प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मुझे ये जानना है कि – जन्म और मृत्यु की ये जो प्रक्रिया है, ये क्यों हो रही है? कोई आदमी जन्म ले रहा है, तो क्यों ले रहा है? और मर रहा है, तो क्यों मर रहा है? जो भी लोग बुद्धत्त्व को उपलब्ध हो गए हैं, उन्होंने भी इस जन्म-मृत्यु की प्रक्रिया को माना है। तो ये क्यों घटता है?
आचार्य प्रशांत: जिसके साथ घट रहा है, वो कभी भी नहीं पूछता कि – “क्यों घट रहा है?” जन्म और मृत्यु की प्रक्रिया जिसके साथ घट रही है, वो कभी भी नहीं पूछता कि – “क्यों घट रही है ये प्रक्रिया?” ये तो प्रकृति के खेल हैं, इनमें कोई चेतना नहीं। ‘क्यों’ का प्रश्न ही चेतना से सम्बंधित, और चेतना से उद्भूत प्रश्न है। क्या तुमने किसी पत्थर को ‘क्यों’ पूछते देखा है? क्या तुमने किसी पत्थर को पूछते देखा है कि, वो पूछ रहा है कि – “मैं पत्थर क्यों हूँ? मैं क्यों हूँ? मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया?” नहीं न।
तो ये जो जन्मना-मरना है, ये बनना-बिगड़ना है, ये वही घटना है जो हर पत्थर, हर अणु, हर परमाणु के साथ घट रही है। हाँ, जब ‘अहम’ इनमें से किसी पत्थर के साथ संयुक्त हो जाता है, तो ‘अहम’ कहने लग जाता है, “बड़ी भारी घटना घटी।” फिर वो ये नहीं कहता कि – “कुछ बना कुछ बिगड़ा।” फिर वो ये कहता है, “कुछ जन्मा, कुछ मरा।”
हुआ इतना ही है कि जैसे पूरे ब्रह्माण्ड में प्रतिपल हज़ारों अणु-परमाणु बन भी रहे हैं, टूट भी रहे हैं, रचित और खंडित दोनों हो रहे हैं, उसी तरीके से न जाने कितने शरीर हैं जो जन्म भी ले रहे हैं, और मिट भी रहे हैं। घटना पूरे तरीके से भौतिक है, घटना पूरे तरीके से प्राकृतिक है। लेकिन ‘अहम्’ किसी मिट्टी के ढेले से जुड़ा हुआ नहीं है। नहीं तो वो ये भी सवाल उठाता कि – “मिट्टी का ढेला क्यों बन गया? बादल बरस गया, बादल की मौत क्यों हो गयी?”
अगर ‘अहम्’ हमारा बादल से संयुक्त हो गया होता, तो वो बादल को बरसते देखकर भी यही कहता, “बादल का खून गिरा और फिर बादल मर गया।” पर चूँकि हमारा ‘अहम्’ बादल से संयुक्त नहीं है, तो हम बड़ी आसानी से उसे एक प्राकृतिक घटना, एक फ़िज़िकल फ़ेनोमेनन मान लेते हैं।
मान लेते हैं न?
हम कहते हैं, “बादल आए, बादल बरसे, और बादल चले गए या मिट गए।” ये हम इसीलिए कह पाते हैं क्योंकि बादलों के साथ हमने अभी तादात्म्य नहीं स्थापित किया है। तो हमारे लिए बादल क्या हैं फिर? महज़ वस्तु हैं, अणु-परमाणु हैं। तो हम कह देते हैं – “बादल आए, बादल चले गए।” शरीर के साथ हमने क्या कर लिया है? तादात्म्य बना लिया है। तो शरीर आता है, शरीर जाता है, तो हम नहीं कह पाते, “बादल की तरह शरीर भी था, आया, बरसा चला गया।” तब हम कहते हैं, “अरे, अरे! जन्म हुआ, मृत्यु हुई, बड़ी विकराल घटना हुई। ज़रूर कोई रहस्य होगा।”
कोई रहस्य नहीं है।
ठीक जैसे भौतिक प्रतिक्रियाओं से बादल का निर्माण होता है, वैसे ही इस शरीर का निर्माण होता है। जिन लोगों ने प्राणी शास्त्र पढ़ा हुआ है, जिन लोगों ने रसायन शास्त्र पढ़ा हुआ है, वो भली-भाँति जानते हैं कि ये शरीर कैसे बनता है। कुछ है ऐसा इस शरीर में जो बादल बनने की प्रक्रिया से मौलिक रूप से भिन्न हो? बताना। कुछ है क्या ऐसा? नहीं है इसलिए तो आज प्रयोगशालाओं में भी जीवन का निर्माण हो जाता है। जानते हो न?
