हैदराबाद से हसदेव तक: जलवायु परिवर्तन की अंतिम चेतावनी

Acharya Prashant

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हैदराबाद से हसदेव तक: जलवायु परिवर्तन की अंतिम चेतावनी
जितनी देर में हम बात कर रहे हैं, जितनी देर में लोगों ने ये बात सुनी होगी थोड़े कुछ चंद मिनट उतनी देर में गई। अब हमें कभी उनके दर्शन नहीं होंगे गए। अब ऐसा भी नहीं है कि किसी और जन्म में वो लौट कर आएँगी। वो इतिहास बन गई वो कभी नहीं लौट कर आने की है। ये हम कर रहे हैं और इस भयानक तबाही से हम गुजर रहे हैं। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

यशवंत राणा: नमस्कार, मैं राणा यशवंत आपका स्वागत करता हूँ। एक सिलसिला है जो ठहरता तो है लेकिन रुकता नहीं है। बीच में थोड़ी देर का ठहराव था तो बहुत सारे सवाल होने लगे थे कि ये सिलसिला चलना ही चाहिए। वो चलने लगा है। आचार्य प्रशांत जी के साथ मेरी बातचीत फिर से शुरू हो गई है, और आज मैं आचार्य जी के साथ हूँ। आचार्य जी बहुत-बहुत स्वागत है आपका।

आचार्य प्रशांत: आभार।

यशवंत राणा: दरअसल हम जो सवाल चर्चा में लाते हैं, जिन पर बहुत गंभीर बातें करते हैं। हमें इसका अंदाजा नहीं होता है कि हमारी जिंदगी पर और आने वाली पीढ़ियों के ऊपर उनका कितना असर होने वाला है। जो वक्त सामने आ रहा है वो अपने साथ कितने खतरे लेकर के आ रहा है। वो कितना भयावह है। सिर्फ हम चर्चा करते हैं और चर्चा करने के बाद अपनी जिंदगी में रम जाते हैं। सवाल है पेड़ों के काटे जाने का। और मैं हैदराबाद विश्वविद्यालय के बगल में 400 एकड़ का जंगल जो काटे जाने का फैसला है उस पर आऊँ, उससे पहले दो-तीन जानकारी आपके सामने रखना चाहता हूँ। इस दुनिया में हर साल 1 करोड़ हेक्टेयर, 1 करोड़ हेक्टेयर पेड़ काटे जाते हैं। और हर मिनट फुटबॉल का जो मैदान होता है उस मैदान के बराबर के 27 मैदान काटे जाते हैं।

काटे जाने के अपने-अपने कारण हैं: विकास है, उसके अलावा बहुत सारी चीजें हैं। हैदराबाद आज की तारीख में एक बड़ा मसला है। कि 400 एकड़ का जो जंगल है विश्वविद्यालय के ठीक बगल में, उसको काट करके आईटी पार्क बनाने का जो फैसला वहाँ की सरकार ने किया, उसके बदले में वो साउथ हैदराबाद में जो खाली जमीन है वहाँ भी आईटी पार्क बनवा सकती है। ये सोच ये फैसला अपने आप में एक गंभीर प्रश्न खड़ा करता है। और इसी तरीके से छत्तीसगढ़ में हसदेव के जंगल हैं। और यह दोनों जो हैं वो फेफ़ड़ा माने जाते हैं। हैदराबाद का लंग्स हैदराबाद विश्वविद्यालय के पास का 400 एकड़ का जंगल। और मध्य भारत के लंग्स के तौर पर हसदेव के जंगल को जाना जाता है जैसे दुनिया में अमेज़न के जंगल है। जंगल, जंगल की दुनिया और इंसान यानी पूरी धरती। जो खतरा है और जो सवाल है ये अपने आप में गंभीर है, बड़ा है। लिहाज़ा आज आचार्य जी के साथ, मैं इसी पर आ रहा हूँ आचार्य जी।

मसला तो वैसे आम आदमी की चर्चा के लिए ही है। 400 एकड़ का जंगल जो है वो काटा जा रहा है, मामला सुप्रीम कोर्ट तक का है। विश्वविद्यालय के स्टूडेंट्स ने मोर्चा लिया। पुलिस के साथ लिया। काटने वालों के साथ लिया। जेसीबी मशीन के सामने खड़ा हो के। बधाई के पात्र हैं कोई बात नहीं, लेकिन इस तरीके से जो फैसले लिए जाते हैं। इन फैसलों के पीछे जो आने वाला वक्त है उसको देखने की ताकत होती है या फिर ये ऐसे ही लिए जा रहे हैं और एक तबाही को न्योता दिया जा रहा है।

आचार्य प्रशांत: देखिए मुझे नहीं लगता कि, आने वाले वक्त में क्या होने जा रहा है। इसके बारे में कोई भी सजग है, ध्यान दे रहा है या जानने की कोशिश भी कर रहा है। जबकि तथ्य, प्रोजेक्शंस , प्रक्षेपण, आंकड़े ये सब सार्वजनिक रूप से पब्लिक डोमेन में मौजूद हैं। और जो आंकड़े मौजूद हैं हम ये भी नहीं कह सकते कि वो भविष्य के बारे में है। वो भविष्य जिसको लेकर के हम घबराते थे। रियो डीजेनेरियो , क्योटो से लेकर के पेरिस तक, वो भविष्य आ चुका है। जो हमारे सबसे भयानक दुस्वप्न थे वर्स्ट नाइट मेयर्स वो हमारे सामने खड़े हुए हैं। तो ये भी मैं नहीं कह सकता कि खतरा भविष्य में है अब। हम उस खतरे के बीचोंबीच हैं।

लेकिन जो हमारी आम जिंदगी के एकदम छोटे-छोटे मसले हैं। हम उनमें इतने खोए हुए हैं कि समझ ही नहीं पा रहे कि कितनी बड़ी तबाही के ठीक अब हम बीचोंबीच आकर खड़े हो गए हैं। लगभग वैसे जैसे कि बच्चे हो या जानवर हो। वो एक व्यस्त सड़क के बीच में कुछ खेल रहे हैं कुछ खोज रहे हैं या दौड़ रहे हैं। और वो इसी बात में बिल्कुल मशगूल हैं कि वो मेरा छोटा सा एक खिलौना या कंचा कहाँ पर है उनका सारा ध्यान उस छोटी सी चीज़ पर है। और एक बहुत बड़ा ट्रक मौत बनकर उनकी ओर आ ही गया, आ ही गया एक नहीं कई और एक नहीं दोनों दिशाओं से इस पर उनका कोई ध्यान ही नहीं है।

तो हम अपने सीमित और संकीर्ण सरोकारों में इतने व्यस्त हैं। कि हम देख ही नहीं पा रहे कि हम जिस युग में अब जी रहे हैं जिन-जिन सालों में हम जी रहे हैं। युग से भी ऐसा लगता है बड़े दूर की बात हो गई। ये भयानक और मास एक्सटेंशन के साल हैं। इसको एंथ्रोपोसीन कहते हैं। एंथ्रोपोसीन माने मनुष्य द्वारा निर्मित पूरी दुनिया की सब प्रजातियों की बर्बादी। *मास एक्सटिंशन*— एक भयानक व्यापक विलुप्ति एक प्रजाति के विलोप की बात नहीं दसों लाखों प्रजातियों का विलोप। माने पृथ्वी से जीवन के ही हटने का ये दौर चल रहा है, जीवन के पूरी तरह समाप्त होने का।

यशवंत राणा: सही…….में। मैं अभी कहीं देख रहा था कि हर साल 50 हज़ार प्रजातियाँ जीवों की इसी जंगलों के विनाश के कारण खत्म होती चली जा रही हैं। हैदराबाद के जंगल में भी कुछ ऐसी प्रजातियाँ जीवों की हैं जो सिर्फ वही है। जैसे मैंने पढ़ा कि एक खास तरह की मकड़ी होती है, वो सिर्फ उसी जंगल में होती है और बाकी कुछ और वन्य जीव हैं। यह जो एक्सटिंशन ऑफ आप स्पीशीज़ कह रहे हैं। ये एक सिलसिला है जो चला जा रहा है चला जा रहा है। तो फिर ये बिना किसी सोच के है तो अगर बिना किसी सोच के है तो ये विनाश जाने के लिए बाध्य है। यूँ कहिए कि अभिशप्त है वो जाएगा ही जाएगा। या फिर कहीं विवेक आपको काम करता हुआ दिख रहा है।

आचार्य प्रशांत: नहीं विवेक काम कर रहा होता तो ये नौबत क्यों आती? विवेक काम कर रहा होता, आपने कहा 50 हज़ार प्रजातियाँ प्रतिवर्ष। तो आप कह रहे हैं कि प्रतिदिन आप लगभग 150 प्रजातियों की बात कर रहे हैं, 140 प्रजातियों की बात कर रहे हैं। इससे ज्यादा भी हो सकता है जो अनुमानित आंकड़ा है वो 100 से 1000 प्रजातियों की प्रतिदिन की विलुप्ति का है। तो 140 शायद उसका जो निचला सिरा है स्पेक्ट्रम का हम उसकी बात कर रहे हैं। हो सकता है कि वो 140 ना हो 1000 भी हो इतनी प्रजातियाँ प्रतिदिन विलुप्त हो रही हैं सोचिए प्रतिदिन। इसका मतलब है जितनी देर में हमने बात करी है इतनी देर में भी कई प्रजातियाँ कभी भी वापस अब ना लौट के आने के लिए सदा के लिए खत्म हो गई, वो इतिहास बन गई।

हम किसी व्यक्ति के इतिहास बनने की बात नहीं कर रहे। हम किसी प्रजाति के किसी एक सदस्य के मिटने की बात नहीं कर रहे। जितनी देर में हम बात कर रहे हैं, जितनी देर में लोगों ने ये बात सुनी होगी थोड़े कुछ चंद मिनट उतनी देर में गई। अब हमें कभी उनके दर्शन नहीं होंगे गए। अब ऐसा भी नहीं है कि किसी और जन्म में वो लौट कर आएँगी। वो इतिहास बन गई वो कभी नहीं लौट कर आने की है। ये हम कर रहे हैं और इस भयानक तबाही से हम गुजर रहे हैं। पर ये तो हुआ कि वो प्रजातियाँ जो पूरी विलुप्त हो गई। जो उनकी संख्या में जो उनके आंकड़ों में कमी आ रही है, वो एक प्रक्रिया के तौर पर बहुत समय तक चलता है तब जाकर के फिर एब्सोल्यूट एक्सटिंशन होता है। पहले तो ये होगा ना कि कोई प्रजाति थी जो लाखों में थी, करोड़ों में थी उसकी संख्या घटती गई, घटती गई, घटती गई, घटती गई। फिर आप एक जगह पर आ जाते हो जहाँ कहते हो कि अब वो बिल्कुल नहीं बची।

पिछले 50 सालों में जंगलों में रहने वाले 70% जीवों को 70 से 80% जीवों को इंसान ने खत्म कर दिया है। सिर्फ पिछले 50 साल में। माने हमने लगभग अपने जीवन काल में ये देखा है होते हुए। कि जंगल में अगर 100 जीव रहते थे जब हम पैदा हुए थे तो 50 गायब हैं उसमें से 80 गायब हैं 20 बचे हैं, सब प्रजातियाँ मिला के ये हमने करा है। लेकिन वो जीव हमें रोज दिखाई नहीं देते। और हमारी जो रोज़मर्रा की जिंदगी है उसके छोटे-छोटे मुद्दे हैं वो हमें रोज दिखाई देते हैं। तो इस कारण हम मायोपिक हो गए हैं। हमें जो है निकट दृष्टि रोग लग गया है कि बस जो इधर का है वो दिखाई दे रहा है और सामने क्या नहीं दिखाई दे रहा। जैसे कि कोई ड्राइवर हो, जिसको सड़क दिखाई ना दे रही हो फिर भी गाड़ी चलाई जा रहा हो। वैसे इस दुनिया की गाड़ी चल रही है और अब बचना बड़ा मुश्किल है। देखिए मैं कुछ ब्रॉड इंडिकेटर्स चर्चा के आरंभ में ही आपसे कह देता हूँ। हम अच्छे से जानते हैं कि 1.5 डिग्री...

यशवंत राणा: ग्लोबल टेंपरेचर बढ़ा है।

आचार्य प्रशांत: की वृद्धि से अधिक हम ना करने पाएँ इसके लिए बड़ा शोर मचा था और जो पूरा पेरिस समझौता था इसीलिए था, 10 साल पहले का। 1.5 डिग्री की हम बात क्यों कर रहे थे? कि 1.5 डिग्री पे रोक दो, 1.5 डिग्री पर रोक दो। 1.5 डिग्री पर आते ही कई सारे टिपिंग पॉइंट्स सक्रिय हो जाते हैं। फीडबैक लूप्स होते हैं वो सक्रिय हो जाते हैं। मैं एक आपको टिपिंग पॉइंट बताता हूँ आपने जंगलों के कटने की बात करी थी। तो जो अमेज़न के रेन फॉरेस्ट्स हैं वर्षावन की वो पूरा अपना इक्वेटोरियल रेन फॉरेस्ट वो जितने हुआ करते थे आज से लगभग मानिए 50 साल पहले। जैसे ही वो उसके आधे हो जायेंगे उसके बाद आपको उन्हें काटने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वो खुद थम खत्म हो जायेंगेम कारण वहाँ पर जो प्रजातियाँ पाई जाती हैं वो सिर्फ एक क्लोज्ड कैनोपी में ही पनप सकती हैं। माने वन इतना घना होना चाहिए कि सनलाइट नीचे तक जाए, नीचे तक बहुत ज्यादा ना पहूँचे। और अगर काटते गए हो काटते गए हो उस कारण जो वहाँ पर प्लांटेशन की डेंसिटी है। कि मान लीजिए प्रति मील कितने वृक्ष हैं ये जो घनत्व है, ये जैसे ही एक सीमा से नीचे जाएगा उसके बाद पेड़ अपने आप मर जाएँगे।

यशवंत राणा: तो हैदराबाद का संकट भी तो वैसा ही हो सकता है।

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल वैसा ही है। बिल्कुल वैसा ही है। और मैं ये सारी बातें इसलिए कर रहा हूँ हैदराबाद के संदर्भ में। क्योंकि अगर हमें वो सारी बातें पता होती तो हैदराबाद जैसा निर्णय सरकार ले नहीं सकती थी। देखिए सरकार तो मतदाताओं के पीछे चलती है। सरकार, तो प्रजा के पीछे चलती है प्रजा को वो सारी बातें पता होती हैं जो बातें अभी हम कर रहे हैं। तो हैदराबाद में हसदेव में जो हुआ वो सरकार निर्णय ले ही नहीं सकती थी। लोग सरकार के ऊपर चढ़ जाते कि, तुम ये कैसे कर सकते हो? तुम हमारे निर्वाचित प्रतिनिधि हो तुम ये निर्णय ले ही नहीं सकते। हम तुमको नीचे गिरा देंगे। लोगों को नहीं पता और लोग जानना भी नहीं चाहते हैं। और अमेरिका जैसे देशों में अब ये हो रहा है कि अगर आप क्लाइमेट चेंज की बात करोगे आप सरकारी नौकरी से हाथ धोगेगे। आप प्राइवेट जॉब में हो वहाँ पर दबाव डाल के आपको निकाल दिया जाएगा। आप सोशल मीडिया पर जाकर बात करोगे आपका सोशल मीडिया अकाउंट जो है वो बंद कर दिया जाएगा। एजुकेशन सिस्टम से क्लाइमेट चेंज की पूरी बात हटा दी जाएगी। बच्चों को जवानों को स्कूल, कॉलेज में करिकुलम में पता नहीं लगने दीजिएगा। क्लाइमेट चेंज क्या होता है? जब किसी को पता ही नहीं है कि ये सब क्या होता है तो कटते रहे जंगल। कोई आकर के विरोध क्यों करेगा? भारत इस मामले में अमेरिका से बहुत बेहतर है।

यशवंत राणा: यहाँ एक संकट तो है।

आचार्य प्रशांत: हाँ।

यशवंत राणा: क्लाइमेट चेंज कोई ऐसी चीज तो है नहीं कि हमने ये ग्लास है हमने पर्दे के पीछे रख दिया। और आपको नहीं दिखाई पड़ा तो आपने इसके बारे में नहीं पूछा। ये खतरे तो जिंदगी में चारों तरफ दिखने शुरू हो जाते हैं। आपका मौसम का पैटर्न बदल जाएगा। आपकी खेती उजड़ जाएगी। पानी का संकट खड़ा हो जाएगा। आबादी बढ़ती चली जाएगी। अन्न नहीं मिलेगा खाने के लिए। ये जो संकट पूरा का पूरा दिखता है ये कोहराम मचाता हुआ सा महसूस होता है।

आचार्य प्रशांत: वो तब ना जब कोई बैठकर के ये सारी बातें एक साथ एकीकृत करके टेबल पर रख दे। तब तो दिखाई देता है खतरा कितना बड़ा है। दिक्कत सारी ये है राणा जी कि, ये सारे खतरे लगभग अदृश्य रहते हैं। आपने कहानी सुनी होगी ना उस मेंढक की?

