जीवन बदलो, हर्ड इम्यूनिटी की प्रतीक्षा मत करो || आचार्य प्रशांत, कोरोना वायरस पर (2020)

Acharya Prashant

29 min
58 reads
जीवन बदलो, हर्ड इम्यूनिटी की प्रतीक्षा मत करो || आचार्य प्रशांत, कोरोना वायरस पर (2020)

प्रश्नकर्ता: आपके कोरोना वायरस सम्बन्धित जितने भी वीडियोज़ अभी हाल में आये हैं, उनमें आप सावधानी की बात करते हैं, चेतावनी की बात करते हैं, और कहते हैं कि सुधरो, बदलो, लेकिन और जगहों पर तो हम लगातार ये भी सुन रहे हैं, पढ़ रहे हैं कि हर्ड इम्यूनिटी हमें बचा ही लेगी। तो फिर हमें इतना परेशान होने की ज़रूरत क्या है? जवानों को तो वैसे भी ये वायरस (विषाणु) ज़्यादा नुकसान पहुँचा नहीं सकता।

आचार्य प्रशांत: दो तलों पर तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूँगा। पहला तल, आध्यात्मिक और दूसरा, वैज्ञानिक। आध्यात्मिक तल पर तो मैं तुमसे ये पूछूँगा कि तुम्हारा सवाल आ कहाँ से रहा है। मन की कौनसी वृत्ति है जो इस प्रश्न के माध्यम से अभिव्यक्त होना चाहती है? तुम कह रहे हो, ‘सुधरने की, सम्भलने की ज़रूरत क्या है?’ ज़िन्दगी और दुनिया पहले की तरह चल सकती है। हम बाहर निकलेंगे, अपने धन्धों और ढर्रों में मशगूल हो जाएँगे। जवान लोग हैं हम, हमें वैसे भी हर्ड इम्यूनिटी से सुरक्षा मिली हुई है। हमारा क्या बिगड़ना है?

हर्ड इम्यूनिटी को हिन्दी में कह सकते हो सामाजिक प्रतिरक्षा। बहुत सारे लोगों को एक समुदाय के जब वायरस लग जाता है तो उनके भीतर जो प्रतिरक्षा तन्त्र होता है, वो उनको इम्यून कर देता है। इम्यून माने सुरक्षित कर देता है। उनके शरीर में एंटीबॉडीज़ आ जाती हैं जो वायरस को पुन: आने नहीं देतीं। ऐसा कुछ मामलों में देखा गया है। कुछ वायरस के विरुद्ध हर्ड इम्यूनिटी को, इस सामाजिक प्रतिरक्षा को सफल पाया गया है। तो उसी की बात आजकल बहुत ज़्यादा हो रही है।

बल्कि स्वीडन जैसे कुछ देश हैं, जिन्होंने कहा कि भई, हमें ज़रूरत क्या है बहुत सख्त लॉकडाउन वगैरह की। तो उन्होंने बस अपने नागरिकों को सुझाव दे दिये कि आप सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) करें। माने सामाजिक रूप से, व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे से शारीरिक दूरी बनाकर रखें और बाकी आपकी मर्ज़ी है, आप काम-धन्धे चालू रखना चाहते हैं तो आप जानें, आप सड़कों पर आना चाहते हैं, आप जानें। इस तरह से करा। स्वीडन ने ऐसा करा, उसका भी उदाहरण लेकर बहुत लोग कहते हैं कि भाई, हम भी वो ही क्यों नहीं कर लेते।

ये सब तर्क जो लोग दे रहे हैं, वो अधिकांशत: वो लोग हैं जो किसी युक्ति से बस पुरानी व्यवस्था को कायम रखना चाहते हैं। ये मानसिक, आध्यात्मिक पक्ष है हर्ड इम्यूनिटी के पैरोकारों का। वो कह रहे हैं, ‘क्यों तुम हमारे पुराने ढर्रों में खलल डाल रहे हो भाई? बाहर निकलो।’ साठ-सत्तर प्रतिशत आबादी को जब वायरस संक्रमित कर लेगा, उसके बाद जो शेष बचती है तीस-चालीस प्रतिशत आबादी, उसको वायरस नहीं लगता।

कारण ये है कि वायरस को फिर छुपने की जगह नहीं मिलती न। उसको एक शरीर चाहिए मेहमान के तौर पर, होस्ट के तौर पर। वो होस्ट मिलना उसको बन्द हो जाता है। साठ-सत्तर प्रतिशत लोगों में तो अब इम्यूनिटी विकसित हो गयी। तो फिर बाकी लोग भी बच जाते हैं। तो कह रहे हैं, ‘बाहर निकलो, जल्दी-से-जल्दी संक्रमित हो जाओ। और जितनी जल्दी संक्रमित हो जाओगे उतनी जल्दी पूरे समुदाय को हर्ड इम्यूनिटी माने सामाजिक प्रतिरक्षा उपलब्ध हो जाएगी।’ ये उनका तर्क है।

तो वो कह रहे हैं, ‘घर में घुसने की जगह तो और ज़रूरी है कि पूरे जोश से निकलो बाहर, हिलो-मिलो, एक दूसरे को गले लगाओ।’ उनमें से कुछ तो यहाँ तक जाते हैं, कहते हैं कि खुद ही तुम क्यों नहीं संक्रमित हो जाते। जो चीज़ कल होने ही वाली है वो आज ही कर लो। मामले को निपटा दो। जवान हो, संक्रमित होओगे, दो-चार दिन बुखार आएगा, खाँसी-वाँसी होगी। कहते हैं, ‘हल्की बीमारी है, इससे कुछ होना है नहीं, और निपट जाओ। एक बार तुमको संक्रमण लग गया है, उसके बाद दोबारा नहीं लगेगा।’

