जवान हो, और खून नहीं खौलता? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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जवान हो, और खून नहीं खौलता? || आचार्य प्रशांत, आइ.आइ.टी दिल्ली महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न डर से सम्बन्धित है। मैं जब किसी इंसान को देखता हूँ कि वो ख़ुद से कमज़ोर इंसान को डाँट रहा है या मार रहा है तो मैं बहुत घबरा जाता हूँ, कभी-कभी बहुत गुस्सा हो जाता हूँ। मैंने सोचा, तो इसके पीछे मुझे कुछ कारण दिखें — मुझे लगा कि मेरी भावुकता कारण है, फिर मुझे लगा कि चूँकि मैंने अपने अतीत में अपने घर में थोड़ी-बहुत हिंसा देखी है, तो ये कारण हो।

कुछ समय घर से दूर रहा, पर बूढ़े हो चले माँ-बाप की ओर वापस चला गया। मैं बाहर भी कम ही जा पाता हूँ और मेरी सिए अन्तिम वर्ष की पढ़ाई भी काफ़ी बाधित होती है। अब मेरी कोशिश ऐसे मामलों में ज़्यादा प्रतिक्रिया न करने की होती है, पर ये इस समस्या का समाधान नहीं है। कृपया मार्गदर्शन करें ताकि मैं ऐसी स्थितियों में तटस्थ रह सकूँ और इतना ज़्यादा डर मुझ पर हावी न हो जाए।

आचार्य प्रशांत: किन बातों पर गुस्सा आता है? क्या देख लेते हो तो क्रोधित हो जाते हो?

प्र: गुस्सा इस चीज़ पर आता है कि कोई किसी पर क्यों हाथ उठा रहा है या चिल्ला रहा है। पहले गुस्सा ज़्यादा था, पर अब मैं प्रतिक्रिया नहीं करता हूँ।

आचार्य: कोई किसी पर क्यों बिलकुल अधिकार कर लेता है या डाँट लेता है, मार लेता है, शोषण कर लेता है? क्यों होता है ऐसा?

प्र: मुझे इन सबके पीछे लोगों का स्वार्थ दिखता है और लगता है कि अहंकार की पूर्ति के लिए करते होंगे। जानवरों को हिंसक होते देखता हूँ तो वहाँ घबराहट नहीं होती, वो मुझे सामान्य लगता है।

आचार्य: ठीक है। और जो तुम देखते हो शोषण का एक रूप कि किसी ने किसी को डाँट ही दिया या मार ही दिया या हावी हो गया, ये तो एकदम प्रकट रूप है स्वार्थ का।

प्र: जी हाँ।

आचार्य: स्वार्थ के अप्रकट रूप भी होते हैं जहाँ कोई किसी को डाँट नहीं रहा, बल्कि हो सकता है कि उससे मीठी बातें कर रहा हो, चिकनी-चुपड़ी बातें कर रहा हो, तो वहाँ तो गुस्सा भी नहीं आएगा तुमको, नहीं आएगा न? जैसे कि कहीं किसी बाज़ार में चले जाओ और वहाँ तुमको तरह-तरह की बातों से और रोशनियों से और आवाज़ों से और माहौल से लुभाया जा रहा हो, तो वहाँ गुस्सा आता है तुम्हें?

प्र: नहीं, वहाँ तो गुस्सा नहीं आता मुझे।

आचार्य: क्यों, स्वार्थ तो वहाँ भी बराबर का है और शोषण वहाँ भी हो रहा है।

प्र: मुझे समझ तो आ रहा होता है कि वहाँ क्या हो रहा है, लेकिन गुस्सा नहीं आता।

आचार्य: तो जो मूल बात है, उस तक जाना होगा। हमें चूँकि दिख जाता है जब कोई किसी पर बिलकुल ही प्रकट रूप से हिंसा कर रहा होता है, तो हमारे भीतर से प्रतिक्रिया आ जाती है। जानते हैं उसका नतीजा क्या हुआ है? उसका नतीजा ये हुआ है कि प्रकट हिंसा रुक गयी है। अब ऐसा कम होता है, पहले की अपेक्षा कि खुले आम दादागिरी की जाए या शोषण किया जाए। प्रकट हिंसा रुक गयी है।