यशवंत राणा: कुँए वाले की।

आचार्य प्रशांत: नहीं नहीं, कूप मंडूक नहीं। एक था जिसको सीधे ही उबलते हुए पानी में डाल दिया, ठीक है। वो जैसे ही उबलते पानी में डाला वो तो मेंढक है कूद के बाहर आ गया। बोला, पागल हो क्या! मार दोगे! वो जल और गया क्या कर दिया। काहे को डाल दिया। एक दूसरा मेंढक था उसको पानी में डाला जरा सा तापमान बढ़ाया, वो झेल गया। जरा सा और बढ़ाया उसने कहा — हाँ यार! गर्मी बढ़ तो रही है पर थोड़ी सी ही तो बढ़ी है। वो और झेल गया। थोड़ी देर में थोड़ा सा और बढ़ा दिया उसने कहा— बढ़ रही है पिछले से थोड़ी और बढ़ गई वो और झेल गया। तापमान लगभग वहीं पहूँचा दिया जिस तापमान पर पिछला मेंढक चुपचाप जल्दी से कूद के भाग गया था। ये मेंढक नहीं भागा क्योंकि, इसके साथ जो प्रक्रिया रही वो क्रमिक रही जो भी कुछ हुआ वो क्रमशः हुआ ग्रेजुअल हुआ। ये मेंढक उबल कर मर गया।

हमारे साथ उस दूसरे मेंढक वाली घटना घट रही है। क्लाइमेट चेंज को लेकर के आपने जिस कोहराम की बात करी। अगर वो सब कुछ एक दिन या एक हफ़्ते या एक महीने में घटित हो जाए और एक ही जगह पर हो जाए घटित। तो हमें मजबूर होकर के इसका संज्ञान लेना पड़ेगा। बहुत बड़ी आपदा आ गई है दिख रहा है रोज़-रोज़ कुछ हो रहा है। दिक्कत ये है कि कार्बन डाइऑक्साइड का कोई कलर नहीं होता। रंगहीन कलरलेस वो एक गैस होती है धुआँ तो दिखाई देता है ना, धूल भी दिखाई देती है। जब दिल्ली में ए क्यू आई बहुत खराब हो जाता है। तो आम अनुभव है कि आप मेज़ वगैरह छोड़ दो तो उस पे आके देखते हो तो उसमें बहुत महीन आपको दिखाई देता है कि धूल पड़ गई है। ठीक है ना। वैसे ही गाड़ियों का जो एग्जॉस्ट होता है उसमें से काला धुआँ निकल रहा है दिखाई देता है। कार्बन डाइऑक्साइड दिखाई नहीं देती। नहीं पता चलता कि कार्बन डाइऑक्साइड का जो कंसंट्रेशन है वो डेढ़ गुने से ज्यादा बढ़ चुका है लगभग दो गुना बढ़ चुका है। 250 पीपीएम से 440 पीपीएम के आसपास आ रहा है वो। नहीं पता चलता है।

तापमान बढ़ रहा है बढ़ रहा है 1.5 डिग्री बढ़ गया है पर 1.5 डिग्री का जो फ्लक्चुएशन है ये तो वैसे भी हमने झेला हुआ है। तो हमें नहीं पता चलता कि ये कितनी बड़ी बात है। बात समझ रहे हैं हमें नहीं पता चलता कि इसकी वजह से अगले 20 सालों में भारत में जो खेतों की उत्पादकता है। जो क्रॉप ईल्ड्स हैं वो 30% नीचे जाने वाली हैं। और हमारी आबादी लगभग 15-20% तब तक बढ़ चुकी होगी।

यशवंत राणा: ये कब तक की बात है?

आचार्य प्रशांत: ये अगले 20 साल की बात है। तो ये बताइए हम भविष्य की बात कर रहे हैं? और 20 साल माने 20वाँ साल नहीं होता। 20 साल माने 20अथ ईयर नहीं होता। 20 साल माने अभी से शुरू और अभी नहीं पिछले 10 साल से शुरू, पिछले 20 साल से शुरू । क्लाइमेट चेंज से भारत का जो एग्रीकल्चरल फार्म सेक्टर है उसको कितना नुकसान हो चुका है। हम बात करते हैं हमें इतने ट्रिलियन की इकॉनमी बनना है हमें कितने बिलियन इकॉनमी का प्रतिवर्ष नुकसान होना शुरू हो चुका है। अभी ही ऑलरेडी। हम उसकी बात नहीं करते हैं। क्यों? क्योंकि वो सब कुछ क्रमशः हो रहा है मेंढक धीरे-धीरे उबल रहा है तापमान धीरे-धीरे बढ़ रहा है। तो मेंढक को लग ही नहीं रहा कि कोई अनहोनी घट रही है। वो कूद के बाहर ही नहीं आ रहा वो इमरजेंसी जैसा कोई बटन दबा ही नहीं रहा है। और वो इमरजेंसी जैसा कहीं बटन दबेगा नहीं और ये दुनिया जो है ये मेंढक की तरह ही उबलकर मरने वाली है।

यशवंत राणा: आचार्य जी, बहुत गंभीर मसले को उठा रहे हैं। जब कार्बन एमिशन होता है हम जितनी चीजें जलाते हैं। फॉसिल फ्यूल जलाते हैं तो कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। पेड़ होते हैं तो सोखते हैं। हम तो पेड़ों को काटते चले जा रहे हैं तो सोखने का एक ज़रिया हमारे पास था वो खत्म होता जा रहा है। हम जलाते चले जा रहे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड का जो कंसंट्रेशन है बढ़ रहा है ये ऐसी गैस है जो हीट को अपने पास रखती है। तो जब सोख के रखी थी इसलिए इसको ग्रीन हाउस गैस कहते हैं। तो हमारे धरती के ऊपर का टेंपरेचर बढ़ रहा है। टेंपरेचर बढ़ रहा है तो जो हमारे मौसम का पैटर्न है जब सावन आना है। भादो आना है। पूस आना है। माघ आना है। वो सब उसमें अलग-अलग बदलाव होगा तो खेती मारी जाएगी। और हमारी जो आबादी है वो बढ़ती चली जा रही है। तो जीने के संसाधन आपके संकुचित होते जा रहे हैं आबादी आपकी बढ़ती चली जा रही है और खतरा आपके सामने है।

आचार्य जी कहना ये है कि अगले 20 वर्षों में यह संकट बड़ा हो जाएगा। यह मैं फिर हैदराबाद के पास लाकर के आपको लाना चाहता हूँ। हैदराबाद का जंगल एक उदाहरण है हसदेव का छत्तीसगढ़ में जंगल एक उदाहरण है। जबकि वो भी लगभग 1100 स्क्वायर किमी का जंगल है।

आचार्य प्रशांत: बहुत बड़ा है हैदराबाद का जंगल।

यशवंत राणा: और वो बहुत घना जंगल है।

आचार्य प्रशांत: बहुत घना जंगल है।

यशवंत राणा: अब छत्तीसगढ़ और हैदराबाद इस तरह के जंगल देश में बाकी हिस्सों में काटे जा रहे हैं। जंगलों का काटा जाना पेड़ों काटा जाना आम आदमी को लगता है कि बड़ी सामान्य सी घटना है। और आप जैसे कह रहे हैं लगता है कि ये बहुत विकट स्थिति पैदा हो रही है। और इसके सामने पूरी जो मनुष्यता है या पूरी जो सभ्यता है वो अपने खतरे को लेकर खड़ी है।

आचार्य प्रशांत: किसी के गले से ये बात उतर ही नहीं रही है राणा जी नीचे कि, अर्ध सामान्य जीवन जीने वाली भी हम शायद मनुष्य की आखिरी पीढ़ी हैं। हमारे बच्चे सामान्य जीवन नहीं जीने वाले। ये जो दिल्ली है ये 55-60 डिग्री टेंपरेचर होगा यहाँ पर। हम तो पूरे तरीके से एक खास प्रकार के मौसम और तापमान और वायुमंडलीय दबाव के संतुलन पर जी रहे हैं। भारत की तो सारी खेती मानसून पर आश्रित है ना। मानसून कैसे होते हैं? कैसे वो हवाएँ समुद्र से चलकर के जमीन पर आ जाती हैं हिमालय से टकराती हैं, वर्षा करती हैं, सब कैसे होता है?

इन सबके पीछे तापमान की और एटमॉस्फेरिक प्रेशर की एक बहुत नाज़ुक प्रणाली काम करती है। जैसे ही तापमान ऊपर नीचे हुआ बारिश होनी बंद। हमने अमेज़न रेनफॉरेस्ट की जो बात करी थी। आप ऐसे समझिए कि सवाना के ग्रासलैंड्स होते हैं ना है ना वो ज्योग्राफिक चैनल और इन पर सब पर आते हैं। जिसमें बीच-बीच में कहीं-कहीं पे एक ठूंठ, एक पेड़ खड़ा दिख जाता है, बाकी घास ही घास है, झाड़ झंखाड़ है और वहाँ पर जिब्रा चल रहे होते हैं। और वो जीराफ़ इस तरह वो बीच-बीच में होता है। उसमें लायंस होते हैं वो जो होता है ना अफ्रीकन सफारी वाला जो पूरा अमेजन रेनफॉरेस्ट वो बनने वाला है। जिसको आज आप सहारा का रेगिस्तान बोलते हो इसी समय वो एक बहुत घना हरा जंगल हुआ करता था वहाँ बारिश होनी बंद हो गई बस।

यशवंत राणा: लेकिन इंसान तो पूछेगा ना कि अगर सहारा के जंगल मरुस्थल में तब्दील हो गए। फिर भी ये पृथ्वी बची हुई है अगर अमेजन के जंगल भी मरुस्थल हो जाएँगे तो फिर कहीं कुछ हराभरा हो जाएगा। बिल्कुल सही लोग तो उम्मीद पर चलते हैं।

आचार्य प्रशांत: एकदम उम्मीद पर नहीं चलते हैं ये तो सीधे-सीधे इंतजार किया जा रहा है। पर इंतजार किसके द्वारा किया जा रहा है। जानते हैं? जितने विकसित देश हैं वो इंतजार कर रहे हैं। अमेरिका में अभी जब पूरा ट्रंप का कैंपेन चला था तो, नाम क्या है उनका उनके एक वरिष्ठ कैंपेन मैनेजर थे उन्होंने कुछ इस तरह की बात कही थी। की हाँ, बहुत अच्छी बात है ना अभी जहाँ सफेद है क्लाइमेट चेंज होगा तो वहाँ फिर हरा हो जाएगा। सफेद माने समझ रहे हैं क्या?

यशवंत राणा: बर्फ़।

आचार्य प्रशांत: बस बर्फ पिघलेगी तो वहाँ पर हरितमा आ जाएगी। घास उगेगी, पौधे उगेंगे हमारी तो बल्कि घूमने फिरने की और खेती की जमीन बढ़ जाएगी। और ये वो लोग बोल रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन के सबसे बड़े गुनहगार हैं। और वही हैं जिन जिनको इसमें फायदा भी दिखाई दे रहा है और उनकी कोई बात गलत भी नहीं है। जो उत्तरी अमेरिका है या सबसे ज्यादा कनाडा है। वहाँ पर जो आइस शीट्स हैं जिन्होंने लगभग उनके देश का ज्यादातर क्षेत्र ढक रखा है वो पिघलेंगी। जब वो पिघलेंगी तो वहाँ तो बहुत लोग इस आशा में बैठे हैं कि अच्छी बात है हमारे लिए तो खेती की जमीन निकल आएगी। उनके लिए निकल आएगी भारत का क्या होगा?

भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान। इनमें भी सबसे ऊपर बांग्लादेश क्योंकि वो पूरी तरह से तटीय देश है। ये दुनिया के उन देशों में हैं जिन पर गाज गिरने वाली है। बांग्लादेश की तो विकट तबाही होने वाली है क्लाइमेट चेंज से, और भारत भी तबाही में बहुत पीछे नहीं रहने वाला है। और जिन देशों में क्लाइमेट चेंज को लेकर के सबसे कम सजगता है उसमें भी भारत अग्रणी है। यहाँ आप किसी से जलवायु परिवर्तन की बात करिए उनको नहीं समझ में आता कि क्या है? क्यों हो रहा है? ग्रीन हाउस इफेक्ट होता क्या है? ये कार्बन डाइऑक्साइड क्या कर लेगा? कार्बन डाइऑक्साइड से क्या लेना लोगों को नहीं समझ में आता। लोगों को केमिस्ट्री पढ़ा रहे हो ऐसा लगता है।

यशवंत राणा: लेकिन जैसे आप कह रहे हैं। आचार्य जी ये कह रहे हैं कि भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान दुनिया की आबादी 800 करोड़ है। और 200 करोड़ की आबादी यानी 1/4 आबादी यहीं रहती है और यह आबादी जो बड़े देश हैं, आज की तारीख में उनको बहुत नुकसान नहीं है। लेकिन ये 1/4 आबादी जो यहाँ रहती है जिसको भारतीय उपमहाद्वीप कहते हैं। इसके ऊपर खतरा सबसे पहला है। बर्बादी इसकी सबसे पहले होगी। तबाही यहाँ आएगी। कैसे?

