वो समझना ज़रूरी है।
नीत्शे (फ्रेडेरिक विल्हेम नीत्शे) को या शोपेनहॉवर (आर्थर शोपेनहॉवर) को जब आप पढ़ते हो तो एक गहराई आती है। आप जो अपनी मेडिकल की पढ़ाई करने जा रहे हो न, उसके पीछे भी एक दर्शन है, वो भी एक फ़िलोसॉफ़ी है। और चूँकि फ़िलॉसोफ़ी अलग-अलग होती हैं, इसीलिए फिर जो चिकित्सा की पद्धतियाँ होती हैं, वो अलग-अलग होती हैं।
अब आयुर्वेद में और जिसको आप मॉडर्न (आधुनिक) मेडिकल साइंस बोलते हो, सामान्यतः जिसको एलोपैथी बोल देते हैं, उसमें अन्तर क्यों है? अन्तर इसलिए है क्योंकि उनके पीछे का दर्शन ही अलग-अलग है। तो वो सब पढ़ना होगा। उसको अगर त्याग दोगे, उसको अगर पढ़ोगे ही नहीं, तो जीवन को कभी समझ ही नहीं पाओगे।
समझ में आ रही है बात?
ये मत कर देना कि सब छोड़-छाड़ कर सत्य की सेवा में आ गये। सत्य की सेवा माने क्या? संसार को नहीं जानते तो सत्य को कैसे पकड़ोगे?
संसार का बन्धक नहीं बन जाना है, संसार में खप नहीं जाना है। संसार तुमको बिलकुल पचा न ले, वो बात ठीक है। लेकिन संसार जानेंगे ही नहीं, ये बात तो कहीं से ठीक नहीं है।
इन दोनों बातों में अन्तर समझ रहे हो? विशेषकर युवा लोगों से बोल रहा हूँ — सबसे ही बोल रहा हूँ, पर युवा लोगों को ख़ासतौर से — संसार में लिप्त नहीं हो जाना है, लेकिन संसार का पूरा ज्ञान रखना है। ख़बर पूरी होनी चाहिए, और आपके पास गहरी अन्तरदृष्टि होनी चाहिए कि ये संसार बला क्या है। मैंने एक बार कहा था — संसारी वो है जो संसार को नहीं समझता। संसारी की परिभाषा वो जो संसार को नहीं समझता और आध्यात्मिक आदमी वो है जो संसार को बखूबी समझ गया। जो संसार को बखूबी समझ जाएगा, सिर्फ़ वही आध्यात्मिक हो पाएगा।
संसारी आदमी का दुर्भाग्य ये है, या चुनाव ये है कि वो संसार में तो लगातार लिप्त रहता है, लेकिन संसार को जानता बिलकुल नहीं है। उसे कुछ नहीं पता। मेरी जीई (जनरल इलेक्ट्रिक) में एमबीए (व्यवसाय प्रबन्ध में स्नातकोत्तर) के बाद पहली नौकरी हुई, तो मैं वहाँ गया। विशाल एमएनसी (बहुराष्ट्रीय निगम)! तो वहाँ पर जो सब लोग थे उनसे बात करने लगा। वो सब मैनेजरियल कैडर (प्रबन्धकीय संवर्ग) के ही थे।
मुझे बड़ा मज़ा आये, लोगों को नहीं पता था कि पूरी व्यवस्था में वो किस जगह पर काम कर रहे हैं। लोगों को अधिक-से-अधिक अपने से ऊपर के दो बॉसेज़ के नाम पता थे। तीसरे का कई बार नाम भी नहीं पता होता था, कम्पनी में दो-दो साल से काम कर रहे थे। आपको पता तो हो कि ये पूरा विशाल खेल क्या है और इस पूरे खेल में आपके नाम का प्यादा किस जगह बैठा हुआ है! ये नहीं पता होता।
मैंने कहा कि भारत, एशिया पैसिफिक में है। इस पूरे खेल में तुम आते कहाँ पर हो, तुम किस जगह पर फ़िट किये गये हो, ये सब अगर तुमको नहीं पता तो तुम यहाँ काम कैसे कर ले रहे हो? तो बोलते थे, ' बट हाउ डज़ देट अफ़ेक्ट मी (लेकिन यह मुझे कैसे प्रभावित करता है)? हाउ इज़ देट रेलेवेंट (यह कैसे प्रासंगिक है)?' पागल, जब पता चलेगा तब न रेलेवेंस (प्रासंगिकता) पता चलेगी। जब पता ही नहीं है तो रेलेवेंस कैसे पता होगी?
लोग कोड लिख रहे होते हैं, उनको ठीक से पता नहीं होता है कि जो उनका क्लाइंट (ग्राहक) है, उसके बिज़नेस में इस कोड का इस्तेमाल क्या होने वाला है। मैंने सॉफ़्टवेयर में भी काम करा है, वहाँ से बता रहा हूँ,। और वो कोडिंग करे जा रहे हैं, करे जा रहे हैं और उनको बढ़िया पैसा मिल रहा है। और उधर (अमेरिका) चले गये तो डॉलर में मिल रहा है।
नहीं, उनको नहीं पता है कि उनके क्लाइंट के बिज़नेस में इस मॉड्यूल का एग्जक्ट यूज़ (सटीक उपयोग) क्या होगा। नहीं जानते! वो कहते हैं, ‘जानने की ज़रूरत क्या है? मेरा काम है इस स्पेक्स (विनिर्देश) को पूरा कर देना।‘ जो बातें बोली गयी हैं कि आपका कोड ये सब डिलीवर कर देगा, ये इनपुट आएगा, ये आउटपुट देगा, ये-ये यूज़ केसेज़ होंगे। कह रहे हैं, 'मेरा काम है उनको फ़ुलफ़िल (पूरा) करना। मेरा ये काम थोड़े ही है कि मुझे पता हो कि लार्जर कांटेक्स्ट (वृहद् सन्दर्भ) में ये कोड क्या करने वाला है।’ मैंने पूछा, ‘तुम्हें कुछ नहीं पता?’ कहते हैं, ‘नहीं पता!’