लेकिन चूँकि हम हिंसा को नहीं समझते, हम जानते ही नहीं हैं कि ये जो चल रहा है क्यों चल रहा है, इसलिए हिंसा और चतुर होकर अप्रकट हो गयी है, सूक्ष्म हो गयी है। और सूक्ष्म हिंसा पर हमारी कोई प्रतिक्रिया या विरोध आता नहीं है। प्रकट हिंसा, मान लीजिए कोई किसी से बन्धुआ मज़दूरी करा रहा है, पर हमने बहुत रोष दिखाया तो परिणाम क्या हुआ? वो सब रुक गया। आप अपने घर में किसी को ज़बरदस्ती मज़दूर नहीं बना सकते। आप किसी से ये नहीं कह सकते कि तुझे यही रोज़गार करना है या तू इस जगह से बाहर नहीं निकल सकता या ऐसी कोई और बात। तो वो सब चीज़ें रुक गयीं और वो चीज़ें और घातक बन गयीं सूक्ष्म होकर।

समझ रहे हैं बात को?

अब हम पर जो हिंसा होती है, वो ज़बरदस्ती नहीं होती, हमारी सहमति से होती है। जब तक हम समझेंगे नहीं अच्छे से कि ये पूरी व्यवस्था चीज़ ही क्या है, और ये प्रेम पर नहीं, स्वार्थ, शोषण पर आधारित है, तब तक व्यवस्था जैसी है चलती रहेगी। बस हमको दिलासा देने के लिए उसमें खुले आम किसी के साथ क्रूरता या हिंसा नहीं की जाएगी। तो आपको ये गुमान बना रहेगा कि हम एक लगभग सभ्य और संस्कृत समाज में जी रहे हैं। यहाँ कोई किसी को बाल पकड़कर ज़मीन पर घसीट नहीं रहा, कोई डंडों से खुले आम पिटाई नहीं कर रहा, तो ऐसा लगेगा कि देखो हम अच्छे लोग हैं। हम अच्छे लोग हैं, हम बर्बर लोग नहीं हैं। पर वो बर्बरता अब ज़्यादा चतुर हो गयी है, भीतर घुस गयी है।

कोई आपको थप्पड़ मारकर आपके पैसे छीन ले, आप पुलिस में शिकायत करने जाएँगे। लेकिन आपको एक फ़ोन आता है एक अनजान नम्बर से, वो कहते हैं, ‘सर , आपको पर्सनल लोन (व्यक्तिगत कर्ज़) की कोई रिक्वायरमेंट (ज़रूरत) है क्या’, आपको ऐसा लगता है वो आपको पैसे देना चाहता है। तथ्य क्या है? वो आपके पैसे छीनना चाहता है। लेकिन आप उसकी एफ़आइआर लिखाने नहीं जाएँगे। कोई जाता है एफ़आइआर लिखाने कि अभी-अभी मुझे फ़ोन आया था और वो मुझसे कह रहा था पर्सनल लोन ले लो?

ये लूट बराबर की ही है और इस लूट के पीछे भी वृत्ति वही पुरानी है। एक लुटेरा खड़ा होता है, वो पुराने ढर्रे का, किसी अन्धेरी जगह पर चाकू-वाकू लेकर और आपसे आपके पैसे छीन लेता है, आप कहते हो, ‘छी, छी, छी! कितनी गन्दी दुनिया है, क़दम-क़दम पर लूट मची हुई है।’ लेकिन यही आपको फ़ोन आता है और सामने से साफ़ अंग्रेज़ी में एक महिला स्वर आपको सुनायी देता है, ‘सर, डू यू नीड पर्सनल लोन, वी हैव सम वेरी अट्रैक्टिव ऑफ़र्स (क्या आपको व्यक्तिगत कर्ज़ की ज़रूरत है, हमारे पास बहुत आकर्षक प्रस्ताव हैं)’, तब गुस्सा आता ही नहीं, तब पता ही नहीं चलता कि शोषण होने जा रहा है बेटा, लुटोगे अब।

