आचार्य प्रशांत: मैं सवाल को थोड़ा सा पलट देता हूँ। किसी चीज़ का अगर पता ही हो कि खो जाएगी और फिर वह खो जाए, तो ज़्यादा बुरा लगता है या किसी चीज़ के बारे में धारणा हो कि नहीं खोएगी, फिर वह खो जाए तो ज़्यादा बुरा लगता है, बताइए?
श्रोता: धारणा।
आचार्य: जहाँ लगता हो कि नहीं खोएगी और फिर खो जाए, तो ज़्यादा झटका लगता है, न? ज़्यादा बुरा लग जाता है। तो चलिए अब आप बताइए ऐसा क्या है जीवन में जो नहीं खोने वाला? क्योंकि असली ख़तरा वहाँ से है जिसको आप माने बैठे हैं कि नहीं खोने वाला। तभी तो आप प्रश्न पूछ रहे हैं कि किस चीज़ के खो जाने का डर लगता है। जैसे कि कोई विशिष्ट चीज़ हो जो खोएगी और बाक़ी सबकुछ खोने नहीं वाला।
मैंने दस चीज़ें पकड़ रखी हों और फिर मैं किसी से सवाल करूँ कि बताओ मुझे किस चीज़ के खो जाने का डर है? तो बात ज़ाहिर है मैं सोच रहा हूँ कि इस दस में से एक या दो ही खोने वाली हैं और बाक़ी खोने नहीं वाली। है न? मेरा ऐसा ही विचार है, न? तो मैं अपनी दृष्टि से बड़ा उपयोगी प्रश्न पूछ रहा हूँ, मैं कह रहा हूँ, ‘मेरे पास दस चीज़ें हैं, बताइए इसमें से मुझे किस के खो जाने का डर लगता रहता है।'
मैं कह रहा हूँ, ‘तुम्हे जिसके भी खो जाने का डर लगता रहता है, वहाँ पर तुम कम ख़तरे में हो। क्योंकि कम-से-कम तुम्हें पता तो है कि वह चीज़ खो जाने वाली है। ज्यादा ख़तरा तुम्हें वहाँ है जहाँ तुम्हें लगता है कि कोई चीज़ नहीं खोने वाली।' तो मैं तुम्हें आमंत्रित कर रहा हूँ, तुम मुझे बताओ क्या है जो नहीं खोने वाला?
श्रोता: चेतना!
आचार्य: नहीं खोएगी? वह तो रोज़ सोते वक़्त ही खो जाती है। अभी पीछे से एक फणियर आ जाए देखिए, खो जाएगी कि नहीं। (श्रोतागण हँसते हैं)
श्रोता: मेरा होना।
आचार्य: नहीं खोने वाला? उसको तो लेकर सबसे ज़्यादा आशंकित रहते हो। वही फणियर सामने खड़ा हो जाए, तो सबसे पहले होना ही खोएगा। पढ़ी-पढ़ाई बातें मत करो कि मेरा होना नहीं खोने वाला। मेरा होना में, ‘मेरा’ क्या, किस ‘मैं’ की बात कर रहे हो? अपनी दिनचर्या को देखो, तो यह जो देह और मन का तन्त्र है इसी को 'मैं' कहते हो, इसी की ख़ातिर चौबीस घंटे लगे रहते हो। तुम ईमानदारी से कह रहे हो कि यह 'मैं' कभी नहीं खोने वाला? यह 'मैं' तो बहुत ही दुर्बल है। यह तो सहारे पर टिका हुआ है। इसकी जान कभी भी जा सकती है, वेंटिलेटर पर है यह।
यह कैसे नहीं खोने वाला? इसकी तो रक्षा करना छोड़ दो, अभी खो जाए। इसी की रक्षा की ख़ातिर तो रोज़ इतनी मेहनत करते हो और कह रहे हो यह कभी नहीं खोने वाला। यह कैसी बात है?
कुछ है जो कभी नहीं खोने वाला?
अभी हम यह देख ही नहीं रहे कि क्या है जो खो जाएगा? हम क्या देख रहे हैं? कि ऐसा कुछ भी है क्या जो कभी नहीं खोने वाला? इसको — मैंने पहले कहा था कि आमंत्रित कर रहा हूँ खोजने को — अब चुनौती दे रहा हूँ। चलो, कुछ खोजकर दिखाओ जो तुम्हारे पास है और कभी खोने नहीं वाला। फिर हम इस सवाल पर भी आ जाएँगे कि क्या खोने का डर लगा रहता है। क्या पता फिर वो सवाल बचे ही न।
श्रोता: आत्मा खोने वाली नहीं है, लेकिन पता नहीं चलता।
आचार्य: जब पता ही नहीं है, तो है कहाँ आपकी वो?
श्रोता: मेरी चेतना।
आचार्य: अभी तो बात हुई थी, सुनिए तो सही। सुबह कितने बजे उठे थे?
श्रोता: साढ़े पाँच बजे।
आचार्य: साढ़े पाँच बजे चेतना कहाँ थी? (दोहराते हुए) साढ़े पाँच बजे कहाँ थी? उस वक़्त कोई बोलता डॉक्टर सत्यम पटेल, तो चेतना कोई जवाब देती आपका? तब कहाँ थी चेतना? वह तो रोज़ आती है, जाती है। और मैं तो फिर भी चेतना के स्थूल परिवर्तन की बात कर रहा हूँ कि जागृति नींद में बदल गयी। जब आप जगे हुए भी हो, तो भी चेतना प्रतिपल रंग बदल रही है। और आप कह रहे हैं, ‘चेतना खोने नही वाली।’ बताओ तो कुछ है ऐसा जो न खोए? कुछ तो ऐसा बता दो जिसका भरोसा कर सको।
श्रोता: देखने वाला।
आचार्य: वो साढ़े पाँच बजे कहाँ था सुबह? यह सारी किताबी बातें एक खरे सवाल के आगे नहीं टिक पातीं — 'दृष्टा कभी नहीं खोएगा। किसी किताब में पढ़ लिया, कहीं गुरु जी ने बता दिया कि तुम दृष्टा मात्र हो, साक्षी मात्र हो और वह अमर होता है, वह कभी नहीं खोता। नींद में कौन-कौन दृष्टा होता है, भाई! ख़तरनाक लोग हैं, क्या पता नींद में भी देख रहे हों। (श्रोतागण हँसते हैं)
कैसी बातें कर रहे हैं? अण्डबण्ड पढ़ लेने का यही परिणाम होता है कि जो सम्मुख व्यावहारिक बात होती है आदमी फिर उससे भी छूट जाता है। कम-से-कम कोई ऐसा आदमी जो अध्यात्म में दीक्षित नहीं है, यह तो नहीं बोलेगा कि मैं सदा दृष्टा रहता हूँ; बच्चा भी नहीं बोलेगा। बच्चे को भी पता है कि मैं जिसको दृष्टा भाव कहता हूँ वो तो आनी-जानी चीज़ है। यह तो छोड़ ही दो कि वो रात में होती है। कोई बैठा है यहाँ पर जो पलक न झपकाए। जब पलक झपकाते हो तो दृष्टा कहाँ चला जाता है और तुम्हारे पास कोई दृष्टि है जो आँखों के अतिरिक्त हो?
