वक्ता: अब ज़िन्दगी बस घिसटते चली जा रही है, सहा नहीं जाता अब और ये सिर्फ़ तुम्हारे साथ ही नहीं है, सभी के साथ ऐसा है।
सुबह उठते हो तो ये नहीं लगता कि एक और खुशहाल दिन की शुरुआत हुई है। आने वाले दिन के प्रति आप उत्सुक नहीं रहते ? ऐसा कम ही होता है, क्यूँ? ‘’चलो ,एक और दिन आ गया,’’ पाँव भारी रहते है, आँखों में नींद रहती है| ऐसा ही रहता है न? हम सबने ये अनुभव किया है, कोई ऐसा है जिसने ये चीज़ अनुभव नहीं की? बस ये है कि ये किसी के साथ करीब-करीब स्थाई अवस्था बन जाती है और किसी के साथ ये कुछ पलों के लिए आती है और फिर वो जग जाता है और कहता है कि, ‘’ना , ज़िन्दगी ऐसे नहीं गुज़ारी जा सकती। ये होता क्यूँ है? आलस कहाँ से आता है ? इस ऊर्जा का क्या राज़ है? इस बात को समझेंगे। ठीक है?
हम में से ऐसा कोई नहीं है, जिसके भीतरएनर्जी ना हो। हम सभी में ऊर्जा का एक अपार स्रोत है| पर वो एनर्जी चैनलाइज़ नहीं हो पाती क्यूंकि उस एनर्जी के चैनलाइज़ होने के कुछ नियम है। उन नियमों को जानना चाहोगे, करीब-करीब ऐसा होता है कि तुम्हारे पास बहुत सारे पैसे पड़े हुए है, पर तुम उन पैसों को निकाल नहीं पाते क्यूंकि तुम ए.टी.एम का पिन भूल गये हो। तो पैसे तुम्हारे पास होते हुए भी नहीं है।
समझ रहे हो ना? अब ये बड़ी अजीब हालत है, पैसे है पर इस्तेमाल नहीं कर पा रहे, क्यूँ?
क्यूंकि हम एक छोटी सी बात भूल गये है और वो छोटी सी बात क्या है? पिन कोड । वैसे ही कुछ नियम होते है, एनर्जी चैनलाइज़ेशन के जो अगर पता हो तो सब ठीक हो जाये।
एनर्जी चैनलाइज़ेशन के नियम ये होते है कि एनर्जी, बोध के पीछे बहती है। जब तुम कुछ बिलकुल ठीक-ठीक समझ जाते हो तो, तुम्हारी एनर्जी बिलकुल एक धारा में बहने लग जाती है। वही एनर्जी पूरे तरीके से नष्ट भी हो सकती है। हम सब जानते की वन फॉर्म ऑफ़ एनर्जी इज़ कनवर्टिबल टू अनदर। वही एनर्जी जो एक्शन में बदलती है, वही एनर्जी गॉसिप में बदल जाती है, आलस में बदल जाती है, विध्वंसक चीज़ों में चली जाती है, मिस्लेनियस इधर-उधर की बातों में बदल जाती है।
पहली बात हमने ये कही कि जब तुम समझ जाते हो किसी बात को गहराई से तो, उस समझ के पीछे की ऊर्जा अपने आप बहने लगती है और फिर आलस का सवाल ही नहीं पैदा होता। जब आप समझे नहीं हो, जब आप कंफ्यूज्ड हो तो आप की ऊर्जा एक दिशा में नहीं बह पाएगी। इस बात को जाना तुमने? जैसे कि तुम्हें इस कमरे से बाहर जाना है, तुम्हें साफ़-साफ़ पता है कि एक ही दरवाज़ा है, तुम उठोगे और निकल जाओगे। लेकिन कोई ऐसा है, जिसने किसी वजह से अपनी आँखों पर पट्टियाँ बांध रखी है और वो दस लोगो से पूछ रहा है कि बाहर कैसे निकलूँ, तो कभी इधर चले जाए, कभी उधर चले जाए, और उसकी एनर्जी दस दिशाओं में बहती रहेगी लेकिन अंतत: वो कहीं पहुंचेगा नहीं|
समझ के बिना उस ऊर्जा को दिशा नहीं दी जा सकती| जिन भी लोगों को जीवन में उत्साह चाहिए, एनर्जी चाहिए, उन्हें उत्साह की फ़िक्र छोड़ देनी चाहिए और समझने की फ़िक्र करनी चाहिए। उनको ये देखना चाहिए ध्यान से कि, ‘’क्या मैं समझ रहा हूँ कि मेरे साथ क्या हो रहा है? क्या मैं ठीक-ठीक समझ पाया हूँ कि मैं क्या कर रहा हूँ? मेरे मन में क्या चल रहा है, क्या मुझे पता है ठीक-ठीक?’’ आप आलस की फ़िक्र छोड़ ही दीजिये, आप बस ये देखिये कि, ‘’मैं जो कर रहा हूँ, मुझे उसकी समझ कितनी है|’’
अगर समझ होगी उससे एनर्जी अपने आप निकलेगी, ये पहला नियम हुआ| दूसरा नियम समझो: ऊर्जा प्रभावों से नष्ट होती जाती है| कैसे? पानी की बोतल है, उसमें एक मॉलिक्यूल है, वो एक तरफ को चलता है, तभी एक दूसरा मॉलिक्यूल आता है और वो उसे टक्कर मारता है। तत्क्षण गति का हस्तांतरण होता है| ठीक है, जैसे ही कोई और मॉलिक्यूल आएगा वो किसी और दिशा में टक्कर मारेगा और वो फिर कहीं और चला जाएगा।
समझ रहे हो बात को ?