आचार्य प्रशांत: देखिए सबसे पहले तो यहाँ जो फसलें हैं वो वर्षा पर आश्रित है। दूसरी बात यहाँ गरीबी बहुत है। और लोगों को अपने घर द्वार छोड़ने पड़ेंगे जब उनके खेतों में पैदावार कम हो जाएगी। तो एक मास माइग्रेशन होगा, एक जबरदस्त विस्थापन होगा। 3.5 मिलिमीटर प्रतिवर्ष जो है वो समुद्र का जो…

यशवंत राणा: लेवल बढ़ रहा है।

आचार्य प्रशांत: हाँ, 3.5 मिलमीटर प्रतिवर्ष। अब बांग्लादेश जो है उसके जो पूरे सब लो लाइंग इलाके हैं वो सब, और ये जो दर है ये दर भी प्रतिवर्ष बढ़ रही है 3.5 मिमी ये कोई कांस्टेंट रेट नहीं है। अभी 3.5 है फिर 4 है फिर 4.5 है, फिर ये प्रतिवर्ष जुड़ रहा है 3.5 उसमें 3.5 में 4 जोड़ दो अगली बार, और फिर 4 में 4.5 जोड़ दो अगली बार। 3.5 का 4 नहीं हुआ है 3.5 का 7.5 हुआ है। ऐसे-ऐसे बढ़ रहा है नहीं तो डूब जाने हैं लैंड ही नहीं बचेगा ना बारिश हो रही है उल्टे हो क्या रहा है जहाँ बारिश नहीं होती थी वहाँ अतिवृष्टि हो रही है। या जहाँ उतनी ही बारिश होती थी कि जितने में फसल पनप सके वहाँ-वहाँ इतनी बारिश हो रही है कि खड़ी फसल बर्बाद हो गई। ये सब होगा तो वर्षा पर आश्रयता और गरीबी ये दोनों मिलकर के बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान, अफ्रीका के कुछ देश यहाँ तो कहर बरपाने वाले हैं।

यशवंत राणा: आचार्य जी आप बार-बार कहते हैं कि मांस इंसान को नहीं खाना चाहिए। एक रिसर्च कह रहा है कि मांस खाने के चलते, दुनिया में मांस खाने की तादाद बहुत अधिक है। तो मवेशियों के लिए जो चारागाह तैयार किए जाते हैं जंगल बड़े पैमाने पर काटे जाते हैं। एक आंकड़ा है कि साल भर के भीतर 81,000 वर्ग किलोमीटर का दायरा साफ कर दिया जाता है या तो वहाँ आप चारागाह तैयार करते हैं या फिर उनके मवेशियों के लिए कुछ खाने पीने की जो चीजें होती है ना वो पैदा करते हैं आप। क्या अगर मांस रोका जाए तो बहुत हद तक क्लाइमेट चेंज और यह डिफॉरेस्टेशन रोका जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: जैसे जो आपने आंकड़ा बोला, मैं उसको थोड़ा सा एक व्यवहारिक तौर पर पर्सपेक्टिव में रखते हुए ऐसे बताता हूँ लोगों को कि ग्रीस जो है वो यूरोप का एक मध्यम आकार का देश है। तो जितना ग्रीस का क्षेत्रफल है उतना जंगल प्रतिवर्ष दुनिया से हटा दिया जाता है। जितना बड़ा ग्रीस है उतना जंगल हम दुनिया से प्रतिवर्ष साफ कर देते हैं इतना सारा, इतना सारा। अब इसके पीछे कारण क्या है? जंगल हम हटा क्यों रहे हैं? बहुत सारे कारण है पर जो सबसे बड़ा कारण है वो ये है कि हमें खेती के लिए जमीन चाहिए। खेती के लिए जमीन कहाँ से लाओगे तो बोले जंगल काट दो तो उससे जमीन निकल आएगी उस पे खेती करेंगे।

अच्छा इतनी खेती करनी क्यों है? क्यों करनी है खेती? क्या आदमी लोग ज्यादा खाने लग गए हैं? क्या हमारी खुराक इतनी बढ़ गई है कि उसके लिए इतना ग्रीस बराबर जंगल आप हर साल काटोगे? नहीं वो बात नहीं है जैसे-जैसे दुनिया में संपन्नता आती जा रही है और आध्यात्मिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है वैसे-वैसे दुनिया और ज्यादा, और ज्यादा मांस भक्षक होती जा रही है। मांस भक्षक होती जा रही है तो फिर जंगल कटने का क्या संबंध है? ये जो बड़े-बड़े जानवर हैं जिनको काट करके आप परोसते हो खाने के लिए खुद को। वो जानवर क्या खाते हैं? उन जानवरों को या जानवर ऐसे ही बस कहीं से चर लेते हैं। हम ये सोचते हैं कि ऐसे ही वो तो बकरा तो या कि ऊंट है, गाय है, भैंस है, बकरी है, भेड़ है।

ये तो बस ऐसे ही कुछ चर रहे होंगे। नहीं ऐसे ही नहीं कुछ चरते उनको खिलाने के लिए ही अधिकांश खेती की जाती है। बहुत लोगों को झटका लग जाएगा ये सुनकर के लेकिन दुनिया की जो 70% खेती होती है वो इंसानों को खिलाने के लिए नहीं जानवरों को खिलाने के लिए की जाती है। और जो जंगल काटे जाते हैं। जो अतिरिक्त जमीन निकाली जाती है जो एक्स्ट्रा लैंड रिक्लेम किया जाता है जंगल काट करके। वो 90% जानवरों को खिलाने के ही काम आता है।

यशवंत राणा: कारण ये है कि इंसान उन जानवरों को काट करके फिर खाए।

आचार्य प्रशांत: आप वहाँ खेती करोगे। और वो जो आप वहाँ पर घास, पतवार, सोय, अनाज, कॉर्न मेज ये सब आप जो भी वहाँ पैदा करोगे। वो ले जाकर के आप खिलाते हो गाय को, भैंस को, बीफ बहुत चलता है पश्चिम में। भेड़ को, बकरी को इनको आप खिलाते हो और फिर उनको आप काट करके खाते हो। तो वनों की अंधाधुंध कटाई का डिफॉरेस्टेशन का अगर हम कहें कि एक ही कारण है। आपने कहा था कई कारण है हम और कई कारण कह सकते हैं भाई मुझे फैक्ट्री लगानी है, इंडस्ट्रियल एरिया बनाना है, एयरपोर्ट बनाना है, रोड निकालना है। उस तरह के छोटे-मोटे कारण आप गिना सकते हैं। उनको मत गिनाइए क्योंकि वो असली कारण है ही नहीं। वन सिर्फ इसलिए कट रहे हैं क्योंकि मुझे मांस खाना है।

एक-एक पेड़ जो इस वक्त दुनिया में कट रहा है ठीक है। कई कहेंगे एक-एक थोड़ी, तो चलो 99% ले लो, जो पेड़ इस वक्त दुनिया में कट रहे हैं उसका एक ही कारण है मांसाहार। और मांसाहार में भी सबसे ज्यादा बीफ, बीफ क्योंकि वो सबसे बड़ा जानवर है जिसको आकार में और वजन में जिसको इंसान खाता है और पश्चिम में सबसे ज्यादा बीफ ही खाया जाता है।

यशवंत राणा: आचार्य जी, आप ये कह रहे हैं कि इंसान मांस खाने के लिए मवेशी पालता है। मवेशी को खिलाने के लिए जंगल कट रहा है, जंगल काटने के चलते डिफॉरेस्टेशन है कार्बन डाइऑक्साइड का कंसंट्रेशन बढ़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। धरती एक बड़ी तबाही की तरफ जा रही है। तो इंसान के मांस की भूख ने ही धरती को तबाह करने के कगार पे लाया?

आचार्य प्रशांत: हाँ फूड एग्रीकल्चर, एनिमल एग्रीकल्चर दूसरा सबसे बड़ा कारण है ग्रीन हाउस गैसेस के उत्सर्जन का। पहला जो कारण है वो तो है ट्रांसपोर्ट। ट्रांसपोर्ट कि ये जो हमारी गाड़ियाँ होती हैं या हवाई जहाज होते हैं रेलगाड़ियाँ हैं या जो समुद्री जहाज हैं तो ये जो एमिशन करते हैं ये फॉसिल फ्यूल की एनर्जी से चलते हैं ना। तो ये जो एमिशन करते हैं वो पहला सबसे बड़ा कारण है। और दूसरा सबसे बड़ा कारण यही है मांसाहार। और मांसाहार में भी जो आप जितने बड़े जानवर का मांस आप खा रहे हो उतने ज्यादा। 1 किलो बीफ 60 किलोग्राम इक्विवेलेंट ऑफ CO2 एमिशंस। और ये जब आप ये कहोगे कि कोई सीधे-सीधे सब्जी ही खा लेता। 1 किलो सब्जी खा लेता। तो वो जो मामला है और आप उसकी तुलना में आपने 1 किलो बीफ खाई इसमें आपने कितना अधिक CO2 एमिशन किया। वो अधिक नहीं वो कई, कई, कई, कई गुना है।

यशवंत राणा: नहीं मांस पकाने में जो लगता है?

आचार्य प्रशांत: सिर्फ मांस पकाने में नहीं लगता। कई वजह होती है, देखिए पहले तो पूरी प्रक्रिया समझते हैं। अब पहले तो मुझे मांस खाना है। कितने इसमें चरण है गिनिएगा—पहले तो मुझे मांस खाना है तो मैं जाके जंगल काटूं। पहले जंगल काटा तो वो पेड़ क्या किया करता था? वो कार्बन डाइऑक्साइड सोखता था तो पहली चीज हुई अब नहीं सोखेगा। तो कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ गई क्योंकि अब नहीं सोख रहा उसे पेड़। पूरा पेड़ ही क्या है एक तरीके से कार्बन डाइऑक्साइड को सोख करके उसने उसको लकड़ी बनाया था।

यशवंत राणा: ऑक्सीजन देने का काम भी करता है।

आचार्य प्रशांत: हाँ तना बनाया था, पत्ती बनाया था, डाली बनाया था, फूल फल बनाया था, वो सब कार्बन डाइऑक्साइड को सोख सोख के उसने कार्बन डाइऑक्साइड को ही रूप दे दिया था। आपने पेड़ काट दिया अब वो कार्बन डाइऑक्साइड नहीं सोख वो कार्बन डाइऑक्साइड यानी कि अब हवा में घूम रही है। वो ग्रीन हाउस वाला काम करेगी। और काटने के बाद क्या किया आपने वो पेड़ कटा तो वो क्या अदृश्य हो गया, वो कहाँ गया? वो जो पेड़ कटा है।

यशवंत राणा: जला।

आचार्य प्रशांत: हाँ, वो जलेगा अगर आप जलाओगे तो भी उससे कार्बन डाइऑक्साइड बनेगी ऑर्गेनिक मैटर जब भी ऑक्सीडाइज होगा, जलेगा तो कार्बन डाइऑक्साइड बनेगी-बनेगी। नहीं भी जलाओगे अगर वो सड़ेगा तो सड़ने से भी कार्बन डाइऑक्साइड बनेगी। आप कुछ भी कर लो जो आपने पेड़ काटा उसका उसकी जो लकड़ी थी वो अब कार्बन डाइऑक्साइड बनेगी ही बनेगी। तो पहली चीज तो ये थी कि अब वो सोख नहीं रहा दूसरी चीज ये हुई कि जो कुछ उसने पहले से सोख रखा था उसको वो अब दोबारा वायुमंडल में वापस भेज रहा है।

जल के या सड़के या कुछ भी और करके। तो ये दो चीजें हो गई। तीसरी चीज क्या हो रही है? वो पेड़ खड़ा हुआ था अब हम अमेजन की बात कर रहे हैं, रेनफॉरेस्ट की पेड़ खड़ा हुआ था तो वो मिट्टी को छाया देता था और पत्तियां बहुत गिरती थी लेकिन उसको जब छाया मिलती थी। तो वो वहाँ पर खाद बन जाती थी। धीरे-धीरे वहीं पर अपना सड़ करके खाद बन जाती थी। उसको इतनी कड़ी धूप नहीं लग रही थी कि वो वहीं पर बिल्कुल सूख जाए और कचरा बन जाए। नहीं नहीं नहीं वो धीरे-धीरे करके एक नमी के माहौल में क्या बन जाती थी उन्हीं पेड़ों के लिए अब वो

यशवंत राणा: खाद बन गई।

आचार्य प्रशांत: पोषण देने वाली खाद बन जाती थी। अब वो हट गया तो अब वो सीधे, अमेज़न की वो जो है वो इक्विटोर का इलाका है तो बहुत तगड़े वहाँ पर धूप पड़ती है तो अब वो क्या होगा वो जो जमीन पर सब पड़ा हुआ था, उसका क्या होगा वो सूख जाएगा। वो सूख जाएगा और सूख जाएगा तो क्या होगा उसे फॉरेस्ट फायर लगती है। ये जो अमेरिका में फॉरेस्ट फायर आप देख रहे थे सारी यूरोप में फॉरेस्ट फायर आप देख रहे हो ऑस्ट्रेलिया में फॉरेस्ट फायर देख रहे हो कैसे लगी है? वो ऐसे ही लगी है। कड़ी धूप है और जमीन पर क्या पड़ी हुई है सूखी पत्तियाँ वो सूखी पत्तियाँ अब जलेंगी और उनमें नमी बिल्कुल भी नहीं है तो आसानी से जल जाएँगी। अब जब वो जलेंगी तो जो पेड़ अभी हरे हैं उनका भी क्या होगा जो आपने नहीं काटे हैं उनका भी क्या होगा? वो भी जलेंगे। वो भी जलेंगे और जब वो पत्ती जलेगी तो भी अपने जलने से भी वो क्या निकालेगी?

यशवंत राणा: कार्बन डाइऑक्साइड।

आचार्य प्रशांत: कार्बन डाइऑक्साइड। वो जलेगी तो वहाँ जो बाकी पेड़ हैं उनको जब जलाएगी तो उनमें से भी क्या?

यशवंत राणा: Co2

आचार्य प्रशांत: और ये एक साइकिल है जितना ज्यादा और पेड़ जलेंगे उतना ज्यादा और फॉरेस्ट फायर होगी । इतना ही नहीं मिट्टी खुद बहुत सारी कार्बन डाइऑक्साइड अपने में सोख कर रखती है। और मिट्टी पर जब सन माने सूर्य की किरणें सीधे आकर के तपाएँगी तो मिट्टी खुद कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ती है। माने मिट्टी ने भी जो सोख रखी थी वो भी बाहर आती है। ठीक है ये हम पाँच सात तरीके तो कर चुके हैं अभी और अभी हम पशु पर तो आए भी नहीं है। अब आपने वहाँ खेती करनी शुरू करी अब आप वहाँ पर खेती करोगे। खेती करने में आप उसमें जितने तरीके के उसमें आप फर्टिलाइजर डालोगे, पेस्टिसाइड डालोगे, और चीजें हैं वो सब इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन से आ रहे हैं। इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन से आ रहे माने एनर्जी से आ रहे हैं। और जो एनर्जी है हमने कहा कि वो सारी की सारी फॉसिल फ्यूल बर्निंग से आती है। तो वहाँ पे कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ गई।

अब वो आपने चारा ले जा कर के मवेशी को खिला दिया। अब यहाँ पर आती है एक नया किरदार आता है उसका नाम है मीथेन। और मीथेन का ऐसा है कि मीथेन का एक मॉलिक्यूल गर्मी करने में, माने अपने ग्रीन हाउस पोटेंशियल में वायुमंडल को गर्म करने की अपनी क्षमता में मीथेन का एक मॉलिक्यूल। कार्बन डाइऑक्साइड के एक मॉलिक्यूल से 30 गुना ज्यादा प्रभावी माने खतरनाक होता है। 30 गुना ज्यादा अब ये मीथेन कहाँ से आ गई? मीथेन आ गई ये बड़े पशुओं की डकार से और जो ये अपने पेट से गैस छोड़ते हैं। उससे उसमें मीथेन होती है। और ये इतनी मीथेन छोड़ते हैं इतनी मीथेन छोड़ते हैं कि उसके आगे कार्बन डाइऑक्साइड की तो कोई औकात ही नहीं।

सब पशु छोड़ते हैं, सब पशु ये जो जुगाली करना है और उनकी अपनी जो प्राकृतिक संरचना ही ऐसी होती है कि उनके शरीर से मीथेन निकलती ही निकलती है। गुदा द्वार से भी और मुंह से भी निकलती ही निकलती है। तो आपने अब वो सारा सारा ले जाकर के पशु को खिला दिया और पशु अब उस चारे को या उस जो सोया है उसको, उसको वो अब बना रहा है मीथेन। कार्बन डाइऑक्साइड भी नहीं और मीथेन और जब आप और लंबा एक टाइम साइकिल लेते हैं 20 साल का तो मीथेन का एक मॉलिक्यूल कार्बन डाइऑक्साइड के 80 मॉलिक्यूल्स के बराबर होता है। अपने ग्रीन हाउस पोटेंशियल में।

यशवंत राणा: ये स्थिति देखिए इतनी खतरनाक है कि जो CH4 एंड CO2 आचार्य जी कह रहे हैं कि CO2 के मुकाबले CH4 जो है मिथेन है ये 30 गुना ज्यादा प्रभावी होता है गर्मी को पैदा करने में। आसानी से आप यही समझिए, गर्मी पैदा करने में। और हम ये ग्रीन हाउस गैसेस को सोखने का जो रास्ता था उसको लगातार खत्म करते चले जा रहे हैं। और ग्रीन हाउस गैसेस के पैदा करने की स्थितियाँ लगातार हम बनाते चले जा रहे हैं, संकट खतरा यहाँ है। एक बड़ा संकट आचार्य जी ये होता है कि,

क्योंकि ग्लेशियर्स पिघल रहे हैं नदियाँ अपने वजूद की लड़ाई लड़ने लगी हैं। समंदर का लेवल अभी आप कह रहे थे कि वो बढ़ता चला जा रहा है। कई द्वीप 2040 तक दुनिया के डूब जाएँगे। और कई शहर जो तटीय हैं जैसे मुंबई, चेन्नई, वेनिस, जकार्ता ये सारे शहर धीरे-धीरे डूबते चले जा रहे हैं। आने वाले वर्षों में दशकों में ये शहर खत्म हो जाएँगे। कुछ इलाकों में तो 25 सेंटीमीटर हर साल जमीन डूबती चली जा रही है। यह संकट भी तो कहीं ना कहीं क्लाइमेट चेंज से जुड़ा हुआ है।

आचार्य प्रशांत: वही है, पूरापूरा वही है मतलब और किसी चीज से नहीं जुड़ा हुआ है। ये उसी चीज से जुड़ा हुआ है। देखिए जो एटमॉस्फेरिक हीट होती है 90% उसको ओशंस ही अब्सॉर्ब करते हैं। तो पानी और बर्फ इसके अलावा हीट को कौन अब्जॉर्ब करेगा? हम जानते भी हैं ना विज्ञान में कि स्पेसिफिक हीट पानी की सबसे ज्यादा होती है। पानी की। तो यानी कि वो अपने आप में काफी सारी हीट एनर्जी को स्टोर कर सकता है। और जब हम बात कर रहे थे इसकी फीडबैक लूप्स क्या होते हैं। ओशन ही होते हैं जो हीट को भी अब्सॉर्ब करते हैं और ओशिन ही होते हैं जो कार्बन डाइऑक्साइड को भी करते हैं। एक तो जो कार्बन डाइऑक्साइड सिंक होता है वो जंगल होता है। पेड़ ने कार्बन डाइऑक्साइड सोख ली। और दूसरा सबसे बड़ा सिंक होता है पानी। पानी कार्बन डाइऑक्साइड सोख के रखता है। लेकिन पानी हमने कहा तापमान यानी हीट एनर्जी भी सोख के रखता है।

तो उसका टेंपरेचर बढ़ेगा। जब उसका टेंपरेचर बढ़ता है तो उसमें जो CO2 की सॉलुबिलिटी होती है। वो कम हो जाती है माने गर्म पानी कम कार्बन डाइऑक्साइड को सोख कर रखेगा। तो कार्बन डाइऑक्साइड कहाँ चली गई माने पहले ही बढ़ रही थी और जितनी ओशिन ने अपने में कैद कर रखी थी, सोख रखी थी, वो भी रिलीज़ हो गई। वो भी वहाँ पहुँच गई। इन सब का नतीजा ये होता है कि जो बर्फ है वो पिघलती जाती है। क्योंकि तापमान बढ़ता जा रहा हैम जब बर्फ पिघलती जा रही है तो जो उसका जल स्तर है वो बढ़ता जाएगा।

एक वजह इसकी ये भी है कि गर्म पानी फैलता है ये भी है तो वो जैसे-जैसे तापमान बढ़ेगा वैसे-वैसे वो फैलाव लेगा। लेकिन ज्यादा बड़ी वजह ये है कि वो पानी जो बर्फ की शक्ल में आर्कटिक पर अंटार्कटिक पर कैद था पहाड़ों पर कैद था ग्लेशियर बन करके कैद था वो पानी रिलीज़ हो रहा है। और वो पानी आ रहा है समुद्र में तो समुद्र का जल स्तर ऐसे बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है, बढ़ता जा रहा है। तो जिसकी वजह से जो तटवर्ती इलाके हैं वो सब तो डूब रहे हैं डूबते ही जा रहे हैं। कुछ तो पूरे-पूरे देश हैं जो विलुप्त हो जाएँगे और भारत के पास भी एक बहुत लंबी कोस्ट लाइन है तो हमारे भी जो तटीय शहर हैं वो सब के सब खतरे में हैं, पहले ही खतरे में हैं।

यशवंत राणा: एक आचार्य जी सवाल आता है विकास बनाम पर्यावरण। अब मैं हसदेव के जंगल की तरफ चलता हूँ क्योंकि छत्तीसगढ़ के तीन जिलों के बीच में घना जंगल है और वहाँ लगभग 5 अरब टन कोयला नीचे जमीन के। सरकार ने कहा कि इसको निकाला जाना चाहिए। निकाले जाने का मतलब ये है कि, जंगल का एक बड़ा हिस्सा आप साफ करेंगे। जब ऐसी स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं तो फिर इसका कोई विकल्प है? या फिर यह ठीक है कि आप जंगल हटाइए और फिर वहाँ से खनिज निकालिए और विकास को आप प्रयॉरिटी दीजिए।

आचार्य प्रशांत: देखिए हम समझ नहीं रहे हैं। आप मुझसे कहें कि तुम्हारा विकास कर दूँगा इसके लिए तुम्हारा एक हाथ काट दूँ। मैं विकास करवाऊँ क्या? आप मुझसे कहें तुम्हारी एक किडनी निकाल लूँ इससे तुम्हारा विकास हो जाएगा। तो विकास मैं करवाऊँ क्या? मेरी एक आँख निकाल के कहें या दोनों आँख निकाल के कहें कि विकास होगा। और ये मैं सिर्फ मुहावरे के तौर पर बात नहीं कर रहा हूँ।

ये जो शरीर है ना ये पृथ्वी से अभिन्न है। पृथ्वी आपने अगर बदल डाली जैसी है वो। तो ये शरीर भी नहीं चल सकता। ये इसी पृथ्वी से उठा है।

आप बात समझ रहे हैं? आपके फेफड़ों में ठीक उतनी ही ताकत है कि जो ये वायुमंडलीय हवा है उसको सोख सके। तो माने पृथ्वी का जो आकार है वो तय कर रहा है आपके फेफड़ों का आकार। आपका पूरा शरीर ही पृथ्वी से संबंधित है पृथ्वी जैसी है वैसी ना हो तो आप जैसे हैं वैसे नहीं हो सकते। आपकी खाल का रंग इस बात से निर्धारित हो रहा है कि पृथ्वी की सूर्य से दूरी कितनी है। हमारा कद भी इस बात पर निर्भर कर रहा है कि पृथ्वी का व्यास कितना है और इस कारण गुरुत्वाकर्षण कितना है। हमारी मांसपेशियों की सामर्थ्य हमारा जो ब्लड प्रेशर है वो सब इस बात पर निर्भर कर रहा है कि पृथ्वी कैसी है।

ये वातावरण है ये ऊपर से प्रेशर डालता है हमारे ऊपर डालता है ना तो जो हमारा ब्लड प्रेशर है रक्तचाप। वो ठीक उतना होना चाहिए कि वो न्यूट्रलाइज कर दे। मुकाबला कर ले। बराबर कर दे ये वायुमंडलीय दबाव को। इसीलिए जब आप पहाड़ पर जाते हो तो देखा है कई लोगों की नकसीर फूट जाती है उनके खून आने लग जाता है। क्यों आने लग जाता है? क्योंकि वहाँ पर एटमॉस्फेरिक प्रेशर कम हो गया है लेकिन शरीर में जो ब्लड का प्रेशर है वो ज्यादा है। जब भीतर ज्यादा प्रेशर है बाहर कम है तो ऐसे फट जाता है। समझ रहे हैं बात को?

ये जो पृथ्वी है वो हम हैं, मेरी एक-एक धड़कन ये पृथ्वी ही है। हम कहीं बाहर से नहीं आए हैं हम पर्यटक नहीं है। हम इसी मिट्टी से उठे हैं इस मिट्टी ने ही हमारा आकार ले लिया और हम इसी मिट्टी में वापस समा जाएँगे। हम यही हैं। अब ये बताइए कि अगर मैं यही हूँ, अगर मैं यही हूँ तो मैं विकास की बात अपने लिए ही कर रहा हूँ ना? अपने लिए ही? मैं ही नहीं रहूँगा तो किसके लिए विकास। मैं इस पृथ्वी के साथ शोषण कर रहा हूँ, बलात्कार कर रहा हूँ जो पृथ्वी मुझे देना नहीं चाहती मैं उससे जबरदस्ती ले रहा हूँ ये तो जबरदस्ती है छीना झपटी है ना।

बलात्कार मैंने किसी अतिशयोक्ति का तो नहीं उपयोग किया? जब पृथ्वी को ही मैं बर्बाद कर दूँगा और मैं पृथ्वी ही हूँ तो मैं भी बर्बाद हो गया। जब मैं ही बर्बाद हो गया तो विकास किसका होगा? बहुत सारी चीजें जो पृथ्वी अपने आप देती है हमको। देती है ना? देती है ना झरने दिए हैं, नदियां दी हैं हम आवेदन करने तो नहीं गए थे। समुद्र दिया है, पहाड़ दिए हैं, प्रकृति हमें रोशनी दे रही है। हम वायुमंडलीय दबाव की बात कर रहे थे फल फूल ये सब पृथ्वी अपने आप देती है। और एक चीज होती है कि मैं पृथ्वी को खोद के उसके भीतर घुस जाऊँगा और वहाँ पर जो गैस छुपी हुई है, और कोयला छुपा हुआ है हसदेव के नीचे मैं वो कोयला जबरदस्ती करके निकाल लूँगा जंगल काट के निकाल लूँगा। मैं इसको बलात्कार ना बोलूँ तो क्या बोलूँ?

पृथ्वी को हम माता की तरह, नारी की तरह देखते हैं वो बहुत कुछ स्वेच्छा से, मैं मुहावरे में कहूँ तो प्रेम से भी हमें देती है। देती है ना? ये हवा बह रही है बाहर ये हवा जो बह रही है बाहर हमारे कूलर से तो नहीं बह रही है। मौसम सुहाना हो जाता है, इंद्रधनुष छा जाते हैं वो हमने तो नहीं करे हैं। पृथ्वी हमें वो स्वेच्छा से देती है जो हमें स्वेच्छा से दे रही है हम कह रहे हैं उतने में हमारे विकास की हवस शांत नहीं हो रही। मैं जंगल काट के अंदर घुस जाऊँगा तेरे और वहां से खोद के निकाल लूँगा। साहब आप पृथ्वी को नहीं तोड़ रहे हो अपने शरीर को तोड़ रहे हो, अब अपने शरीर को तोड़ रहे हो तो बताओ विकास किसके लिए है?

ये बहुत मूर्खता की बात है कि मैं पृथ्वी को तबाह करके विकास कर ले जाऊँगा। ये बिल्कुल वही बात है कि मैं अपनी किडनी बेच के अमीर हो जाऊँगा। ऐसों को हम क्या कहें? जो अपनी किडनी बेच के अमीर होना चाहते हों। जो कहते हों किडनी बेच दूँगा उससे पैसा आएगा उससे मेरा विकास हो जाएगा, ये उस स्तर की नीति है उतनी मूर्खतापूर्ण नीति है।

यशवंत राणा: आचार्य जी सवाल ये है कि दुनिया ने विकास का जो पैमाना अख्तियार किया है। या विकास के लिए जो उसने अपनी जरूरतें तय की हैं। वो इस तरह के संसाधनों से ही पूरा हो रहा है। अगर आप कोयला छोड़ देते हैं तो आपका अपना एक जो नेचुरल रिसोर्स है आपने उससे अपने आप को खींच लिया है। आपने जंगल रहने दिया एक तर्क मैं दे रहा हूँ। कुछ लोग तर्क यह भी दे सकते हैं कि हैदराबाद का जंगल जो है वो अगर हम आईटी पार्क बनाते हैं। तो वहाँ फिर, जैसे वहाँ के मुख्यमंत्री ने कहा कि यहाँ लगभग 50 हज़ार करोड़ का इन्वेस्टमेंट है और 5 लाख नौकरियाँ हैं। तो उस नजरिए से भी वो देख रहे हैं जंगल की जगह वो 5 लाख नौकरियाँ 50 हज़ार करोड़ का इन्वेस्टमेंट देख रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: तो बिल्कुल हिसाब की बात है। हटाइए कि करुणा का काव्य उठ रहा है हमारे हृदय में और हम पृथ्वी को माता कह रहे हैं और कह रहे हैं कि माता के साथ दुराचार मत करो, हटाइए ये सब बातें बिल्कुल हिसाब किताब पर आ जाते हैं। जो क्लाइमेट चेंज की टेंजिबल कॉस्ट्स हैं अनुभव्य, प्रकट, ठोस वो कई ज्यादा है उन मुनाफों की बनिस्बत जो आप जंगल काट के और कोयले को खोद करके पा लोगे। एक मुनाफा है जंगल काटने से कोयला निकालने से वो आप मुनाफा तो गिन रहे हो और कह रहे उससे विकास हो जाएगा लेकिन मीडिया जनता के सामने ये नहीं लाता है कि क्लाइमेट चेंज से इकोनॉमिक लॉस भी कितना जबरदस्त है। आप विकास की बात करते हो तो आप इकोनॉमिक्स अर्थ, आर्थिक लाभ की ही बात कर रहे हो ना? हाँ तो जो आर्थिक नुकसान है क्लाइमेट चेंज के वो कितने ट्रिलियन डॉलर हैं? इसकी बात हमें बताई नहीं जा रही है ये छुपा हुआ राज है।

जिसमें विस्थापन की कॉस्ट, मेडिकल कॉस्ट जो आपकी खेतों की पैदावार खत्म होगी उसकी कॉस्ट जो दिन के जितने काम होते थे वो सारे काम नहीं हो पाएँगे। ये भारत में जो फॉर्मल औपचारिक अर्थव्यवस्था है वो तो बहुत छोटी है इस अर्थ में कि उसमें कितने लोग लगे हुए हैं रोजगार पाते हैं बहुत छोटी है। भारत में ज्यादातर लोग रोजगार कहाँ पाते हैं? इनफॉर्मल सेक्टर में और इनफॉर्मल सेक्टर माने क्या? वो हाथ के काम करता है, वो जमीन पर अपने पैरों से चलता है वो मेहनत मजदूरी करता है और वो सड़क का आदमी है। वो सड़क का आदमी है वो सड़क पे काम कर ही नहीं पाएगा। स्थितियाँ ऐसी हो चुकी है खाड़ी देशों में हुआ था सड़क पर चप्पलें चिपक रही हैं सड़क इतनी गर्म है कि आप सड़क पर पाँव रख रहे हो चप्पलें वहीं पे पिघल के चिपक गई और लोग गिर रहे हैं और पिघली हुई सड़क पर वही चिपक कर मर रहे हैं। ये हो चुका है दो-दो महीनों के लिए पूरा देश बंद कर दिया गया। ये हो चुका है ये इसकी आर्थिक गिनती कौन करेगा? इन लॉसेस को कौन गिनेगा या बस विकास-विकास ही रोते रहेंगे हम?

यशवंत राणा: यानी कि जो प्राकृतिक संसाधन हैं उन संसाधनों की कीमत पर अगर हम आप वो गवाते हैं। जो पर्यावरण को बनाए रखने की जरूरी है। तो आप दरअसल एक बड़े नुकसान को उठाते हैं। उस नुकसान की तरफ जा रहे हैं। लेकिन इसको सामने नहीं रखा जाता आचार्य जी कह रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: आप ये बताइए ना भारत की कितनी प्रतिशत आबादी है जो आज भी कृषि पर सीधे या कि परोक्ष रूप से आश्रित है?

यशवंत राणा: मुझे लगता है कि 55-60% तो आज भी है।

आचार्य प्रशांत: आज भी है, माने दो तिहाई मान लूँ। इन दो तिहाई लोगों का क्या करने वाले हैं हम और उसकी इकोनॉमिक कॉस्ट क्या होगी? जब आपने पूरी बारिश ही गड़बड़ा दी। कभी धूप इतनी ज्यादा हो रही है इतनी ज्यादा हो रही है कि फसल खराब नहीं हो रही फसल में आग लग रही है। तो इसकी जो आर्थिक कॉस्ट है उसका हिसाब कौन करेगा? या बस हम यह कह रहे हैं कि अरे वो कोयला नहीं निकाला ना तो इसलिए राष्ट्र की तरक्की नहीं हुई। जब ये पूरा चारों तरफ से कयामत बरसेगी तो राष्ट्र की तरक्की कर लोगे क्या? किस विकास की बात कर रहे हैं हम।

यशवंत राणा: यानी कि नुकसान को जोड़कर के आप जब हिसाब लगाते हैं तो मुनाफे के मुकाबले ये बहुत ज्यादा है।ये पल रहा है।

आचार्य प्रशांत: बात सिर्फ कविता की नहीं है बात अर्थव्यवस्था की भी है।

यशवंत राणा: सरकारों ने इस ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए क्लाइमेट चेंज के लिए जो दुनिया के उसूल हैं दुनिया के साथ एक शर्त जो तय की गई है कि हम ऐसा-सा करेंगे। तो उसके लिए उन्होंने अपने विकल्प अख्तियार करने शुरू कर दिए हैं। जैसे ईवीज हैं इलेक्ट्रिक व्हीकल्स हैं भारत में इलेक्ट्रिक व्हीकल्स बहुत बड़ी तादाद में अब आ रही हैं। कहा ये जा रहा है कार्बन इमिशन को कम किया जाना चाहिए। फॉसिल जो सोर्स ऑफ़ एनर्जी है उसका कम इस्तेमाल होना चाहिए। तो सोलर विंड के जरिए या जो सोलर पावर है इसके जरिए हम अपनी एनर्जी की जरूरतों को पूरा कर पाएँगे। ये जो कुछ भी होता हुआ दिख रहा है आपको।

आचार्य प्रशांत: मुझे कुछ नहीं दिख रहा मुझे जुमले दिख रहे हैं बहुत सारे। 2015 में हमने पेरिस समझौता करा था। उसके मुताबिक 2024 तक हमें जहाँ होना चाहिए था हम उसके आसपास भी नहीं है। जानते हैं पेरिस समझौते ने दो हमें साल दिए थे और उन दोनों सालों के साथ हमें दो लक्ष्य दिए थे। 2030 और 2050। 2030 तक हमें अपने एमिशंस को लगभग आधा कर देना था 44% कम। 2015 में समझौता हुआ था और समझौते के बाद सब देशों को एनडीज थे वो नेशनल डिलीवरेबल्स वो दे दिए गए थे कि भाई तुम इतना कम करोगे, तुम इतना कम करोगे, तुम इतना कम करोगे। और सब ने कहा था न्यायसंगत है हम मानते हैं इतना-इतना कम करेंगे। 2030 तक हमें -44% करना है जितना चल रहा है उससे -44% करना है। आप बताइए 2015 से 2025 तो आ गए। 2030 तो थोड़ी ही दूर है। और हमें 2030 में -44 करना है। तो आपको क्या लगता है कि 2025 में हमने कितना कर रखा होगा?

यशवंत राणा: कितना हो गया होगा ये 9 साल में?

आचार्य प्रशांत: +3%

यशवंत राणा: +3%

आचार्य प्रशांत: एक +3% पेरिस समझौते से पहले हम जितना एमिशन कर रहे थे। पेरिस समझौते के बाद हमने एमिशन और बढ़ा दिया कम करने की जगह।

यशवंत राणा: तो फिर तो विकल्प नहीं है ना।

आचार्य प्रशांत: खत्म सब खत्म है एंथ्रोपोसी शुरुआत में ही मैंने बोला था ये महाविनाश है ये प्रलय है। 2050 में हमें नेट जीरो कर देना था। नेट जीरो माने कि जितना हम कार्बन डाइऑक्साइड एमिट कर रहे हैं। उतना ही अब्सॉर्ब कर रहे हैं माने अब हम वायुमंडल में जरा भी कार्बन डाइऑक्साइड का पीपीएम बढ़ा नहीं रहे हैं वो कहीं से भी संभव हो नहीं रहा है। और मैंने आपसे टिपिंग पॉइंट्स की बात करी थी, फीडबैक लूप्स की बात करी थी जिसमें आर्कटिक आइस आती है, जिसमें अमेज़न रेनफॉरेस्ट आते हैं। ये सब टिपिंग पॉइंट सब क्रॉस हो चुके हैं इसका मतलब मामला इररिवर्सिबल हो चुका है। फीडबैक लूप का मतलब ये होता है कि एक बार वो सक्रिय हो गया उसके बाद अब आप अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन करो चाहे नहीं करो वो लूप सेल्फ सस्टेनिंग है। वो खुद ही आगे बढ़ेगा खुद ही आगे बढ़ेगा।

यशवंत राणा: वो पटाखे हम जलाते हैं ना चेन में।

आचार्य प्रशांत: हाँ बस, बस, वही।

यशवंत राणा: यहाँ हमने आग लगा दी उसके लिए बाकी में कोई जरूरत नहीं है खुद ब खुद आगे बढ़ती चली जाती है।

आचार्य प्रशांत: बहुत बढ़िया उदाहरण।

यशवंत राणा: लेकिन एक बात मैं आपसे पूछना चाहता हूँ। भारत में एक आँकड़ा कहता है कि लगभग ढाई लाख स्क्वायर किलोमीटर एकड़ के आसपास ढाई लाख एकड़ के आसपास उत्तर प्रदेश के बराबर का जंगल खत्म हुआ। लेकिन 17% का भी जंगल हुआ करता था भारत में 21% 21% आज की तारीख में कहा जाता है कि सरकारों ने और कई अलग-अलग फोरम से कोशिश जो हुई है। उसका नतीजा बेहतर हुआ है। 33% होना चाहिए। यह जो 21% 21% का डाटा दिया जाता है और फिर ये जो संकट की स्थिति पर चर्चा होती है इन दोनों में कोई समानता बैठती है या फिर दोनों दो तरह की बात।

आचार्य प्रशांत: आप वरिष्ठ पत्रकार हैं। मुझसे ज्यादा आप जानते हैं 21% का आंकड़ा कहाँ से आता है। चार पेड़ लगा के उसको जंगल गिन लो ऐसे आता है। जंगल की जो परिभाषा थी वो परिभाषा ही बदल दो कि पहले इतना घनत्व हो पेड़ों का तो उसको जंगल माना जाता था तो जंगल बढ़ाने का सबसे अच्छा तरीका है कि जंगल की परिभाषा को ही नीचे गिरा दो। तो जो जगह जंगल नहीं थी वो भी जंगल मानी जाएगी ऐसे हुआ है।

यशवंत राणा: ये जयशंकर प्रसाद की एक कविता है।

ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक! धीरे-धीरे। जिस निर्जन में सागर लहरी, अंबर के कानों में गहरी, निश्चल प्रेम-कथा कहती हो- तज कोलाहल की अवनी रे। धरती जो शोर स्वास बड़ी हुई है, इससे दूर ले चलो मुझे कहीं।

आचार्य जी जो कह रहे हैं। ये कह रहे हैं कि दूर जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आने वाले समय में कवि जो है वो एक बहुत ही सन्नाटे में अपने आप को पाएगा। ये पूरी प्रकृति जो है वो खत्म हो जाएँगी। ये प्रजातियाँ हैं ये सब तबाह हो जाएँगी तो फिर बचेगा नहीं। कुछ उम्मीद आपको दिखती है? दुनिया में क्योंकि बहुत स्तर पर काम हो रहे हैं। सोचा जा रहा है और उसके उपाय भी निकाले जा रहे हैं बड़े लेवल पर।

आचार्य प्रशांत: नहीं हो रहा, नहीं हो रहा राणा जी। क्यों हम अपने आप को धोखे में रखें। ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन ने तो पेरिस एग्रीमेंट से हाथ ही वापस खींच लिए। जिसकी हम अभी बात कर रहे हैं उन्होंने कहा हम है ही नहीं इसमें वो कह रहे हैं *वी विल मेक अमेरिका ग्रेट अगेन*। और इसके लिए जितनी हमारे पास जमीन के नीचे गैस है वो सब निकालेंगे उसका इस्तेमाल भी करेंगे और उसका हम निर्यात भी करेंगे। खुद भी जलाएँगे और औरों को भी देंगे जलाने के लिए वो ईवीस को प्रमोट किया करते सब्सिडी देते थे बोले नहीं देनी है। स्कूल, कॉलेजों में क्लाइमेट चेंज के बारे में पढ़ाया करते थे बोलते किसी को पता नहीं लगना चाहिए क्लाइमेट चेंज जैसी कोई चीज होती है। अमेरिका फर्स्ट।

यशवंत राणा: लेकिन दुनिया का विकसित देश सबसे समझदार देश माना जाता है अगर वहाँ भी इस बात की कोई चिंता नहीं है तो क्या वाकई संकट नहीं है?

आचार्य प्रशांत: इससे यही तो पता चलता है कि विकास समझदारी का काम नहीं है ना। विकसित है समझदार नहीं है माने विकास और समझ साथ चलें?

यशवंत राणा: ये जरूरी नहीं है।

आचार्य प्रशांत: जरूरी नहीं। ये है ही नहीं। विकास से ज्यादा नासमझी का काम दूसरा नहीं हो सकता। हमको चाहिए डी ग्रोथ आज। पी ग्रोथ जिसको हम विकास कहते हैं हमें उसको पलटना पड़ेगा। अगर ये 800 करोड़ ही हमें रहना है तो हम जितना उपभोग करते हैं वो नहीं कर सकते। और विकास का मतलब होता है उपभोग और बढ़ाओ अपना। जीडीपी आप मेजर ही करते हो पर कैपिटा कंजम्प्शन से। आप विकास की बात जब करते हो तो उसमें आपका आशय यही होता है जीडीपी ग्रोथ। जीडीपी ग्रोथ माने पर कैपिटा कंजम्प्शन और पर कैपिटा कंजम्प्शन अगर आप 800-900 करोड़ हो और दुनिया की आबादी अभी जाएगी 1100 करोड़ तक। तो विकास नहीं चाहिए हमें। हमें तो पलटना पड़ेगा जो-जो आपने व्यवस्थाएँ बना रखी हैं विकास के नाम पर उनसे बल्कि आपको पीछे आना पड़ेगा।

आप कहोगे नहीं, नहीं, नहीं, प्रति व्यक्ति एक स्तर से ज्यादा हम ना तो भोग कर सकते हैं ना उत्सर्जन कर सकते हैं। नाइदर कंजम्प्शन नॉर एमिशन। और ये जो 800 करोड़ 900 करोड़ का भी आंकड़ा है आबादी का इसको भी धीरे-धीरे हमें कम होने देना होगा।

यशवंत राणा: ये प्राकृतिक आपदाओं के आने की तादाद या उनकी फ्रीक्वेंसी जो है। वो 90 के बाद बढ़ी और बेतहाशा बढ़ी है। अभी आपने देखा कि थाईलैंड से लेकर के म्यांमार तक जो भूकंप आया। उससे बहुत तबाही है। भारत में कभी हिमाचल प्रदेश में इतनी बारिश हो जाती है कि वहाँ बड़े पैमाने पर तबाही आ जाती है। केरल में पहाड़ के पहाड़ बह जाते हैं गाँव का गाँव समेट करके चले जाते हैं। ये जो बार-बार इस तरह से खतरे पैदा होते हैं या जो दिखता है। इसका भी कोरिलेशन है?

आचार्य प्रशांत: सिर्फ उसी से है भारत में पिछले साल 365 दिनों में से कुछ चंद दिन छोड़ कर के। 10-20 दिन छोड़ कर के। कहीं ना कहीं एक्सट्रीम वेदर इवेंट हुआ है। माने अगर हम पूरे भारत को लें एक राष्ट्र की तरह और एक समग्र समाचार छापें। तो कोई दिन ऐसा ना निकले जो त्रासदी का ना हो। जिस दिन कोई प्राकृतिक आपदा ना टूटी हो। हर दिन ऐसा हो रहा है और अगले 10 से 20 वर्षों में प्रतिदिन दो से तीन एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स हुआ करेंगे। एक जगह पर नहीं होगा कि आप कहें आज केरल में हो गया। अरे! कल वहाँ हो गया। एक ही दिन पर तीन जगह पर प्रकृति का कहर टूट रहा होगा। एक ही दिन में तीन-तीन जगहों पर एक साथ। और ये एक देश की बात है और दुनिया के सब देशों को ले तो पता नहीं कहाँ-कहाँ क्या-क्या हो रहा होगा। उसकी कोई गिनती नहीं।

और जो ये जो एक्सट्रीम वेदर इवेंट होगा। उसकी तीव्रता इंटेंसिटी भी बढ़ चुकी होगी। माने जो साइक्लोन है वो छोटा-मोटा साइक्लोन नहीं वो और बड़ा साइक्लोन होगा। अब तो यहाँ तक भी है कि जो सीस्मिक एक्टिविटी होती है। जिससे कि भूकंप आता है यहाँ तक अनुमान लगाया जा रहा है कि उसका भी शायद कुछ परोक्ष संबंध जलवायु परिवर्तन से हो सकता है। तो ऐसी-ऐसी जगहों पर भी भूकंप आएँगे जहाँ पहले कभी भूकंप आ ही नहीं सकते थे। और इसलिए जहाँ बिल्कुल तैयारी नहीं है। भूकंप रोधी इमारतें नहीं बनाई गई हैं और इस तरह की वहाँ पर कोई इमरजेंसी फैसिलिटीज़ या कि डिजास्टर मिटिगेशन कोई व्यवस्था करी नहीं गई है। वहाँ भी भूकंप आ सकता है। हम समझने को राजी नहीं है हम विकास विकास झुंझुना बजा रहे हैं। हमें नहीं समझ में आ रहा हम कहाँ पर खड़े हुए हैं।

यशवंत राणा: एक सवाल हिंदुस्तान के बहुत सारे लोग आपको सुनते हैं। और मुझे लगता है कि वो अमल भी करते हैं मुझे तो देश के तमाम हिस्सों में मिलते रहते हैं और मेरे पास इसलिए आते हैं कि आचार्य जी का इंटरव्यू है। बहुत बड़ा मुल्क है दुनिया का हर छठा आदमी हिंदुस्तानी है। जाहिर तौर पर जिम्मेदारी भी उसी रेशियो में हिंदुस्तान के लोगों के ऊपर आती है। मैं आपसे ईमानदारी से जानना चाहता हूँ ये दुनिया जिस तबाही के सामने खड़ी है उसके होने के भीतर हिंदुस्तान की भूमिका उतनी ही बड़ी है या फिर कुछ बड़े देशों की ज्यादा है?

आचार्य प्रशांत: देखिए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि सब देशों का अपना एक राष्ट्रीय चरित्र होता है। उदाहरण के लिए उन्होंने कहा कि ये जो ब्रिटेन है इसका राष्ट्रीय चरित्र एक कुशल व्यापारी का है। कुशल व्यापारी का है। और वैसे ही इन्होंने अमेरिका के चरित्र की बात करी। फिर उन्होंने भारत के चरित्र की बात करी। बोले भारत का जो चरित्र है। वो समझदारी का है, गुरुता का है, आध्यात्मिक है। और उनका आग्रह था कि सब राष्ट्रों को अपने नैसर्गिक चरित्र के अनुसार ही काम करना होगा। इसी में उनकी भलाई है। इसको वो वो एक तरह से व्यक्तित्व है राष्ट्र का वो जिससे कि आप बड़ी मुश्किल से आप उससे बाहर आ सकते हो। भारत का बहुत बड़ा योगदान इस क्लाइमेट क्राइसिस में है नहीं। हमारे यहाँ जो पर कैपिटा एमिशन है वो ग्लोबल एवरेज का आधा है।

यशवंत राणा: नहीं खामियाज़ा सबसे पहले और सबसे ज्यादा हम भुगतेंगे।

आचार्य प्रशांत: लेकिन खामियाज़ा हम भुगतेंगे। मैं इस पर आ रहा हूँ कि हमने भले ही सीधे-सीधे क्लाइमेट चेंज को और विकट नहीं बनाया है। उसको और ज्यादा हमने खराब नहीं किया एक्सरबेट नहीं किया है। लेकिन फिर भी एक दूसरे तरीके से कहीं ना कहीं हम अपने कर्तव्य में चूके हैं। हमारा जो राष्ट्रीय चरित्र है ना।

वो है दुनिया को आगाह करने का, बताने का, समझाने का। लोगों को ये बात बड़ी आदर्शवादी लगेगी यूटोपियन लगेगी। पर देखिए ये बात है और स्वामी विवेकानंद कोई साधारण आवाज के आदमी नहीं थे वो ये अगर कह रहे हैं तो सुनना पड़ेगा। भारत ने गलती ये नहीं करी है कि भारत ने एमिशंस बहुत कर दिए नहीं हमने इतने एमिशंस नहीं कर दिए हालांकि हमारी आबादी इतनी ज्यादा है। आपने कहा छठा आदमी दुनिया का भारतीय है आबादी इतनी ज्यादा है कि वो सब मिला मुलादो तो हमारे भी एमिशंस लगते हैं कि बहुत ज्यादा है पर प्रति व्यक्ति उत्सर्जन जब आप देखते हो तो भारत का कम ही है। तो हमने फिर चूक कहाँ पर करी है? हमने चूक यहाँ पर करी है कि हम इस मूर्खता के खिलाफ दुनिया की सबसे बुलंद आवाज नहीं बने, जो कि हमारा कर्तव्य था और जो हमारा ऐतिहासिक चरित्र भी है। वहाँ पर हमसे चूक हुई है वहाँ पर हम अपने कर्तव्य से पीछे हटे हैं।

यशवंत राणा: यानी बड़े देशों की विकसित देशों की कारिस्तानी के खिलाफ हमने जुबान नहीं खोली।

आचार्य प्रशांत: नहीं खोली है, बल्कि हमने कुछ और करा है हमने उनको करा है अभी जो भारत की जो नेगोशिएटिंग टैक्टिक रहती है। वो ये रहती है कि तुमने इतना एमिशन कर रखा है तो थोड़ा बहुत करने का तो हमें भी हक है ना। तुमने इतना कर रखा है और ऐतिहासिक रूप से तुम ही जिम्मेदार हो। जो अभी अगर हम कुल जो एक्सेस कार्बन डाइऑक्साइड है एटमॉस्फियर में अगर उसको लें तो वो तो 90% जो विकसित विश्व है फर्स्ट वर्ल्ड। ग्लोबल नॉर्थ वो वहाँ से ही आ रहा है। तो भारत का तर्क ये रहता है कि तुमने तो अपने विकास के लिए खूब जंगल भी काट लिए और कोयला जला दिया और डीजल जला दिया सब कर लिया और तुम तो अब मौज मार रहे हो तो अब थोड़ी मौज हम भी तो मारेंगे ना। हमें भी जलाने दो कुछ हद तक यह तर्क सही भी है।

लेकिन विलुप्ति का इतिहास जब आपसे सवाल करेगा। तो आप ये तर्क दोगे क्या? कि सब कोयला जला रहे थे तो हमने भी हसदेव काट- काट के कोयला जलाया। इतिहास तो प्रश्न पूछेगा और आप अपने आप को विश्वगुरु बोलते हो तो आपसे सबसे पहले पूछेगा। क्योंकि बाकी सब तो छात्र हैं, बच्चे हैं, वो उधम कर रहे चलेगा आप तो विश्व गुरु हो सबसे पहला सवाल तो आपसे होगा। भाई तुम क्या कर रहे थे जब ये सब चल रहा था? तो बोलोगे हम ये कह रहे थे उनसे, कि तुमने इतना सब नाश करा है पृथ्वी का तो थोड़ा बहुत हमें भी कर लेने दो। ये क्या तर्क है?

यशवंत राणा: ये वाजिब तर्क नहीं है।

आचार्य प्रशांत: कहीं से वाजिब तर्क नहीं पर भारत का यही तर्क है।

यशवंत राणा: अभी जो भारत की स्थिति है कि हम जंगलों के कटने से पानी के संकट से होते हुए अब आ गए कि हमें विना विनाश स्थिति में और कोई विकल्प दिख नहीं रहा है। भारत का एक आम नागरिक है जो सामान्य जीवन जी रहा है। और आप कह रहे हैं कि उसकी आने वाली संततियों के सामने संकट जो होगा बाकी दुनिया के सामने, भारत के सामने होगा। उसके सामने भी होगा झेलेगा तो वह भी होगा भारत के एक आम आदमी को अपने जीवन में या अपनी सोच में ऐसा क्या बदलाव करना चाहिए? 140 करोड़ का देश है ये, तो बहुत हद तक कुछ तो अपना कंट्रीब्यूशन दे सकता है। जो आप कह रहे हैं कि दुनिया के सामने हम थोड़ी जा कहेंगे विलुप्ति का इतिहास लिखा जाएगा। तो हमने कहा कि नहीं यार तुमने उतना जलाया तो हमने इतना जलाया।

आचार्य प्रशांत: थोड़ा हम भी जला लेंगे।

यशवंत राणा: तो कम से कम भारत के जो लोग हैं ये सामूहिक रूप से कह सकते हैं कि दुनिया ने ऐसा नहीं किया लेकिन हमने ऐसा किया।

आचार्य प्रशांत: अब आते हैं हम बहुत रोचक मोड़ पर पहूँच गई ये बातचीत। ये कर कौन रहा है? ये सारा एमिशन कर कौन रहा है? कौन कर रहा है?

यशवंत राणा: इंडस्ट्रियलिस्ट कर रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: नहीं, इंडस्ट्रियलाइज देश भी जो हैं उनमें भी मालूम है कौन कर रहा है? दुनिया का 50% एमिशन जो दुनिया की सबसे 5% अमीर आबादी है वो कर रही है।

यशवंत राणा: दुनिया भर का 50%।

आचार्य प्रशांत: दुनिया भर का 50% एमिशन दुनिया की जो 5% अमीर आबादी है वो कर रही है। 36 सिर्फ कंपनियाँ हैं और उनके 36 स्टेक होल्डर्स जो 50% कार्बन एमिशन के लिए जिम्मेदार हैं दुनिया के। 36 कंपनियाँ एक्स एन मोबेल सबसे बड़ी उसमें सऊदी अरम को। 36 कंपनियाँ और ये सब वही कंपनियाँ हैं जो बहुत बड़ी-बड़ी हैं जो फॉर्चुन 500 में भी आती हैं कई और इनके जो ओनर्स हैं उनका जो भोग विलास है। ये जो अमीरी है वो सबके लिए एक रोल मॉडल है। अब मुझे प्रश्न अच्छे से पता है हमारा प्रश्न है कि भारत ये इन सब में कहाँ आता है तो थोड़ा मुझे इसको व्यापक तरीके से करके फिर समझाना पड़ेगा।

हमने जब कहा कि ये कुछ मुट्ठी भर लोग हैं। जो दुनिया के कार्बन एमिशन के जिम्मेदार हैं। ऐसे समझिए कि जो दुनिया की जो आखिरी 50% आबादी है वो कुल मिलाकर के 5% भी कार्बन के लिए जिम्मेदार नहीं है। दुनिया की आप दो हिस्सों में बाँट दीजिए कि ये आधा हिस्सा है जिनकी ज्यादा आमदनी है। और ये आधा हिस्सा है जिनकी कम है। ये जो कम वाले हैं ये दुनिया के 5% उत्सर्जन के लिए भी जिम्मेदार नहीं है लेकिन जो कहर टूटना है क्लाइमेट चेंज का वो 95% ये झेलेंगे। गुनाह इनका 5% भी नहीं है सजा इनको 95% की मिलने वाली है। अब समझिए मैं आना कहाँ चाह रहा हूँ। ये सारा का सारा खेल अमीर राष्ट्रों का भी खेला हुआ नहीं है। कुछ अमीर लोगों का खेला हुआ हैम अमेरिका के भीतर भी जो अमेरिका की भी जो बॉटम 50% पॉपुलेशन है। उसके एमिशन बहुत ज्यादा नहीं है। वो सस्टेनेबल लिमिट के आसपास या उन्हें खींच के सस्टेनेबल किया जा सकता है।

अमेरिका में भी जो टॉप 5% है उसमें भी टॉप 1% पर आइए तो और ज्यादा वहाँ आपको स्क्यू दिखाई देगा। स्क्यू माने कि अपनी संख्या के अनुपात में आपका जो उत्सर्जन है वो हजार गुना है। कि बहुत कम लोग हैं पर अपनी संख्या के अनुपात में हजार गुना! लाख गुना! करोड़ गुना! ज्यादा उत्सर्जन कर रहे हैं। तो ये कुछ अमीर लोग हैं कुछ अमीर लोग जो कि दुनिया की आबादी का एक बहुत-बहुत छोटा प्रतिशत है जो कि मूल रूप से इस पूरे क्लाइमेट क्राइसिस के जिम्मेदार है। और मुझे याद है सवाल भारत पर है ये अमीर लोगों के पास पैसा आता कहाँ से है आप बताइए?

यशवंत राणा: लाज़मी बाजार से ही आता है।

आचार्य प्रशांत: बाजार से आता है बाजार माने कौन?

यशवंत राणा: हम आप।

आचार्य प्रशांत: हम आप, ठीक है ना। हम आप इनके शिकार बनकर ना सिर्फ इनके विज्ञापनों के फेर में आकर के इनके उत्पाद खरीद रहे हैं। बल्कि हमने इनको अपना आदर्श रोल मॉडल भी बना रखा है। आप एक आम आदमी के पास जाइए उससे पूछिए कि तुम्हारा आदर्श कौन है? ना वो नचिकेता का नाम लेगा, ना याज्ञवलक्य का नाम लेगा, ना वो प्रह्लाद का नाम लेगा, ना अष्टावक्र का नाम लेगा। वो इन्हीं में से किसी अमीर का नाम ले लेगा। आप बात समझ रहे हैं ना? आप एक आम सड़क के आदमी से ही बात करिए। तो दुनिया के दो-चार अमीरों के बड़े नाम जरूर जानता होगा। कुछ भारत के भी जो एकदम धना सेठ उनके नाम भी जानता होगा यही वो लोग हैं जिन्होंने पृथ्वी खा ली पूरी और हमने इनको अपना आदर्श बना रखा है। अब आप समझ रहे हैं कि आम आदमी का क्या योगदान है? आम आदमी का इसमें ये योगदान है कि जो पृथ्वी को खा रहे हैं हम उनके हाथ से खा रहे हैं।

जो पृथ्वी को खा रहे हैं हमने उनको अपना भगवान बना रखा है आम आदमी का इसमें ये योगदान है।

यशवंत राणा: आचार्य जी बहुत गंभीर मामले पर अब आ गए हैं। अब मैं एक सवाल यहाँ से आपसे करा दूँ। हमारे जो नायक बनते हैं समाज के भीतर क्योंकि हम ही बनाते हैं। हम पसंद करते हैं उनकी डिमांड बढ़ती है उनका बाजार बढ़ता है। जब देश के तीन बड़े स्टार या 10 बड़े स्टार खड़ा होकर के कहते हैं कि अपनी टीम बनाओ और पैसा कमाओ जुआ है लेकिन जुए के लिए देश के 10 बड़े स्टार विज्ञापन करते हैं। एक गुटखा है जिसमें कहीं से भी केसर नहीं होगा। लेकिन उसको केसर के नाम पर तीन बड़े फिल्म स्टार बेच रहे हैं। वह तेल जो उस फिल्म स्टार ने कभी अपने जीवन में देखा भी नहीं होगा उसका विज्ञापन वो कर रहा है। तो यह नैतिकता का तकाज़ा तो कहता है कि आप ऐसा ना करें। लेकिन वो कर रहे हैं इसका मतलब कि अनैतिक तो है, गलत तो है, पता तो उनको भी है। अब जब नैतिकता को ताक पर रख के सिर्फ बाजार की डिमांड और अपने फायदे के लिए आप कुछ कर रहे हैं। तो फिर आप स्टार कैसे?

आचार्य प्रशांत: वो आप स्टार इसलिए क्योंकि आम आदमी इतना जागरूक नहीं है। कि जैसे चुनावों के वक्त सबको अपनी आय और एसेट्स डिक्लेअर करने पड़ते हैं। ठीक उसी तरीके से अगर आप एक पब्लिक फिगर हो और एक सीमा से अधिक आपकी आमदनी है तो आपको अपना कार्बन फुटप्रिंट भी डिक्लेअर करना पड़े ऐसी हमने कोई एजेंसी या ट्रिब्यूनल बनाया नहीं। मैं आपको अपना रोल मॉडल बना रहा हूँ ना मुझे पता होना चाहिए आपका कार्बन फुटप्रिंट कितना बड़ा है। कार्बन फुटप्रिंट माने कि मुझे पता होना चाहिए कि तुम कितना कार्बन हर साल उत्सर्जित करते हो कि तुम जो कार्बन निकाल रहे हो वही मेरे बच्चों की मौत बनने जा रहा है। मुझे पता होना चाहिए मेरे बच्चों की मौत के लिए तुम जो मेरे हीरो, मेरे लीडर बन रहे हो अपने आप को उद्योगपति बता रहे हो। या सेलिब्रिटी बता रहे हो। या पॉलिटिशियन बता रहे हो। मैं जानना चाहता हूँ। किस हद तक तुम जिम्मेदार हो मेरे घर परिवार की तबाही के। अपना कार्बन फुटप्रिंट बताओ? और ये मुश्किल नहीं है।

इसको बहुत आसानी से निकालने के आज हमारे पास तरीके मौजूद हैं। जरूरत बस इस बात की है कि इतनी जन जागृति हो कि इस काम को करने वाला एक हम आयोग बना दें। और उसको सब 150 करोड़ लोगों का फुटप्रिंट नहीं निकालना है। उसको जो टॉप 1% आबादी है बस उसका निकालना है और घोषित करना है। लगभग वैसे ही लगभग वैसे ही जैसे कि आप किसी अच्छे रेस्टरौं में आप जाते हैं और आपके सामने मेन्यू आता है तो उसमें लिखा रहेगा डोसा-1300 किलो कैलोरी। कि अगर ये आर्डर कर रहे हो तो तुम्हें यह भी पता होना चाहिए कि इससे मोटापा तुम्हारा कितना बढ़ेगा। ठीक वैसे ही आपके सामने स्क्रीन पर एक नेता आ रहा है या एक इंडस्ट्रियलिस्ट आ रहा है या आईपीएल का स्टार आ रहा है या फिल्मी स्टार आ रहा है या कोई आ रहा है। तुरंत उसके साथ लिखा आना चाहिए इस आदमी का कार्बन फुटप्रिंट इतना है। ताकि वो जब वहां मीठी-मीठी बातें करे तो आप बहक ना जाओ। उसका नंगा तथ्य उसकी हकीकत एक आंकड़े के रूप में आपके सामने मौजूद रहे।

ये कोई बहुत मुश्किल काम है? बिल्कुल मुश्किल काम नहीं है एकदम करा जा सकता है। पर उसके लिए आदमी को जगना होगा ना। लोगों को ये माँग करनी होगी। एक समय था जब यह नहीं होता था कि आप आए हो तो पहले बताओ अपना अगर नॉमिनेशन फाइल कर रहे हो तो बताओ आपके क्रिमिनल केस कितने हैं आपके एसेट्स कितने पहले नहीं होता था। फिर कुछ जागरूक लोगों ने पहल करी तो अब ये व्यवस्था आ गई और हम कहते हैं बिल्कुल सही व्यवस्था है। इसी तरीके से कार्बन फुटप्रिंट आपके क्राइम रिकॉर्ड का सबसे बड़ा सबूत है। जनप्रतिनिधि होने के लिए आपको बताना पड़ता है ना आपका क्रिमिनल रिकॉर्ड क्या है? हम पासपोर्ट वीजा इन सब में भी आपको अपना क्रिमिनल रिकॉर्ड डिस्क्लोज़ करना होता है ना? दुनिया के हर बड़े काम में आपको अपना क्रिमिनल रिकॉर्ड बताना पड़ेगा। शादी भी करने जाओगे और जेल में रह के आए हो तो बताना पड़ेगा। और नहीं बता रहे हो तो ये आपने बेईमानी करी। तो आपका आज सबसे बड़ा पृथ्वी पर क्राइम क्या है? कार्बन एमिशन।

आप कुछ लोगों के या सिर्फ एक राष्ट्र के गुनहगार नहीं हो आप समूची पृथ्वी के और करोड़ों प्रजातियों के गुनहगार हो। तो सबसे बड़ा आपका जो क्राइम है वो आज आपका कार्बन फुटप्रिंट है। वो कार्बन फुटप्रिंट आप डिक्लेअर क्यों नहीं कर रहे? आप जैसे ही डिक्लेअर करोगे आपकी छाती पर लिख के आ जाएगा टेलीविजन की स्क्रीन पर और वो बंदा आया आप उसका इंटरव्यू ले रहे हो और सामने ये भी लिखा हुआ है कि इतना इसका जो है इतने मेगा टन का इसका कार्बन फुटप्रिंट है। फिर देखते हैं कौन आपको अपना आदर्श मानेगा? ये सब बातें छुपी हुई हैं।

यशवंत राणा: ये कहने में तो ठीक है लेकिन समाज का जो मानस है। वो तैयार जिस तरीके से किया गया। आपने कहा कि अष्टावक्र को आज की संतति आज की पीढ़ी नहीं जानती है। वो ध्रुव को नहीं जानती होगी। वो नचिकेता को नहीं जानती होगी। लेकिन जो आज की तारीख में उसके स्टार हैं, आइकॉन हैं उनको जानती है। और उनकी जीवन शैली जो है उस जिस तरीके से जी रहे हैं और उनकी मानसिकता जैसी है। वो उसके प्रोटोटाइप्स होते चले जा रहे हैं। अब ऐसा लगता है कि बहुत दूर कोई रोशनी है घंटा बज रहा है बहुत ही जायकेदार खाने के लिए आपको बुलाया जा रहा है भीड़ जो है वो लगातार भागी चली जा रही है। और आप कह रहे हैं कि नहीं नहीं वहाँ मत जाओ वहाँ तो आग है। जाने के बाद तो भट्टी है सब के सब नीचे चले जाओगे, झरके जाओगे लेकिन सुन सुनने को कोई तैयार नहीं है। तो यह जो एक अजीब सी भगदड़ चल रही है, उस भगदड़ में।

आचार्य प्रशांत: वहाँ जो जल रहे हैं ना। उसका मीडिया सीधे-सीधे लाइव ट्रांसमिशन क्यों नहीं करती? जो जल रहे हैं 10 कि.मी बाद। सब भीड़ 10 कि.मी भाग ही जा रही है वो रास्ते में ही जॉइंट स्क्रीन्स लगा करके वहाँ जो जलने का कार्यक्रम हो रहा है वो दिखा दो ना। सूचना, सूचना जो मेरा गुनहगार है वो मेरे सामने मेरा अवतार बनकर मेरा पैगंबर बनकर मेरा मसीहा बनकर खड़ा हो जाता है। और मुझे उपदेश देता है। क्यों क्योंकि मेरे पास सूचना नहीं है कि ये कितना बड़ा गुनहगार है। उसका क्राइम रिकॉर्ड कार्बन फुटप्रिंट की शक्ल में मेरे सामने डिस्क्लोज नहीं किया जा रहा बताया नहीं जा रहा है। फिर हम देखते हैं कि कितने क्रिकेटर्स को जनता पूजती है। बस ये बता दिया जाए कि ये आदमी इतना कार्बन डालता है और ये तुम्हारे बच्चे की मौत का जिम्मेदार है। जिसको तुम अपना नायक मानते हो ये जो क्रिकेटर है और ये खुद तो बाहर से भारत छोड़ के बाहर जाके कहीं बस जाएगा। और तुमको यहाँ छोड़ेगा तिल-तिल करके घुट-घुट करके जल-जल करके पागल हो के मरने के लिए। और ये तुम्हारा रोल मॉडल है। ये तुम्हारा क्रिकेटर।

यशवंत राणा: आप सही कह रहे हैं, कि क्रिकेटर जो है लाजमी है कि उसके बच्चे बाहर पड़ेंगे और वो भी बाहर रहने की स्थिति में है वो अपनी जिंदगी जैसे चाहे जी सकता है, पैसा उसके पास उतना ज्यादा है। हमारा राजनेता है वो अपने बच्चों को मॉडर्न स्कूल में पढ़ाता है बाहर भी पढ़ाता है लेकिन सरकारी स्कूलों की पैरवी करता है। सरकारी अस्पतालों के बारे में वो मंच से बात करता है कि हम आपके लिए ऐसा कर देंगे। आपके लिए वैसा कर देंगे। उसकी जिंदगी बिल्कुल अलहदा है। वो जो जी रहा है उससे जिन लोगों के बीच में जी रहा है उनकी जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है। हमारे जो नायक हैं उनके साथ भी ऐसा ही है। वो जो जी रहे हैं और जिन लोगों के बीच में जी रहे हैं उन्होंने बिल्कुल दो फाड़ किया हुआ है।

आचार्य प्रशांत: माने सूचना नहीं दे रखी है। आप बंद कमरों में जो कर रहे हो और फिर आप सार्वजनिक रूप से जनता के सामने मंच पर आकर जो कर रहे हो। ये दोनों अलग-अलग हैं।

यशवंत राणा: मैं यही कह रहा हूँ कि अगर मैंने चेहरे से नकाब उतारा तो स्थितियां अनुकूल तो हो सकती हैं।

आचार्य प्रशांत: बिल्कुल हो जाएँगी।

यशवंत राणा: लेकिन इतना कहने के बाद भी नहीं हुई। समाज को उन लोगों ने अपने मुताबिक तैयार करके रखा हुआ है।

आचार्य प्रशांत: कम से कम देखिए जो जागरूक लोग हैं ना उन पर फर्क पड़ेगा। और एक जगा हुआ आदमी 25 सोए हुए पर भारी पड़ता है। जितने लोग जगे हुए हैं वो अगर आबादी के 5% भी हो जाए। तो सारा हालात सारी सूरत बदल जाएगी। सब बदल जाएगा। अभी हालत ये है कि जगे हुओं की संख्या 0.1% ना हो। जिन्हें सचमुच पता हो कि हम इस वक्त एंथ्रोपोसीन से गुजर रहे हैं। ये छठा मास एक्सटिंशन है।

यशवंत राणा: सभ्यता खत्म हो जाएगी।

आचार्य प्रशांत: सभ्यता छोटी बात है। लाइफ खत्म हो जाएगी। लाइफ सिविलाइजेशन ही नहीं जिसको कहते हैं ना लाइफ। लाइफ ही सब खत्म। और फिर मिलियंस लग सकते हैं दसों लाखों साल लग सकते हैं कि फिर धीरे-धीरे करके, धीरे-धीरे करके जीवन पुनः विकसित होगा। एक इवोल्यूशन की प्रक्रिया से गुजरेगा। और फिर इंसान जैसा कोई जीव इस पृथ्वी पर चलता हुआ दिखाई देगा।

यशवंत राणा: आचार्य जी कह रहे हैं कि जब सब खत्म हो जाएगा। जैसे अमीबा आया, फिर हाइड्रा आया। फिर धीरे धीरे धीरे वो इंसान तक पहुंचा।

आचार्य प्रशांत: और कोई जरूरी नहीं कि वही प्रक्रिया दोहराई जाए। इस बार कुछ और भी हो सकता है।

यशवंत राणा: कुछ और जाएगा।

आचार्य प्रशांत: आपको क्या लगता है? ये मार्स पर भागने कि इतनी योजना क्यों बना रहे हैं? क्योंकि मैं जो बात बोलता हूँ ना। ये आम जनता नहीं समझती पर ये जितने गुनहगार हैं क्लाइमेट के। ये मेरी बात सबसे ज्यादा समझते हैं इसीलिए मार्स पर दूसरे ग्रह पर भाग जाना चाहते हैं। कि इनको पता है कि अब इन्होंने पृथ्वी पर टाइम बम लगा दिया है इसीलिए भागने करने को तैयार हैं। और हमको और आपको और जीवों की पशुओं की सब प्रजातियों को और पृथ्वी के सारे साधारण लोगों को और गरीब लोगों को यहीं सड़-सड़ के मरने के लिए छोड़ के ये भाग जाएँगे।

यशवंत राणा: आचार्य जी जो कह रहे हैं कभी-कभी लगता है कि आप रोमांचित हो रहे हैं। कभी-कभी लगता है कि आपको गुस्सा आ रहा है। कभी-कभी लगता है कि दुनिया कहाँ आ गई है और डर भी भर जाता है आपके भीतर। लेकिन चर्चा यही है और आचार्य जी के साथ बात करने का जो मज़ा है वो भी यही है। मैं दो-तीन बातें क्योंकि हाल में एक डेढ़ महीने तक मैं बहुत घूमता रहा। मुझे लोग मिलते रहे वो आपके बारे में जानना चाहते हैं। ज्यादातर लोगों ने कहा कि आचार्य जी कितने घंटे सोते होंगे? कितने घंटे पढ़ते होंगे? उनकी दिनचर्या क्या होती है?

आचार्य प्रशांत: होने का तो ये है कि जब कोई आकर जगा देगा तो उठ जाते हैं। मतलब अपने हाथ में है नहीं। एक कविता सुनेंगे?

यशवंत राणा: हाँ बिल्कुल।

आचार्य प्रशांत: अब सोने पे पूछ दिया आपने तो। वो अभी-अभी दो-तीन दिन पहले कम्युनिटी पर किसी ने डाली थी। मन शांत सबके सोने पर मेरा एकांत। सर्च करो। ये मेरी ही कविता है जो एक रविवार को जब सिर्फ दो घंटे सोने के बाद मुझे जगा दिया कि अब लोग आ रहे हैं। सत्र शुरू होगा आधे घंटे में उठ जाइए। तो मैं उठा और सत्र में जाने से पहले मैंने एक कविता लिख दी। 2015 या 16 की है मैं लिखकर भूल गया था। हालांकि एक किताब में छपी हुई है। फिर अभी दो दिन पहले मैंने गीता कम्युनिटी पर उसको देखा तो याद आ गई। मिल रही है? शुरू इससे ही है— मन शांत सबके सोने पर मेरा एकांत। तो सोने का कितना समय मिलता है तो मैं सो रहा था तो जगा दिया गया। ये लिखा था।

मन शांत सबके सोने पर मेरा एकांत।

क्योंकि जब सब सो जाते हैं तो सबके बाद ही मेरा सोने का होता है।

एक बार फिर वही आदिम नींद पलकों पर आए एक बार फिर वही इच्छा मन पर छाए कि सोऊं ऐसे कि फिर जागूँ ना जगाए।

फिर किसी ने आगे जगा दिया।

पर मेरा नीरव चैन जागृति की भेंट चढ़ जाना है। तुमने सदा सूरज और सुबह को सत्य माना है। तुम नींद खत्म होने का जश्न मनाओगे जब मेरा सन्नाटा गहरा और गहरा रहा होगा ठीक तब तुम मुझे आ जगाओगे।

यशवंत राणा: क्या बात है।

आचार्य प्रशांत: मैं क्यों जग जाऊँगा?

यशवंत राणा: पीड़ा भी है दर्शन भी है।

आचार्य प्रशांत: जग क्यों जाऊँगा?

मैं पूछूँगा — किस लिए मन? क्या बचा है चेतना के जगत में जो पाना शेष है? या तुम्हें भी यही लगता है कि रात्रि से दिन विशेष है क्यों निर्मल मौन भंग करते हो? क्यों सत्य को शब्द से दूषित करते हो? आज सोते रहो निद्रा सर्वथा चिरंतन मिटे दृश्य जगत मिटे मिटे समस्त स्पंदन।

पर किसी मुस्कुराते मूर्ख की भांति जग मैं जाऊंगा क्योंकि अभी एक प्रश्न रह गया है बाकी कि तुम्हारे आने पर नींद से न जगने का विकल्प मेरे पास है भी या नहीं

यशवंत राणा: अरे बाप रे! “तुम्हारे आने पर मेरे पास नींद से जगने का विकल्प है भी या नहीं” क्या बात है।

*आचार्य प्रशांत: प्रश्न बाकी नहीं रह गया है। इसका उत्तर यही है ।

यशवंत राणा: आचार्य जी लेकिन क्योंकि आप समाज को दुनिया को समय जिस तरीके से भागता चलता है उसको समझने की कोशिश करते हैं। क्योंकि उसके बीच से ही आप प्रश्न उठाते हैं और उनका उत्तर ढूंढते हैं। जैसे वेब सीरीज हैं ये भी समाज का प्रतिबिंब है खूब बन रही हैं कुछ तो अच्छी भी हैं। बहुत सारी चीजें तो अब डिजिटल प्लेटफार्म पे भी हैं। तो आप इन सब से गुजरते हैं?

आचार्य प्रशांत: नहीं समय नहीं मिलता। पर हाँ कुछ ऐसा आता है। जो कि समाज को प्रभावित कर रहा होता है। जिससे सामाजिक चेतना में लहरें उठने लग जाती हैं तो उसको मैं देखता हूँ। ये जानने के लिए कि यह चीज़ किस तरह से लोगों को प्रभावित कर रही है। माज़रा क्या है? दुनिया चेतना जा किस दिशा में रहे उनको देख लेता हूँ। तो मैंने वेब सीरीज में रॉकेट बॉयज देखी थी। उसके बाद अभी ये पार्टीशन पर कौन सी आई थी अभी-अभी जिसमें क्रिप्स मिशन, कैबिनेट मिशन से लेकर के आजादी तक का था पूरा?