तुम्हारी तो सारी दृष्टि आँखों से ही है और पलक झपकी नहीं कि आँख गयी। तो तुम्हारा दृष्टा तो हर मिनट दो बार विलुप्त होता है। और यह बात बच्चा भी जानता है। पर पढ़-लिख जाओ तो यह बात भूल जाती है। क्योंकि गुरु जी बता गये हैं, ‘दृष्टा अमर है।' तो हम दृष्टा हैं और हम अमर हैं। ठीक? कभी पूछा भी तो होता गुरु जी से कि गुरुजी दृष्टा माने क्या और कैसे अमर है और कौन है वो दृष्टा। कुछ ऐसा तो बताइए जो ज़रा ज़मीन का हो या सब हवाई बातें ही होंगी।
बताओ कुछ है तुम्हारे पास जो नहीं खोएगा? कुछ है? (एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए) यह दुपट्टा? वो पीछे जो काला-काला पर्स? इनका है? यह चश्मा? यादें, संगी-साथी, घड़ी, चश्मा, घर, सम्मान कुछ है जो नहीं खोएगा? खोज के निकालो, क्या पता कुछ मिल जाए ऐसा जो न खोता हो।
श्रोता: सब कहते हैं कि हमने पूर्व जन्मों में जो साधना की है वह हमेशा हमारे साथ होगी, क्या ऐसा सम्भव है?
आचार्य: कल रात में क्या खाया था?
श्रोता: दाल-चावल।
आचार्य: कितने चावल खाये थे? कितने? (श्रोतागण हँसते हुए) कल रात का पता नहीं पूर्व जन्म का काम आएगा? कल रात का पता नहीं पूर्व जन्म इतना महत्वपूर्ण हो गया? कर्मफल होते हैं। कोई कर्ता बना रहे, तो उसके लिए कर्मफल होते हैं; वो भी कट जाते हैं। न कर्ता अमर है, न कर्मफल अमर है; दोनो को मिट जाना है, खो जाना है। मुझे बताओ कुछ ऐसा जो नहीं खोएगा।
श्रोता: हार गये। (सभी हँसते हुए)
आचार्य: तो यह तो अजीब बात है! जिसका सब कुछ खो जाने के लिए तैयार खड़ा है — प्रतिपल खो ही रहा है — वह मुझसे पूछ रहा है बताओ, मुझे क्या खो जाने का डर है? मैं पलट कर तुमसे पूछ रहा हूँ, ‘बताओ तुम्हें क्या बचा लेने का भरोसा है?' खो लेने का डर तो तभी होता है जब पहले कुछ बचा लेने का भरोसा हो। तो तुम मुझे बताओ तुम्हें क्या बचा लेने का भरोसा है?
श्रोता: कुछ नहीं।
आचार्य: कुछ नहीं, तो फिर खो जाने का डर कैसे हो सकता है? जब सबकुछ ही बिना अपवाद के खो ही जाना है, तो फिर कुछ खो जाने का डर कैसे हो सकता है तुमको? कुछ खो जाने की बात तो, मैं दोहरा रहा हूँ, वही करेगा जिसे बहुत कुछ बचा लेने का भरोसा हो। तुम्हें क्या बचा लेने का भरोसा है? सबकुछ तो खो जाने के लिए तैयार खड़ा है; खो ही रहा है। मुक्त हो तुम, इसी को मुक्ति कहते हैं। एक बार तय हो गया कि सब खोना है, कुछ बचाया जा नहीं सकता; तुम मुक्त हो गये हो, अब कोई झंझट बचा नहीं।
निश्चित रूप से डर से पहले झूठा भरोसा आता है। खो जाने के डर से पहले आता है बचा लेने का झूठा भरोसा, उस झूठे भरोसे की बात करो। किन झूठे भरोसों में जी रहे हो? जिन्हें भी डर सताते हों वो डर से हटें, अपने झूठे भरोसों पर ध्यान दें। बहुत सारे झूठे भरोसे हैं। फिर डरे-डरे रहोगे, सख़्त रहोगे, अकड़े हुए रहोगे, तने हुए रहोगे। और अगर कोई तना-तना खड़ा रह जाए, तो पीठ में दर्द हो जाता है। है न?
देखा है, लोच नहीं रह जाती। जीवन में तनाव का और कोई कारण हो नहीं सकता। निश्चित ही तुमने अपनेआप को समझा लिया है कि तुम्हारे पास कुछ है जो छूटेगा नहीं। और उसी भरोसे से प्रेरित होकर तुम कह रहे हो कि अगर मैं कुछ चीज़ें बचा सकता हूँ, तो बाक़ी चीज़ें भी बचा ही लूँगा। एक-आध-दो चीज़ें तुम्हें अभी समझ में आ रही हैं कि नहीं बचेंगी, उनको लेकर तनावग्रस्त हो जाते हो।
भाई! ऐसा नहीं है कि एक-आध-दो चीज़ें ही नहीं बचेंगी; कुछ नहीं है तुम्हारा। ध्यान से देख लो, बिलकुल नरम पड़ जाओगे, पानी की तरह बहोगे, हल्के हो जाओगे। नहीं तो बहुत तनाव रहेगा। मुट्ठियाँ भिंची हुई रहेंगी। जबड़े कसे हुए रहेंगे। जैसे, किसी युद्धरत आदमी के होते हैं, न! जब आप युद्ध में होते हो, तो अपनी हालत देखी है कैसी होती है? कैसी होती है? क्योंकि आप बचाने की कोशिश कर रहे हो, आप कुछ पाने की कोशिश कर रहे हो। और जो युद्ध में नहीं है वो हल्का है, उसे न कुछ बचाना है, न पाना है।
वो कहेगा, ‘जो होना है वह तो समझ में आ ही गया।’ वो मौज में रहता है। नहीं तो पूरा तन्त्र एक गहरे तनाव में जीता है। जिसको लगता हो कि उसका कुछ छीना जा रहा है या जिसको लगता हो कि वो कुछ प्राप्त कर सकता है, उसे चिन्तित होना ही पड़ेगा। तुम्हारी भी चिन्ता का, तनाव का, और सख़्ती का और कोई कारण नहीं, यही है। कहीं पर झूठा भरोसा बैठा लिया है।
और झूठे भरोसों पर अहन्ता को बड़ा पोषण मिलता है। क्योंकि वो ख़ुद झूठी है। झूठे के घर झूठा आया। भीतर जो झूठा बैठा है, उसको बचाये रखने के लिए, उसका पोषण करने के लिए हमें बाहर बड़े झूठ तैयार करने पड़ते हैं। फिर हमें तक़लीफ झूठ से नहीं होती, क्योंकि झूठ का पोषण करने के लिए तो झूठ चाहिए। फिर तो झूठ प्यारा लगता है, क्योंकि झूठ पोषण दे रहा है। फिर हमें तक़लीफ होती है सच से। इसीलिए हमें मौत इतना सताती है। क्योंकि झूठा भरोसा है कि जो जैसा है वैसा ही चलेगा।