अब सुनने में ये तर्क बड़ा आकर्षक लगता है कि हाँ भई, बात तो बढ़िया है। क्यों हम बहुत बड़ी मानसिक और आर्थिक कीमत अदा करें लॉकडाउन वगैरह की? क्यों हम अपने पुराने ढर्रों को और व्यवस्थाओं को बदलें, उन्हें चुनौती दें? उससे कहीं बढ़िया है कि जल्दी से संक्रमित हो जाओ और संक्रमण का मतलब है कि अब निश्चित हो गया कि तुम्हें दोबारा संक्रमण नहीं होगा, और न तुम्हारे माध्यम से किसी और को अब संक्रमण होगा।

क्या बात है! “एक पंथ दो काज।”

तो सतही तौर पर, मैंने कहा कि ये जो हर्ड इम्यूनिटी का तर्क है, ये बड़ा आकर्षक है, लुभा रहा है। और इस तर्क को और ज़्यादा लुभावना बनाने के लिए कह दिया जाता है कि इस बीमारी से तुम्हें कुछ होगा नहीं, ये ज़्यादा घातक वगैरह नहीं है। और कह दिया जाता है कि भई, भारत में तो वैसे भी अस्सी-नब्बे प्रतिशत जनता पैंतालीस वर्ष से कम आयु की है। और युवाओं में तो मृत्यु दर इस वायरस से कम ही है। तो क्या फ़र्क पड़ जाएगा? ‘अरे, आम नज़ला, खाँसी, जुकाम है। दो-चार दिन परेशान रहना, उसके बाद ठीक होकर के अपना तुम फिर से काम-धन्धे पर लग जाना, अपनी पुरानी दुनिया खड़ी कर लेना।

तो जो लोग पुरानी दुनिया के बड़े हिमायती हैं और पुरानी दुनिया से जिनके स्वार्थ जुड़े हुए हैं, मैं समझता हूँ, उनको ही ज़्यादा लुभाता है ये हर्ड इम्यूनिटी का तर्क। कुछ बातें हैं जिनको वो या तो स्वार्थवश दबा जाते हैं या उन बातों से वो अनभिज्ञ ही हैं। तो अब मुझे आना पड़ेगा, ये जो हर्ड इम्यूनिटी का तर्क है, इसके वैज्ञानिक पक्ष पर। तो तर्क क्या है समझिएगा। एक आँकड़े से बात शुरू करता हूँ। कल-परसों में यूनाइटेड स्टेट्स अमेरिका में होने वाली मौतों की संख्या एक लाख पहुँच जानी है। नब्बे हज़ार का आँकड़ा तो वो आज ही पार कर चुकी है। नब्बे हज़ार का आँकड़ा पार कर चुकी है। और ये माना जा रहा है कि अभी तक भी अमेरिका की मुश्किल से तीन से चार प्रतिशत आबादी संक्रमित हुई है।

मुश्किल से तीन से चार प्रतिशत आबादी को ये संक्रमण मिला है। हालाँकि आधिकारिक तौर पर जो मामले घोषित किये गये हैं कि भई इतने लोगों को हमारे यहाँ संक्रमण है, वो तीन-चार प्रतिशत भी नहीं है। वो तीन-चार प्रतिशत से भी बहुत कम है। एक प्रतिशत भी नहीं है। लेकिन छुपे हुए मामले होते हैं। है न? ऐसे लोग होते हैं जो कोई चिह्न, लक्षण नहीं दिखाते। एसिम्प्टोमटिक (अलक्षणी) होते हैं। वो बिना लक्षण के ही वायरस अपने भीतर लेकर के घूमते रहते हैं। तो उनको भी गिन लिया ताकि वैज्ञानिक तौर पर जो गिनती है वो बिलकुल पुख्ता रहे। उनको तुम सबको भी गिन लो, तो जो कुल मामले हैं अमेरिका में, जो अभी तक संक्रमित हुए हैं वो अधिक-से-अधिक अमेरिका की आबादी का तीन-चार प्रतिशत है। ठीक है न?

बत्तीस-पैंतीस करोड़ की अमेरिका की आबादी है। अब अगर मान लो चार प्रतिशत भी हैं, जो अधिक-से-अधिक का आँकड़ा है। चार प्रतिशत आबादी के संक्रमित होने पर एख लाख मौतें हैं तो हर्ड इम्यूनिटी के लिए हमको कम-से-कम कितने प्रतिशत आबादी को संक्रमित करना है? सत्तर प्रतिशत। चार प्रतिशत आबादी संक्रमित हुई तो एक लाख मौतें हो गयीं। और चार प्रतिशत भी अभी हम बहुत बढ़ाकर कह रहे हैं। हो सकता है कि संक्रमित एक या दो ही प्रतिशत हुई हो आबादी। बात समझ में आ रही है?

हम चार प्रतिशत माने ले रहे हैं। चार प्रतिशत आबादी के संक्रमित होने पर एक लाख मौतें हैं। सत्तर प्रतिशत आबादी के संक्रमित होने पर कितनी मौतें?

