जेती देखौं आत्मा, तेता सालिगराम । साधू प्रतषि देव हैं, नहीं पाथर सूं काम । ।
~ संत कबीर
वक्ता: जहाँ वास्तव में सत दिखाई दे, वही जगह पवित्र है। जिसमें वास्तव में सत्य की झलक मिले, वही व्यक्ति उसका प्रतिनिधि है। मंदिर वो नहीं है, जहाँ परम आकर बैठे। जहाँ परम हो वो मंदिर है। अंतर समझिएगा। जहाँ हमने सिर को झुका दिया…?
श्रोता १: वहाँ एक काबा बना दिया।
वक्ता: वहीं एक काबा बना दिया। जहाँ आत्मा के दर्शन हों, जिस देह में, जिस पदार्थ में, वही सालिगराम है। जिस व्यक्ति में परम दिख जाए, वही पवित्र है। पवित्रता का और कोई पैमाना नहीं हो सकता। तो कह रहे हैं कबीर कि – सिर झुकाना है तो उस देह के सामने झुकाओ, जिसके देखने मात्र से परम की अनुभूति होती है।
कौन है ‘संत’? ‘संत’ वही है, जिसको देख कर परमात्मा की याद आए। कौन है ‘महात्मा’? वही जो जब सामने आए तो ये विश्वास -सा होने लगे कि परमात्मा होता होगा। इसका होना इस बात का प्रमाण है कि परमात्मा होता होगा। अगर परमात्मा ना होता, तो ये नहीं हो सकता था – बस वही महात्मा है, वही संत है।
तो कह रहे हैं कबीर कि तुम क्या पत्थरों की पूजा करते हो । वो देह में तुम्हारे सामने खड़ा होता है, पूजा उसकी करो ना। इसीलिए कबीर ने साधुओं को सम्मान देने पर, साधुओं को पूजने पर बड़ा ज़ोर दिया है। कहते हैं कि – हो सके तो रोज़ मिलो। रोज़ नहीं मिल सकते हो, तो हफ़्ते में मिलो, हफ़्ते में नहीं मिल सकते, तो महीने में मिलो। और महीने में भी जो नहीं मिल सकता, वो फिर नरक में ही है, क्योंकि वहीं साधु नहीं पाए जाते, तभी तो मिल नहीं पा रहा है।
सैंकड़ों की संख्या में कबीर के दोहे हैं जो बार-बार यही कहते हैं कि – |”परम को तो पता नहीं पाओगे कि नहीं पाओगे, साधु के दर्शन कर लो।”
(कबीर दास का एक अन्य दोहा कहते हुए) “साधु आता देख कर खिली हमारे देह ,” और याद रखिए वो नाम के साधुओं की बात नहीं कर रहे हैं।
कबीर के लिए ‘साधु’ कोई लेबल नहीं है कि आप एक प्रकार के कपड़े पहन लें, और आप एक प्रकार का आचरण करने लगें, तो आप साधु हो गए। कबीर के लिए ‘साधु’ कौन है? वो कबीर ने बहुत स्पष्ट बता दिया – जहाँ सत्य दिखाई दे वही साधु है। जिसको देख कर, ‘उसके’ होने में श्रद्धा जाग जाए, वही ‘साधु’ है।
और कबीर कह रहे हैं कि जब ऐसा कुछ सामने आए तो छोड़ देना पत्थरों को, छोड़ देना मंदिरों को। ना सालिगराम की, ना मूर्ति की, किसी की कोई महत्ता नहीं है ऐसे व्यक्ति के सामने। बस सिर को वहीँ पर झुका देना। किताबें भी मुर्दा हैं, और मूर्तियाँ भी मुर्दा हैं। जब वो जीवत रूप में सामने आए, तो बस ‘वही’।
लेकिन आदमी के अहंकार को इसमें बड़ी बाधा रहेगी। इसीलिए हम किताबों को पढ़ने को तैयार हो जाएँगे, हम मंदिर जाने को तैयार हो जाएँगे। मूर्ति से अहंकार को बड़ी सुविधा रहती है, मूर्ति के सामने सिर झुका दिया, क्या दिक्कत है? या मस्जिद में सिर झुका दिया, वहाँ तो और सुविधा है। वहाँ कोई है ही नहीं जिसके सामने झुका रहे हो, आकाश है, झुका दिया सिर। अहंकार पर कोई चोट नहीं लगी।
झुका दिया जीसस के सामने भी, “अरे वो मर गए, और रहे होंगे बड़े आदमी। सारी दुनिया झुकाती है, हमने भी झुका दिया।हम छोटे थोड़ी हो गए।” पर जीवित संत के सामने सिर झुकाने में अहंकार को बड़ी चोट लगती है। वहाँ भी चोट कम लगे, अगर वो गणमान्य संत हो, अगर वहाँ हज़ारों लोग झुका रहे हों। “सब झुका रहे हैं, हमने भी झुका दिया।”
श्रोता १: इससे तो हमारा ही अहंकार बढ़ जाता है।
वक्ता: पर जो वास्तविक संत होगा, जिसकी अभी हमने पिछले दोहे में बात की थी, जिसमें कुछ ख़ास होगा ही नहीं, उसके आगे सिर झुकाने में बड़ा खतरा है, और बड़ी तौहीन है। (व्यंग्यपूर्ण तरीके से बोलते हुए) “कोई और इसको पूजता नहीं, कुछ ख़ास इसमें दिखता नहीं, तो मैं ही पगलाया हूँ कि इसको मान दूँ। इससे अच्छा तो जाकर हम उपनिषद पढ़ लेंगे, गीता पढ़ लेंगे, कोई किताब पढ़ लेंगे।”
पर भूलियेगा नहीं संतों ने ही बार-बार कहा है, “क्यों किताबें पढ़-पढ़ कर आँखें फोड़ रहे हो?” ठीक यही वचन हैं उनके कि – “क्यों किताबें पढ़-पढ़ के आँख फोड़ रहे हो? जो काम सीधे-सीधे हो सकता है, उसके लिए इतना लम्बा-चौड़ा क्यों आयोजन करते हो? और ये किताबें पढ़-पढ़ कर भी तुम्हें कुछ मिलेगा नहीं, क्योंकि तुम्हारा किताबों के पास जाना सिर्फ़ अहंकार की रक्षा का उपाय है।”
तो तुम्हें क्या मिलेगा उन किताबों से? और अहंकार मिलेगा। पर बड़ी दिक्क़त है, सिर ऐसा है कि झुके कैसे? कुत्ते के सामने कैसे झुका दें सिर? लोग पत्थर और मारेंगे, पहले जो कुत्ते को जो मार रहे थे पत्थर, वही अब आपको मारेंगे। कुत्ते को छोटा वाला मारें भले ही, आपको बड़ा वाला मारेंगे। कहेंगे, “कुत्ते के पाँव छू रहा था।”
पुराने घरो में अभी भी प्रथा है कि जब बच्चा पैदा होता है, तो जो लोग उसको देखने आते हैं, वो उसके चरण स्पर्श करते हैं। वो प्रथा भी जाती जा रही है। कहते हैं, “बच्चा पाँच दिन का, इसके बच्चे के पाँव छूने का क्या अर्थ है?”
बात अहंकार को बिल्कुल जंचती नहीं है। “बच्चे के पाँव क्यों छुए जा रहे हैं, पाँच दिन का ही तो बच्चा है? चलो फिर भी छू लो, अपनी ही जाति का बच्चा है, होमोसेपिएंस (मानव-जाति) तो है। पर अब कुत्ते के और बकरे के पाँव छुओ? थोड़ी देर में तुम्हें उसे खाना है, और उसके पाँव छू रहे हो। मुँह से टपक रही है लार।
क्या था, एक बार रामकृष्ण के पास एक भक्त आया करते थे। वो साल में दो-चार बकरे ज़रुर भिजवाएँ मंदिर में, कि इन्हें कटवाओ, फ़िर चढ़वाओ। ये सब देखा करते थे रामकृष्ण कि ये सब चलता है। फिर एक साल उन्होंने बकरे नहीं भिजवाए कटवाने के लिए। रामकृष्ण ने ये भी देखा, तो उनको बुलावा भेजा कि आइयेगा। रामकृष्ण उनको बोलते हैं, “क्या हुआ भक्ति कुछ काम हो गयी? बकरे नहीं। आप हर साल बकरे कटवाते थे, इस साल आपका आयोजन पूरा नहीं हुआ।” तो वो बोले, “भक्ति कम नहीं हुई है, असल में दांत गिर गए हैं। अब कटवा भी दें, तो खाएगा कौन?”
(श्रोतागण हँसते हैं)
तो सारा ये खेल है वो तो जीभ के रस का है। जब बकरे में ‘वो’ दिखाई दे, तो ठिठकिये नहीं, कर लीजिए प्रणाम। पक्का बता रहा हूँ, आदमी से ज़्यादा संभावना है कि बकरे में दिखाई देने की। आदमी में दिखना मुश्किल है, बकरे में ज़्यादा सहूलियत से दिख जाएगा।
~ ‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।