तो फिर जब तथ्य सामने आता है, तो हम चित्कार करते हैं, सिहर जाते हैं, पागल हो जाते हैं। कुछ भी छीनना, कोई भी मृत्यु तुम्हें क्यों सताती अगर पहले तुम्हें भरोसा न होता कि यह जो है जगत सारा चिर है, अमर है। डर से, कष्ट से पहले आते हैं झूठे भरोसे, धारणाएँ, मिथ्याज्ञान। कहीं पढ़ लिया कि आत्मा अमर है और सोचने लग गये कि मैं अमर हूँ। या सोचने लग गये, मुझसे सम्बन्धित कुछ है जो अमर है। नहीं, तुम से सम्बन्धित कुछ नहीं जो अमर है।
मिट्टी से उठे थे तुम, मिट्टी हो जाना है तुम्हें। तुम, तुम्हारा सम्मान, तुम्हारी मान-मर्यादा, तुम्हारे रिश्ते-नाते, तुम्हारी इच्छाएँ, तुम्हारे विचार, तुम्हारा ज्ञान, तुम्हारी शान सब मिट्टी है। और जो अमर है, वो तुमसे सम्बन्धित नहीं है; वो आसमान है तुम्हारा। ज़मीन पर मौतें होती रहती हैं। ज़मीन पर जन्म होते रहते हैं। आसमान को कोई फ़र्क नहीं पड़ता न; वो अमर है। यह मत समझ लेना कि तुम्हारा कुछ अमर है। यह मत कह देना मेरी आत्मा अमर है।
मेरी आत्मा जैसा कुछ होता नहीं, ठीक वैसे जैसे, मेरे आसमान जैसा कुछ होता नहीं। आसमान किसी का होता है? जैसे आसमान किसी का नहीं होता वैसे आत्मा किसी की नहीं होती। पर लोग बात करेंगे, ‘मेरी आत्मा, फ़लाने की आत्मा इत्यादि-इत्यादि।’ इन्हीं सब मिथ्या धारणाओं पर चलने का अंजाम होता है एक तनावग्रस्त जीवन, एक डरा और सहमा हुआ जीवन।
जो जाता हो उसको गया मान लो। फिर देखो कैसी मौज आती है। उधार की चीज़ें हैं, कुछ दिन को मिल गयीं, मौज मना लो। जब कोई लेने आये, तो बुरा क्या मानना। जितना भी कुछ मिला है वो बोनस है। उधार की चीज़ थी, देने वाला आज भी ले जा सकता था; आज नहीं ले गया, पाँच दिन बाद ले गया, तो यह पाँच दिन क्या थे? बोनस। क्योंकि ले तो वो आज भी जा सकता था। संयोग की बात है आज नहीं ले गया। पाँच दिन बाद ले गया, तो इन पाँच दिनों का तो हम उत्सव मनाएँगे न! या पाँच दिन बाद रोयेंगे कि क्यों ले गया?
मज़े की बात तो यह है कि वो आज ही नहीं ले गया। किसी की चीज़ है तुम्हारे पास पड़ी हुई है, वो कभी भी आ सकता है न वापस माँगने? जब तक नहीं आ रहा वापस माँगने, मौज मना लो। जब वापस माँगने आये, तो हाथ जोड़कर साभार उसको लौटा दो। अब बताओ क्या खोने का डर है? ज़रूर चोरी करना चाहते हो। चीज़ ली है उधार में, पर नीयत बदल गयी है। चाह रहे हो कि माँगने वाला कभी माँगने न आये वापस, वस्तु लौटानी न पड़े।
क्यों न लौटानी पड़े? जिसमें इतनी ताक़त है कि दे सकता है, तुम्हें क्या लगता है, लेने के समय वो निर्बल हो जाएगा? जिसमें इतनी ताक़त है कि दे गया, निश्चित ही उसमें इतनी भी ताक़त है कि तुम कितना भी बचाओ, वो छीन भी ले जाएगा वापस। पर हमारा हिसाब बड़ा उल्टा है। जन्म हम चाहते हैं; मृत्यु नहीं। जन्म तुम्हारे चाहने से हुआ था? उसकी मौज थी तुम्हारा जन्म हो गया। उसकी मौज होगी, तो तुम्हें वापस भी खींच लेगा। बोलो?
तो जहाँ तक शारीरिक जन्म और मृत्यु की बात है, इसमें तुम अफ़सोस किस बात का कर रहे हो? तुम्हारी अपनी निजी कोई चीज़ होती और तुमसे कोई छीन ले जाता, तो तुम्हें हक़ भी था शिकायत करने का। जो चीज़ मिली ही तुम्हें अनुग्रहवश है या यह कह लो कि संयोगवश है, वो कोई अगर वापस ले जा रहा है, तो तुम होते कौन हो शिकायत करने वाले, बताओ मुझे?
और तुम्हारे पास क्या है जो तुम्हें संयोगवश नहीं मिला, दूसरी चुनौती। तुम्हारे पास कुछ भी ऐसा है जो तुम्हें संयोग के अलावा किसी भी और माध्यम से मिला हो? हाँ, तुम्हें कई बार भ्रम होता है कि तुमने अर्जित किया है। पर ग़ौर से देखना, यह कमाना, यह अर्जित करना, यह पात्रता सब फ़िज़ूल की बातें हैं। अगर ईमानदारी से देखोगे, तो यही पाओगे कि जो मिला है उसके मूल में संयोगमात्र बैठा है।
जिसने संयोग से दे दिया, वही संयोग से छीन भी लेगा। तुम क्यों परेशान हो रहे हो? तुम्हारी हक़दारी कहाँ से आ गयी? चीज़ तुम्हारी है कहाँ कि तुमसे छिनेगी। यह एक दृष्टि होती है, यह एक तरीक़ा होता है, एक एटीट्यूड होता है अपनेआप को देखने का, अपने से सम्बन्धित संसार को, वस्तुओं को, रिश्तों को देखने का। सदा सतर्क रहना होता है। भीतर का चोर तो लालायित है ये कह देने के लिए कि उधार की चीज़ उधार की नहीं है; अपनी है।
तो भीतर का चोर बार-बार सिर उठाएगा, वो तुम्हें यही कहेगा, ‘अरे! अपना माल है, लौटाना नहीं है।’ पराये माल को अपना मत बोलो! और तुम्हारा जो कुछ भी है वो पराया माल ही है। नीयत खोटी मत करो! पराया माल है, तुम्हारे पास है।
बात समझ में आ रही है?
अब आगे बढ़ो इस पर। बच्चे का पैदा होना ही एक झूठे भरोसे के साथ होता है। मैं माँ-बाप की बात नहीं कर रहा कि उन्हें झूठा भरोसा होता है। मैं कह रहा हूँ, ‘बच्चा जहाँ पैदा हुआ तहाँ उसे एक झूठा भरोसा आ ही जाता है।’ क्या? जो कुछ है वो मेरा है। मुझसे सम्बन्धित जो कुछ है वो मेरा है। जब कुछ तुम्हारा होता है, तो उसकी देखभाल की ज़िम्मेदारी भी तुम्हारी। जब तुम ही अपने होते हो, तो स्वयं की रक्षा की ज़िम्मेदारी भी तुम्हारी — इसी को कहते हैं कर्ताभाव। क्या कहते हैं इसको?