श्रोता: सत्रह-अठारह लाख।

आचार्य: सत्रह-अठारह लाख। ये आप कम बोल रहे हैं, क्योंकि अभी आप बस वो मौतें गिन रहे हैं जो तब हुई हैं जब अस्पताल आने वाले रोगियों की संख्या सीमित है। आपको हर्ड इम्यूनिटी चाहिए और जल्दी चाहिए तो आप क्या करेंगे? आप कहेंगे जल्दी से, महीने-दो-महीने के अन्दर ही सब संक्रमित हो जाएँ। जब जल्दी ही सब संक्रमित हो जाएँगे तो ये जो सत्तर प्रतिशत आबादी संक्रमित होने वाली है, ये एक साथ टूटेगी अस्पतालों पर। ठीक? अभी तक वो आबादी अस्पताल किस तरीके से जा रही है? वो रुक-रुककर, ठहर-ठहरकर जा रही है। एक स्टैगर्ड तरीके से जा रही है।

आप कह रहे हैं, ‘साहब, हमें हर्ड इम्यूनिटी चाहिए।’ ठीक है, हर्ड इम्यूनिटी चाहिए, सब निकल पड़ो, एक-दूसरे से मिल लो। पूरी आबादी फिर टूटेगी अस्पतालों पर। फिर अस्पतालों के पास आपकी जान बचाने का मौका नहीं मिलेगा। तो अभी अस्पताल जाने वालों में से मरने वाले लोगों का अनुपात जितना है वो अनुपात ज़बरदस्त रूप से बढ़ जाएगा, अगर आपने हर्ड इम्यूनिटी के सिद्धान्त का पालन किया, उसे आपने वरीयता दी। बात समझ रहे हो?

तो सत्रह-अठारह लाख मौतें नहीं होंगी। हमने तो सीधा-सीधा गणित कर दिया कि चार प्रतिशत आबादी संक्रमित है तो एख लाख मौतें, तो सत्तर प्रतिशत आबादी, जो हमें हर्ड इम्यूनिटी के थ्रेश्होल्ड (सीमा) के लिए चाहिए, उसके लिए हमने कह दिया सत्रह-अठारह लाख मौतें। नहीं, सत्रह-अठारह लाख मौतें नहीं होंगी। दिल काँप जाएगा ये अनुमान लगाने में भी कि कितनी मौतें हो सकती हैं। कोई बड़ी बात नहीं हम करोड़ों में बात कर रहे हों। बात समझ में आ रही है?

तो ये तो पहली चीज़, आप तैयार हो इतनी मौतें झेलने को? जो लोग कहते हैं कि अरे, बाहर निकलो न, जल्दी से काम-धन्धा शुरू करो, हर्ड इम्यूनिटी लाओ। मैं पूछ रहा हूँ, ‘इतनी मौतें झेलने को तैयार हो?’ हर्ड इम्यूनिटी की तो बात कर रहे हो। और वो सब मौतें फिर अगले दो-तीन महीने में हो जानी हैं। क्योंकि हर्ड इम्यूनिटी का तो मतलब ही है कि सबको लग जाए जल्दी-से-जल्दी ताकि फिर पूरी छूट मिल जाए घूमने-फिरने की, पुरानी व्यवस्था पर पुराने तरीकों से काम करने की। हर्ड इम्यूनिटी का तो मतलब ही यही है। हम तैयार हैं क्या इतनी मौतें झेलने के लिए?

और मैंने कहा, अट्ठारह नहीं, वो पता नहीं कितना बड़ा आँकड़ा होगा। और अभी उसमें एक बात हमने जोड़ी नहीं है। क्या? जब उस स्तर पर मौतें होती हैं तो कानून व्यवस्था भी टूटकर बिखर जाती है। सिर्फ़ चिकित्सा व्यवस्था ही नहीं बिखरती। ऐसा नहीं कि फिर सिर्फ़ अस्पतालों पर बहुत दबाव पड़ रहा होगा। फिर सरकारी प्रबन्धन पर, प्रशासन पर और कानून व्यवस्था पर भी बहुत ज़बरदस्त दबाव पड़ेगा। पूरा जो सामाजिक ढाँचा है, वही एकदम टूटकर बिखर जाना है। हम तैयार हैं उसके लिए? हर्ड इम्यूनिटी की बात तो हम कर रहे हैं। अब आगे बढ़ते हैं।

हर्ड इम्यूनिटी के जो पैरोकार हैं वो कहते हैं कि साहब, अमेरिका में जितनी मौतें हो रही हैं, हिन्दुस्तान में नहीं होंगी क्योंकि हिन्दुस्तानी तो पैदाइशी बलवान लोग होते हैं। हमारा प्रतिरक्षा तन्त्र बड़ा मजबूत होता है। ये अमेरिकन तो ऐसे ही दबे-कुचले, कमज़ोर लोग होते हैं। ऐसे ही तीस-तीस, चालीस-चालीस किलो के होते हैं। इनका कुछ वज़न-वज़न भी नहीं होता, एकदम मरगिल्ले। हिन्दुस्तानी तगड़ा आदमी है। हमारी रगों में खून नहीं, अमृत दौड़ता है। हम नहीं मरने वाले। हमें क्या होगा?