तो पुराने ढर्रे का आदर्शवाद अब नहीं चलेगा। जो आपकी फ़िल्मों का हीरो होता आया है आज तक, वो देखता है कि किसी ग़रीब मजबूर पर ज़ुल्म हो रहा है तो कूद पड़ता है और ज़ालिमों को पीट-पाटकर उनकी छुट्टी कर देता है। वो अब चलेगा ही नहीं, क्योंकि वैसी क्रूरता अब आपको कहीं देखने को मिलेगी नहीं। अभी भी थोड़ी-बहुत मिल जाती है, आने वाले समय में और कम हो जाएगी। ज़ुल्म और क्रूरता अब महीन हो चुके हैं और आगे और महीन हो जाएँगे। कब आपका शोषण हो रहा है, आप जान भी नहीं पाएँगे।

आपको इतनी सारी फ़्री चीज़ें मिलती हैं इंटरनेट पर, आप फ़्री ईमेल का इस्तेमाल कर रहे हैं, बहुत सारी और ऐप्स हैं जिनको इस्तेमाल करने का आप कोई पैसा नहीं देते। आपको पता भी नहीं है कि वहाँ पर किस तरह से आपका शोषण हो रहा है। कभी सोचा ही नहीं न, लगा ये तो फ़्री है। अब कोई नहीं आने वाला कि कहे, उदाहरण के लिए कि देखो, तुम निचली जाति के हो तो हम तुमको डंडा मारेंगे। वो सब अब गये ज़माने की बातें हैं, अब नहीं होता वो सब।

अब शोषण नये तरीक़ों से होता है। वहाँ हमें गुस्सा आता ही नहीं है। या आता है? तो ये जो नयी चुनौतियाँ हैं, इनको देख पाने के लिए एक नयी आँख चाहिए। पहले जो शोषण और बर्बरता थी, वो बहुत प्रकट थी। इतनी प्रकट थी कि अन्धे को भी दिख जाए। अब चूँकि वो सूक्ष्म है, इसीलिए उसे देखने के लिए आँख सूक्ष्म चाहिए, वो सूक्ष्म आँख अध्यात्म से आती है, नहीं तो फँस जाओगे।

समझ रहे हो?

आदमी तो वही पुराना है न, ज़माना भले बदल गया है। ज़माना नया है, जानवर पुराना है। बात ठीक? और जानवर के इरादे भी वही हैं बिलकुल पुराने वाले, तो नये ज़माने में नये, साफ़-सुथरे, मँझे हुए, पॉलिश्ड (सभ्य) तरीक़ों से अब अपनी करतूतों को अंजाम देता है, पर करता वही है जो वो जंगल में करता आया है लाखों सालों से। खून पीना है किसी का तो बहुत महीन और सुप्रशिक्षित तरीक़े से आपका खून पिया जाता है। बाज़ार में जो आपसे जितने प्यार से बात कर रहा हो और जितना आपको सम्मान दे रहा हो, समझ लीजिए उतना ज़्यादा आपके खून पीने का इन्तज़ाम किया जा चुका है।

आदमी के मूल को समझो, हमारी वृत्तियों को जानो। जो दिख रहा है, उस पर जल्दी से भरोसा मत कर लिया करो। सिर्फ़ इसलिए कि हमने कपड़े पहनने शुरू कर दिये, हमारे पास भाषा आ गयी, बुद्धि थी तो विज्ञान आ गया है, उससे हमने चीज़ें बना ली हैं, ये मत सोच लिया करो कि हम कुछ ऊँचे दर्जे के लोग हैं या महान वगैरह हैं। इंसान को जब देखो तो दिखाई जानवर देना चाहिए। जो ऐसा हो गया, समझ लो वही आत्मज्ञानी है।

आईने में क्या दिखे? जानवर है ये सामने। हाँ, बस नहा-धोकर, बाल-वाल बनाकर, मुँह चमकाकर आ गया है, है बराबर का जानवर। और दुनिया के बाज़ार में भी जितनी भी आकर्षक सूरतें दिखें, चाहे इंसानों की चाहे विषयों की, याद यही आना चाहिए कि सब जानवर हैं, व्यवस्था पाशविक है पूरी।