ये अनपढ़ की निशानी है।
ये कहने को कम्प्यूटर इंजीनियर होगा, ये अनपढ़ है, ये कुछ नहीं जानता। तो वैसे मत बन जाना। मैक्रो (स्थूल, बड़ा) पिक्चर जानना बहुत ज़रूरी है। माइक्रो (सूक्ष्म) को मैक्रो मत बना लो। संसारी वो है जिसने माइक्रो को मैक्रो बना लिया। जिसके लिए जो सबसे माइक्रो इश्यूज़ होते हैं ज़िन्दगी के, उन्हीं को बड़ा बना लिया। माइक्रो , मैक्रो समझते हो न? माइक्रो माने?
श्रोतागण: छोटा सा।
आचार्य: और मैक्रो माने?
श्रोतागण: बड़ा।
आचार्य: तो जिसने माइक्रो को मैक्रो बना लिया, उसको संसारी बोलते हैं। जिसके लिए आज का सबसे बड़ा मुद्दा ही यही है कि पजामे में नाड़ा नहीं है, और इस बात से उसकी पूरी दुनिया हिली हुई है। अरे! नाड़ा नहीं है तो मत पहनो पजामा, कुछ और पहन लो। पजामा चीज़ ही ऐसी है कि बिना नाड़े के तो वैसे भी तुम कुछ कर नहीं सकते। पर ये मुद्दा चल रहा है ज़िन्दगी में, पैजामा और नाड़ा। इसको संसारी बोलते हैं। उसके लिए ये सबसे बड़ी बात है।
‘अमेज़न से कुछ मँगाया था, लौटा दिया। अभी तक एक-सौ-अट्ठावन रुपए का रिफ़ंड (धनवापसी) आया नहीं है।’ उस एक-सौ-अट्ठावन रुपए के रिफ़ंड को पाने के लिए वो कुल मिलाकर छः घंटे तक कस्टमर केयर से बात कर चुका है। अट्ठारह बार उसने बात करी है, कुल मिलाकर छः घंटे, एक-सौ-अट्ठावन रुपए के रिफ़ंड के लिए। इसके अलावा बहुत लम्बे-लम्बे उनको कम्प्लेंट्स (शिकायत) लिख चुका है। सब कर चुका है। मैक्रो बात समझ नहीं पा रहा है, एक-सौ-अट्ठावन रुपए और छः घंटे — ये उसको दिखाई नहीं दे रहा। ये इक्वेशन (समीकरण) उसको कभी खुलती ही नहीं। वो सीटीसी देखता है — माइक्रो! उस सीटीसी के लिए जो उसने अपना मैक्रो लॉस (बड़ा नुक़सान) करा है, वो उसको कभी दिखाई नहीं देता।
उसकी ज़िन्दगी कैसी हो गयी, मन कैसा हो गया, वो उसको कभी समझ में नहीं आता। क्योंकि वो टोटल (पूर्ण) को कभी देख नहीं पाता। होलीस्टिक पर्सपेक्टिव (समग्र दृष्टिकोण) उसके पास नहीं होता है। होलनेस (पूर्णता) नाम की कोई चीज़ उसकी ज़िन्दगी में नहीं होती है। उसको बस पार्ट्स दिखायी पड़ते हैं, फ्रेगमेंट्स (टुकड़े-टुकड़े)!
संसार का पूरा ज्ञान लेना ज़रूरी है ताकि पूरी बात समझ पाओ। सड़क में जो कुछ हो रहा है, तुरन्त तुम देख पाओ कि उसका दिल्ली की राजनीति से क्या सम्बन्ध है। गोवा की सड़क पर जो हो रहा है, तुरन्त चमक जाना चाहिए कि ये दिल्ली की राजनीति से सम्बन्धित है। वो बिना पढ़े नहीं होगा। रीडिंग के बिना ये सब चीज़ें नहीं हो पाती हैं।
इसका ये मतलब नहीं है कि तुम्हें ज़िन्दगी भर डॉक्टरी ही करनी है। मैंने जिंदगी भर न कोडिंग करी, न मैं मैनेजर बनकर रहा, न कंसलटेंट (सलाहकार) बनकर रहा, न मैं ब्यूरोक्रेट (अफ़सर) बनकर रहा। ज़िन्दगी भर नहीं कुछ करना है, पर जान तो लो, देख तो लो, कुछ अनुभव तो ले लो, उसके बाद बाहर आ जाना हनुमान जी की तरह।
घुसना है, सब अच्छे से देखना है और बाहर आना है। और बाहर आते वक़्त आग लगा देनी है। लंका है, इसका और करेंगे क्या? बिक थोड़े ही गये हैं कि सोना दिख गया तो बिक गये कि सोने की लंका है। वहाँ हम सोने के लिए नहीं घुसे थे, वहाँ हम राम के लिए घुसे थे जासूस की तरह। सारी ख़बर लेनी तो ज़रूरी थी न कि यहाँ चलता क्या है। सब ले ली ख़बर। अगर पकड़ लिया, तो हम बोले कि पूँछ है हमारे पास, अभी बताते हैं!
ऐसे करना है। घुस जाओ!
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