श्रोतागण: कर्ताभाव।
आचार्य: कर्ताभाव। तो जो बच्चा पैदा हुआ है, भले वो एक घण्टे का हो, तब भी उसमें कर्ताभाव होता ही होता है। तो हम पैदा ही बड़े झूठे भरोसे के साथ हो जाते हैं। हमें लगता है कि हम अपने भरोसे हैं। छोटा बच्चा होता है, लोग कहते है कि वो माँ के भरोसे होता है। नहीं। तुम उसकी भावना को देखो, वो भी यही सोच रहा है, ‘मैं अपने भरोसे हूँ।’ अगर वो ये सोचता कि माँ के भरोसे हूँ, तो शोर क्यों मचाता? पर देखा है कितना शोर मचाता है? वास्तव में उसे माँ से भी ज़्यादा भरोसा अपने ऊपर है।
हम पैदा ही ऐसे होते हैं। (दोहराते हुए) पैदा ही ऐसे होते हैं। तो ये जो चीज़ मिली है हमें कुछ दिन के लिए; उस चीज़ का मिलना ही हमें इस भरोसे के साथ आता है कि वो चीज़ हमारी है। समझो! सर्वप्रथम तुम्हें क्या मिला है? कुछ भी और मिला हो, कपड़े मिले हों, उससे पहले तुम्हें क्या मिली है?
श्रोता: देह।
आचार्य: देह। संसार मिला हो उससे पहले क्या मिला है? शरीर, स्वयं का भाव। स्वयं का भाव होता है तभी तो संसार दिखायी देता है, न। तो तुम्हें और कुछ भी बाद में मिला है। सर्वप्रथम ये भाव मिला है कि ये चीज़ मेरी है। ये चीज़ है कुछ दिनों की, इसीलिए जानने वाले समझा गये हैं कि जितने दिन ये चीज़ है तुम्हारे पास, उतने दिनों का उपयोग इसी भाव से मुक्त होने में कर लो कि ये चीज़ तुम्हारी है।
थोड़ी देर पहले हमने कहा कि अगर उधार की चीज़ तुम्हारे पास पाँच दिन टिक गयी है, तो उन पाँच दिनों में क्या कर लो? मौज मना लो, उत्सव मना लो। अब हम उस बात को और परिष्कृत कर रहे हैं। हम उस मौज का, उस उत्सव का वास्तविक अर्थ समझना चाहते हैं। अगर ये चीज़ पाँच दिन के लिए मिली है तुम्हें और किसी भी क्षण जा सकती है, तो उत्सव मनाने का वास्तविक तरीक़ा है कि उन पाँच दिनों में तुम इस भावना से मुक्त हो जाओ कि ये चीज़ तुम्हारी है।
शरीरधारी होने का सम्यक उपयोग यही है कि तुम शरीरभाव से मुक्त हो जाओ। इससे तुम्हे फिर यह भी समझ में आ गया होगा कि जीवन का प्रयोजन क्या है। जीवन का उद्देश्य है मुक्ति। क्योंकि जीवन की शुरुआत ही होती है बन्धन में। क्या होता है हमारा प्रथम बन्धन? शरीर तो होता है; शरीर बन्धन नहीं होता, शरीर तो होता है। यह भी शरीर है। यह शरीर नहीं है? यह भी शरीर है। ये सब शरीर ही शरीर हैं।
बन्धन क्या होता है? कि यह शरीर मेरा है। शरीर का होना बन्धन नहीं होता। सन्त भी तो शरीर रखकर चलते हैं। पर बँधे नहीं होते उससे। शरीर है इसमें कोई बुराई नहीं। शरीर है। बन्धन है यह धारणा रखना कि शरीर…?
श्रोता: मेरा है।
आचार्य: मेरा है। तो इस धारणा के साथ हमने कहा कि बच्चा भी पैदा होता है। तो अब हम कह रहे हैं कि अगर पाँच दिनों का शरीर है, तो उन पाँच दिनों का उपयोग यही है कि इस बन्धन से, इस धारणा से आज़ाद हो जाओ कि कुछ भी तुम्हारा है। लोग बात करते हैं सत्य के अनुसन्धान की। लोग बात करते हैं आत्मा की साधना की। सत्य का कोई अनुसन्धान नहीं हो सकता। तुम बस यह कर सकते हो कि अपने मौलिक झूठ से आज़ाद हो जाओ। और तुम्हारा मौलिक झूठ यही है, यह मेरा है। पाँच दिन के जीवन का उचित उपयोग यही है कि तुम अपने झूठे भरोसों से मुक्त हो जाओ।
आ रही है बात समझ में?
हम लगातार झूठे भरोसों में जी रहे हैं। जिस भी चीज़ पर भरोसा करते हो, उसकी जाँच-पड़ताल करो, यही धर्म है तुम्हारा — निरन्तर जिज्ञासा, निरन्तर अनुसन्धान, अन्वेषण; धर्म और कोई चीज़ नहीं होती। किसी बात पर यूँही यक़ीन कर लेना धर्म नहीं कहलाता। धर्म आस्था नहीं है, धर्म विश्वास नहीं है। धर्म सर्वप्रथम ईमानदार जिज्ञासा है। और रोने को तुम रो किसी भी बात पर सकते हो, धारणा बैठाने की देर है।
आसमान के बादल देख रहे हो? यही आधे घण्टे लेट जाओ आसमान की ओर मुँह करके और अपनेआप को यक़ीन दिला दो कि वो बादल मेरे हैं। थोड़ी देर में जब बादल छँट जाएँगे, तो तुम बरसने लगोगे। ‘हाय! मेरा बादल मुझसे छूट गया, बिछुड़ गया।’ वो तुम्हारा था कहाँ जो छूट गया, बिछुड़ गया, काहे रोते हो? लेकिन आदमी का ऐसा है कि वो जिस भी चीज़ पर यक़ीन बिठाना चाहे, बिठा सकता है। तुम कोशिश करके देख लो।
अभी प्रयोग कर लेना। घास हरी है, लेट जाओ आसमान की ओर मुँह करो और अपने-अपने बादल चुन लो। नाम भी दे लो उनको मिट्ठू, कुक्कू। और फिर देखना जब बादल छँटते हैं, तो कैसी बरसात होती है! वो ऊपर से नहीं, नीचे से ही बरस रहा होगा। नीयत में खोट न हो, तो दुख नहीं मिल सकता। पराया माल हड़पने की नीयत ही तुम्हें दुख देती है। (मुस्कुराते हैं) सब माल पराया है। हड़पने की कोशिश मत करो!
