जीते हुए को हारने से क्या डर? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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जीते हुए को हारने से क्या डर? || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच।

हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच॥

~ कबीर

वक्ता: “गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच।

हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच॥”

‘गाली’ क्या है? बिल्कुल मूल पर जाया कीजिये। ‘गाली’ माने क्या?

आप कब कहते हो कि, “गाली है”? जो चोट दे, वो गाली है। और संसार चोट के अलावा कुछ देता नहीं।

जब चोट लगती है, तो दो तरह के हम आमतौर पर उत्तर देते हैं। दो तरह की प्रतिक्रियाएँ होती हैं। एक तो ये कि हम पलट कर वार करना चाहते हैं, जीत लेना चाहते हैं। दूसरे ये, कि जीतने की हिम्मत नहीं रहती है, तो अपनेआप तो संवेदनाशून्य कर लेते हैं, कि चोट ही न लगे। दोनों ही स्थितियों में कलह, कष्ट, और भींच पैदा ही होगा।

जो संसार को जीतना चाहेगा, वो भी कलह में उतर गया, और जिसने अपनेआप को जड़ कर लिया, संवेदनाशून्य कर लिया, वो भी कष्ट में उतर गया।

“गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच।”

*साधु वो, जो अच्छे से जान गया है कि संसार को जीता नहीं जा सकता*।

“हारि चले सो साधु हैं,”

जब वो आहत होता है, जब उसे चोट पहुँचाई जाती है, तो उसमें ये भाव नहीं उठता – “मुझे जिसने चोट पहुँचाई है, मैं उसपे विजय पा लूँ।” क्योंकि ये भाव अगर उठ रहा है, तो वो अनाड़ी है। वो अभी अर्थ ही नहीं समझता है, ‘चोट’ का, और ‘विजय’ का।

क्योंकि कैसे जीतोगे तुम? और ‘जीतने’ का क्या अर्थ होता है? ‘जीतने’ का अर्थ यही होता है कि – “किसी ने अगर मुझे आहत किया है, तो मैं उसे दुगुना आहत दूँ।” बड़ा सीधा-सा अर्थ है, हमारी भाषा में ‘जीतने’ का। “तूने मुझे दो मारे, मैं तुझे चार मारूँगा, मैं जीत गया।” ठीक?

साधु वो, जो समझ जाए कि इसमें हार ही हार है। उसके मन से ये ख़याल ही निकल जाए कि संसार को जीता जा सकता है। वो अच्छे से जान गया है, कि संसार से उलझना ही हार है। संसार से उलझ करके जीत और हार नहीं होती, संसार से उलझ करके हार और हार ही होती है – जो ये जान ले, वो साधु है।

“ये संसार काँटन झाड़ी, उलझ-उलझ मर जाना है।”

“काँटों की झाड़ी से उलझूँगा, तो फ़र्क नहीं पड़ता कि इस काँटे से चोट खाऊँ या उस काँटे से। एक बात तो पक्की है, चोट तो खाऊँगा ही।” संसार में जीत और हार नहीं है, संसार में हार ही हार है। जो ये जान गया, वो साधु है। इसका अर्थ ये नहीं है कि उसने जीत के दरवाज़े बंद कर दिए हैं। उसने कहा है, “जीत है, पर संसार में नहीं है। संसार तो हार और हार है।”

जीत कहाँ है? जीत राम में है। जीत राम में है। उसने संसार में उलझने को हार, अच्छे तरीके से स्वीकार कर लिया है। और ऐसा नहीं है कि आप उसे आहत करोगे, मात्र तब वो आपसे उलझना नहीं चाहता। आप उसकी बड़ी प्रशंसा करोगे, वो तब भी तैयार नहीं है, उलझने को आप से।

दोनों तरीके से आप उलझते हो। कोई आप को गाली द-दे, आप उससे उलझ जाते हो। उलझ जाते हो, या नहीं? तब वो शत्रु रूप में बैठ जाता है आपके मन में। मन पे तो वो चढ़ ही गया। और जब कोई आपकी तारीफ़ कर दे, तो वो प्रशंसक रूप में बैठ जाता है, आपके मन में। मन पर तो फ़िर से चढ़ गया।

साधु इन चक्करों में पड़ता नहीं। और जो ही इन चक्करों में न पड़े, सो ही साधु। तुम उसकी बड़ी तारीफ़ कर दो, वो कहेगा, ” अच्छी बात है।” वो तुम्हें रोकेगा भी नहीं कि तारीफ़ क्यों कर दी। “कर दी, अच्छा किया।” जब वो गाली देने वाले को नहीं रोक रहा, तो वो तारीफ़ करने वाले को क्यों रोकेगा? हाँ, इससे उसकी हस्ती पर कोई असर नहीं पड़ेगा। न तुम्हारी गालियों से, न तुम्हारी तालियों से।

“हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच॥”

‘नीच’ वही, जिसे गालियाँ लग जाती हैं। जानना चाहते हो, कौन ‘नीच’ है? खूब गालियाँ दो, और जो आहत जाए, वो ही ‘नीच’ है। क्योंकि जो तुम्हारी गालियों से आहत हो रहा है, पक्की बात है, वो तुम्हारे ही तल पर है। आसमान की ओर थूक उछालोगे, तो आसमान को नहीं लग सकता, क्योंकि आसमान बहुत ऊँचा है। जिसको तुम्हारी गाली लग गई, वो तुम्हारे ही तल पर है, अन्यथा वो आहत कैसे हो जाता?

श्रोता: आहत होने वाला भी, और प्रशंसा स्वीकार करने वाला भी।

वक्ता: दोनों बातें। दोनों बातें एक ही हैं। घाटियों पर बैठ कर, चोटियों पर फूल नहीं फेंके जाते। कैसी प्रशंसा? और घाटियों पर बैठ कर, पहाड़ की चोटियों पर पत्थर भी नहीं फेंके जा सकते। कैसी गालियाँ? पर अगर लग गई किसी को तुम्हारी गाली, तो वो नीचे गया है। या नीचे था ही, दिख रहा था ऊपर।

“बूँद अघात सहही गिरी कैसे, खल के वचन संत सह जैसे।”

खल के वचन संत ऐसे ही सहते हैं, जैसे बूँद का आघात पर्वत सहते हैं। जैसे बूँद के आघात से पर्वत अपनी जगह से हिल नहीं सकता, इसी तरीके से, संत अपने आसन से हिलता नहीं है, तुम्हारे वचनों से। और तुम्हारे वचन, कटु निंदा हों, ये आवश्यक नहीं है। तुम्हारे वचन कैसे होंगे? तुम्हारे ही तो हैं। कैसे भी हो सकते हैं।

~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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