वो फिर बड़े ज़बरदस्त देसी तर्क बताते हैं। वो कहते हैं, ‘देखो, अमेरिका वाले साफ ज़्यादा रहते हैं न, तो इसीलिए उनका जो इम्यून सिस्टम है, जो प्रतिरक्षा तन्त्र है, वो पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता। उनके बच्चों को बचपन से ही कभी वायरल एक्सपोज़र मिला ही नहीं। वायरस से उनके बच्चों का भी सामना होता ही नहीं। तो इसलिए उनकी जो एंटीबॉडीज़ हैं वो कमज़ोर रह जाती हैं भीतर।’ हम तो बचपन से ही कीचड़ ही खाते हैं, उसी में नहाते हैं। तो इसीलिए हमारा जो प्रतिरक्षा तन्त्र है, वो बड़ा ज़बरदस्त है। हमें नहीं लगने का कोरोना-वोरोना।

ये सब बातें ये हर्ड म्यूनिटी के हिमायती लोग बता रहे हैं। पगलों, जानते हो आज से ठीक सौ साल पहले स्पेनिश फ्लू जब आया था, एंफ्लूएंज़ा...। और कोरोना वायरस में मृत्युदर एंफ्लूएंज़ा से दस गुना ज़्यादा है, ठीक दस गुना ज़्यादा। मैं आपको आज से सौ साल पीछे ले जा रहा हूँ, जब एंफ्लूएंज़ा का आक्रमण हुआ था भारत पर। और वो एंफ्लूएंज़ा इस नोवेल कोरोना वायरस से सिर्फ़ एक बटा दस घातक क्षमता रखती थी।

तुम्हें पता है भारत में कितनी मौतें हुई थीं? दुनिया भर में जितनी मौतें हुई थीं, उनमें से अधिकांश मौतें भारत में ही हुई थीं। साफ आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं कितने मरे थे, पर कम-से-कम बीस लाख और अधिक-से-अधिक शायद कई करोड़ लोग मरे थे।

अगर तुम्हें पता नहीं है तो जान लो कि उस स्पेनिश फ्लू से भारत में जो मौतें हुई हैं वो लाख-करोड़ में नहीं गिनी जातीं। वो ऐसे गिनी जाती हैं कि भारत की कितनी प्रतिशत आबादी कम हो गयी। इस तरीके से गिनी जाती हैं स्पेनिश फ्लू की मौतें। उन्हीं भारतीयों में वो मौतें हुई थीं जिनको लेकर तुम कह रहे हो, हम तो पैदाइशी तगड़े होते हैं। हमें कोई वायरस लगता कहाँ है। हाँ, मान लिया कि सौ साल में हमारे रहने का और खानपान का स्तर बढ़ा है, लेकिन भूलते क्यों हो कि आज भी दुनिया में सबसे ज़्यादा कुपोषित लोग और कुपोषित बच्चे भारत में हैं। तुम कितने तगड़े हो गये भाई?

दुनिया में सबसे ज़्यादा कुपोषित बच्चे और कुपोषित लोग आज भी भारत में हैं। हाइपरटेंशन माने उच्च रक्तचाप और डायबिटीज — मधुमेह और दिल की बीमारी, इन सबके सबसे ज़्यादा मामले भारत में हैं। इक्कीस लाख तो भारत में एचआइवी (मानवीय प्रतिरक्षी अपूर्णता विषाणु) पॉज़िटिव बैठे हुए हैं। और जानते हो जो एचआइवी पॉज़िटिव होता है, उसका इम्यून सिस्टम कितना कमज़ोर होता है। वो बेचारा बस किसी तरह जी रहा है।

उसको तुमने जहाँ कोई इन्फेक्शन संक्रमण दिया कि वो मुकाबला नहीं कर पाएगा। उसको तो एक साधारण जुकाम भी हो जाए तो उसके लिए बड़ा मुश्किल होता है जुकाम से भी पार पाना। वायरस का काम ही यही होता है एचआइवी का, वो तुम्हारे पूरे प्रतिरक्षा तन्त्र को अन्दर से खत्म कर देता है। अब तुम किसी बीमारी का मुकाबला नहीं कर सकते। उसको बोलते ही हैं न इम्यूनो डेफिशियेंसी सिंड्रोम।

भारत के स्वास्थ्य परिदृश्य का खयाल किये बिना हर्ड इम्यूनिटी की बातें भारतवासी कर रहे हैं। और खास तौर पर वो लोग जो बड़े इच्छुक हैं जल्दी से बाहर निकालें, पुरानी ज़िन्दगी वापस मिले। समझ में आ रही है बात? क्या चाहते हो, मौत ही मौत बरसें चारों तरफ़? मैं आपके तर्कों को समझता हूँ। आप कह रहे हैं कि गरीबों पर गाज गिर रही है। आप कह रहे हैं आर्थिक घाटा बहुत हो रहा है। पर साहब, ये तो बताइए अगर आप जीते रहे तो आगे कभी कमा लेंगे पैसा पाँच साल दस साल बाद। मर ही गये तो? और फिर मरने के लिए आपके पास कोई समुचित कारण हो तो बिलकुल आप प्राणोत्सर्ग कर दीजिए। आप कहिए, ‘नहीं, बहुत ज़बरदस्त चीज़ थी, इसके लिए तो जान कुर्बान करना भी जायज़ था।’ मैं कहूँगा, ‘बढ़िया किया, ठीक किया।’ पर मूर्खता में जान गंवाना, ये क्या है?

इसी तरीके से, आगे बढ़िएगा। लोग कहते हैं कि हर्ड इम्यूनिटी आ जाएगी, फिर तो निवृत हो गये, निपट गये। अब क्या करेगा कोरोना हमारा? जी नहीं साहब, आप होशियार हैं तो कोरोना आप से थोड़ा ज़्यादा ही होशियार है। तुम डाल-डाल, वो पात-पात। अभी तक कुछ निश्चित नहीं है कि इससे जो आपको इम्यूनिटी मिलती है वो कितने दिन चलती है। कोरोना अपना रूप-रंग बदलता है। वो बहरूपिया है, कतई मायावी है वो। तो आप में कोरोना के एक स्ट्रेन के प्रति इम्यूनिटी विकसित होगी, वो तब तक दूसरा हो जाएगा। म्यूटेट (रूप बदलना) कर जाएगा। अब क्या कर लोगे वो इम्यूनिटी रखकर?