और अजीब लोग हैं हम। जैसे, कोई बच्चा हो वो किसी दूसरे का माल लेने जाए। वो गया दूसरे बच्चे की गेंद छीनने और छीन नहीं पाया, तो आकर ज़ोरा-ज़ोरा से पाँव पटक रहा है और रो रहा है। और शिकायत क्या कर रहा है? ‘मैं दूसरे की गेंद नहीं छीन पाया।' इसी को कहते हैं, ‘एक तो चोरी ऊपर से सीना जोरी है।’ अधिकांश दुखी लोग ऐसे ही होते हैं। वो ऐसी चीज़ के खोने का दुख मना रहे हैं और शिकायत कर रहे हैं जो चीज़ उनकी थी ही नहीं।
जैसे कोई डकैत मिले बहुत अफ़सोस मनाता हुआ और अफ़सोस क्या है उसको? आज डकैती असफल रही। और डकैत की डकैती असफल रहेगी, तो उसे अफ़सोस तो होगा न। ऐसे ही हम हैं। नीयत साफ़ रखो दुख से बचे रहोगे। पराये माल का लालच करते-करते और पराये माल की ही रक्षा करने में जीवन सारा व्यर्थ हो जाता है। ऊर्जा सारी बह जाती है। और जो सार्थक काम हो सकता था वो नहीं हो पाता। यह जीवन का अपव्यय हो गया कि नहीं, बोलो?
थोड़ी देर पहले हमने बात करी थी कि जीवन का एकमात्र सम्यक उद्देश्य क्या हो सकता है? अभी करी न! अब अगर ग़लत उद्देश्य में ही तुमने जीवन के यह चन्द साल गुज़ार दिये, तो जो असली काम था ज़िन्दगी का, वो क्या हो पाएगा? लो! लगे रह गये पराये माल को बचाने में — कभी जानकर, कभी अनजाने में — और जो अपना काम था उस पर ध्यान ही नहीं गया; हो गयी न गड़बड़!
जैसे, डॉक्टर साहब एमबीबीएस एंट्रेंस का एग्ज़ाम (प्रवेश परीक्षा) देने गये हों। आप शरीर वाले ही डॉक्टर हैं न या पीएचडी हैं? (श्रोता चिकित्सक से पूछते हुए) कौनसी वाली?
श्रोता: ऑर्थोपेडिक। (हड्डी रोग विशेषज्ञ)
आचार्य: अच्छा, ऑर्थोपेडिक सर्जन हैं। तो एमबीबीएस एंट्रेंस दिया है। गये हैं एमबीबीएस एंट्रेंस देने — प्रतियोगी परीक्षा होती है भाई दाखिले के लिए — और अपनी जगह दूसरे का पर्चा भरकर आ गये। पराया काम कर आये अपना काम छूट गया। अब दाखिला भी किसको मिलेगा? कम-से-कम आपको तो नहीं मिलेगा। अपनी शीट भरनी होती है; दूसरे की नहीं। अब आप बताइए अपनी ज़िन्दगी को देखकर आप किसका काम कर रहे हैं। जो काम कर रहे हैं क्या वो वास्तव में आपका है? अगर आपका काम होगा, तो उसकी निशानी यह होगी कि आपको डर नहीं लग सकता। और अगर आपको डर लगता है, तो इसका मतलब आप पराया काम करें जा रहे हैं।
तो डर बड़ी शुभ बात है। डर आपको सूचना दे देता है कि कुछ गड़बड़ है। जो लोग डर में जीते हों, जिन्हें बार-बार शक, सन्देह, भय उठता हो वो साफ़ समझ लें कि कोई उनकी मदद करने के लिए उनको सूचना दे रहा है कि कुछ गड़बड़ है; वरना डर नहीं लग सकता था। आदमी का स्वभाव नहीं है डर; आदमी की बीमारी है डर।
प्र: आचार्य जी, वास्तव में वो गड़बड़ कहाँ है? बाहर या अन्दर?
आचार्य: सब अन्दर ही होता है। बाहर तो कुछ है ही नहीं। जो बाहर भी प्रतीत होता है वो है कहाँ। कल हम उस गुण्डे की बात कर रहे थे। हमने कहा कि उसने आँखों पर कब्ज़ा कर रखा है और बाहर क्या है यह कौन बताता है? आँखे। तो बाहर कुछ होता नहीं। बाहर आपको जो भी प्रतीत होता है वो भीतर का ही प्रतिबिम्ब होता है, भीतर द्वारा ही प्रक्षेपित होता है; बाहर कुछ नहीं है। इसीलिए चूँकि हम सबके अन्तर्जगत अलग-अलग होते हैं, तो हमारे बहिर्जगत भी अलग-अलग होते हैं।
यह दुनिया इस वक्त जैसी इनको दिख रही है वैसी इनको नहीं दिख रही, क्योंकि भीतर से अलग है, तो इसीलिए बाहर भी सब अलग ही दिखता है। तो ये कभी न कहिएगा कि बाहर क्या है। बाहर जो है वो भीतर की छाया मात्र है। शुरू में बुरा लगता है इस बात से रुबरु होना कि ये सब छिन जाएगा, थोड़ा झटका सा लगता है; किसी को भी लगेगा। क्योंकि इस देह की वृत्ति होती है, क्या कर लेना?
श्रोता: पकड़ लेना।
आचार्य: पकड़ लेना। बच्चा होता है छोटा सा। दस दिन का बच्चा होगा। ऐसे उँगली उसके करीब ले जाओ, तुरन्त क्या करता है?
