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जीवन में कोई गारंटी नहीं || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: सर बात दाएँ-बाएँ इसलिए हो गई क्योंकि आपने हमें एक दर्जे से ऊपर बात कही, पर कुछ समझ नहीं आया। मेरा स्तर इतना नहीं कि उतना तक सोच पाऊँ। मैं सोचने की कोशिश कर रही थी लेकिन समझ नहीं आ रहा था।

आचार्य प्रशांत: तुमको इसलिए समझ में नहीं आ रहा था क्योंकि तुम कोशिश में लगी हुई थी सोचने की। चुपचाप सुनो तो सब समझ में आ जाएगा।

प्र: हम सोचते हैं सच बोलना चाहिए, सच बोलने से अच्छा होता है, पर हम बोलते नहीं है। कैसे पता चले कि अपना जो निर्णय है, वो सही है भी या नहीं?

आचार्य: आप लोग यहाँ बैठे हैं, क्यों बैठे हैं? जा सकते थे, कोई बाध्यता तो थी नहीं रुकने की। कैसे जानें जो अपना निर्णय है, वो अपना है भी या नहीं? सब कर लिया उसके बाद भी गारंटी क्या है? ‘जागो ग्राहक जागो’, एकदम सतर्क ग्राहक हो तुम। कह रही हो, "गारंटी दीजिए तब मानेंगे आपको।" कितना? छह महीने, साल भर? गारंटी क्या है?

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र२: मैं गीता पढ़ रही थी तो मुझे बहुत सारी चीज़ अच्छी लगी लेकिन आपके कक्षा लेने के बाद मुझे लग रहा है क्या वो सही भी है?

आचार्य: बेटा, गीता सही नहीं होती, तुम्हारी दृष्टि सही होती है। एक आतंकवादी अगर गीता को पढ़ेगा तो उसे बहुत पसंद आएगी, कि "अरे! यही तो लिखा है कि मारो! उठा अर्जुन बाण और ठोक। यही तो लिखा है।" जो तुम्हारी दृष्टि होगी, वो तुम्हें दिखाई दे जाएगा। "आत्मा न हन्यते न हंय मने शरीरे, न शोषयति मरुतः। उसका हनन हो ही नहीं सकता—शरीर का हनन हो रहा है—उसका हनन हो नहीं सकता, तो फिर मैं अपराधी भी कहाँ हूँ? मारो, बम पर बम फोड़ो।"

तुमको वही दिखाई देगा, जो तुम्हारी दृष्टि है। गीता में सत्य नहीं होता, वो तुम्हारी अपनी आँख में होता है। अपनी आँख को निर्मल करो। और रही गारंटी की बात, जीवन में किसी चीज़ की कोई गारंटी नहीं है, सिर्फ जीवन है। फिर पूछता हूँ तुमसे, जब संगीत सुनते हो और डूबे रहते हो, तो क्या गारंटी माँगते हो कि क्या हमें इसमें आनंद मिल रहा है? माँगते हो क्या गारंटी?

प्र१: सर, अच्छा लगता है तो सुनते हैं, नहीं अच्छा लगता बंद कर देते हैं।

आचार्य: बस, गारंटी तो नहीं माँगी न? गारंटी माँगते हो जब भयभीत होते हो, डरे होते हो कि कुछ उल्टा-पुल्टा ना हो जाए। गारंटी भय की निशानी है, किसी चीज़ की कोई गारंटी नहीं है सिवाय तुम्हारे अपने होश के।

जैसे दुकानें होती हैं छोटी-मोटी जिन पर लिखा रहता है, “बिके माल की कोई गारंटी नहीं है”, जीवन ऐसा ही है। लिखा रहता है न कि जो बिक गया वो वापिस नहीं लिया जाएगा? वैसे ही जीवन भी ऐसा है, बीता हुआ पल वापिस नहीं लिया जाएगा और किसी चीज़ की कोई गारंटी नहीं है। कुछ भी, कोई गारंटी नहीं है। गारंटी मत माँगो, ये समझो कि तुम गारंटी माँग क्यों रहे हो। तुम गारंटी इसलिए माँग रहे हो क्योंकि तुम?