यशवंत राणा: जो मैंने नहीं देखी।

आचार्य प्रशांत: वो देखी थी फिल्म भी वही देखता हूँ। जो कि हिट हो। ये बात नहीं है पर जो चेतना पर किसी तरह का असर छोड़ रही होती है वो जरूर देखता हूँ। चाहे वह अच्छा असर हो बुरा असर हो पर अगर वो व्यापक चेतना कोई प्रभावित करने वाली फिल्म है तो उसको मैं देखता हूँ। जानने के लिए कि मेरे भारत को और दुनिया को किधर ले जाया जा रहा है।

यशवंत राणा: क्योंकि आप युद्धरत हैं। लगातार आप रहते हैं जूझते रहते हैं। अगर मैं पूछूँ कि एक कोई प्रश्न या एक चिंता। जो सर्वाधिक सताती है या जिससे आप लगातार जूझते हैं क्या है?

आचार्य प्रशांत: जो मासूम है जिसने कुछ करा नहीं है ना। उस के ऊपर जब अन्याय देखता हूँ। कुछ उठता है भीतर। पक्षी हैं, जानवर हैं इनको पता भी नहीं है कि हमने इनको सदा-सदा के लिए मिटाने का पूरा प्रबंध कर डाला। इन्हें पता भी नहीं है। और वो बिल्कुल मासूम है उन्होंने कुछ नहीं करा है। एकदम निर्दोष है। और हमने उनको बिल्कुल ऐसी व्यवस्था कर दी है कि अब वो कभी वापस नहीं आएँगे।

फिर मनुष्यों में आते हैं तो इसी तरीके से जो साधारण आदमी है। एक ठेला लगा रहा है गाँव में है, मजदूर है, सड़क पर काम करने वाला वो तो जानते भी नहीं है। और उनको उनको नहीं पता। कि उनको सजा-ए-मौत एक अदृश्य आवाज ने घोषित कर दी है। वो तो अपनी रोज़मर्रा की समस्या में ही मगन है। खपा हुआ है मशगूल है मैं जान रहा हूँ। लेकिन कि जिस बच्चे को तू गोद में उठा के जा रहा है मुझे पता है कि तेरा क्या होना है। इस बच्चे का क्या होना है। मुझे ये भी पता है कि तू गुनहगार नहीं है।

यशवंत राणा: आपने बहुत संजीदे मोड़ पर लाकर के बातचीत को रखा है। मैं सोच रहा था कि बातचीत को मैं इस बार के लिए खत्म कर दूँगा। लेकिन जितने आप सब लोग सुनते हैं आचार्य जी को। ये सिर्फ संवेदना का मामला नहीं है और सिर्फ सोच का नहीं है। प्रकृति का है कि हम किस तरह के लोग हैं। कोई आदमी जो परिवार के साथ चला जा रहा है गठरी लेकर के। दो जून की रोटी के लिए वो लगातार जूझ रहा है अपने परिवार के लिए।

आचार्य जी कह रहे हैं कि उसके हालात तो छोड़ दो कल उसके बच्चे पर जो विपदा आएगी उसके लिए वो गुनहगार है ही नहीं। लेकिन झेल वही रहा है। और झेलेगा सबसे पहले वही। ये पशु, पक्षी, जंगल, नदी, पहाड़ जो हम बात कर रहे हैं जो लगातार खत्म होते चले जा रहे हैं। चेतना और चिंता के स्तर पर कोई व्यक्ति जब आपसे बात कर रहा होता है। तो आप अंदर तक हिलते तो हैं। आचार्य जी है मैं आपकी बात से सहमत भी हूँ। लेकिन थोड़ा सा मैं चाहता हूँ कि खत्म ऐसे ना करुँ तो कोई भी ऐसा प्रसंग हो या कोई कविता आपकी हो। कोई गीत आपका हो। जो उम्मीद देता हो जिससे हम आगे बढ़ पाएँ।

आचार्य प्रशांत: उम्मीद तो पता नहीं लेकिन हर आदमी को भरसक यथाशक्ति यथासंभव जो है वह करना होगा। भले ही आखिरी उम्मीद भी टूट चुकी हो। देखिए 1.5 डिग्री पर मैंने जिन फीडबैक साइकिल्स की बात करी थी जो इररिवर्सिबल सेल्फ सस्टेनिंग फीडबैक लूप्स होते हैं। वो एक्टिवेट हो चुके हैं। ये लगभग ऐसी सी बात है कि मिसाइल दागी जा चुकी है। बस अब वो अपना रास्ता तय करके अपना समय लगा करके आके अब गिरेगी ही गिरेगी और विध्वंस होगा ही होगा। वो फीडबैक लूप सक्रिय हो चुके हैं। तो मैं उम्मीद को अपना ईंधन नहीं बनाता। जो करुणा के नाते मेरा कर्तव्य है मैं उसको अपना ईंधन बनाता हूँ। उम्मीद माने क्या? कि सब कुछ अच्छा हो जाएगा और अच्छे की हमारी परिभाषा क्या है? कि हम फिर से वही भोगवादी विकास में फिर से रत हो जाएँगे नहीं।

मैं संघर्ष को अपना आदर्श मानता हूँ कि उम्मीद नहीं भी हो तो भी जो चीज़ सही है उसके लिए संघर्ष करते रहो और आज हमें वही करना होगा।

कविता सुनाता हूँ संघर्ष पर। वो संघर्ष, नाउम्मीदी से भरे हुए संघर्ष को समर्पित ये कविता है। शीर्षक — जब गीत ना अर्पित कर पाओ।

पाते स्वयं को विचित्र युद्ध में रक्षा करते सुप्त जनों की टूटते ना नींद ना संग्राम पाते स्वयं को विचित्र युद्ध में रक्षा करते सुप्त जनों की टूटते ना नींद ना संग्राम मोहलत नहीं चार पलों की इधर भटकते उधर जूझते गिरते ते पढ़ते आगे बढ़ते जब गीत ना अर्पित कर पाओ तो ग्लानी ना लेना ओ मन तुम्हारी व्यथित सांसों का शोर ही संगीत है

यशवंत राणा: क्या बात। क्या बात है।

आचार्य प्रशांत:

हरिताभवन कभी मरु सघन प्यास बढ़ी बुझी काया की कभी समझे कभी उलझे काट ना मिली जग माया की इधर निपटते उधर सिमटते सोते जगते मानते जानते जब गीत ना अर्पित कर पाओ तो ग्लानि ना लेना ओ मन तुम्हारी स्तब्ध आँखों का मौन ही संगीत है

मृत्युशैया पर विदग्ध स्वजन तलाश रही जादुई जड़ी की खोजा यहाँ माँगा वहाँ आस लगाई दैवीय घड़ी की देखो प्रिय के प्राण उखड़ते बदहवास यत्न निष्फल पड़ते जब गीत ना अर्पित कर पाओ तो ग्लानि ना लेना ओम मन तुम्हारे विवश आंसुओं का प्रवाह ही संगीत है।

अब ये आखिरी वाला है ये थोड़ा ऐसा है जैसे मैंने अपने लिए भविष्यवाणी करी हो। जैसी स्थितियाँ जा रही है। तो आगे अब ये आखिरी बात लगता है सार्थक होकर रहेगी।

न्यायालय के भरपूर नियम न्यायालय के भरपूर नियम तुम पर झड़ी इल्जामों की प्रमाण साक्ष्य और और तर्क नहीं प्रमाण साक्ष्य और तर्क नहीं तुम कहते कृष्णों रामों की न्यायालय के भरपूर नियम तुम पर झड़ी इल्जामों की प्रमाण साक्ष्य और तर्क नहीं तुम कहते कृष्णो रामों की अपराधी और दोषी कहलाते कैद में जाते धक्का खाते जब गीत ना अर्पित कर पाओ तो ग्लान ना लेना ओ मन तुम्हारी विकल बेड़ियों का राग ही संगीत है।

यशवंत राणा: सारी मजबूरियों और सारी तकलीफों का एक राग है। और आचार्य जी के साथ ये जो दूसरा हिस्सा है। उसकी पहली कड़ी है बातचीत की। एक बात जो बार-बार आचार्य जी से बात करने के दौरान मुझे महसूस होती रही है। कि जब आप अपने साथ ईमानदारी नहीं बरतते हैं अपने चेहरे पर कई चेहरे लगाकर चलते हैं। तो फिर दरअसल आप ही यह पूरी जो त्रासदी है उसके सबसे बड़े वाहक और कारक हैं। वो एक शेर है किसी का कि — “एक चेहरे से उतरती है नकाबें कितनी लोग कितने एक शख्स में मिल जाते हैं वक्त बदलेगा इस बार तो मैं पूछूंगा उससे तुम बदलते हो। तो क्यों? लोग बदल जाते हैं।” ये बदलना जो है हमारा आपका खुद का खुद ना रहना भी अपने आप में हमारे लिए और हमारी इस पूरी धरती के लिए एक बड़ा संकट है। यह भी ध्यान देने की बात है। आचार्य जी चलते-चलते मैं चाहूँगा कि आप इसको अपनी बातों से।

आचार्य प्रशांत: चलिए उम्मीद की बात करी थी। सकारात्मकता की बात करी थीम तो मैं उस दिशा से कुछ बोल देता हूँ। ये सिर्फ क्लाइमेट क्राइसिस नहीं है ये अवसर भी है। अपनी जिंदगी को पूरी तरह से बदलने का। देखिए हम ऐसे ही आज यहाँ नहीं पहूँच गए ये। जो आज हम बात कर रहे हैं मास एक्सटिंशन की कोई छोटी घटना तो होती नहीं कि अचानक से घट गई। कि जैसे दो गाड़ियाँ सड़क पर टकरा गई हो। इतनी कोई छोटी घटना नहीं है। इतनी बड़ी ट्रेजडी तक अगर हम पहूँचे हैं। तो जरूर हमने कुछ बहुत जबरदस्त और बहुत लंबे समय तक चलने वाले बड़े समग्र अपराध या कम से कम गलतियाँ करी हैं। मैं कहना ये चाहता हूँ। कि दुनिया भर में जो दर्शन रहा है जो संस्कृति रही है जो सभ्यता रही है। जो धर्म रहा है। जो सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्थाएँ और मान्यताएँ रही हैं। जैसी अर्थव्यवस्था रही है। मनुष्य की स्वयं के प्रति जैसी दृष्टि रही है। मनुष्य की पृथ्वी के प्रति जैसी दृष्टि रही है। इस पूरे इतिहास ने मिलकर के अंततः आज जो हमारे सामने प्रलय कयामत खड़ी हुई है उसको जन्म दिया है। माने ये जो क्लाइमेट ट्रेजडी है, ये जो क्लाइमेट क्राइसिस है ये जो जलवायु प्रलय है।

ये इतिहास की हमारी जो पूरी धारा रही है उसमें हम कैसे रहे हैं यह उसका मैनिफेस्टेशन है अभिव्यक्ति है। बस तो आप कहेंगे आज ही क्यों हुई वो अभिव्यक्ति? पहले क्यों नहीं हो गई? अगर इतिहास से आ रही है इतिहास की पूरी धारा से आ रही है। क्योंकि पहले हमारे पास इतने साधन नहीं थे। पर भीतर से हम पहले भी वैसे ही थे जैसे हम आज हैं। ये हमारा सोचने के तरीके हमारी मान्यताएँ हमारा धर्म हमारा दर्शन हमारी संस्कृति। हम हमारी ये मान्यता कि जो जितना खाएगा पिएगा वो उतना भला आदमी है। किसी को आशीर्वाद देना है तो बोलो उसको कि दूधो नहाओ पूतो फलो या कि। यही सब तो रहता है भोग वाली बातें ही तो रहती हैं कि भोगो और भोगो जितना भोग है उतना उसको हम मानते हैं कि बढ़िया चल रहा है इसके साथ। तो ये जो पूरा इतिहास रहा है उस पूरे इतिहास ने अब जाकर के ये हमको बिल्कुल बर्बादी के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। मैंने कहा था ये हमारे लिए एक अवसर है। किस चीज का अवसर है? मुक्त होने का अवसर है।

क्योंकि अगर हम वैसे ही रहे जैसा हम ऐतिहासिक रूप से रहे हैं तो वो होके रहेगा जो इतिहास का फल है। माने ये जो क्लाइमेट ट्रेजडी है। जो इतिहास की पूरी धारा का आखिरी परिणाम है इसको रोका नहीं जा सकता अगर हम वैसे ही हैं जैसे इतिहास में हम सदा रहे हैं। तो अवसर है बिल्कुल नया हो जाने का। अवसर है इतिहास से अपने आप को पूरी तरह मुक्त करने का। क्योंकि अगर मुक्त नहीं करोगे तो इस इस प्रलय को तुम रोक भी नहीं सकते। ये जो क्लाइमेट क्राइसिस है ये हमारी पूरी हिस्ट्री पूरी फिलॉसफी, थॉट, वेज, बिलीफ्स, रिलीजन, कल्चर ये सबका एक एग्रीगेटेड मैनिफेस्टेशन है।

इसको अगर रोकना है तो हमें अपने आप को उन सब चीजों से स्वतंत्र करना पड़ेगा। और अपने आप को एक नई साफ निर्मल और निष्पक्ष दृष्टि से देखना पड़ेगा। कि मैं कौन हूँ? मैं अगर अपने आप को एक इतिहास का उत्पाद मानूंगा तो क्लाइमेट क्राइसिस को किसी भी तरीके से आप रोक नहीं सकते। नहीं रोक सकते। वो हमें बर्बाद करके खत्म करके जाएगी। लेकिन अगर मैं अपने आप को बिल्कुल एक ताजे तरीके से देखना शुरू करुँ। मैं पूछूँ क्या मुझे खुशी के उन्हीं पैमानों का पालन करने की जरूरत है जो मुझे समाज ने दिए हैं परिवार ने दिए हैं या पुरखों ने दिए हैं या इतिहास ने दिए हैं? क्या जरूरी है कि मैं उन सब चीजों को सच मानूँ? क्योंकि उन्होंने जो दिया है उसी ने तो आज ये हमें बर्बादी दे दी है। इतिहास ने और परंपरा ने हमें जो दिया है उसी ने तो आज हमें ये बर्बादी दे दी है ना। इस बर्बादी से निपटना है तो हमें इतिहास और परंपरा को तटस्थ होकर निष्पक्ष होकर के देखना पड़ेगा। और अपने आप को बिल्कुल नए तरीके से परिभाषित करना पड़ेगा शायद कुछ हो सके। यही अवसर है। तो ये विपदा में मुझे एक अवसर दिखाई दे रहा है और वो अवसर ही उस विपदा की काट है।

यशवंत राणा: आचार्य जी शायद कह रहे हैं। और ये शायद जहाँ कहीं भी होता है ना वहाँ संभावनाएँ चलती हैं। उम्मीद चलती है बहुत सोच के आपने शायद ही कहा है। लेकिन एक बहुत अच्छी बात कह रहे हैं कि जब कुछ नहीं है अभाव ही है, उस समय संयम नहीं। जब उपलब्धता है और भरपूर है, उस समय अगर आपने अपने आप को रोक रखा है तो आपने आने वाली पीढ़ियों के लिए अपने लिए कुछ किया है। और आज कह रहे हैं कि आप नए से जैसे इंसान को इसी तरीके से सोचना पड़ेगा। ताकि वो मुक्ति पा सके मुक्त हो सके आचार्य जी बहुत-बहुत धन्यवाद आज बात करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया आपका।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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