श्रोता: वह उँगली पकड़ लेगा और मज़बूती से; छोड़ेगा नहीं।
आचार्य: हम ऐसे पैदा होते हैं। अब जितनी बड़ी आपकी उँगली है, उतनी बड़ी कुल उसकी हथेली होती है। पर वो जान पूरी लगाकर उँगली ऐसे पकड़ लेगा। तो हम पैदा ही होते हैं पकड़ने को तैयार। चूँकि मूल वृत्ति ही देह की होती है पकड़ने को आतुर, तो इसीलिए जब हम इस बात से रुबरु होते हैं कि ये सब कुछ जा रहा है, जाएगा, पहले भी गया है, आगे भी जाता रहेगा, ठीक अभी भी जा ही रहा है, तो कैसा लगता है? बुरा लगता है। कोई बात नहीं! अपने पर भरोसा रखो! यह सब अच्छा-बुरा लगना झेल जाओगे। कोई बड़ी बात नहीं झेल जाना।
अभी से तैयार हो। प्रतिपल देखते ही रहो, तैयारी की भी बात नहीं है। प्रतिपल देखते ही रहो कि ये सब कुछ तो समय की धारा में बहता ही जा रहा है। अभी जहाँ तुम बैठे हो थोड़ी देर पहले यहाँ मोर बैठे थे। सुबह मैं यहाँ खड़े होकर देख रहा था। दो मोर, तीन मोर, एक-आध मोरनी, वो कहाँ गये? बताओ कहाँ हैं? मुझे बताओ वो कहाँ हैं? और उससे भी थोड़ी देर पहले ये किला ही नहीं था यहाँ पर, और उससे भी थोड़ी देर पहले यहाँ पाँच लाशें बिछी हुई थीं।
इतना पुराना है यह ब्रह्मांड, इतनी पुरानी है यह धरती कि धरती का रंचमात्र भी स्थान नहीं है जहाँ पर कभी कोई लाश न गिरी हो। कभी यहाँ पर लाशें बिछी हुई थीं; आदमियों की नहीं तो जानवरों की। कभी यहाँ पर किसी ने बहुत हर्ष पाया था, कभी किसी को बहुत अमर्ष हुआ था, कभी यहाँ पर किसी जोड़े ने प्रेम मनाया था, कभी यहाँ कोई किसी से बिछड़ा था; ठीक उस जगह जहाँ तुम बैठे हो।
कहाँ गया वो सब बताओ? बोलो? हवा है, बह रही है। बह रही है जब तक बहे तब तक ठीक, बढ़िया! यह थोड़ी कहोगे कि बहती रहे, ऐसे बहती रहे। कभी इधर को बहती है, कभी उधर को बहती है; बह जाती है। या रुकती है क्या, बोलो? आयी, बही, कभी सुकून दिया, कभी परेशान किया, लेकिन एक बात पक्की है।
श्रोता: बह गयी।
आचार्य: बह गयी। चलो एक और चुनौती, हवा पकड़कर दिखाओ। अभी बह रही है अभी मौका है, पकड़ लो। अरे! यार, जब तक पकड़ने की बात करी, तो रुक गयी। यह भी सुन रही है।
कल आप पूछ रहे थे पैसिव (निष्क्रिय) जीवन के बारे में। सबसे पहले जो हानिप्रद तरीक़े की सक्रियता है, एक्टिविटी है, उस पर नज़र डालें। क्योंकि पैसिव तो हम है ही नहीं, पैसिव माने अक्रिय। पैसिव तो हम है ही नहीं। हम तो निरन्तर क्या हैं? सक्रिय हैं, न। तो हम पहले अपनी सक्रियता पर नज़र डालें या दूर की किसी धारणा जिसका नाम है पैसिविटी अक्रियता, निष्क्रियता उसकी बात करें?
कहिए, बोलिए! आपके पास कोई मरीज़ आता है आप उसकी बीमारी को देखते हो या उसे स्वास्थ्य के गीत सुनाते हो, बताइए? चिकित्सक होने के नाते आप क्या करते हो? आपका सारा ध्यान किस पर जाता है? जहाँ वो स्वस्थ है वहाँ पर जाता है या जहाँ वो बीमार है वहाँ पर जाता है? जहाँ वो बीमार है। हमारी क्रियाएँ, हमारी बीमारी है; पहले उनकी बात करें। और जीवन हमारा लगातार सक्रियता में ही बीत रहा है, न?
आपको निष्क्रियता के पल मिलते भी हैं क्या? कभी ऐसा होता है कि आप ठहर ही गये, रुक भी गये? कभी अगर ऐसा होता हो तो अनुकम्पा है उसकी। अन्यथा वैसा होता नहीं होगा। आप लगातार कर्मरत हैं; हम सभी। बोलिए ऐसा है कि नहीं? और यदि हाथ-पाँव नहीं चल रहें होते, तो क्या चल रहा होता है?
श्रोतागण: दिमाग़।
आचार्य: यह भेजा चल रहा होता है। चल रहा होता है, न? तो हम ठहरने की बात करें या यह देखें कि हम भगे किस दिशा में जा रहे हैं, बताइए? ठहरना तो हमारे लिए सिर्फ़ एक सिद्धान्त है, एक कांसेप्ट है। है, न? ठहरे तो कभी हम है ही नहीं। ठहरने का तो हम स्वाद ही नहीं जानते। तो हम ईमानदारी से उसकी बात करेंगे न जो हमारी वर्तमान स्थिति है। और हमारी अभी वर्तमान स्थिति क्या है? दौड़। सोद्देश्य दौड़ नहीं, लक्ष्ययुक्त दौड़ नहीं; अन्धी दौड़, बहकी हुई दौड़ — रेंडम , हॉफहेज़ार्ड , ब्राउनियन मूवमेंट।
इधर को चले इससे टकराये; तो इधर को मुड़ गये, इधर को चले इससे टकराये; तो इधर को मुड़ गये, इधर को आए इससे टकराये; तो इधर को मुड़ गये — चल बहुत रहे हैं पहुँचते कहीं नहीं। तो हम अपनी गति की बात करेंगे। हमारी गति अन्धी है, हमारी गति के मूल में एक झूठ है।
और अपनेआप को दोष मत दीजिए। वो झूठ आपने जानबूझकर नहीं पकड़ा। कल आप कांशियस-अनकांशियस (चेतन-अचेतन) इत्यादि कह रहे थे, वो झूठ आपके गहरे अनकांशियस में बैठा हुआ है। मैं आपको कह रहा हूँ कि वो झूठ आपकी मूल वृत्ति है। याद है न वो बच्चा जो उँगली पकड़ता है? उसको किसी ने सिखाया नहीं उँगली पकड़ना। तो अपनेआप को दोष मत दीजिए कि मैं क्यों पकड़ता हूँ। पैदा हुए हैं तो पकड़ेंगे।
हम पैदा ही ऐसे होते हैं। पैदा हुए हैं, तो पकड़ेंगे। तो ग्लानी मत धारण करिएगा; वैसे ही बहुत धारण कर रखा है। कि सत्र से उठकर के बड़ी ग्लानी हो गयी कि अरे! मैं तो चोर हूँ, अरे! मैं तो झूठा हूँ, अरे! मैं तो पराया माल हड़पना चाहता हूँ, अरे! मेरी तो नीयत में खोट है — दस बातें अपने बारे में और तैयार कर लीं।
पैदा ही ग़लत हुए हैं — मैनुफेक्चरिंग डिफेक्ट (निर्माणगत कमी) है। और कुछ हुए हैं जानने वाले, जो कहते हैं, ‘ग़लत ही पैदा होता है।’ मैं कह रहा हूँ, ‘पैदा ही ग़लत हुए हैं।' उन्होंने ज़रा और आगे की बात कह दी, वो कहते हैं, ‘ग़लत ही पैदा होता है। जो सही होता है वो पैदा ही नहीं होता।’
“बुल्ले शाह नी जात की पुछनी, ना पैदा, ना पैद”। जो सही होगा वो कभी पैदा नहीं होगा, जो ग़लत होगा वही पैदा होगा। सही का न जन्म है न मृत्यु है। “बुल्ले शाह दी जात की पुछनी, ना पैदा ना पैद”।
काहे को पैदा हुए, तुम्हारी कोई ग़लती है? सीधे जवाब दो — हमसे क्यों पूछ रहे हो, हमारी क्या ग़लती! वास्तव में तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है। कम-से-कम चैतन्य तल पर तुमने निर्णय नहीं किया था कि तुम पैदा होगे। हाँ, कोई बहुत-बहुत गहरा अवचेतन हो, तो अलग बात है। पर वो जो बहुत गहरा अँधेरा होता है मन का, वो व्यक्तिगत नहीं होता, वो तुम्हारा नहीं है; वो साझा है।
तो तुम यह नहीं कह सकते कि वह तुम्हारा निजी अँधेरा है। अगर निजी होता, तो तुम्हारा दोष होता। वो सबका है। अँधेरे के उस तल पर हम सब एक हैं। जैसे हम सब कहते हैं न कि आत्मा एक है। आत्मा एक नहीं होती आत्मा शून्य होती है। आत्मा होती ही नहीं है। आत्मा को एक नहीं कहा गया है, आत्मा को अद्वैत कहा गया है। आत्मा एक नहीं होती, अद्वैत होती है। और अद्वैत का मतलब एक नहीं होता, अद्वैत का मतलब होता है एक भी नहीं।
दो नहीं। दो नहीं माने एक नहीं। क्योंकि एक होता, तो दूजा होता। अद्वैत का अर्थ होता है दो नहीं। और दो नहीं माने एक नहीं, और एक भी नहीं, तो शून्य। आत्मा शून्य होती है। एक होती है मूल वृत्ति। एक होती है मूल अहन्ता। और उस मूल अहन्ता के तल पर समस्त प्राणियों में एकत्व है। हम सब एक हैं। क्योंकि हम सब की मूल वृत्ति एक ही होती है।
जानते हो तमाम स्तनधारियों के गर्भ में शिशु होते हैं। जब शिशु बिलकुल ही छोटे होते हैं — मान लो हफ़्ते भरके, गर्भ में हैं भ्रूण, हफ़्ते भर का — वो एक से ही दिखते हैं। चाहे खरगोश का हो, आदमी का हो, मोर का हो, गाय का हो वो क़रीब-क़रीब एक से दिखते हैं। मूल वृत्ति एक होती है। मैं जो बात बोल रहा हूँ वो बहुत वैज्ञानिक नहीं है, इशारा भर कर रहा हूँ। समझना!
