प्रश्नकर्ता: वशिष्ठ जी राम जी को कह रहे होते हैं कि, “हे राम! मनुष्य का हाल उसी तरीके से है जो मैं आगे बताने जा रहा हूँ। एक बहुत बड़े जंगल में एक जानवर होता है, बहुत बड़ा जानवर होता है। उसके बहुत बड़े-बड़े पैर होते हैं। बड़े-बड़े हाथ होते हैं और बड़े-बड़े नाखून होते हैं। वह हर समय अपने-आपको नोंचता रहता है; उसके शरीर से खून आ रहा होता है। वह हर समय अपने-आपको परेशान कर रहा है। उसकी स्थिति इस तरीके की है कि अगर कोई उसे बचाने भी जा रहा है तो वह भाग जाता है, वह डर जाता है। वह अपने-आपको अपने ही द्वारा कष्ट पहुँचा रहा है। ना वो खुद की ही मदद कर पा रहा है और ना ही कोई अगर उसकी मदद करने आता है तो वह उसकी मदद ले पा रहा है। तो यह जो कष्ट वह जानवर अपने-आपको पहुँचा रहा है, वह उसी तरीके से है जिस तरीके से एक इंसान अपने मन के द्वारा हर समय खुद को कष्ट पहुँचा रहा है।”
जब मैंने यह कहानी पढ़ी तो मैं इसे खुद से बहुत ज़्यादा सम्बंधित कर पा रहा था कि जब से मेरे अंदर थोड़ी सी समझ आई है, तब से मैं यह देख पा रहा हूँ कि मैं लगातार अपने मन के द्वारा खुद को नुकसान पहुँचा रहा हूँ, चोट पहुँचा रहा हूँ और उसमें कुछ कर नहीं पा रहा हूँ। एक लाचारी सी है कि मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा हूँ। ऐसा लगता है जैसे खींचा जा रहा है मुझे खुद के द्वारा। मेरे अंदर कुछ है जो सीमाओं से परे जाना चाहता है, वो सीमाओं में नहीं रहना चाहता लेकिन कुछ ऐसा भी है जो बार-बार मुझे खींच रहा है, नुकसान पहुँचा रहा है और इस बीच में मैं संघर्ष में पड़ा हूँ तो समझ नहीं पा रहा हूँ कि मैं उठूँ कैसे और बाहर कैसे निकलूँ? आप इस पर थोड़ा सा प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: दो का जन्म एक साथ होता है — एक तुम्हारा, जो मुक्ति पाने का आकांक्षी है, और दूसरा तुम्हारे बंधनों का। दोनों साथ ही रहेंगे क्योंकि मुक्ति पाने की आकांक्षा का मतलब ही है कि तुम्हारे ऊपर बंधन हैं। बंधन ना होते तो तुम मुक्ति पाने की बात ही क्यों करते। तो इन दो का जन्म एक साथ होता है माँ के गर्भ से। एक तुम्हारा और दूसरा तुम्हारे बंधनों का। मुक्ति तुम चाहते ही उन बंधनों से हो जिन्होंने तुम्हारे साथ ही जन्म लिया है। यहाँ तक की कहानी तो ठीक है, आगे गड़बड़ है।
हमारे साथ जिन बंधनों ने जन्म लिया है हम उनसे मुक्ति तो चाहते हैं लेकिन उन्हीं बंधनों से हमारा तादात्म भी है। हम उन्हीं बंधनों को अपना नाम भी देते हैं, उन्हीं बंधनों को ‘मैं’ भी कहते हैं।
तो मैं कौन हूँ? जिसे मुक्ति चाहिए। और मैं कौन हूँ? जो अपने बंधनों से ही एकाकार है। इसलिए छटपटा रहे हो। जो कुछ भी शारीरिक है तुम्हारी हस्ती में, उसे मुक्ति इत्यादि बिलकुल नहीं चाहिए। उसे मुक्ति शब्द ही समझ में नहीं आता क्योंकि वह बंधन अनुभव ही नहीं करता। मुक्ति और बंधन दोनों उसके लिए अनजाने, अपरिचित शब्द हैं। जो कुछ भी चैतन्य है तुम्हारी हस्ती में वह मुक्ति के लिए छटपटाता है। दिक्कत बस ये है कि जो चैतन्य है वह जुड़ उसी से गया है जो शारीरिक है। जैसे कि इस बाँह पर बेड़ियाँ पड़ी हों और वह बेड़ियाँ मुझे बहुत परेशान करती हों, बहुत रुलाती हों और मैं समझ भी ना पा रहा हूँ कि मेरे दर्द की वजह क्या है क्योंकि मैंने उन बेड़ियों को नाम ही दे दिया है अपने बाजुओं का, अपनी कलाइयों का। तो मैं ये नहीं कह रहा कि मुझे बेड़ियाँ सता रही हैं, मैं कहूँगा, “मेरी कलाइयों में बड़ा दर्द है।” मैं कहूँगा, “मेरे बाजूओं में बड़ा दर्द है।” और वह बाजू हैं क्या जिनमें दर्द है? वो बेड़ियाँ ही हैं जिन्होंने मुझे जकड़ रखा है। हमने अपनी बेड़ियों को अपने बाजुओं का नाम दे दिया है, फिर हम कहते हैं बाजू बंधन में हैं। बाजू बंधन में नहीं है, बाजू ही बंधन है।
अच्छा किया तुमने इस कहानी में जानवर का उल्लेख किया। जानवर समझते हो? (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) यह शरीर ही जानवर है। जो जान का वरण करे मुक्ति की अपेक्षा, उसका नाम है ‘जान वर’। दो चीज़ें होती हैं जीवन में जिनका तुम वरण कर सकते हो, यही चुनाव है। यह चुनाव सब को करना पड़ता है; या तो जान चुन लो या शान चुन लो। जो जान का वरण कर ले वह जानवर और जो मुक्ति की शान चुन ले वह मनुष्य। जान का वरण करना माने शरीर का वरण — रोटी पानी कैसे चलेगा? तमाम तरह की जो असुरक्षाएँ सताती रहती हैं उनका क्या होगा? छत मिलेगी कि नहीं मिलेगी? और छत मिल भी गई तो कक्ष में साफ़-सफ़ाई रौशनी होगी कि नहीं? ए.सी. चल रहा होगा कि नहीं चल रहा होगा? यह सब किसके लिए माँगते हो?
