प्रश्नकर्ता: कबीर साहब ने एक पंक्ति में कहा है कि "कर स्वास की सुमिरनी, जपो अजपा जाप।" तो इस पर प्रकाश डालिए।
आचार्य प्रशांत: ऐसे ही हैं हमारे साहब! निरंतर सुमिरन बना रहे। स्वास माने प्राकृतिक देह। जब तक देह है जैसे-जैसे साँस है, वैसे-ही-वैसे सुमिरन भी होना चाहिए। कोई और विधि चाहिए ही नहीं। देह ही विधि है, जीवन ही विधि है, पल-पल का बीतना, साँस का आना-जाना ही विधि है। और, करो अजपा जाप।
कुछ बोल करके, कुछ सोच करके, कुछ भी करके नहीं जपना है। बाहर जो कुछ भी चल रहा है, चले। भीतर कोई होना चाहिए जो किसी को जप नहीं रहा है। क्योंकि मन की तो आदत है जपने की।
मन जिसको जपना चाहे, जपे। रुपए को जपना चाहता है, जपे। वासना को जपना चाहता है, जपे। पद-प्रतिष्ठा को जपना चाहता है, जपे। तुम अजपे में रहो। जपना तो काम ही मन का है। असली जप वो है, जिसमें तुम जप से मुक्त हो गये।
तीन स्थितियों की बात है। समझ में आ रही है? एक मन की दशा वो जिसमें वो सब सांसारिक विषयों को जपता है। क्या-क्या जपता रहता है मन?
श्रोता: संसार।
आचार्य: ठीक है न? दुनिया में जितनी चीज़ें हैं, मन सबको जप रहता है कि हाँ, ये चाहिए, ये चाहिए। उसी का जाप निरंतर चल रहा है। उससे उच्चतम स्थिति वो जब मन ने कहा कि ये दुनिया की चीज़ें नहीं जपनी, दुनिया से पार का कुछ चाहिए। पर दुनिया से पार का उसे कुछ पता नहीं, तो उसने दुनिया की भाषा से ही शब्द ले लिया। एक राम ले लिया, ॐ ले लिया, ओंकार ले लिया, — वो उसको जपने लग गया।
साहब उससे भी आगे की बात कर रहे हैं। साहब तीसरी स्थिति की बात कर रहे हैं। साहब कह रहे हैं, 'जपना ही बंद करो ना!' मन तो दो ही काम कर सकता है या तो संसार को जपेगा या राम को जपेगा। कबीर साहब कह रहे हैं, 'हालत वो हो जानी चाहिए जब मन के जपने से कोई लेना-ही-देना न रहे। तुम अजपे में प्रतिष्ठित हो जाओ।' अब मन को जो जपना हो, उसे जपे।
पर, पर, पर! ये बात कबीरों को शोभा देती है कि वो तीसरी स्थिति की बात करें। आपके लिए तो दूसरी ही अभी उपादेय है। क्योंकि हम फ़िलहाल कहाँ बैठे हैं?
श्रोता: पहली स्थिति में।
आचार्य: पहली स्थिति में। जहाँ मन क्या जप रहा है?
श्रोता: संसार को जप रहा है।
आचार्य: संसार को जप रहा है। तो पहली से तीसरी में छलाँगछलांग नहीं मार पाओगे। तुम तो पहली से दूसरी पर आ जाओ! काम को जपते हो, राम को जपना शुरू कर दो। फिर राम को जपते-जपते ऐसा भी होने लगता है कि राम को भी जपने की ज़रूरत नहीं बच जाती —"उठूँ, बैठूँ, करूँ परिक्रमा", "माला फिरूँ न जप करूँ, मुँह से कहूँ न राम"।
ये लेकिन साहब को शोभा देता है कि "माला फिरूँ न जप करूँ, मुँह से कहूँ न राम" । — आप यह मत सीख लीजिएगा कि न माला फेरनी है, न जप करना है, न राम का नाम लेना है। आप तो माला भी करिए, जप भी करिए, मुँह से राम का नाम भी लीजिए। लेकिन याद रखिए कि एक आख़िरी, — ब्राह्मी स्थिति, — वो भी है, जिसमें राम का नाम भी आवश्यक नहीं रह जाता। आप राम में ही प्रतिष्ठित हो गये।