जैसे-जैसे गर्भ में प्राणी बड़ा होता है, फिर अलग-अलग प्रकार, आकार दिखायी देने लगते हैं। फिर अलग-अलग प्रजातियाँ, अलग-अलग रूप ग्रहण करने लगती हैं। लेकिन शुरुआत में सब एक से दिखते हैं बिलकुल। तो वो जो मूल वृत्ति है — जीव वृत्ति, मृत्यु वृत्ति, जन्म वृत्ति — वो हम सबकी एक है। हम वहाँ पर एक होते हैं। और उस तल पर, उस वृत्ति के तल पर सारे दुनियाभर के इंसान ही एक नहीं हैं; समस्त जीव एक हैं, समस्त जीव।
तुम पूछोगे कि यह तो आपने चैतन्य जीव की बात की। क्या चैतन्य जीव जड़ पदार्थ से भी एक हैं? तो मैं कहूँगा, ‘पगले वो मूल वृत्ति होती ही तो जड़ पदार्थ को है।' किसको ये मूल वृत्ति है कि यूँ पकड़ लूँ, किसको? जड़ पदार्थ को ही तो। वो जो चैतन्य वृत्ति है — भले ही वो चेतना मिलावटी चेतना हो, मिश्रित चेतना हो, अशुद्ध चेतना हो — वो चेतना किसके माध्यम से काम करती है? जड़ पदार्थ के माध्यम से ही तो काम करती है न।
तो ये मत पूछना कि आपने ये तो कहा कि सारे जीव एक हैं, क्या मिट्टी और पत्थर भी एक हैं? अरे! चेतना से अवलम्बित होकर मिट्टी और पत्थर ही तो दूसरे मिट्टी और पत्थर को पकड़ते हैं। चैतन्य जीव न हों, तो जड़ को जड़ भी कौन बोलेगा। तो जड़ तो चैतन्य की छाया है। चैतन्य की छाया जब जड़ पर पड़ती है, तो जड़ कभी जड़ दिखता है और जड़ कभी चैतन्य दिखता है।
तुम ही तो कह रहे हो न कि यहाँ कुछ लोग बैठे हैं जो चैतन्य हैं और ये इमारत है जो जड़ है — तुम ही तो कह रहे हो। तो तुम्हारी चेतना की छाया जब संसार पर पड़ रही है, तो वो कुछ चीज़ों को कह देती है चैतन्य और अन्य चीज़ों को कह देती है जड़।
तुम न हो तो यहाँ कौन घोषणा करेगा की क्या चैतन्य और क्या जड़। तो एकत्व के तल पर इतना ही समझना काफ़ी है कि समस्त जीव एक हैं। (दोहराते हुए) समस्त चैतन्य जीव एक हैं। अपनी ग़लती मत मानना। तुम्हारी ग़लती कब है? तुम्हारी ग़लती तब है जब तुम जीवन का निरर्थक अपव्यय कर दो। उपयोग की जगह दुरुपयोग कर दो। जीवन मिला था मुक्त हो जाने को और उसकी जगह तुम अपने बन्धनों को ही पोषण देते रह जाओ।
और बड़े खेद की बात है कि हज़ार में से नौ सौ निन्यानवे लोग जीवन अपना ऐसे ही बिताते हैं, वो अपनी बेड़ियों को चमकाते हैं। बेड़ियाँ पहनकर ही पैदा होता है छोटा बच्चा। और जीवन अपना बिता देता है वो अपनी बेड़ियों को चमकाने में; उतारने में नहीं, चमकाने में। वो चमका रहा है अपनी बेड़ियाँ।
अब बताओ इससे बड़ा कोई नाश हो सकता है? छोटा-मोटा नाश हो जाए, तो तुम कह देते हो वेस्टेज (बर्बादी)। तुम कह देते हो दुरुपयोग है। और इतने बड़े-बड़े नाश हो रहे हैं और हमें कोई फ़र्क ही नहीं पड़ता। सबसे बड़ा नाश क्या है? जीवन का नाश, जो तुम्हें समय मिला है उसका नाश। और याद रखना समय है पराया, उधार का; जिसका है वो कभी भी…?
श्रोता: ले जाएगा।
आचार्य: ले जा सकता है। वो उसको ले जाए वापस, उससे पहले तुम उसका कुछ उपयोग कर लो भाई! थोड़ी जल्दी दिखाओ! थोड़े तत्पर हो जाओ! आत्मा अमर होगी; तुम अमर नहीं हो। मृत्यु कभी भी आ सकती है; आ ही रही है। बीता पल लौटकर नहीं आता। काहे में समय बिता रहे हो? ये जो तुम कर रहे हो, ये साथ जाएगा?