इतना ही नहीं, अगर मान लिया कि वही स्ट्रेन भी, वायरस का वही संस्करण भी, वही वर्जन भी आपके सामने आ गया तो भी आपने जो इम्यूनिटी विकसित करी है वो चलनी है या तो छ: महीने या साल भर या डेढ़ साल। लम्बे समय तक नहीं चलनी है। तो क्यों.... ? फिर, जिन देशों में ये बात करी गयी थी कि हम प्रयोग करेंगे हर्ड इम्यूनिटी का, वहां पर सामाजिक व्यवस्था भई ज़रा दूसरे तरीके की है। स्वीडन ने कहा कि वी विल सेंड द एल्डर्ली टू ओल्ड एज होम्स ओर स्पेशल केयर होम्स (हम बुज़ुर्गों को वृद्धाश्रम या विशेष सुरक्षा केन्द्र भेज देंगे)।

हम अपने बूढ़ों को विशेष सुरक्षा केंद्रों में भेज देंगे। वहाँ ऐसा चलता है क्योंकि वहाँ जो बूढ़े लोग हैं वो तो वैसे ही अलग रह रहे होते हैं। बहुत बड़ा अनुपात होता है ऐसे वृद्धजनों का जो अपने लड़के-लड़कियों के पास रह ही नहीं रहे होते। लड़के-लड़की उन्हें साथ रखना नहीं चाहते या वृद्धजन साथ रहना नहीं चाहते, जो भी बात हो।

ये मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि हम बात करते हैं कि कोरोना से अधिकांश मौतें साठ से ऊपर की उम्र के लोगों में होती है। और ज़बरदस्त होती हैं। इसलिए होती हैं क्योंकि कोरोना में कोमोरबिडिटीज़ का बड़ा महत्व है। कोमोरबिडिटी माने आपको पहले ही कोई बीमारी थी, साथ में कोरोना लग गया तो आप अपनी पहले वाली बीमारी के सामने खड़े नहीं रह पाये। आप चाहो तो फिर ये भी कह सकते हो कि मैं कोरोना से मरा ही नहीं, मैं तो मरा हूँ वो जो पहले वाली बीमारी है उससे। रूस ऐसा ही कर रहा है।

आप देखेंगे कि रूस में संक्रमण के कितने मामले हैं तो आप पाएँगे संक्रमण के तो बड़े मामले हैं। अमेरिका के बाद रूस का ही नम्बर आता है संक्रमण के मामलों में। पर अगर आप वहाँ देखेंगे कि मौतें कितनी हुई हैं तो बहुत कम, दो-तीन हज़ार मुश्किल से। ये कैसी बात? इतना संक्रमण, मौतें कैसे कम! क्योंकि वहाँ जो मौतें होती हैं वो पता करते हैं इसको पहले से था कुछ, कहते हैं, ‘अच्छा, हाइपरटेंशन था, तो इसकी मौत हाइपरटेंशन से हुई है।’

और उनकी बात टेक्निकली गलत भी नहीं है। ठीक है? ये जो आपकी आबादी है पैंसठ वर्ष से ऊपर के लोगों की, आप जानते हैं भारत में कितनी है। एक-सौ-अड़तीस करोड़ लोगों का देश है जिसमें पाँच करोड़ लोग हैं पैंसठ वर्ष से ऊपर की उम्र के, और वो सब कमज़ोर लोग हैं।

हमारे वृद्धजन स्वीडन के बुज़ुर्गों जैसी सेहत नहीं रखते। मैं यूरोप में था और ये देखकर के हैरान हुआ करता था कि यहाँ कितनी बड़ी संख्या में बूढ़े लोग साइकिलों पर निकलते हैं शाम को। और क्या उनकी फिटनेस थी! भारत के नौजवानों को पानी पिला दें। और वो सत्तर-सत्तर, अस्सी-अस्सी साल के लोग हैं, वो दौड़ लगा रहे हैं, वो साइकिलों पर निकल रहे हैं। ये उनकी सेहत का हाल है। और हमारे दादा-दादी कैसे हैं? वो भी तुम देख लो। वो टिक पाएँगे? और पाँच करोड़ की उनकी सँख्या है। और स्वीडन की तरह वो अलग नहीं रहते हैं। वो तुम्हारे ही घरों में रहते हैं।

भारत का सामाजिक ढाँचा अलग है। यहाँ पर बुज़ुर्ग आदमी अभी तक घर से बाहर निकालकर फेंका नहीं गया है। तो तुम्हारे ही घर में रहता है। अब जवान आदमी कह रहा है, ‘साहब, मैं तो हर्ड इम्यूनिटी चाहता हूँ तो मैं तो जा रहा हूँ बाहर। मैं संक्रमित होकर आ जाऊँगा।’ तुम तो संक्रमित होकर आ गये और तुम्हारे ही घर में वो बगल के कमरे-कोठरी में वो रहती है बुढ़िया, तुम्हारी दादी, उसकी जान ले ली तुमने। अब उसको कौन बचाएगा, बताओ?