इस मॉलिक्यूल का अपना कुछ नहीं है, याद रखो कि इसे एनर्जी बाहर से मिल रही है और जो एनर्जी बाहर से मिलती है उसका नाम होता है, *मोटिवेशन*। इसे एनर्जी मिल भी बाहर से रही है, और इसकी एनर्जी नष्ट भी बाहर वाले कर रहे है। बाहर से एक मॉलिक्यूल आता है, इसे एक तरफ को टक्कर मरता है और ये एक तरफ को चला जाता है। लेकिन ये जिस पुरानी दिशा में जा रहा था, वो पुराणी दिशा इसकी छूट जाती है। इसकी जिंदगी में इसका अपना कुछ भी नहीं है बल्कि किन्हीं और मॉलिक्यूल्स का है। दूसरे ही इसको एनर्जी दे भी रहे है और ले भी रहे है, इसकी अपनी जो एनर्जी है, सोई पड़ी है। अब ज़िन्दगी भर ये जो मॉलिक्यूल है, ये क्या करता रहेगा? ये उसी बोतल के अन्दर घूमता रहेगा, और इस मूवमेंट को क्या कहते है?
*ज़िग-ज़ैगमूवमेंट ,* ब्राओनियन मूवमेंट। इसका डिस्टेंस तो बहुत ज़्यादा होगा, पर डिस्प्लेसमेंट कितना होगा? इसकी जो आर.एम.एस स्पीड होती है वो 300 m\s होगी। इसका डिस्प्लेसमेंट करीब ज़ीरो होगा। हम सभी मॉलिक्यूल्स ऐसे ही है – पापा मॉलिक्यूल ने टक्कर मारी और हम इस ओर चल दिए, फिर एक फ्रेंड मॉलिक्यूल आ गया, हम इधर को चल दिए, फिर इधर को चले तो टीचर मॉलिक्यूल ने टक्कर मार दी। हमें टक्कर पर टक्कर लगती रहती है और हम ऐसे ऐसे चलते रहते है। कोई एक दिशा नहीं है हमारी| हमें एनर्जी कैसे-कैसे मिलती रहती है? जब टीचर मॉलिक्यूल डांटेगा, कहेगा कि एग्ज़ाम आने वाले है, पढ़ लो, तब हम पढ़ते है। पर ये एनर्जी कब तक रहेगी? फ्रेंड आया, उसने कहा, ‘’पढ़ रहा है? चल घूमने चलते है।‘’
अब हमारी ये आदत पड़ जाती है कि जो भी हमारे पास है, वो दूसरों से ही आता है। अपना कुछ भी नहीं है, अपना सिर्फ़ आलस है। जैसे कि इस मॉलिक्यूल का अपना सिर्फ़ क्या है – इनर्शिया , पड़ा है तो पड़ा ही रहेगा और अगर किसी ने टक्कर मार दी तो चलता ही रहेगा। न्यूटन्स फर्स्ट लॉ – पड़ा है तो पड़ा रहेगा, चल रहा है तो चल रहा है; विदआउट चेंजिंग इट्स वेलोसिटी।
अब इसकी ज़िन्दगी में मोटिवेशन का एक ख़ास रोल होगा, कोई आएगा और इससे कहेगा -“अरे! तू उदास पड़ा है, ऐ भारत के नवयुवक चल अपने लक्ष्यों की पूर्ति कर।‘’ बड़ी विवेकानंद ने कही है – चलो। अपनी समझ से इसके जीवन में कुछ नहीं होगा। इसकी ज़िन्दगी में सिर्फ प्रभाव ही है इसीलिए हमने क्या कहा था-” ऊर्जा नष्ट होती है, प्रभावों से|” एनर्जी कहाँ से आनी चाहिए, हमने ये बात भी समझ ली। कहाँ से आनी चाहिए?
सभी श्रोता: अंडरस्टैंडिंग से।
वक्ता: अंडरस्टैंडिंग से, कहाँ से नहीं आनी चाहिए हमने ये बात भी समझी, कहाँ से नहीं आनी चाहिए?