अलग होकर के देखोगे, तो सारा खेल प्रकृति का ही दिखाई देगा। प्रकृति में ही सारा आवागमन है।
हाँ, ‘अहम्’ अमरता की आशा लेकर के, प्रकृति के पदार्थों के साथ जुड़ जाता है। आशा उसकी क्या है? अमरता मिल जाए। जितने लोग जी रहे हैं, सब मरने से डरते हैं। सबकी आशा क्या है? अमरता।
तो ‘अहम्’ अमरता की आशा लिए, किसके साथ जुड़ जाता है? बादल से। ऐसा करता नहीं, पर समझ लो कि – प्रकृति में ही जो तमाम आने-जाने वाली वस्तुएँ, और पदार्थ, और घटनाएँ हैं, ‘अहम्’ अमरता की आशा लेकर, उनसे जुड़ जाता है। और फिर वहाँ, उसका मंतव्य पूरा होता नहीं, क्योंकि प्रकृति में जो कुछ है, वो काल के अधीन है। वो आया है तो वो जाएगा ज़रूर।
संसार में कुछ भी ऐसा है, जो आया है और वो मिटेगा नहीं? अगर कुछ है, तो मिटेगा। क्योंकि अगर कुछ है, तो कभी आया होगा।
‘अहम्’ आत्मा की छाया है। स्वभाव उसका अमरता है। स्वभाव को वो खोजता है प्रकृति में। वो प्रकृति में खोज रहा है, वो ग़लत जगह खोजने लग जाता है। प्रकृति में वो हर जगह खोज रहा है, शरीर भर में नहीं, वो हर जगह खोजता है।
वो रिश्तों में खोजता है, वो घर में खोजता है, घर बनवाता है तो वो यही सोचता है – “मेरा घर अनंतकाल तक चले।” किसी से रिश्ता बनाता है, तो उम्मीद यही रहती है कि ये रिश्ता अनंतकाल तक चले, कम-से-कम सात जन्म तो चले-ही-चले।
ये जो चीज़ों को लम्बा खींचने की उम्मीद है, समझो तो सही कि ये उम्मीद आ कहाँ से रही है। ये उम्मीद आ रही है आत्मा की स्मृति से। ‘अहम्’ को वहाँ जाना है, अमरता वहीं पर है। लेकिन उसकी जगह वो जुड़ जाता है कभी पानी के साथ, कभी कपड़ों के साथ, कभी बादल के साथ, और कभी शरीर के साथ। और जिस के साथ जुड़ता है, उसके साथ वो उम्मीद बाँधता है नित्यता की, अमरता की।
यकीन मानो, बादल के साथ अगर मोह बना लो, तो जब बादल बरसेगा, तुम भी उतनी ही ज़ोर से बरसोगे। कहोगे, “मेरा प्यारा बादल आज मर गया।” और बादल में और शरीर में कोई अंतर नहीं है, सिवाय इसके कि एक के साथ हमने मोह बना लिया है, दूसरे के साथ मोह नहीं बनाया है। तुम दूसरे के साथ भी मोह बना लो, तुम फूट-फूट कर रोओगे।
तो ना कोई जन्म है, ना कोई मृत्यु है, प्रकृति का खेल है। जन्म और मृत्यु तुम्हारे लिए गंभीर मसले इसीलिए हो जाते हैं क्योंकि प्राकृतिक वस्तुओं के साथ हम मोह, तादात्म्य बना लेते हैं। अन्यथा, कहाँ कोई जन्म है, किसकी कोई मृत्यु है? बादल हैं, बरसते हैं, चले जाते हैं। ना कोई जन्मा है, ना कोई मरा है। और बरसकर चला भी कहाँ जाता है बादल? जहाँ तुम मरकर चले जाते हो। मिट्टी है ये शरीर, मर कर मिट्टी हो जाता है। वैसे ही भाप है बादल, बरसकर पुनः पानी हो जाता है।
कौन जन्म ले रहा है, कौन मर रहा है, कैसे ये इतना गंभीर मसला हो गया? गंभीर मसला इसीलिए हो गया, क्योंकि हम जो हैं, वो वास्तव में जन्म और मृत्यु से परे हैं – गंभीरता की बात ये है। गंभीरता की बात ये है कि हम अमर हैं, और जब तक वो अमरता हमें मिल नहीं जाती, हम इसी तरह की बचकानी हरकतें करते रहेंगे।
कभी हम यहाँ पर स्थायित्व तलाशेंगे, कभी हम यहाँ पर ठिकाना बनाएँगे। कभी हम उसको मानेंगे, कभी हम सोचेंगे उसके साथ आश्रय मिल गया। मिलेगा कहीं नहीं, क्योंकि हर बादल को बरसकर बीत जाना है।
तो बेटा इससे पहले की तुम बार-बार पूछो कि – “ये ‘जन्म-मृत्यु’ क्या हैं?” – ये तो पूछ लो कि – जन्म और मृत्यु हैं भी, या नहीं हैं? घटनाएँ घट रही हैं, और वो घटनाएँ पार्थिव तल पर हैं, पदार्थ के आयाम में हैं।