ये तो तुम कर नहीं पाओगे, न करना चाहिए कि दादी को तुमने भी वृद्धाश्रम भेज दिया। और वृद्धाश्रम होते कहाँ हैं? हिन्दुस्तान में वो अभी प्रथा ही नहीं है, वो कॉन्सेप्ट (अवधारणा) ही नहीं है। अच्छी बात है कि नहीं हैं। तो यहाँ तो अगर जवान आदमी को लग रहा है तो उस जवान आदमी के घर में जो बच्चा है, उसको भी लगेगा। और जो बूढ़ा है उसको भी लगेगा। भारत के परिप्रेक्ष्य में हर्ड इम्यूनिटी एकदम मूर्खतापूर्ण खयाल है।

फिर तुम्हारी स्वास्थ्य व्यवस्था उन देशों जैसी नहीं है। स्वीडन जैसी नहीं है। तुम्हारा यहाँ जो पूरा ढाँचा ही है, वो वैसा नहीं है। एक बार बाढ़ आ गयी मामलों की, ये देश, ये समाज नहीं झेल पाएगा। तो वैसे ही हम परेशान हैं, और आफ़त मत आमन्त्रित करो। इस तरह के तर्कों में मत पड़ो कि निकले हैं बाइक लेकर के चार-पाँच यार और इकट्ठे चिकन की दुकान पर खड़े होकर के उसकी टाँग चबा रहे हैं और गले मिल रहे हैं। और कोई पूछे, ‘कर क्या रहे हो?’ तो बोलें, ‘हम समाज पर अहसान कर रहे हैं।’ हम चाहते हैं कि हम जल्दी-से-जल्दी संक्रमित हो जाएँ। पूरे देश में हर्ड इम्यूनिटी आएगी। ये लोग जो ऐसा करें, उन्हें सामाजिक अपराधी मानना। बात कुछ आ रही है समझ में?

तो फिर तरीका क्या है? जो तरीका है वो थोड़ा कठिन है, इसीलिए हम उस तरीके से मुँह चुरा रहे हैं। तरीका समझिए। हर्ड इम्यूनिटी शायद आएगी। लेकिन हमारे लिए आवश्यक है कि वो धीरे-धीरे आये। जल्दी से न आये। जल्दी से आएगी तो प्रलय की तरह आएगी। अगर उसे हम जल्दी आमन्त्रित करेंगे तो वो करोड़ों लाशें गिराकर आएगी। कोरोना वायरस, भले ही हम कह दें कि बहुत ज़्यादा घातक नहीं है, पर भूलिएगा नहीं, अगर इससे मृत्यु दर शून्य-दशमलव-एक या दो प्रतिशत भी है तो बहुत ज़्यादा है।

एक व्यक्ति जो मरता है, वो एक मौत नहीं होती। वो अपने साथ न जाने कितनों को मानसिक रूप से मार जाता है। सिर्फ़ ये मत गिनिएगा कि कितने लोग मरे, ये गिनिएगा कितने परिवार मरे। तो मौतों को हल्के में मत लीजिए। मौत कोई आँकड़ा नहीं होती कि आप कहें, ‘इतने लोग मरेंगे, चलो कोई बात नहीं।’ हर्ड इम्यूनिटी को शनै:-शनै: आने दीजिए। लगने दीजिए साल, दो साल।

लोग संक्रमित तो हो ही रहे हैं। जब लोग संक्रमित हो रहे हैं तो धीरे-धीरे करके हर्ड इम्यूनिटी भी आ ही जाएगी। उसे तत्काल आमन्त्रित मत करिए। तब तक क्या करना है? तब तक तो इस आपदा का प्रबन्धन करना होगा और वो प्रबन्धन दो तरीके से करना होगा। पहली चीज़ अर्थव्यवस्था बिलकुल ही डूब न जाए, इसके लिए बीच-बीच में उन क्षेत्रों को खोल देना होगा, आर्थिक गतिविधियों के लिए, जिन क्षेत्रों में संक्रमण कम नज़र आ रहा है।

खोल दो, जब खोलोगे तो कुछ हफ़्तों में या एकाध-दो महीने में पाओगे कि वहाँ पर संक्रमण का स्तर बढ़ गया। जब बढ़ जाएगा तो पुनः लॉकडाउन करो। खोलो, कुछ अर्थव्यवस्था चलने दो, फिर लॉकडाउन करो। फिर जब बढ़ जाए, फिर बन्द, फिर कम हो जाए, फिर खोलो। ऐसे चलाना पड़ेगा। और साथ-ही-साथ हमको सामाजिक और आर्थिक रूप से काम करने के और जीने के नये तरीके खोजने पड़ेंगे। समझो बात को।

हम ये नहीं कह सकते कि अर्थव्यवस्था पहले जिन तरीकों से चलती थी वैसे ही चलेगी, क्योंकि वैसे अब नहीं चल पाएगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन से सन्देश आया है कि कोई आवश्यक नहीं है कि वैक्सीन अगले दो साल में भी निर्मित हो ही जाए। हम आज तक जुकाम की वैक्सीन तो निकाल नहीं पाये। कोई आवश्यक है कि हम इस वायरस की वैक्सीन निकाल लें? तो हो सकता है कि हमें अब सदा इसके साथ रहना पड़े या कम-से-कम दो-चार साल तो रहना ही पड़े जब तक कि वही हर्ड इम्यूनिटी विकसित न हो जाए।