श्रोतागण: डरे हुए हो।

आचार्य: डरे हुए हो कि कुछ गलत ना हो जाए। और तुम क्यों डरे हुए हो? तुम अपने लिए नहीं डरे हो। एक बच्चा होता है, वो ब्रश लेकर पेंटिंग बना रहा है, निश्चित रूप से उस पेंटिंग में बहुत कुछ उल्टा-सीधा है और वो खुश है, एक बड़ा पेंटिंग बनाता है। और तुम बनाओगी तो तुम्हारे मन में विचार आएँगे कि, "गारंटी क्या है? जो बना रही हूँ वो ठीक बना रही हूँ, कहीं गड़बड़ ना हो जाए।" तुममें और बच्चे में मूल अंतर क्या है, जानती हो?

प्र: समझ।

आचार्य: नहीं, बच्चा अपने लिए बना रहा है, तुम दूसरों के लिए बना रही हो इसलिए गारंटी माँग रही हो। जब कुछ भी पूर्णतया अपने लिए किया जाता है तो कैसी गारंटी, मुझे इसमें आनंद मिल गया इतना काफी था, मैं इसमें थप-थप करके रंगों से खेल ली और वही हाथ जाकर मैंने ऐसे लगा दिया कैनवास पर, यही काफी था।

और जब तुम दूसरों के लिए करोगे तो गारंटी चाहिए, दूसरा इसको पसंद करेगा कि नहीं करेगा, नंबर देगा कि नहीं देगा, तब गारंटी चाहिए। डर है न, कहा था ना गारंटी डर से है। और वो डर किसका है? वो डर दूसरे का डर है, किसी और का डर। कोई और क्या कहेगा? गारंटी तुम्हें कभी अपने लिए नहीं चाहिए, गारंटी सदा किसी और के लिए चाहिए।

तुम पूछ रही हो कि कैसे पता चले कि गलत है, या सही है। एक ही सही है, और वो है अपनी समझ के अनुसार जीवन जीना। और एक ही चीज़ गलत है, ग़ुलामी का जीवन जीना। और कोई ना सही है, ना कोई ग़लत है। हाँ अपने हिसाब से चलोगे, फिर उसमें तुमको हो सकता है समाज से प्रतिरोध का सामना करना पड़े, लोग आएँ कहें कि तुमने बड़ा गलत किया। पर जो कहें उन्हें कहने दो, तुमने जो किया, तुम्हें वही करना था। तुम उसके अतिरिक्त कुछ कर नहीं सकते थे। वही उचित है, वही ठीक है और अगर वैसा नहीं करोगे, तो दुनिया चाहे तुम्हें लाख प्रमाणपत्र दे दे कि तुमने बड़ा अच्छा काम किया है, "ये बड़े प्रतापी हैं!" लेकिन तुम जानते रहोगे कि ठीक हुआ ही नहीं। जीवन बेकार गया। किसी और के कहने पर चल दिया, बेकार ही गया।

आ रही है बात समझ में?

कोई गारंटी नहीं है। तुमने उस वक्त भी कहा था कि फिल्में देखेंगे तो गलत ही होगा। किसने कहा कि गलत है? ये भी किसी और ने ही कहा न? सही और ग़लत के सारे ख्याल ही बाहर से आते हैं। क्या तुमने देखा नहीं है कि एक समाज में जो सही माना जाता है, दूसरे में वहीं ग़लत माना जाता है। एक देश में जिसको सही माना जाता है, दूसरे में ग़लत माना जाता है। एक घर में जो सही है, दूसरे में ग़लत है। एक ही धर्म में जो आज सही है, वो कल ग़लत हो जाएगा।

तुम्हारा सही और ग़लत तो समाज से आया है। किसी ने सिखा दिया कि ये सही, ये ग़लत। और जिसने सिखाया उसका भी अपना नहीं है, ये तो सब देश, काल के अनुसार बदलने वाली चीजें हैं। इनमें क्या सत्य है, इनको क्यों इतनी गंभीरता से लें हम? कभी दो-सौ साल पहले बहुत ‘सही’ माना जाता था कि सती हो जाओ, मंदिर बनते थे।

(प्रश्नकर्ता को पूछते हुए) क्या होना चाहोगी? कि मर गया पति, तो तुम भी साथ में जल जाओ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये सब सही और ग़लत तो सामाजिक मानसिकताएँ हैं। ना कुछ सही है, ना कुछ ग़लत है। सिर्फ एक ही सही है, समझ। और एक ही ग़लत है, समझ का अभाव। बाकि सब सामाजिक नैतिकता है, इनके फेरे में मत पड़ जाना।

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