बहुत धोखा खाओगे, एकदम लूटे जाओगे, अगर तुमने रंग-रोगन को अच्छाई का सबूत या प्रतीक मान लिया। आँखें धोखा देती हैं। कोई जगह साफ़ हो सकती है, वहाँ के जो लोग हैं वो दिखाई दे सकता है कि देखो कितना अच्छा व्यवहार कर रहे हैं। और वहाँ पर एक व्यवस्था है, वो बिलकुल सुचारू तरीक़े से चल रही है, तुमको लगता है कि ये सब तो बढ़िया ही है, मामला ठीक है।

फ़र्श साफ़ है न, इसीलिए आपको उस पर खून के निशान दिखाई नहीं दे रहे हैं। ये आँखें दिखाएँगी ही नहीं कि क़त्लख़ाना ही है वो। खून दिख नहीं रहा तो हम कहते हैं क़त्ल कहाँ हुआ। तो अन्याय वगैरह के विरुद्ध रोष रखना अच्छी बात है, पर ये रोष आज के समय में किसी काम का नहीं है, क्योंकि अन्याय प्रकट नहीं है अब। और हमने कहा कि सूक्ष्म अन्याय को देखने के लिए, उसको पकड़ लेने के लिए, दृष्टि भी सूक्ष्म चाहिए। वो सूक्ष्म दृष्टि अध्यात्म ही देता है।

आध्यात्मिक आदमी को आज के दौर में सज़ा ये मिलेगी कि उसका क़दम-क़दम पर शोषण होगा, उसको समझ में ही नहीं आएगा कि चल क्या रहा है। वो लुटता रहेगा। लुटता भी रहेगा और ऊपर-ऊपर वो खुश और सन्तुष्ट भी रहेगा कि सब ठीक ही तो चल रहा है। अध्यात्म किसी परलोक वगैरह की बात नहीं होती है। बहुत-बहुत पहले से बोलता आ रहा हूँ ‘वो इसलिए होता है ताकि इस जगत में बेवकूफ़ न बनो।’ ये जगत है ही इसलिए कि हमको मूर्ख बना-बनाकर हमें लूटता जाए। इस दुनिया में मज़े मारने नहीं आते आप, लुटने आते हो।

तो अध्यात्म का ये फ़ायदा नहीं है कि आपको किसी बहुत सुन्दर परलोक में पहुँचा देगा, अध्यात्म का फ़ायदा ये है कि इस लोक में आपको लुटने से बचा देगा। ये बात बहुतों को समझ में नहीं आती। बोलते हैं कि आचार्य जी आप बोलते हो कि व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, तो फिर अध्यात्म वगैरह का फ़ायदा क्या है? फ़ायदा ये है कि इस ज़िन्दगी में लुटने से बच जाओगे अगर आध्यात्मिक हो तो। नहीं आध्यात्मिक हो तो ऐसा लुटोगे, ऐसा लुटोगे कि भिखारी हो जाओगे, और कभी तुम्हें ठीक से पता भी नहीं चलेगा कि लूट हुई कब। कब लुटे और किसने लूटा कोई ख़बर नहीं मिलेगी, लेकिन घूमोगे लुटे-लुटे।

सोचो, लुटेरा अब कितना ज़्यादा शातिर हो गया है। हम सोचते हैं हमने अपना विज्ञान बढ़ा लिया है, अर्थव्यवस्था बढ़ा ली है। हमने बड़ी तरक़्क़ी कर ली है। आपने नहीं तरक़्क़ी की है, आपसे दस क़दम आगे की तरक़्क़ी उसने कर ली है। पहले तो वो आपको प्रकट रूप में लूटती थी, अब वो आपको प्रच्छन्न रूप से लूटती है, छुपाकर लूटती है। और हम इसी ग़लतफ़हमी में जी रहे हैं कि देखो, हमारी सभ्यता आगे बढ़ रही है, इंसान कहाँ से चला था और कहाँ पहुँच गया है। इंसान आज और बड़ा ग़ुलाम बन गया है। एक-एक चीज़, एक-एक व्यवस्था आप जिसमें शामिल हैं, आप अगर देख पाएँ तो दिखेगा कि कैसे उसमें आपका शोषण होता है।

एक अस्पताल में आपका जन्म हुआ। जिनकी आँख होगी, उन्हें दिखेगा, पहले आप यही बोलते थे, ‘अरे! सरकारी अस्पताल है, गन्दे पड़े हैं, डॉक्टर देर से आता है, भीड़ बहुत है।’ आज आपके अस्पताल फ़ाइव स्टार (पँच सितारा) होटेल जैसे हो गये हैं तो आपको ये भ्रम हो जाता है कि मामला बढ़िया है। मामला बढ़िया है या नहीं, वो जाँचने के लिए देख लो न कि देश के औसत नागरिक का स्वास्थ्य बेहतर हुआ है या बदतर हुआ है, आबादी में रोगियों का अनुपात बढ़ा है या कम हुआ है, पहले हज़ार लोगों में कितनों को कैंसर था, आज कितनों को है।

लेकिन आप खुश बहुत हो, क्योंकि अब बहुत सारे अस्पताल आ गये हैं जो कहते हैं कि हम कैंसर ट्रीटमेंट (इलाज) में सूपर स्पेशलाइज़ (अति विशिष्ट) करते हैं। ये आप पूछते ही नहीं कि इतने कैंसर रोगी आ कहाँ से गये, पहली बात। हमें पता ही नहीं चलता है कि हमारा उपचार हो रहा है या हमें सबसे पहले बीमार बनाया जा रहा है ताकि उपचार करा जा सके। जन्म अस्पताल में होता है, अस्पताल में शोषण।

घर आते हो, और कौन कहेगा कि घर में अत्याचार होता है और घरों में जो अत्याचार हो रहा है, उसको देखकर मेरा खून खौल जाता है, कभी कहा तुमने? कहोगे ही नहीं। लेकिन हर बच्चे के साथ उसके घर में भयानक अत्याचार होता है और किसी का मन नहीं करता कि इस शोषण के खिलाफ क्रान्ति करें, नारे लगाएँ, कुछ नहीं। कहते हैं, ‘अरे! माँ-बाप हैं, माँ-बाप की गोद में बच्चा है, बच्चे का सौभाग्य है।’ शोषण हो रहा है, भयानक है लेकिन सूक्ष्म है। और परायों द्वारा नहीं अपने ही माँ-बाप द्वारा किया जा रहा है, तो किसी को अन्देशा भी नहीं होता कि बच्चे के साथ महान अत्याचार हो रहा है। 💔💔💔 उसके बाद तुम्हें डाला जाता है स्कूल में, अगली संस्था। तुम्हें लगता है कि तुम्हारी तरक़्क़ी के लिए डाला गया है। तरक़्क़ी के लिए नहीं डाला गया है, स्कूल खच्चर बनाने के लिए होता है। वहाँ पर एक बच्चे को डाला जाता है ताकि वो आगे चल के समाज के काम आ सके, अपने नहीं। समाज को जो आवश्यकताएँ हैं, बच्चे को उसी प्रकार की शिक्षा, बल्कि प्रशिक्षण दे दिया जाता है।

समझ लो, दुनिया में लोग बहुत बढ़ गये हैं तो दुनिया को बहुत सारे जूतों की ज़रूरत आ गयी है। तो तुम्हारे स्कूलों में बचपन से ही जूता बनाना सिखाना शुरू कर देते हैं। ये आत्म-विकास के नहीं, ग़ुलामी के अड्डे हैं। यहाँ आपको सामाजिक रूप से उपयोगी बनाया जाता है, आपको अपने लिए उपयोगी नहीं बनाया जाता। कुछ रोज़गार मिल जाए आपको, इसकी तैयारी करा दी जाती है। कुछ-कुछ मामला ऐसा है जैसे तीन साल का जो वहाँ बच्चा घुसता है, वो एक बेरोज़गार है और उसको फिर अठारह-बीस साल की शिक्षा दी जाएगी ताकि वो रोज़गार के क़ाबिल बन सके।

लेकिन आप कहेंगे विद्यालय है, वहाँ गुरू लोग होते हैं और पाँच सितम्बर को शिक्षक दिवस मनाया जाएगा अभी। आपको दिखाई ही नहीं पड़ता कि वहाँ भी शोषण हो रहा है। आपके ख़याल में ही नहीं आएगा कि यहाँ भी तो डंडा लेकर उतरकर, मार-पीट करने की और दीवारें वगैरह फोड़ने की ज़रूरत है, तब ख़याल नहीं आएगा। या आता है? तो ऐसा लगता है कि हमारे स्कूल बड़ी सम्माननीय जगह हैं।

उसके बाद और तरह की व्यवस्थाएँ होती हैं जिनमें आप शिरक़त करते हैं। आप अर्थव्यवस्था का एक उपजाऊ हिस्सा बनते हैं कहीं नौकरी वगैरह करके या कोई धन्धा चलाकर के। धन्धा आपका नफ़ा लेकर आये या नुक़सान में जाए, आपका तो नुक़सान ही होता है। आप चाहे व्यापार कर रहे हों, चाहे नौकरी कर रहे हों, वो कम पैसे की हो, ज़्यादा पैसे की हो, आप घाटे में ही रहे। लेकिन ये बात दिखाई नहीं पड़ती, क्योंकि सूक्ष्म है।

हाँ, आपको तनख़्वाह मिली हो और आप तनख़्वाह मान लीजिए कैश (नक़द) में लेकर अपने घर आ रहे थे और किसी ने लूट लिया हो, तो शोर मच जाएगा कि एक आदमी के साथ बड़ा अन्याय हो गया, उसके पैसे लूट लिये गए। इस पर शोर मच जाएगा। और जो उसके महीने के तीस दिन लूटे गये थे, उस पर कभी शोर मचते देखा है? कभी शोर मचा आज तक कि अरे! अरे! देखो अन्दर क्या चल रहा है, जवान लोगों की ज़िन्दगियाँ ही लूटी जा रही हैं, उनकी जवानियाँ लूटी जा रही हैं; उस पर कभी शोर नहीं मचता। हाँ, आपकी तनख़्वाह ऊपर-नीचे हो जाए, उस पर भी नहीं मचेगा। कम्पनी कोई पॉलिसी (नीति) बना दे, कुछ कर दे, उसमें आपको नहीं मिला, कम पैसा मिला, उसमें भी शोर नहीं मचेगा।

लेकिन जो बिलकुल स्थूल, ग्रॉस घटना है, फ़िल्मी कि एक लुटेरा आया और आपके हाथ से पैसे लूटकर भाग गया, उसमें लगता है अभी तांडव कर दें — देखो! गरीब के साथ अत्याचार, गरीब का पैसा लूटा जा रहा है। तुम्हारा पैसा लुट नहीं रहा होता तो एक-से-एक बेवकूफ़ लोग आज दुनिया के सबसे अमीर लोगों में कैसे होते, बताओ। उनका मुँह देखो, उनकी अक़्ल देखो, तुम्हें लग रहा है पाँच सौ बिलियन (अरब) डॉलर की उनकी हैसियत है? वो पैसा उनके पास कहाँ से आया अगर आप नहीं लुट रहे?

लेकिन तब तो कभी खून नहीं खौलता कि ये आदमी इतना अमीर हो कैसे गया, खौलता है क्या? तब तो बल्कि तुम उनके फ़ॉलोअर बन जाते हो — आप महान हैं, हम आपके अनुयायी हैं। खून खौलता है क्या? तब नहीं खौलता न, तब कहते हो, ‘बढ़िया आदमी है, बढ़िया आदमी है!’ वो विक्षिप्त है, वो पागल है, कैसी बातें कर रहा है वो!

मैं फिर पूछ रहा हूँ, ‘एक पागल आदमी के पास करोड़ों-अरबों रुपये हों, ये कैसे सम्भव है?’ सिर्फ़ तभी हो सकता है न जब उसने लूटा हो। और लूटा किसको होगा, मार्स वालों को लूटा होगा? किसको लूटा होगा? आपको ही तो लूटा होगा। पर वहाँ पता ही नहीं चलता कि लुट गये, पता ही नहीं चलता।

हाँ, आप ऑटो पर आयें और अस्सी रुपये भाड़ा हुआ हो, आप उसको सौ रुपये दें, वो बीस रुपया नहीं लौटाये और लेकर भाग गया, तो आप दो दिन तक गाएँगे — ज़माना बड़ा ख़राब है, सब लुटेरे-ही-लुटेरे हो गये हैं, बीस रुपया लेकर भाग गया ऑटोवाला। और एक पगलंठ आदमी के पास बीस अरब डॉलर कहाँ से आये, ये आपने कभी सोचने की ज़रूरत नहीं समझी।

तो काम-धन्धे में लुटते हो। फिर उसके बाद एक संस्थान और होता है विवाह का, उसमें जब घुसते हो तो प्रफुल्लता का कोई ठिकाना ही नहीं, लगता है कि मज़े मारने के लिए गठबन्धन हो रहा है। तब कभी क्रोध आया है? कहीं विवाह होता देखो और डंडा लेकर घुस जाओ और तोड़-फोड़ करो कि ये शोषण नहीं होने दूँगा मैं। कभी करा है ऐसा?

असली हीरो वो होगा जो ये करके दिखाये। कि जहाँ कहीं विवाह-मंडप देखें, वहाँ डंडा उठाये और लगे पीटने। कि तुम दो लोगों की ज़िन्दगी क्यों तबाह कर रहे हो, ये कर क्या रहे हो तुम। और दो लोगों की नहीं, अभी उनके आगे और झड़ी लगेगी, वो भी। तब वहाँ समझ में नहीं आता कि भयानक बर्बरता यहाँ भी है, यहाँ ही है। तब नहीं समझ में आता। वो महाठगिनी है, वो आपको बताकर नहीं ठगेगी, वो आपको खुश करके ठगती है।

महिलाएँ सजग हो रही हैं आजकल, दहेज माँग लो तो वो विरोध करती हैं, बड़ी अच्छी बात है। लेकिन आपको क्या लग रहा है कि आपका शोषण बस इसी में है कि आपसे दहेज माँग लिया उसने? आपको लूटने का एक ही तरीक़ा है क्या कि आपसे दहेज ले लिया जाए? लुटती आप सौ तरह से हैं, लेकिन पता नहीं चलता। दहेज तो बहुत प्रकट, बड़ी स्थूल बात होती है कि वो पैसे ही माँग रहा है — ‘गड्डी लेकर आओ, ये लेकर आओ, मुझे बंगला दे दो!’

तो कहते हो, ‘अरे! मैं नये ज़माने की जागरूक महिला हूँ। मैं कॉलेज की फ़ेमिनिज़्म सेल (नारीवाद कक्ष) की प्रवक्ता थी। तैने मुझसे दहेज माँग लिया, अभी बताती हूँ।’ वो तुमसे दहेज माँग ले रहा है, तुम्हें बहुत बुरा लग रहा है और वो तुमसे तुम्हारी ज़िन्दगी माँगे ले रहा है, तब बुरा नहीं लग रहा। तुम्हारी ज़िन्दगी दहेज से ज़्यादा सस्ती है कि दहेज तो नहीं दूँगी, पर ज़िन्दगी तुझे दे दूँगी? और यही बात पुरुषों पर भी लागू होती है। तुम्हारी ज़िन्दगी इतनी सस्ती है कि यूँ ही किसी को सुपुर्द किये देते हो?

शोषण बुरा लगता है बहुत अच्छी बात है, लेकिन शोषण हो कहाँ रहा है बेटा, ये तो पहचान लो पहले। नहीं तो छोटे-छोटे पॉकेटमारों को पीटते रहोगे और बड़े-बड़े डकैतों की पूजा करते रहोगे — ये तुम्हारी हालत है। पॉकेटमार है जो कभी किसी का पाँच-सौ चुरा लेता है, कभी हज़ार-दो-हज़ार, उसको पकड़कर पीट दिया। और होता भी यही है। इस तरह के जब पकड़े जाते हैं तो इतने पीटे जाते हैं, कई बार लिंचिंग (भीड़ द्वारा हत्या) हो जाती है, उनकी मौत हो जाती है। जानते हो न? पाँच सौ रुपया चुराकर भाग रहा था, भीड़ ने पकड़ लिया और इतना मारा, इतना मारा कि मर गया। ये पाँच सौ रुपये वाले, इनको लेकर तुममें बड़ा आक्रोश उठता है और जो महाठग बैठे हैं, उनके तुम फ़ॉलोअर बन जाते हो।

कोई छोटा झूठ बोले तो बोल देते हो झूठा, कोई झूठ की पूरी व्यवस्था ही निर्मित कर दे, तो तुम कहने लग जाते हो कि ये भाग्य विधाता है, क्योंकि पूरी व्यवस्था ही इसने बनायी है। बड़ा विद्रोह कब करोगे भाई? अध्यात्म इसलिए है कि छोटी लड़ाइयों की करो उपेक्षा और बड़ी चुनौती को करो स्वीकार। हम छोटे-छोटे मसलों में बड़े क्रान्तिकारी बन जाते हैं और जो असली चीज़ें हैं वहाँ चुप रह जाते हैं, लुटते जाते हैं पेनी वाइज़ पाउंड फ़ूलिश।

बिग पिक्चर प्लेयर बनिए। छोटी चीज़ों में उलझकर कुछ नहीं मिलता। देखिए कि वास्तव में ज़िन्दगी ख़राब कहाँ हो रही है और कौन कर रहा है। और फिर हिम्मत रखिए कि वो जो सबसे बड़ा शातिर है, जो लुटेरों में बड़ा लुटेरा है, उससे भी लोहा लेंगे, ये हिम्मत रखिए।

आपको लूटने के लिए आज आपको ग़ुलाम नहीं बनाया जाता, आपको ग्राहक बनाया जाता है। ये बात आपको समझ में क्यों नहीं आ रही? ग़ुलाम क्यों बनायें किसी को! लम्बी-चौड़ी झंझट का काम है न किसी को ग़ुलाम बनाना। पहले उसको मारो-पीटो, ग़ुलाम बनाओ, फिर उसके गले में पट्टा डालकर खूँटे से बाँधकर रखो। और फिर कुछ एक्टिविस्ट (कार्यकर्ता) क़िस्म के लोग आ जाएँगे, वो नारेबाज़ी करेंगे, विरोध प्रदर्शन करेंगे, मोमबत्तियाँ जलाकर रात में पदयात्राएँ निकालेंगे। तो कौन इतनी झंझट उठाये कि किसी को ग़ुलाम बनाये, सीधे उसको ग्राहक बनाओ।

ग्राहक का मतलब समझते हो क्या होता है? ग्राहक वो जो ग्रहण करने को तैयार है। जो ग्रहण करने को तैयार हो जाता है, उसे बोलते हैं ग्राहक। जो लेने को तैयार हो गया है, ग्रहण करने को, उसे ग्राहक बोलते हैं। देखो कि कौन-कौनसी चीज़ों को ग्रहण करने को तैयार हो गये हो, किस-किस चीज़ को हाँ बोल दी है।

ग्राहक वही नहीं होता जो कुछ लेकर उसका रुपया या दाम चुका दे — वो भी एक प्रकार का ग्राहक है, उस तरह की ग्राहकी दुकान में होती है। लेकिन ज़िन्दगी में जिस भी चीज़ को हाँ बोल रहे हो, तुम उसके ग्राहक हो गये हो। देखो, किस चीज़ को हाँ बोल दी है। जिस चीज़ को हाँ बोल दी है, वहीं पर लुट रहे हो। वहीं शोषण है, वहीं हिंसा है। क्योंकि व्यवस्था तो जंगल की है न, आदमी वही पुराना है। आपको ग्राहक भी अगर बना रहा है, किसी चीज़ के लिए अगर आपसे हाँ बुलवा रहा है, तो आपको लूटने के लिए ही आपसे हाँ बुलवा रहा है।

जो डिफ़ॉल्ट (पूर्व निर्धारित मूल्य) उत्तर होना चाहिए इस संसार को, वो है ना। ये उपनिषदों की सीख है, ना बोलना सीखो। और संसार लगातार यही चाहेगा कि तुम हाँ बोलते रहो, हाँ बोलते रहो। संसार अपनी ठगी की दुकान सजाये बैठा है हर तरफ़, भीतर-बाहर और वो चाहता है कि तुम उसके माल को बोले जाओ हाँ, हाँ।

ऋषि हमसे कह रहे हैं, ‘ना बोला करो, ना।’ जिस भी चीज़ को हाँ बोलते हो, वहीं लुटोगे। जब हज़ार बार न बोल लो, तब सम्भावना बननी चाहिए एक बार हाँ बोलने की।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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