हमें नहीं पता, लेकिन ये पक्का है कि ये जल्दी से टलने वाली बला तो नहीं ही है। तो हमें काम करने के, जीने के नये तरीके निकालने पड़ेंगे। यही बात मैं बार-बार, बार-बार अपने हर सन्देश में आप लोगों से कह रहा हूँ। पुरानी व्यवस्था का खयाल मत करो। पुराने ढर्रों से इतना मोह अच्छा नहीं कि नहीं, हमें वैसे ही चलना है जैसे पहले चलते थे। भाई, दूसरे तरीके खोजो, और रोओ मत कि दूसरे तरीके कहाँ हैं, रोज़गार कहाँ हैं। अब वो तुम्हारे ऊपर है, देखो भाई। तुम्हारी ज़िम्मेदारी कोई और तो उठाएगा नहीं।

हर आदमी अकेला पैदा होता है, अकेला जीता है, अकेला जाता है। तो मेरी बात सुनने में कटु ज़रूर लगेगी लेकिन हर आदमी को अपने लिए अब नये तौर-तरीके भी खोजने पड़ेंगे। ये बुद्धि किसलिए दी है भगवान ने? और ये बाज़ू किसलिए दी हैं? मेहनत करने के लिए न।

तो अगर तुम्हारा रोज़गार छिन रहा है या घाटे में जा रहा है तो तुम्हारे पास अब कोई विकल्प नहीं है। काम के नये तरीके खोजो, युक्ति लगाओ ज़रा, सोचो। हर आपदा आफ़त तो होती-ही-होती है, साथ में अवसर भी होती है। तो तलाशो न कि नये अवसर कहाँ हैं। एक नये तरीके की अर्थव्यवस्था निर्मित करनी पड़ेगी। सामाजिक मेल-जोल के और सामाजिक रिश्तेदारी के भी नये तरीके विकसित करने पड़ेंगे।

हम बैठे हुए हैं इंतज़ार में। हमने सबकुछ रोक दिया है लॉकडाउन में और अब हम इंतज़ार कर रहे है कि नहीं, लॉकडाउन खुलेगा। फिर हम बिलकुल पुराने तरीके से ही काम करेंगे और पुराने तरीके से ही मेल-जोल करेंगे। भाई, तुम पुराने तरीकों पर अब लौटकर नहीं जा सकते। ये पत्थर की लकीर है। बेकार में अपनेआप को धोखा मत दो।

तुम्हारी प्रतीक्षा व्यर्थ जाएगी। तुम बैठे इंतज़ार ही करते रह जाओगे कि वही सुख भरे दिन फिर से लौटकर आएँगे। वो नहीं लौटकर आने वाले। वो कभी शायद अब लौटकर न आयें। मानव इतिहास एक मोड़ अब ले चुका है। तो कुछ नया ही करना पड़ेगा। झूठी उम्मीदें अब छोड़ो और नयी ज़िन्दगी की तरफ़ ध्यान लगाओ, विचार करो, कोशिश करो।

समझ में आ रही है बात?

हर्ड इम्यूनिटी तो विकसित होनी-ही-होनी है। वो तो तुम मजबूर है, वो तो विकसित अपनेआप होगी क्योंकि लोग संक्रमित होते जा रहे हैं। धीरे-धीरे करके, धीरे-धीरे करके वो साठ-सत्तर प्रतिशत का आँकड़ा भी आ ही जाएगा जो हमें हर्ड इम्यूनिटी के लिए चाहिए।

पर मैं ज़ोर देकर के कह रहा हूँ कि हमें उस साठ-सत्तर प्रतिशत के आँकड़े तक धीरे-धीरे पहुँचना चाहिए, एक झटके में नहीं। और धीरे-धीरे उस तक पहुँचने में हो सकता है कई महीने लगें, कई साल लगें। तब तक हमारे लिए आवश्यक है कि हम एक नये तरीके का जीवन विकसित करें। और ये मौका है न, पहले से बेहतर जीवन विकसित करो। पर हमारा आलस और पुरानी व्यवस्था ने हमें जो सुरक्षा दे रखी थी और उससे हमें जो मोह, लगाव हो गया था, उसके कारण हम कहते हैं, ‘नहीं, नहीं, नया कौन सोचे? नया कौन करे? वो ही पुराने जैसा मिल जाए।’ और हम छाती पीटकर रोते हैं कि बड़ा नुकसान हो रहा है, बड़ा नुकसान हो रहा है। क्या करें? वो...।

अरे भाई, नुकसान हो रहा है तो अब वो नुकसान तय है, निश्चित है। कुछ काम ऐसे हैं अर्थव्यवस्था में भी, जो शायद अब लौटकर नहीं आने वाले। कम-से-कम दो-तीन साल तो नहीं लौटकर आने वाले। अब या तो तुम हाथ पर हाथ धरे इंतज़ार करते रहो या अपने बुद्धि और बाहुबल के प्रयोग से अपने लिए एक नयी सच्चाई का निर्माण करो। यही मेरी सलाह है।

जो मेरी सलाह है, वो मेहनत माँगती है। इसलिए कई लोगों को अजीब लग रही है। प्रश्नकर्ता ने भी एक तरह से आपत्ति ही जतायी है कि आचार्य जी आप बार-बार क्यों बोलते रहते हो, क्यों बोलते रहते हो कि बदलो, सुधरो, कुछ और करो। हम क्यों कुछ और करें? हम तो बाहर निकलेंगे, फिर अपने पुराने चाल-चलन पर। और हमारे पुराने चाल-चलन से फ़ायदा ये होगा कि हमें हर्ड इम्यूनिटी मिल जाएगी।