प्र: शरीर के लिए।
आचार्य: (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) इसी जानवर के लिए। तुमने कहानी में बताया कि जानवर स्वयं से ही परेशान है, अपने-आपको नोंच-खरोंच रहा है, वह परेशानी जानवर की नहीं है वास्तव में, वो परेशानी उसकी है जो जानवर के भीतर बैठा है, जो जानवर के भीतर क़ैद हो गया है। वो तुम हो, चैतन्य अहं; जो फँस गया है जानवर के भीतर और यह मानता भी नहीं कि वह जानवर के भीतर फँसा हुआ है। वो ये नहीं कहता कि, "मैं जानवर में क़ैद हूँ", वह कहता है, "मैं तो जानवर ही हूँ।" कोई मनुष्य नहीं मिलेगा जो कहे कि वह देह के भीतर क़ैद है। हम कहते हैं, “मैं तो देह ही हूँ।” तुम्हारा और देह का कोई जोड़ है? कहाँ तुम कहाँ देह। तुम बातचीत करते हो ज्ञान-ध्यान की, ये (देह) बात करती है रोटी-सब्जी की। अब ज्ञान-ध्यान और रोटी-दाल में क्या मुकाबला? तुम्हें चाहिए आज़ादी, इसको चाहिए बिस्तर; कोई मेल है? बस यही बंधन है। दो ऐसे साथ जुड़ गए हैं जिन्हें साथ जुड़ना ही नहीं चाहिए था, जैसे गोबर के कुंड में हीरा गिर गया हो। जैसे आपको उठाकर के कीचड़ के किसी तालाब में डाल दिया जाए, क्या दशा होगी? आपको दलदल में या कीचड़ के तालाब में डाल दिया जाए तो आपकी बेचैनी और उलझन ज़ाहिर हो जाती है, है न? क्योंकि आँखें साफ़ देख पाती हैं कि बाहर कीचड़-ही-कीचड़ हो गया, साँस भी नहीं आ रही है, दम घुट रहा है, बदबू कितनी है। वही एहसास तब क्यों नहीं होता जब आप देह के भीतर क़ैद हैं? ये देह कीचड़ का तालाब है और इसके भीतर आप क़ैद हैं, बदबू नहीं आती? दम नहीं घुटता?
इसीलिए जानने वालों ने सिखाया कि पैदा बंधन में हुए हो, जियो ऐसे कि बंधन कटते चलें। बंधन लिए-लिए ही मर मत जाना, बड़ी बर्बादी होगी जीवन की। जीवन मिला है तो उसका सार्थक उपयोग यही है कि उसे बंधनों को काटने में इस्तेमाल करो। तुम्हारी कहानी में जो जानवर अपने-आपको नोंच रहा है, खसोट रहा है वह जानवर नहीं परेशान है, उस जानवर के भीतर जो चेतना है वह छटपटा रही है क्योंकि वह जानवर में फँस गई है।
जानवर की देह में दैवीय चेतना फँसी हुई है, इसी स्थिति का नाम है मनुष्य। चेतना है देवीय और देह है पशु की। इस बेमैल जोड़ का नाम है मनुष्य।
आदमी की देह और बंदर, गोरिल्ला की देह में कोई मूलभूत अंतर है?
भीतर तुम्हारे कुछ ऐसा है जो जंगल का नहीं है, जो जानवरों का नहीं है, वो साफ़ आकाश का है, उसको आत्मा कहते हैं। अब समझ में आ रहा है क्यों गाते हैं कबीर साहब, "मोरा हीरा हिराय गयो कचरे में", कौन सा हीरा? तुम्हारा सत्य, तुम्हारा तत्व, तुम्हारा हृदय, आत्मा और किस कचरे में हिराय गया है? कहाँ खो गया है? कौन सा बंधन? नाम लीजिए साफ़-साफ़ – शरीर, ताकि उसको सजाने-सँवारने में समय थोड़ा कम लगाएँ। ‘मोरा हीरा हिराय गयो कचरे में’; बड़े महँगे बंधन हैं, बड़ा रख-रखाव, बड़ी मेंटेनेंस माँगते हैं।