मुश्किल चुनौतियों से कैसे निपटें?

Acharya Prashant

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मुश्किल चुनौतियों से कैसे निपटें?
आदमी और आदमी में बस यहीं पर अन्तर स्थापित हो जाता है। एक आदमी होता है जिसको जब मुश्किल आती है तो वो और कमर कस लेता है और दूसरे आदमी को जब मुश्किल आती है तो फूँक मार कर गायब हो जाता है। एक आदमी होता है, जो कोई काम कर रहा होगा जैसे ही उस काम में वो मुश्किल के तल पर पहुँचेगा, जहाँ बाधा आने लग गई है, शरीर को, मन को चुनौती मिलने लग गई; वो कहेगा, 'अब जाकर के जान आई खेल में, अभी तक तो बोर हो रहे थे।' यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: मैं किसी भी क्षेत्र में, चाहे वो शिक्षा का हो या कोई नया वाद्ययन्त्र सीखना हो या कोई भी नई चीज़ सीखनी हो तभी तक आगे बढ़कर सीख पाता हूँ, जब तक वो चीज़ आसान लगती है और मज़ा देती है। जैसे ही वो चीज़ सीखने में मुश्किल हो जाती है, मैं उसे छोड़ देता हूँ। मदद करें।

आचार्य प्रशांत: देखो, एक-दो बातें समझना। अक्सर हम किसी नई चीज़ की ओर इसलिए नहीं जाते हैं क्योंकि हमें उस चीज़ से गहरा प्रेम होता है। हम इसलिए जाते हैं क्योंकि हमारी जीवन व्यवस्था के वर्तमान ढर्रों में हमें ऊब हो रही होती है। जैसी ज़िन्दगी चल रही है, उसमें ऊब हो रही है तो किसी और तरफ़ चल दिए, बिना ये समझे कि ऊब हो क्यों रही थी। तो वास्तव में तुम जिस तरफ़ को चल देते हो वो तुम्हारी वर्तमान व्यवस्था का ही एक संशोधित रूप होता है। तुम्हें ऐसा लगता ज़रूर है कि तुम किसी नई दिशा चले हो, कोई नई चीज़ सीख रहे हो, नई दोस्ती कर रहे हो, नई जगह जा रहे हो, कुछ भी नया कर रहे हो लेकिन वास्तव में तुम वही सबकुछ कर रहे होते हो जो तुम पहले कर रहे थे और जो कर-कर के तुम ऊबे ही हुए थे।

जो कर-कर के तुम ऊबे ही हुए थे उसी को तुम अगर और ज़्यादा करोगे, भले ही नाम बदल कर तो तुम्हारी ऊब कम तो नहीं हो जाएगी न। कर तो तुम मूलत: वही रहे हो जो तुम पहले भी कर रहे थे, बस तुमने नाम दूसरा दे दिया, जगह बदल दी, आकार-प्रकार कुछ बदल दिया। मूलत: करने वाला नहीं बदला, करने वाले की वृत्ति, करने वाले का इरादा नहीं बदला, वो वैसे का वैसा ही है।

कर्ता जब पुराना ही हो तो कर्म बिलकुल नया नहीं हो सकता। कर्म ऐसा लगेगा जैसे कि अलग है, नया है। वो तो नया, अलग लगेगा ही क्योंकि समय के साथ परिस्थितियाँ बदलती हैं।

भई, तुम्हें गाड़ी चलानी नहीं आती पर तुम अगर गड़बड़ गाड़ी भी चला रहे हो तो भी सड़क तो बदलती रहेगी न। अभी जिस मुकाम पर है तुम्हारी गाड़ी, तुम उसे बिलकुल गलत चला रहे हो, आड़ा-तिरछा, तो भी चलती हुई गाड़ी थोड़ी देर में तीन किलोमीटर आगे पहुँच जाएगी और तुम कहोगे, ‘अब ये वो जगह नहीं है जहाँ मैं गलत चला रहा था।‘ तुम कहोगे, ‘जहाँ मैं गलत चला रहा था वो जगह एक किलोमीटर, दो किलोमीटर और तीन किलोमीटर पीछे थी। देखो, मैं नई जगह पर आ गया हूँ।‘