मैं आपको आगाह कर रहा हूँ। आपकी सोच प्राणघातक हो जाएगी करोड़ों लोगों के लिए। ये मत सोचिएगा। और कई बार कह चुका, अभी पिछले पन्द्रह-बीस मिनट से फिर कह रहा हूँ, हर्ड इम्यूनिटी अच्छी चीज़ है। लेकिन उसे धीरे-धीरे आना होगा। कम-से-कम साल भर लगे उसको आने में। और ज़्यादा लगे। जल्दी आ गयी तो मौत बरसेगी, ऐसे अनुपात में जिसका सामना हमने पहले कभी नहीं करा है। ऐसे आँकड़े सामने आएँगे जो हमें बड़े-बड़े विश्वयुद्धों ने नहीं दिखाये हैं। सबकुछ बिखर जाएगा। आदमी मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाएगा। वो चोट हम बर्दाश्त कर नहीं पाएँगे। तो वो खेल खेलने की कोशिश मत करिए, सब जल जाएँगे।

जो दूसरा रास्ता है, वो मेहनत का रास्ता है। वो रास्ता अपनाइए। मान लीजिए कि अभी ऐसा ही रहेगा। लोगों को बीच-बीच में घर से निकलने की सहूलियत मिलेगी, लेकिन जब वो बाहर निकलेंगे, संक्रमण पुन: फैलेगा। फिर उन्हें फिर घर में कैद होना पड़ेगा कुछ दिनों के लिए। तो ये अभी खेल ऐसे ही चलना है। आप इस खेल के साथ अब नयी तरकीबें निकालिए। आपको इसी खेल के साथ अब समायोजित होना पड़ेगा, इसी के साथ आपको एडजस्ट करना पड़ेगा। और आपको सिर्फ़ एडजस्ट नहीं करना है। आपको अब अपनी बुद्धि दिखाकर और अपनी मेहनत दिखाकर इस नये खेल को जीतना भी है।

भई, इंसान का मतलब यही है न कि बाहर की परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं, परिस्थितियाँ जो भी रहें, हम उन परिस्थितियों में अपना दम-खम और अपना जौहर दिखा जाते हैं। आपमें से कई लोग, मैं ये बोल रहा हूँ, और सोच रहे होंगे, ‘ऐं! कहना आसान है, करना मुश्किल है, खुद पर पड़ेगी तो जानेंगे।’ इस तरह की बातें भी चल रही होगी। भई, आज तो लाइव है तो लाइव चैट पर भी लोग अपने-अपने उद्गार व्यक्त ही कर रहे होंगे। उनसे मैं बता दूँ कि ऐसा नहीं है कि मैं आपको बस सलाह दे रहा हूँ। संस्था पर भी, हमारे काम, हमारे मिशन पर भी बड़ी आफ़त आयी हुई है। हम जाते थे, लोगों से मिलते थे। महीने में चार दफ़े तो हमारे शिविर हुआ करते थे देश में अलग-अलग जगह। कैसे करें? लेकिन हम हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ गये, न छाती पीटकर रोने लगे।

हमने दूसरा तरीका निकाला है। और वो दूसरा तरीका अभी बहुत सफल या कारगर नहीं भी है तो भी हम कोशिश कर रहे हैं। हम उसे और उम्दा बनाएँगे। हम और कुछ करेंगे। हम इसी आफ़त को एक अवसर की तरह इस्तेमाल करेंगे। मुझे ज़्यादा समय मिला इन दिनों खाली बैठने का क्योंकि जितनी यात्राएँ कर रहा था, वो रुकीं। तो हमने शास्त्रों पर ऑनलाइन कोर्स लॉन्च कर दिये। ये बहुत कीमती काम है। जो हो नहीं पा रहा था हमारी पुरानी व्यवस्था, पुराने ढर्रे में। जैसे पहले संस्था और मिशन चल रहे थे।

अब मौका मिला तो हमने कर डाला न। और वो काम और किसी तरीके से सफल हो न हो, ऐतिहासिक रूप से बड़ा महत्व रखता है। क्योंकि उन ग्रन्थों पर, उन शास्त्रों पर कोर्स बन रहे हैं जिनको बहुत कम लोगों ने पढ़ा है, जिन पर बहुत कम किताबें उपलब्ध हैं, जिन पर बहुत कम टीका-टिप्पणी करी गयी है। हम उन ग्रन्थों को पुनः समाज की और संस्कृति की मुख्य धारा में ला रहे हैं।

हम लोगों से कह रहे हैं, ‘आइए, हमारे पास आइए। ग्रन्थ को पढ़िए और उसके बाद जैसे स्कूल में, कॉलेज में होता है, ‘ये लीजिए, कोर्स करिए। उस पर आधारित सवालों के भी जवाब दीजिए, जाँचिए आपने बात समझी है कि नहीं समझी है।’ ये मैं अपनी कोई पीठ खुद नहीं थपथपा रहा। मैं बस आपको एक उदाहरण दे रहा हूँ कि आफ़त का सामना मौलिक चिन्तन से करा जा सकता है, नयी खोज से करा जा सकता है।

इसी को तो इनोवेशन (नवाचार) कहते हैं न। तो ये मौका बहुत अच्छा है नये आविष्कार के लिए, नयी ज़मीन तैयार करने के लिए, इनोवेट करने के लिए। आप भी करें। पुराना लौटकर नहीं आएगा, फिर कह रहा हूँ। उसकी उम्मीद में बैठे मत रहिए कि अभी तो लॉकडाउन चल रहा है। ये तो अस्थायी है। कुछ दिनों के लिए है, टेम्पररी है। फिर पुराने दिन लौटेंगे। तब हम काम करेंगे। साहब, चेत जाइए। अभी जो हालत चल रही है, अब इसी के साथ सन्तुलन बनाइए और कुछ करके दिखाइए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories