जेब किसने काटी? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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जेब किसने काटी? || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: पति पत्नी से परेशान रहता है मेरी उम्मीदें नहीं पूरी करती। पत्नी भी तो बराबर ही परेशान रहती है ना पति से, ये मेरी उम्मीदें नहीं पूरी करता। पति कहेगा मैं इसकी उम्मीदें क्यों पूरी करूँ, इसकी उम्मीदें ही नाजायज़ हैं। पत्नी कहती है मैं इसकी उम्मीदें क्यों पूरी करूँ, इसकी उम्मीदें बेवकूफ़ी भरी हैं। दोनो को यही लगता है कि ठगे गए। और दोनो ठगे जाने का इल्ज़ाम दूसरे पर लगाते हैं। कोई नहीं ठगा गया, दोनो ठगे गए। और दोनो को जो ठगने वाली है? "माया महा ठगनी, हम जानी।" उसकी करतूत ये कि वो ठग लेती है और ये आपको पता भी नही चलता कि ठग किसने लिया, आप दोष किसी दूसरे पर रख देते हैं।

जैसे कि दो लोग चले जा रहे हों एक दूसरे की कमर में हाथ डाले। जैसे कि जोड़े अक्सर चलते हैं। इन्होंने उसकी कमर में हाथ डाल रखा है, उन्होंने इसकी कमर में हाथ डाल रखा है। और दोनो ने ही पैंट डाल रखी है और दोनो की ही पैंट की पीछे वाली जेब में दोनो के पर्स हैं, वॉलेट हैं। कमर में हाथ डाल रखा है एक दूसरे के पीछे। और दोनो ने ही पीछे क्या रख रखा है अपना अपना? जमा, कमाई, रुपया पैसा। थोड़ी देर में दोनो पाते हैं कि दोनो की जेबें कट चुकी हैं। और लगते हैं दोनो एक दूसरे को पीटने, क्योंकि भई शक जायेगा और किसपर? मेरी जेब के पास हाथ ही किसका था? तेरा। तूने ही कमर में हाथ डाल रखा था। और कमर के ठीक नीचे मेरी जेब है। और वो कह रही है मेरी जेब के पास हाथ किसका था? तेरा। कमर में तूने हाथ डाल रखा था, ठीक नीचे जेब है। दोनो दनादन दनादन एक दूसरे को। रुपया पैसा तो गया ही, पीटे भी गए। और पीछे वो खड़ी होकर खूब हँस रही है। और उसके हाथ में हैं दोनो बटुए। माया महा ठगनी हम जानी।

यहाँ कोई किसी को नहीं ठग रहा है। यहाँ सब ठगे ही जा रहे हैं। ये जो उम्मीद का कारोबार है, ये पारस्परिक होता है भाई। मैं तुमसे उम्मीद रखूँगा, तुम मुझसे उम्मीद रखो; मैं तुम्हारी उम्मीद पूरी करूँगा, तुम मेरी उम्मीद पूरी करो। ये होता है उम्मीद का कारोबार। और ना तुम्हारी उम्मीदें पूरी होने से तुम्हे कुछ मिल जाने वाला है, ना मेरी उम्मीदें पूरी होने से मुझे कुछ मिल जाने वाला है। पर हमारा आपस का रिश्ता यही रहेगा — मेरे कुछ अरमान तुम पूरे कर दो, तुम्हारे कुछ अरमान मैं पूरा कर दूँ। मिलना किसी को कुछ नहीं है इस पारस्परिक आदान प्रदान से। जब मिलना किसी को कुछ नहीं है तो दोनो ही पक्षों को क्या लगता है? ठगे गए।

ऐसा थोड़े ही है कि जो आपकी उम्मीदें पूरी नहीं कर पा रहे, उनको देख कर सिर्फ़ आपको ही लग रहा है आप ठगे गए। थोड़ा उनसे भी तो जाकर पूछ लीजिए। वो भी यही कहेंगे। हमारी उम्मीदें भी पूरी नहीं हुईं, हम भी ठगे गए। ठगा कोई नहीं गया है। बस दोनो को व्यापार में घाटा हो गया है। क्योंकि ये जो कारोबार है, ये है ही घाटे का। इसमें आजतक किसी को मुनाफ़ा हुआ नहीं।

पूरा लेख यहाँ पढ़ें: https://acharyaprashant.org/en/articles/thage-gae-ummidon-ke-kaarobaar-mein

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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