सभी श्रोता: प्रभावों से।
वक्ता: अब तुम खुद ही अपनी ज़िन्दगी देख लो कि तुम अपनी ज़िन्दगी में क्या करते हो। अगर प्रभावों से भरे हो तो तुम्हारी ज़िन्दगी आलस से ही भरी रहेगी। ये देखो कि तुम ज़िन्दगी में जो कुछ भी करते हो, क्या उसके पीछे तुम्हारी समझ है? और अगर तुम्हारी अपनी समझ से निकलती हो तो आलस का सवाल ही नहीं होता। तुम आज यहाँ बैठे हुए हो, निश्चित रूप से यहाँ केवल इतने ही लोगों को नहीं आना था, कई और भी आने थे। काफ़ी लोग थे जो अपनी समझ से आए और कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो सिर्फ़ भेड़चाल में आ गए या किसी और ने कह दिया तो आ गए या आना चाहते है, बाहर घूम रहे थे, पकड़े गए।
जो लोग अपनी समझ से आए है, उनके चेहरे ही अलग तरीके के होंगे, ध्यान से सुन रहे होंगे। उनको एनर्जी की कोई कमी नहीं है और याद रखो कि सुनने के लिए बहुत एनर्जी लगती है। ध्यान में बड़ी एनर्जी लगती है| इनकी ज़िन्दगी में उर्जा की कोई कमी नहीं होती। और जो यहाँ उठा के रख दिए गये है वो ऐसे है कि बस गिर ही जाए। जब भी कुछ अपनी इंटेलिजेंस से करोगे तो उसमें सोना तो छोड़ दो , खाने पीने का भी ध्यान नहीं रहेगा। ये बात पक्की समझ लो और अगर कभी ऐसा करा भी होगा तो तुम्हें इसका अनुभव भी होगा कि याद भी नहीं रहता कि कुछ खाया कि नहीं खाया क्यूंकि जो हो रहा है, वो तुम्हारा अपना है। तुम्हे कोई मोटिवेटर नहीं चाहिए कि, ‘’जागो, वत्स देखो।‘’
अब कोई आएगा तुम्हे मोटीवेट करने तो तुम कहोगे -“साइड दे, बहुत काम है।” इतना टाइम किसके पास है कि तेरी ये सब बातें सुने।
जो भी तुम्हारे ऊपर इन्फ्लुएंस से आया है उसे देख के तुम्हें यही लगेगा कि, ‘’यार नहीं ही करते तो ठीक रहता| ज़िन्दगी को ठीक से देखो और समझने की कोशिश करो कि कितना है जो तुम्हारा अपना है और कितना है जो बाहर से आया है। जो कुछ भी बाहरी प्रभावों से आ रहा होगा, वो तुमको आलस में ही रखेगा। मन ही नहीं करेगा, उठने का।
जब अपना होगा, तो नींद ही नहीं आएगी और जब बाहर का होगा तो नींद रुकेगी ही नहीं। बस ये ही है लक्षण। जब भी कुछ अपना होगा तो देख लेना, पता नहीं पूरे शरीर में कहाँ से बिजली कौन्धेगी! बिस्तर से उतरोगे नहीं कूदोगे; एक अन-लॉकिंग हो जाएगी तुम्हारे एनर्जी की| लेकिन दिक्कत ये ही है कि तुम्हारी जो एनर्जी आती है, वो आती भी कहाँ से है? बाहर से तो इसीलिए आती है और फिर गायब भी हो जाती है। कोई दिन आया हो ख़ास, तुममें एनर्जी आ गयी और फिर वो दिन बीत गया, तुम फिर निढाल हो गए| तुमने उर्जा का स्वाद चखा तो है, लेकिन तुमने वो सारी की सारी एनर्जी चखी है बाहर से। क्या तुम ये नहीं चाहते हो कि वो चीज़ स्थाई हो जाए। अगर चाहते हो तो बस होश में रहो।
श्रोता: सर, कई बार कोशिश की है, होश में रहने की, लेकिन होश में रहते हुए भी बेहोश होते हैं।
वक्ता: तुम होश में रहते हुए भी बेहोश इसीलिए रहते हो, क्यूंकि तुमने आसपास लोग ऐसे पकड़ रखे हैं, जो बेहोशी के दूत है; जिनका नारा ही है बेहोशी। जैसे कि एक दीया तूफानों से बच कर बैठा हो, तो बेचारा ये अगर जलता भी है तो ये सारे पार्टी करने आ जाते हैं उसके यहाँ। अब जब तूफ़ान आएँगे दीये के यहाँ पार्टी करने, तो क्या होगा? दीया कहेगा कि, ‘’दिक्कत कहाँ है? बार-बार बुझ कैसे रहा हूँ? लाइटर भी रखा हुआ है, फिर भी?’’ उसे समझ में भी नहीं आ रहा कि उसने तूफानों से दोस्ती कर रखी है।
श्रोता: सर, अब तूफानों से दोस्ती हो गयी है तो उनसे छूटकारा कैसे पाया जाये?
वक्ता: पा लो छूटकारा। क्यूँ कर रखी है दोस्ती? वो रहीम का है न -“कहे रहीम कि कैसे निभे बेर-केर को संग”, केला होता है और उसके बगल में तुम बेर घोप दो तो क्या होता है? ‘वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग’ अब केले का पत्ता कैसा होता है, बड़ा मुलायम अगर उसमें ऐसे भी क्या तो फट जायेगा और बेर का पेड़ कैसा होता है जिसमे कांटे ही कांटे।
अगल-बगल में केला और बेर बो दिए गए – जब छोटे थे तो उनमें बहुत दोस्ती थी, पर उनका स्वभाव ही अलग-अलग है, जब बड़े हो गए तो केले के पत्ते निकलेंगे और उसके कांटे निकलेंगे, केला मस्त होकर झूमेगा और जहाँ झूमेगा वहां क्या होगा उसका? फट जाएगा। ये तो बहुत स्वाभाविक सी बात है कि केले और बेर की दोस्ती नहीं हो सकती। तुम होश में भी आना चाहते हो तो चारों ओर से भीड़ टूट पड़ती है कि, ‘’सोजा, राज दुलारे।‘’ थोड़ा सा नशा उतरा नहीं कि सब बोतल लेकर हाज़िर हो जाते हैं, क्या ज़रूरत है होश में आने की? ये ले। थोड़ा तो *डिटरमिनेश्न*होना चाहिए न? उसी को कहते है साधना।
जब इतना कुछ ऊपर रखा हुआ है, तो उसकी सफ़ाई भी तो तुम्हें ही करनी पड़ेगी। ये सब जो तुमने सम्बन्ध बना रखे हैं, ये आदतें लगा रखी हैं, इनकी सफाई कौन करेगा? तुम्हें ही तो करनी पड़ेगी न? ये वैसी ही बात है कि कोई टाईफोइड का मरीज़ हो और उसने दोस्ती कर रखी है, अचार बेचने वाले से। टाइफाइड में तेल, मसाला चखना भी मना होता है| अब तुम जैसे ही ठीक होने लगते हो, वो आ जाता है अचार लेकर| तुम अगर शांत होना भी चाहते हो तो तुम्हारे ये दोस्त ,यार तुम्हे शांत रहने देते है। मुझे तो ताज्जुब हो रहा है की तुम यहाँ कैसे आए?
मैं भी दो-दो कैम्प्सेस में पढ़ा हुआ हूँ, मेरे साथ के लोग आज तथा-कथित ऊँची-ऊँची जगहों पर बैठे हैं, मैं तो उनसे क्न्नेक्टड भी नहीं हूँ, मुझे कोई शौक नहीं उठता कि मैं उनसे यहाँ से क्न्नेक्ट हो जाऊँ या वहां से। सालों में भी एक बार भी इच्छा नहीं उठती कि पूछ लूँ कि भाई, तू कैसा या मैं कैसा? जिस रास्ते जाना नहीं उधर बार-बार देखना क्या? मैं हूँ, मेरा काम है, मेरी मस्ती है तो फिर क्यूँ? तुम क्यूँ इतने बड़े दुनियादार हो? तुम्हें क्यूँ दुनियादारी की पड़ी है?
मैं अभी लेट हो रहा था, जाम में फसा हुआ था, यही देख रहा था कि तुम कर क्या रहे हो फेसबुक पर। मुझे इसी से एनर्जी मिलती है, मैं सुबह-सुबह तुम्हारी हरकते ना देखूं फेसबुक पर, तो मेरा दिन बनता नहीं है ,मुझे उसी से एनर्जी मिलती है।और तुमने तो एनर्जी पाने के लिए कैसे-कैसे धोखे भी बना रखे है, अभी मैं आते वक़्त देख रहा था कि ये नया फैशन निकला है कि विवेकानंद के नाम पर कुछ भी उल्टा-सीधा छाप दो और साथ में विवेकानंद की फोटो लगा दो। अभी अपने मन से ही वो कोट बनाते हैं और फोटो छापते हैं विवेकानंद की। और वो सारी की सारी कोटेशंस ऐसी होती है, जो पूरी तरह से ईगो को बढ़ावा दे। ‘’गिरो तो ऐसे गिरो, जैसे एक बड़ा पेड़ गिरता है कि गिर कर भी ऐसे गिरो कि अपना बीज स्थापित कर दो कि फिर से खड़ा हो जाए।
और मैं निन्यानवे प्रतिशत आश्वस्त हूँ कि ये विवेकानंद ने इन शब्दों का इस्तेमाल कभी किया ही नहीं होगा। वेदांती थे वो, जो भी वेदांत समझता है वो कभी ये बात करेगा ही नहीं। पर तुम्हे मोटीवेट होने के लिए इन सब बातों का आसरा रहता है। ये सब समझ की दुश्मन है, हमने आज पहली बात यही कही कि उर्जा निकलती है समझ से। लेज़िनेस अगर वाकई में हटानी है, तो तुम समझ को जाग्रत करो। तुम हर एक काम ऐसा कर रहे हो, जिसमें समझ तो कहीं है ही नहीं। तो तुम्हारे जीवन में उर्जा कहाँ से रहेगी?
एक क्वेश्चन पेपर तुम्हारे सामने आता है जिसमें तुमको जो भी क्वेश्चन्स हैं, वो तुमको बन रहे हैं, क्या तुमने पाया है कि तुम फटा-फट करना शुरू कर देते हो। ऐसा ही होता है न? ठीक है? तुम ये सोचते भी नहीं की एनर्जी कहाँ से लाऊँ? एक के बाद एक सवाल करते जाते हो मस्त होकर के। और वही पे एक दूसरा क्वेश्चन पेपर आता है जिसमें तुम्हे कुछ समझ में ही नहीं आता है, तो अगर दो घंटे का एक्साम है तो दो घंटे काटे नहीं कटते, कभी पीछे मुड़ कर देखते हो, कभी किसी को परेशान करते हो। बार बार घड़ी देखोगे कि दो घंटे कटे किसी तरीके से, सो भी जाओगे।
कहाँ से आई है ये एनर्जी? समझ से। जब जानते हो तो उर्जा आती है, जब नहीं जानते तो उर्जा कहीं से नहीं आती। अभी तुम में से जिन लोगो को मेरी बात समझ में आ रही होगी क्या उनको आलस प्रतीत हो रहा है? और जो सुन नहीं रहे, कोई हो एक आध, तो एक झपकी भी ले चुके होंगे। और देता हूँ उदाहरण – कभी कोई प्रॉपर हॉलीवुड मूवी लगी हो, उसमें कभी जाकर देखना कि कितने लोग सो रहे होते हैं और उसकी तुलना कर लेना किसी देसी पिक्चर से। भई! जगे तो तब, जब कुछ समझ में आए।
जब ये सब कुछ तुमको इन्कोम्प्रिहेंसिबल लगता है, न ही छोर का पता है न ही ओर का, जीवन का क्या अर्थ है? जीवन में शिक्षा का काया महत्त्व है? तो तुम्हारा मन यही करता है कि सो जाओ। उठो, जागो, जानो। वही एनर्जी जो अलग-अलग थॉट्स में व्यर्थ जाती है, वही ध्यान बन सकती है। ऐसे समझ लो कि एक चैनल से पानी जा रहा है – आगे दो रास्ते हैं, उसके पानी के जाने के: एक रास्ता बंद कर दोगे तो पानी दूसरे रास्ते से जायेगा न। तुमने अभी दोनों रास्ते खोल रखे हैं। एक रास्ता है ध्यान का और दूसरा रास्ता है नष्ट का। एक रास्ता है ध्यान का और दूसरा रास्ता है व्यर्थता का। तुम इसकी तो फ़िक्र करो ही मत कि, ‘’अटेंशन कैसे पाऊँ,’’ लेकिन ये जो एनर्जी बर्बाद हो रही है बेकार के कामो में, उसे रोको।
इन्टरनेट पर बैठते हो, देखो, वहां कर क्या रहे हो? और कभी गौर किया है कि बैठे-बैठे दो-तीन घंटे भी बीत जाते हैं और पता ही नहीं चलता यहाँ पर किया क्या, इतनी देर तक। बस ठीक इसी समय पर जग जाने की ज़रूरत है कि, ‘’ये कर क्या रहा हूँ।‘’ कुछ लोगों को टी.वी. देखने की आदत होगी और उससे ज़्यादा वेस्टफुल कोई आदत हो ही नहीं सकती। कुछ लोगों को दोस्तों के साथ यारी निभाने की बहुत आदत होगी और उससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण आदत कोई हो ही नहीं सकती। बैठे हैं और चल रहे हैं अफ़साने, जिनका कोई मतलब ही नहीं है। इसी को कबीर ने कहा है कि –
‘रात गवाई सोये के, दिन गवाया खाए।
हीरा जन्म अमोल था, कौड़ी बदले जाए।।‘
इसके अलावा कर क्या रहे हो? रात भर सोते हो, दिन भर खाते हो, खाने का मतलब क्या है? खाने का मतलब है आँखों से भी ग्रहण कर रहे हो, मुह से भी ग्रहण कर रहे हो, दिमाग को भर रहे हो। दिन भर यही तो करते हो न, आँखें है तो वो शांत नहीं रहती| कहीं इधर से छुप के देखते हो, कभी उधर से छुप के देखते हो| घूमती रहती है इधर उधर, कान है जो सुनने को बेताब रहते हैं, और बताओ क्या है नया ताज़ा| कोई इतना आकर कहता है कि, ‘’मेरे पास एक ताज़ा गॉसिप है’’ और तुम लगे बतियाने।
‘हीरा जन्म अमोल था , कौड़ी बदले जाये’ – कौड़ी मतलब समझते हो – जीवन बेकार जा रहा है, जैसे कौड़ियों के भाव बेच दिया जन्म को। अपने समय की तुम्हें कोई कदर नहीं है उसे कौड़ियों के भाव बेच रहे हो। रात भर सोते रहते हो और दिन भर भोगते रहते हो। और यही तुम्हारा जीवन है, जो सोने में और भोगने में व्यर्थ जा रहा है। फिर कहते हो कि, ‘’एनर्जी नहीं है, कहाँ से आएगी?’’ इतना सारा खा लिया और फिर भोगने में लगे हुए हो तो फिर अजगर सी ही हालत रहेगी| तो फिर दिन भर भोगते रहते हो, यहाँ से, वहाँ से और फिर रात में पचाते रहते हो| उसी के सपने आते हैं| जब दिमाग हल्का रहेगा तो एनर्जी रहेगी| ये जब हल्का रहता है, तो उसका नतीजा होता ही इंटेलिजेंस है, पर जब ये भरा रहता है तो इसमें समझने की ताकत ख़त्म हो जाती है| और जो कुछ इसमें भरा रहता है, वो सब बाहर से ही आता है| इसको जितना बाहरी इन्फ्लुएंस से दूर रखोगे, ये उतना हल्का रहेगा और ये जितना हल्का रहेगा तुम उतना ऊर्जावान रहोगे| आ रही है बात समझ में?
कभी देखा है ये हाईवे पर जो ट्रक होते हैं, उनमें एक निश्चित लोड होता है जिसकी अनुमति रहती है कि, ‘’इतना टन तुम लेकर चल सकते हो।‘’ मान लो किसी ट्रक को ५ टन ढोना अलाऊड है, मगर होता क्या है कि ट्रकवाले ५ टन की जगह कितना लेकर चलते है? कभी ६० टन, कभी ८० टन। कभी देखा है फ्लाईओवेर्स पर चलते हुए ट्रक, वहीँ पर वो बोल भी जाते हैं कारण यही है कि वो हल्के नहीं है। अनावश्यक रूप से बाहरी चीज़ों को धो रखा है| वो तो ट्रक है, उसका काम है ढोना, पर तुम क्यूँ ट्रक बने हुए हो? तुम क्यूँ ढो रहे हो इन बाहरी प्रभावों को? हल्के हो जाओ, अपने मालिक बन जाओ। ढोए जा रहे हो। तुम्हारे टाँगे में सब तुम्हारे यार, दोस्त, रिश्तेदार बैठे हुए हैं और तुम धोए जा रहे हो|जो ही आता है उसी को भर को लेते हो| इस लोड भरने का मतलब समझते हो? कि तुम अपने मालिक नहीं हो। कोई सामने से निकला तो तुम में इतना सामर्थ नहीं है कि कह सको कि, ‘’मैं तुम्हें नहीं देखना चाहता, तो नहीं देखूँगा। फ़ालतू ही देखे जा रहे हो और देखने का मतलब है कि आँखों से कहाँ पहुँच गया?
सभी श्रोता: दिमाग में।
वक्ता: और दिमाग का लोड बढ़ गया। में बैठे हो और तुम क्या कर रहे हो, तुम खिड़की से बाहर देखे जा रहे हो। जिन होर्डिंग्स से तुम्हारा कोई मतलब नहीं उन होर्डिंग्स को देखे जा रहे हो। गाड़ियाँ आगे पीछे निकल रही हैं और उनसे कोई मतलब नहीं है, सड़क पर हरकतें हो रही है जिनसे तुम्हारा कोई मतलब नहीं है और उन्हें देखते जा रहे हो और दिमाग का बोझ बढ़ता जा रहा है। दिमाग इस्तेमाल करना पड़ेगा न?
आदमी खुद फैसला करता है कि मेरे लिए क्या उचित, क्या अनुचित, क्या करूँ और क्या न करूँ? तुम्हारे जीवन में कुछ ऐसा है क्या जो फैसला करता हो? क्या तुम कभी ऐसा कह पाती हो कि, ‘’तू जो कह रही है, मैं नहीं सुनना चाहती और वहाँ से चली जाती हो|’’ सामने टी.वी चल रहा है, तुम खड़े हो जाते हो और जो आ रहा है, वो आ रहा है, आता जा रहा है| क्या तुम्हारे भीतर कोई ताकत है, जो कहे कि मुझे इसका भोग नहीं करना, बस ख़त्म? तुमारी स्थिति ठीक वैसी है कि तुम्हारे सामने कुछ भी पड़ रहा है और तुम उसे खाते जा रहे हो, खाते जा रहे हो। मेरे भीतर ऐसी क्षमता ही नहीं कि मैं जान पाऊँ कि क्या ग्रहण करना है और क्या नहीं? रेजिस्टेंसलेस हो, जैसे डस्टबिन होता है न कि हर कोई आकर उसमें कूड़ा फ़ेंक देता है। क्या डस्टबिन किसी से बोल पाता है कि, ‘’मुझ में अपना कूड़ा मत डालो?’’
तुम्हारा दिमाग भी ऐसा ही डस्टबिन बन गया है, पूरी दुनिया आती है और उसमें कूड़ा डालती रहती है, डालती रहती है। और तुम में कोई सामर्थ्य नहीं है कि मना कर पाओ, नहीं। कोई आकर के तुम्हारी शर्ट पर निशान लगा दे तो उससे लड़ते हो और तुम्हारे मन पर रोज़ाना धब्बे लगते हैं और तुम कुछ नहीं कहते क्यूंकि तुमको होश ही नहीं है कि धब्बे लग रहे हैं। तुम्हारा काबू ही नहीं है किसी चीज़ पर|
मन एक डस्टबिन बन गया है। समाज, परिवार, दोस्त, यार सब उसमें आकर के कुछ न कुछ कूड़ा डाल जाते हैं। कोई तुम्हें कूड़े से थोड़ा सा छुआ भी दे तो तुम उससे कितना लड़ोगे पर तुम्हे यहाँ खबर भी नहीं है कि तुम्हारे दिमाग को कूड़े से भर ही दिया गया है। देख रहे हो सिचुएशन ? इसी कूड़े का नाम है *फॉरेन इन्फ्लुएंसेस*। इसी से हल्का होना है, यही वो दस टन का बोझ है जो तुम्हारी सारी उर्जा सोखे ले रहा है। इसी से हल्के हो जाओगे तो लेज़िनेस बिलकुल नहीं बचेगी जीवन में। इसी ने तुम्हें भारी कर रखा है| अब इसमें एक पेंच है कि तुम्हें कूड़े से प्यार हो गया है, तुम उसे लव लेटर्स लिखते हो। तुमने कूड़े को बड़े प्यारे-प्यारे नाम दे रखे है: रिश्ते, सम्बन्ध, दोस्त, यार, घर, बड़े प्यारे नाम दे रखे हैं। उठ रही है उससे बदबू बिलकुल भयानक, पर तुमसे वो कूड़ा छोड़ा नहीं जा रहा। अब तुमने अगरबत्ती लगा रखी है, तो तुम्हारे अगरबत्ती लगाने से बदबू चली थोड़ी न जाएगी| इशारा समझ रहे हो? जो बिलकुल सड़ा हुआ है, जो बिलकुल त्याज्य है, जिसको छोड़ ही देना चाहिये, उसे तुमने पकड़ रखा है|
श्रोता: सर, फिर तो हमें फैमिली को छोड़ देना चाहिए?
वक्ता: बेटा , देखो आप फैमिली के नाम पर कर क्या रहे हो? आपके संबंधो का आधार क्या है? तुमने जो पकड़ भी रखा है, तो वो किस आधार पर पकड़ रखा है?
तुमने इस आधार पर पकड़ रखा है कि तुम्हारी जरूरते पूरी होती रहें। डर का आधार है और ज़रूरत का आधार है। और मैं कह रहा हूँ कि ये आधार तो उनके साथ भी अन्याय है, जिनको तुमने पकड़ रखा है। तुमने प्रेम के आधार पर नहीं पकड़ रखा क्यूंकि प्रेम कभी किसी पर बोझ नहीं बनता। इन संबंधो का आधार बदलो, लोग वहीँ रहेंगे जीवन में। जब संबंधो का आधार बदल जाएगा, जब वही सम्बन्ध ज़रूरत के सम्बन्ध के बजाए, प्रेम का सम्बन्ध बन जाएगा तो जीवन में बोझ नहीं रहेगा।
लोग नहीं बदल सकते लेकिन सम्बन्ध तो बदल सकता है। दो लोग वही हैं, पर उनके बीच में जो मतलब का सम्बन्ध है, क्या वो प्रेम का सम्बन्ध नहीं हो सकता| तुम्हारे सम्बन्ध मतलब के सम्बन्ध हैं, इसी कारण जीवन पर बोझ है, इसी कारण हालत ऐसी है कि जीवन में कोई ऊर्जा नहीं, कोई उत्सव नहीं, कोई उपलब्धि नहीं| संबंधों का आधार बदलो, प्रेम को जानो और प्रेम बेशर्त होता है| अपना मन बदलो क्योंकि ये आधार तुमने हीं बनाया है, समाज नहीं आता तुमसे पूछने कि तुम्हारे और तुम्हारे पिता के बीच में कैसा सम्बन्ध है| मन को बदलो, अपने मन को बदलो।
ये आधार तुमने ही बनाया है, तुम्हारे डरे हुए मन ने ही बनाया है और ये आधार बदलने की ताकत तुममें है। ये जो आधार तुमने बना रखे हैं, — फिर से बोलूँगा -– ये उस दूसरे व्यक्ति के साथ भी अन्याय है|
श्रोता: सर, ये तो हमें बचपन से ही बताया जाता है कि सब देखो, कुछ सीखोगे।
वक्ता: बेटा, हर चीज़ को सीखने वाला कौन है? तुम। ये कौन डिक्लयेर करता है कि हर चीज़ ऐसी है। तुम कह रहे हो कि समाज में ऐसा नहीं बना होता, मैं कह रहा हूँ कि तुम्हें समाज का क्या पता? एक आतंकवादी के आस पास का समाज कैसी होती है? उसके आस-पास कैसे लोग भरे होते हैं? आतंकवादी। तो उससे पूछो की सोसाइटी में कौन लोग होते हैं?
आतंकवादी।
एक वैज्ञानिक के आस-पास का समाज कैसा होगा? साइंटिस्ट्स का। एक बौध भिक्षु के आस पास का समाज कैसा होगा? तो उसको समाज में कैसे लोग दिखाई देंगे -बौद्ध भिक्षु। तुम अगर ये घोषणा कर रहे हो कि आस-पास के लोग सड़े हुए हैं, तो तुम कैसे हो? सड़े हुए। क्यूँकी तुम जैसे हो, तुम अपने आस-पास वैसा ही समाज निर्मित कर लेते हो, बेटा| तुम बदलो, समाज अपने आप बदल जाएगा|
पर मन के लिए ये कितनी सुविधाजनक बात है कि समाज हम पर हावी है। मन के लिए ये एक अच्छा बहाना है कि हम क्या करें? हम तो समाज के आगे बेबस हैं। तुम समाज को जानते कितना हो? तुम्हारी फोनबुक में कितने नंबर्स हैं? तुम्हारे लिए यही समाज है न? वो नंबर्स किसने फीड किये फोनबुक में? तुमने। दोस्त जो है तुम्हारे, वो किसने चुने? तुमने। ये समाज बनाया किसने तुम्हारे आस-पास? तुमने। किसी और समाज तुम्हारे समाज से बिलकुल अलग होगा क्यूंकि तुम्हारे दोस्त उसके दोस्त से बिलकुल अलग हैं। तुम बदलो, समाज अपने आप बदल जाएगा। तुम्हारे आस पास फिर ऐसे लोग रहेंगे जैसे होने चाहिए।
देखो, दो तीन अलग-अलग स्तर हो सकते हैं संबंधो के: जो सबसे निचले स्तर के सम्बन्ध हैं वो होते है बिलकुल मटेरियलिस्टिक, उसमें कोई अंडरस्टैंडिंग नहीं होती। जैसे लोहे और चुम्बक का सम्बन्ध। उसमें कोई अंडरस्टैंडिंग नहीं होती| न चुम्बक को पता है कि वो लोहे के पास क्यूँ जा रहा है और न ही लोहे को पता है कि वो चुम्बक की तरफ क्यूँ आकर्षित हो रहा है। इसमें दोनों पक्षों में किसी को भी नहीं पता की ये हो क्या रहा है। चाहो तो इसको लिख लो।
उससे ऊपर का सम्बन्ध होता है: एनिमल बेसिस रिलेशनशिप। यह आधारित होती है भय और लोभ पर। ये एक मतलब का सम्बन्ध होता है। इसमें इफ्स और बट्स बहुत सारे होते हैं। इसमें शर्तें बहुत सारी होती हैं और ये पूरी तरह सिचुएशनल होती है। इसका मतलब है अगर एक स्तिथि है, तो सम्बन्ध रहेगा और अगर ये स्थिति नहीं है, तो ये सम्बन्ध नहीं रहेगा। और फिर इनसे ऊपर आती है *ह्यूमन रिलेशनशिप*। ये आधारित होती है सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम पर और ये होती है पूर्णतया बेशर्त। इसमें शर्तें नहीं होती और अब तुम्हें ये देखना है कि तुम्हारे सम्बन्ध कैसे हैं और किस पर आधारित है? अगर तुम्हारे संबंधो में डर और लालच है, तो ये पशुता का सम्बन्ध है। देखो, कि तुम्हारे सम्बन्ध में कोई शर्त है या नहीं? क्यूंकि प्यार में शर्ते नहीं होती। अगर तुम्हारा एक दोस्त कहता है कि, ‘’तू मेरे लिए ऐसा कर नहीं तो मेरी दोस्ती खल्लास,‘’ तो समझ जाओ कि इसमें कहीं प्रेम नहीं है। ये एक एनिमल रिलेशनशिप है।
अगर तुम्हें कभी ये सुनने को मिल जाए कि, ‘’अगर तूने फ़लानी से शादी कर ली तो, तू मेरा बेटा नहीं है तो समझ जाओ कि ये पूर्णतया सम्बन्ध शर्त पर आधारित है। और प्रेम में शर्त नहीं होती। प्यार लेन देन नहीं, व्यापर नहीं। फिर तुमसे ये कहा जा रह है कि एक हाथ दे और एक हाथ ले| फिर तुमसे ये कहा जा रहा है कि, ‘’मैं तुझे पालूंगा-पोसूंगा और उसके बदले में तू मेरी कुछ शर्तें पूरी कर|’’ समझ में आ रही है बात? जीवन जीने योग्य तभी है जब संबंधो का आधार प्रेम है। इसके अलावा अगर संबंधो का आधार कुछ और है तो तुम मरे बराबर हो। दिखने में ऐसा लग रहा होगा कि चल रहे हो, फिर रहे हो पर हो मरे बराबर| प्रेम में कोई बोझ नहीं होता, प्रेम बड़ा हल्का होता है| उसमें कोई बोझ नहीं होता, वो मन पर दबाव की तरह नहीं बैठा रहता, वो तो बल्कि तुम्हें दबाव से और मुक्ति देता है| वो तुम्हें हमेशा मुक्ति देता है, चाहे वो किसी भी प्रकार का सम्बन्ध हो चाहे वो किसी दो आदमीयों के बीच का सम्बन्ध हो, चाहे तुम्हारे और किताबों के बीच का, वो हमेशा मुक्ति देता है| समबन्ध हमेशा प्रेम के ही होने चाहिए पर तुम्हारे तो तुम्हारी किताबों के साथ भी प्रेम सम्बन्ध के नहीं है| अब आप देखो न आप किताबों के पास कब जाते हो? जब डरे होते हो कि फ़ेल न हो जाओ| जब डेट शीट लग जाती है, तब जाते हो न किताबों के पास| तो इस कारण तो किताबों के पास जाते नहीं कि तुम्हें पढ़ाई से प्रेम है या इस कारण जाते हो? तुम तो इसलिए जाते हो कि कहीं फ़ेल न हो जाऊँ, ये क्या है? ये डर है| तो तुम्हारा और तुम्हारी किताबों का जो सम्बन्ध है, वो डर का सम्बन्ध है और इसीलिए तुम्हें पढ़ाई में कभी एक्सीलेंस नहीं हासिल हो पाती| क्यूँकी जो भी सम्बन्ध डर पर आधारित होगा, उसमें कभी एक्स्सिलेंस नहीं आ पाएगी, बोझ रहेगा और आलस रहेगा कि पढ़ते हुए आलस आता है न? तुम्हें किताबों के साथ कोई चाहे वो दो आदमियों के बीच का , चाहे एक किताब और आदमी के बीच का। पर तुम्हारे तो तुम्हारी किताबों के साथ भी प्रेम के सम्बन्ध नहीं होते।
एक्साम की डेट शीट लग गई तब तुम जाते हो किताब के पास। तुम इस कारण तो किताब के पास जाते नहीं कि किताब से प्रेम है। तो तुम्हारा और तुम्हारी किताब का क्या सम्बन्ध है? डर का समबन्ध है और यही कारण है कि तुमको पढ़ाई में कभी एक्सीलेंस नहीं मिलती। जो समबन्ध डर पर आधारित रहेगा, उसमें कभी एक्सीलेंस नहीं रहेगा सिर्फ़ बोझ रहेगा।
किताब पढ़ते हुए आलस आता है न क्यूंकि तुममें और किताब में प्रेम नहीं है आपस में। आ रहा है समझ में? ठीक है?
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।