अब नई जगह पर तो आ ही जाओगे क्योंकि समय की बात है, जीवन में सबकुछ गतिमान है। गड़बड़ भी चल रही है गाड़ी तो भी गतिमान है। गति तो है ही भले ही गड़बड़ चल रही हो गाड़ी, तो गाड़ी कहीं और पहुँच गयी। तुम कहोगे, देखो अब ये नई जगह है, समय ही बदल गया है, मैं आधे घंटे पहले गलत चल रहा था, आधा घंटा अब बीत चुका है, घड़ी के कांटे अलग वक्त दिखा रहे हैं, ये जगह भी दूसरी है, पहले जहाँ मैं गलत चला रहा था, अगल-बगल पेड़ दिखाई दे रहे थे, यहाँ अगल-बगल पेड़ नहीं दिखाई दे रहे हैं। यहाँ अगल-बगल घर दिखाई दे रहे हैं, गाँव हैं।

ये बाहर-बाहर का सबकुछ बदल गया, जगह बदल गयी, समय बदल गया, क्या गाड़ी को चलाने वाला बदल गया? गाड़ी को चलाने वाला अभी भी वही है जो तीन किलोमीटर पहले था, जो पन्द्रह मिनट पहले था। वो अभी भी गाड़ी कैसे चलाएगा? आड़ी-तिरछी ही चलाएगा। बस पहले ये हो सकता है कि वो गड्ढे में डाल रहा था गाड़ी, अब जाकर खम्भे से लड़ा दे। तो जो दुर्घटना है वो भी ऊपर-ऊपर से देखोगे, तुम्हें लगेगा कि दुर्घटना का प्रकार भी बदल गया।

लेकिन बदला क्या है?

गड्ढा बदल गया, खम्भा बदल गया, जगह बदल गयी, जंगल बीत कर गाँव आ गया, जो चलाने वाले का अनाड़ीपन है वो तो जस-का-तस है न। चलाने वाला तो उतना ही मूर्ख है, जितना कि वो पहले था। पहले की परिस्थितियों में भी गलत चला रहा था, आज की परिस्थिति में भी गलत चला रहा है।

बात कुछ आ रही है समझ में?

तो आमतौर पर ये वो बदलाव होते हैं जो हम अपनी ज़िन्दगी में लेकर आते हैं। इसमें बाहर-बाहर चीज़ें बदलती हैं, भीतर कुछ नहीं बदलता। जब हम कहते हैं कि मैं पहले भई क्रिकेट खेलने में बहुत ध्यान लगाता था, अब मेरा क्रिकेट से मन ऊब गया है और मुझे गिटार सीखना है। मन ऊब क्यों गया है क्रिकेट से?

असली बात ये है कि तुम बॉलिंग कर रहे थे तो इन दिनों हर ओवर में कम-से-कम दर्ज़न निकाल रहे थे रन और बैटिंग करने आ रहे थे तो दर्ज़न कभी औसत नहीं पा रहे थे। बल्लेबाजी करने आते थे तो बल्लेबाजी का औसत निकलता था, बारह से नीचे और गेन्दबाज़ी करने जाते थे तो प्रति ओवर रन निकलते थे बारह से ज़्यादा, तो क्रिकेट से मन उब गया।

जिसके इस तरह के आँकड़े हैं उसका कैसे मन लगा रहेगा क्रिकेट में, रोज़ फ़जीहत होती थी मैदान पर। बल्लेबाज प्रार्थना करते थे कि तुम कब आओगे बॉलिंग करने, और गेन्दबाज़ मनौती माँगते थे कि ये तभी आये स्ट्राइक पर जब गेन्द मेरे हाथ में हो।

तो ये तो तुम्हारी हालत थी, तुम्हारा तो क्रिकेट से ऊबना ही स्वाभाविक था। और ये हालत तुम्हारी क्यों थी? क्योंकि नेट्स पर तुम जाते नहीं थे, कोच का तुम मज़ाक उड़ाते थे। जितनी बातें तुम्हे ट्रेनिंग में सिखाई गई थीं, उनका तुम अभ्यास नहीं करते थे। तो फिर तुमने कहा, 'नहीं, क्रिकेट तो बेकार चीज़ है ये तो अंग्रेज़ छोड़ गए हैं, ये तो हमारी गुलामी की निशानी है, गिटार बिलकुल देसी चीज़ है, प्राचीन काल से भारत के गाँव-गाँव में गिटार बजता था, अब हम गिटार सीखेंगे।

अच्छा भाई , तुमने बड़ा सुन्दर तर्क दिया ;अब तुम गिटार सीखने निकले | वहाँ गये वहाँ भी तुम्हारा एक टीचर है, और वो भी तुमको क्या बोल रहा है, कि बेटा ये लो और बजाओ टुनटुनिया, वो तार है उसमें तुम उँगली डाल रहे हो, उँगली में चोट लग रही है, जो लोग नया-नया, गिटार सीखना शुरू करते हैं उनसे पूछो, शुरू के कुछ महीनों बड़ी दिक्कत रहती है। आदमी तो तुम वही हो न, जो क्रिकेट में भी कोच के निर्देशों का पालन नहीं कर पाएँ? तो अब तुमको जो गिटार सिखाने के लिए आये हैं, संगीत के प्रशिक्षक तुम इनके निर्देशों का पालन कर लोगे?

तो वही तो तुमने यहाँ सवाल लिख के भेजा है कि कोई भी नई चीज़ तभी तक सीख पाता हूँ, जब वो आसान लगती है और मज़ा आता है, जब वो मुश्किल हो जाती है तो उसे छोड़ देता हूँ। तो तुम कर तो रहे हो न आसान काम, क्या? छोड़ना। यही एक चीज़ तो तुम सीखे जा रहे हो, सीखे जा रहे हो। ज़िन्दगी में क्या सीखा? छोड़ना। अभी छोटा-छोटा छोड़ रहे हो, कुछ दिन में लम्बा-लम्बा छोड़ोगे। तो कुल जीवन की जमा उपलब्धि क्या होगी? छोड़ते गए, छोड़ते गए, छोड़ते गए, जहाँ भी तकलीफ़ छोड़ते गए।

आदमी और आदमी में बस यहीं पर अन्तर स्थापित हो जाता है। एक आदमी होता है जिसको जब मुश्किल आती है तो वो और कमर कस लेता है और दूसरे आदमी को जब मुश्किल आती है तो फूँक मार कर गायब हो जाता है। एक आदमी होता है, जो कोई काम कर रहा होगा जैसे ही उस काम में वो मुश्किल के तल पर पहुँचेगा, जहाँ बाधा आने लग गई है, शरीर को, मन को चुनौती मिलने लग गई। वो कहेगा, 'अब जाकर के जान आई खेल में, अभी तक तो बोर हो रहे थे।' जिसके साथ खेल रहे थे, बैडमिंटन खेल रहे थे — ये पाँच-सात से आगे कभी बनाते ही नहीं था, कोई मज़ा ही नहीं आता था, इससे जीत कर भी क्या मिलेगा। अब जान आई, अब ये टक्कर दे रहा है तो बढ़िया, सबकुछ करने लग गया है। लड़का जैसे सोते से जग गया बीच में एक गेम जीत भी गया, शॉट्स में इसके जान आ गई, क्या प्लेसमेंट कर रहा है। उनको फिर अच्छा लगता है कि चुनौती आई, अब ज़रा शरीर अंगड़ाई लेगा। अभी तक तो शरीर ही ऐसा हुआ पड़ा था कि जैसे सो रहा हो, आधा बेहोश। जैसे सुबह हो गई हो, उर्जा आ गई तो शरीर भी होगी सामने चुनौती खड़ी हो गई।

एक इस तरह के लोग होते और दूसरे ऐसे होते हैं कि जब तक आसान चल रहा है, तब तक (बैडमिंटन का अभिनय करते हुए) और जहाँ चुनौती आई नहीं कि उनके दबाव बनने लगता है, मल त्याग के लिए भागते हैं, बहुत ज़ोर से। अरे रे, रे, रे, रे, रे, रे, रे!

आदमी और आदमी में बस यहीं पर अन्तर स्थापित हो जाता है। सिर्फ़ इसलिए कि तुम्हें शरीर मिला है इंसान का , तुम इंसान नहीं हो गए। इंसान बस वो है जो चुनौतियों के सामने बिलकुल छाती खोल के खड़ा हो जाए, कहे, ‘आओ।‘ वो जो दूसरा वाला है, जिसकी हवा निकल जाती है चुनौतियों के सामने जो बिलकुल भाग लेता है, वो झूठ-मूठ ही अपनेआप को इंसान बोल रहा है, वो कोई और ही चीज़ है।

जानवर है भप, जानवर ही इंकार कर देंगे उसे अपने दल में मानने से। न इंसान है, न वो जानवर है वो कोई और चीज़ है। उसके लिए वास्तविक तौर पर कोई और स्पीशीज़ (प्रजाति) का नाम खोजा जाना चाहिए, वो कोई चीज़ ही दूसरी है। उसको यही करना है जीवनभर कि जो आसान मिला, कर लिया, जहाँ मुश्किल आई वहाँ बोले, अरे! वो प्रेशर बढ़ रहा है! किधर है ? जाएँ। और कहीं से तुम्हें गायब होना हो तो उसका बड़ा अच्छा तरीका यही होता है न।

तुम देख लो भई कुशाग्र, तुम्हें कौनसा इंसान बनना है, इंसान बनना भी है या नहीं बनना है। वजह बताई देता हूँ, इंसान पैदा होता है बस एक सम्भावना के तौर पर, जैसे कच्चा माल पैदा होता हो। उस कच्चे माल में सम्भावना है कि वो एक सुन्दर उत्पाद के रूप में तैयार हो जाए। पर सम्भावना भर से कुछ नहीं होता, उस कच्चे माल को बड़ी आग से, बड़ी तपन से रूप धारण करने की, बड़ी कठिन प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा। तब जाकर के अंततः उस कच्चे माल से एक सुन्दर मूर्ति तैयार होती है। तो इसीलिए इंसान वही है, जो मूर्ति बन जाने की उस कठिन चुनौती को स्वीकार करने की ईमानदारी और साहस रखे। नहीं तो कच्चा माल, कच्चा ही माल रह जाना है। कच्चा माल पैदा हुआ था, वो कच्चे ही मर गया, जला दिया गया।

कच्चा माल आसानी से एक सुन्दर प्रतिमा नहीं बन जाएगा। उसको बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, उसको बिलकुल दाँत कसने होंगे, मुट्ठियाँ भींचने होंगी, दर्द बर्दाश्त करना होगा, न जाने क्या-क्या झेलना होगा तब जाकर-के उसका सुनिर्माण होगा, नहीं तो वही है। कच्चा माल माने मिट्टी। जिनको हम मिनिरल्स भी बोलते हैं न, वो मिट्टी ही होते हैं।

कभी कहीं पर जाना जहाँ पर ये सब रॉ-मटेरियल्स या मिनरल्स आते हों। तुम से कहा जायेगा, ये देखिये ये मैंगनीज है। मैंगनीज क्या, मिट्टी मिट्टी ही दिखाई दे रही, मिट्टी ही मिट्टी दिखाई दे देगी। उन्होंने कहा, यह आयरन है, आयरन कहाँ है, ये तो मिट्टी-मिट्टी ही है, मिट्टी ही होती है।

फिर उस मिट्टी से एक बहुत सुविचारित और कठिन प्रक्रिया के माध्यम से लोहा निकल आता है। तुम्हें क्या लगता है कि वो जो आयरन-ऑक्साइड आ रहा है फेरस-ऑक्साइड जो भी हो। तुम्हें क्या लग रहा है कि वो दिखाई दे रहा होता है कि ये देखो, ये लोहा है न ये। वैसे मिट्टी होती है लाली लिए हुए उस मिट्टी को फिर मिट्टी ही रह जाना है अगर वो मिट्टी तपने को तैयार नहीं है। वो तपती है तब कुछ बनती है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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