कुछ छिन जाता है तुमसे; तुम्हें दुख होता है। अब समझना एक बात कि दुख का कारण ये नहीं है कि कुछ छिन गया। दुख तो छिनते वक्त सिर्फ़ प्रकट हो जाता है। दुख का कारण है कि जो छिना, तुमने उसके साथ आसक्ति करी और जिस पर ध्यान देना चाहिए था उसकी उपेक्षा करी। तुम दो ग़लतियाँ एक साथ करते रहे और ग़लतियाँ करते वक्त बेहोश थे, इसीलिए तुम्हें दुख का भी अनुभव नहीं हुआ।
बेहोश आदमी को कोई दुख लगता है क्या? कौनसी दो गलतियाँ हैं जो सदा एक साथ होती है? ग़लत वस्तु से आसक्ति और सदवस्तु की उपेक्षा। जिस पर ध्यान देना था उस पर ध्यान दिया नहीं और जो उपेक्षा योग्य था उस पर ध्यान भी दिया, उस पर निवेश भी किया, उसको समय देते रहे, संसाधन देते रहे — यह दो ग़लतियाँ एक साथ हम करते रहे।
इन दो ग़लतियों का फल तो तभी मिल रहा था जब ग़लतियाँ कर रहे थे, पर वो फल प्रतीत नहीं हो रहा था। क्यों? क्योंकि ग़लतियाँ बेहोशी में हो रही थीं और बेहोश आदमी को कोई फल पता चलता नहीं। फिर अचानक झटका लगा। कैसे लगा झटका? जिस पर ध्यान दिये जा रहे थे, जिसका पालन-पोषण किये जा रहे थे, जिससे आसक्ति थी, जिसको अपना माने जा रहे थे; वो छिन गया। जब वो छिन गया, तो हम ज़ोर से चिल्लाये, बिलखने लग गये कि हमारे साथ कुछ बुरा हो गया।
तुम्हारे साथ उस पल थोड़ी ही बुरा हुआ है जब कुछ तुमसे छिना; तुम्हारे साथ बुरा निरन्तर हो रहा था। जब तुम उससे आसक्त थे; जिससे तुम्हें आसक्त होना नहीं चाहिए था, और जब तुम उसकी अवहेलना कर रहे थे; जो पूजनीय था।
सोचो तो सही न, मुझे यदि यह रुमाल बहुत प्यारी हो जाए और मेरा पूरा जीवन इसी की छत्रछाया में बीतने लगे। मैं कहूँ, ‚यही नाथ है मेरा, यही सबकुछ है मेरा।' तो जिस दिन यह रुमाल छिनेगी मैं कहूँगा मैं अनाथ हो गया। ग़लती उस दिन नहीं हुई है जिस दिन ये रुमाल छिनी, ग़लती उस दिन हुई थी जिस दिन आपने इसको नाथ बना लिया था।
कोई रुमाल नाथ नहीं होती। कोई व्यक्ति नाथ नहीं होता भले ही वो पिता हो या कोई भी हो। मूल भूल तब हो रही थी जब आप किसी व्यक्ति को नाथ बनाये बैठे थे। कोई व्यक्ति नाथ नहीं होता; नाथ ही नाथ होता है। व्यक्ति को नाथ बना लिया, तो असली नाथ को भूल जाएँगे। फिर जब व्यक्ति छिनेगा, तो ऐसा लगेगा कि हम तो अनाथ हो गये।
अनाथ न आप थे, न हुए हैं, न कोई अनाथ हो सकता है। बात बस इतनी सी है कि असली नाथ को आप भुलाये बैठे हैं। कुछ नहीं रूमाल। आदमी का क्या भरोसा कहीं भी जाकर के दिल लगा ले। अब रुमाल से दिल लग गया।
यह वृत्ति भी छोटे बच्चे के साथ ही शुरू हो जाती है। माँ न मिले उसे तो अँगूठा चूसना शुरू कर देता है। कहीं भी दिल लगा लेता है। देखा है? और उसे दूध चाहिए, माँ मिल नहीं रही है, तो क्या करेगा? तो अँगूठा ही चूसना शुरू कर देगा। वैसे ही नाथ नहीं, तो रुमाल ही सही। रुमाल को ही पूजना शुरू कर दो। हाथ के अँगूठे से अगर ऊब जाए, तो फिर वो पाँव का अँगूठा चूसता है। देखा है? वो क्या कर रहा है? ये अपनेआप को धोखा दे रहा है वो।
यह वृत्ति भी हम लेकर के पैदा होते हैं, स्वयं को धोखे में रखने की कि असली चीज़ नहीं मिली, तो नक़ली से काम चलाओ रे। देखा है न जिनका प्रेम टूट जाता है वो शराब में डूब जाते हैं। कहते हैं, ‘असली चीज़ नहीं मिली, तो नक़ली से काम चलाओ।' प्रेम नशा होता, प्रेम का नशा नहीं मिला, तो बोतल का नशा सही।
समझ रहे हो?
हम ऐसे होते हैं! और याद रखना इतनी देर में मैंने सत्य के बारे में, परमात्मा के बारे में कुछ भी न बोला होगा या बहुत कम बोला होगा। मैं निन्यानवे प्रतिशत चर्चा किसके बारे में कर रहा हूँ? अपने बारे में। हम कैसे हैं? हमारी वृत्तियाँ कैसी हैं? हमारी सोच कैसी है? और हमारी झूठी धारणाएँ कैसी हैं? उसी को देखना ज़रूरी है। यही अध्यात्म है। किसी तुम परम पिता की उपासना करने लग जाओ अपनी बेहोशी में, अपने अन्धेपन में इसको अध्यात्म नहीं कहते।
आत्मज्ञान का अर्थ होता है अहंकार का ज्ञान कि देखो कि यह जो तुम्हारा तन्त्र है, यह कैसे गति करता है, अहंकार के तौर-तरीक़े क्या हैं, वह चाहता क्या है, कहाँ छुपकर बैठता है — यही अध्यात्म है, यही आत्मज्ञान है। आत्मा का कोई ज्ञान नहीं होता। आत्मा अज्ञेय है वो ज्ञान से परे है। ज्ञान मात्र अहंकार का हो सकता है।
आ रही बात समझ में?
प्र: आचार्य जी, क्या सत्य का कोई अनुभव नहीं हो सकता है, केवल झूठ का ही अनुभव हो सकता है?
आचार्य: इतने अनुभव हो रहे हैं यही काफ़ी नहीं हैं क्या? इसके लिए भीतर से कोई धन्यवाद नहीं उठता? ये पत्नी हैं?
प्र: हाँ।
आचार्य: ये साथ में बैठे हैं, ये एक अनुभव है, न? इसके लिए क्यों नहीं धन्यवाद देते? वो बच्ची है पीछे?
प्र: हाँ।
आचार्य: इसके लिए क्यों नहीं धन्यवाद देते कि इनका अनुभव हो रहा है। उसकी कृपा से तुम्हें ये सब अनुभव होते हैं। अनुभव में और उसमें रिश्ता क्या है समझना? उसका अनुभव नहीं होता, पर उसकी कृपा से ये सब अनुभव होते हैं। उसका अनुभव नहीं किया जा सकता, पर वो न हो तो तुम्हे कोई अनुभव न होगा।
वो है इसलिए सारे अनुभव हैं, पर मन मानता नहीं। अहंकार कहता है, ‘नहीं, मुझे तो उसी को पकड़ना है।’ नहीं पकड़ पाओगे। ये उँगली अपनेआप को पकड़ सकती है? बस!