आचार्य प्रशांत: बाहर जो कुछ भी है, वो तो एफ़र्ट (प्रयास) माँगेगा-ही-माँगेगा। ‘एफ़र्टलेसनेस ’ कहाँ होती है?
प्रश्नकर्ता: मन में।
आचार्य: वहाँ एफ़र्टलेसनेस रहे, वहाँ पर अनावश्यक संघर्ष ना रहे। मानसिक एफ़र्ट का मतलब होता है, बहुत सारी बातें जो सोच रहे हैं, बहुत सारे विकल्प हैं जो सामने आ रहे हैं, और आप उनमें उलझे हुए हैं। बाहर तो अगर आप एक शब्द भी बोलेंगे, तो उसमें एफ़र्ट लगेगा-ही-लगेगा। एक शब्द भी अगर बोला जाता है तो उसमें भी कुछ ऊर्जा लगती है। बाहर की दुनिया में हमारे काम किस लिए होते हैं? जिसका मन अशांत है, वो बाहर बस पाना चाहता है। जिसका मन अशांत है, वो बाहर जो भी एफ़र्ट करता है, वो बस पाने के लिए होता है।
शिव सूत्र में ‘उदयमो भैरव:’ का अर्थ है कि जब मन शांत है, मन एफ़र्टलेस है, तब बाहर पाने जैसी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती है कि बाहर कुछ पाना-ही-पाना है। वो आवश्यकता ख़त्म हो जाती है कि बाहर कुछ पाना-ही-पाना है। और फ़िर बाहर जो कुछ होता है, वो अगर होता है तो इसलिए कि गन्दगी है, साफ़ कर दो; संचय नहीं कर लो, साफ़ कर दो। कुछ पाना नहीं है जीवन में, पाने लायक जो है वो पहले ही है। पाने लायक जो है वो पहले ही है जीवन में। अधिक-से-अधिक सफ़ाई करनी है।
इस बात को समझिए, जिसका मन शांत नहीं है, वो एफ़र्ट करता है पाने के लिए, हमारे जो भी एफ़र्टस होते हैं, वो पाने के लिए एफ़र्टस होते हैं – ‘कुछ पा लूँ’। और जिसका मन शांत हो गया उसके एफ़र्टस होते हैं कि, "जो पाया ही हुआ है, जो इक्कठा किया हुआ है, वो हट किस प्रकार जाए?"
वो पाने के लिए काम नहीं करता है, वो सफ़ाई के लिए काम करता है। उसको पाने में कोई रस नहीं रह जाता है। विचारों को ऊर्जा भी देना एक अशांत मन का ही काम है। स्टिम्युलस (प्रोत्साहन) अगर ताक़तवर हो तो वो आपके भीतर एक विचार उठा सकता है, ठीक है, पर वो विचार गति तभी पकड़ेगा जब आपका मन पहले ही तैयार है उसको वो ज़मीन देने के लिए। बीज ज़मीन पर कहीं बाहर से डल सकता है, पर वो बीज पेड़ तभी बनेगा जब ज़मीन तैयार हो उस बीज को अपनाने के लिए, खाद देने के लिए, पानी देने के लिए।
यह तो जानी हुई बात है कि विचार का जो बीज होता है, जो स्टिम्युलस होता है, वो तो बाहर से ही आता है, बहुत पक्की बात है। आप ने अभी कुछ सुना, उसके फल स्वरूप कोई विचार पैदा हो जाएगा, या इस टी.वी. स्क्रीन पर देखें तो उसके कारण कोई विचार पैदा हो जाएगा। वो बीज है, वो इनिशियल स्टिम्युलस है जिसके कारण विचार सक्रिय होता है। स्टिम्युलस आते रहेंगे, यदि हम दुनिया में हैं, चारों तरफ से स्टिम्युलस आ ही रहे हैं, हालाँकि उस स्टिम्युलस पर भी जितना काम करा जा सकता है, जितना उसको साफ़ रखा जाए, उतना अच्छा होता है।
लेकिन वो नहीं पनपेगा, स्टिम्युलस बीज से पेड़ नहीं बनेगा अगर आपके दिमाग में पहले ही उसके लिए पोषण मौजूद नहीं है। दिमाग में खुराफ़ात मौजूद है तो छोटे-से-छोटा बीज भी पेड़ बन जाएगा। हम खुद विचारों को ऊर्जा देते हैं। जैसे कि, मैं एक बात कह रहा हूँ, किसी के कान में पड़ती है, पड़ कर निकल जाएगी, कहेगा, "ठीक है, हो गया", दूसरे के कान में पड़ेगी तो एक पूरी कहानी बन जाएगी।
एक ही बात एक आदमी के कान में पड़ेगी तो वो बस बात बन कर रह जाएगी, दूसरे के कान में वो पूरी कहानी और कहानी पर कहानी पर कहानी पर कहानी बनेगी। यह दिमाग का अंतर है कि आपकी जो मूल वृत्तियाँ हैं, वो कैसी हैं, उनकी सफ़ाई हुई है या नहीं। हाँ, यहाँ पर लगेगा एफ़र्ट , यहाँ लगेगा। जिसके दिमाग का पूरा हिसाब-किताब ही ऐसा हो गया है कि उसमें खूब इकट्ठा हो गया है, उसको एफ़र्ट करना पड़ेगा उसको साफ़ करने के लिए, और जम कर एफ़र्ट लगेगा। जब जम कर इकट्ठा करा है तो सफ़ाई में जम कर एफ़र्ट भी लगेगा। उसमें थोड़ा सा दर्द भी हो सकता है।
प्र१: वो चीज़ होगी-ही-होगी, अपमानित महसूस करना आपका चुनाव होता है।
आचार्य: हाँ, और क्या। अर्नेस्ट हेमिंग्वे के इसीलिए इतने प्रसिद्ध शब्द हैं: ‘पेन इज इनएविटेबल, सफ्फेरिंग इज ऑप्शनल ’, (दर्द अपरिहार्य है, पीड़ा वैकल्पिक है) पीड़ा तो संसार में होने का हिस्सा है। आप यहाँ बैठे हो, शरीर बहुत बेहतर महसूस करेगा अगर यहाँ एयर कंडीशनर भी हो। अभी कई लोगों के थोड़ा पसीना छलक आया होगा, एयर कंडीशनर चल रहा हो तो नहीं होता। लेकिन वो आपको प्रभावित करे यह ज़रूरी नहीं है।
इसी रूम में बैठे हुए दो अलग-अलग लोग हो सकते हैं – एक जिसको उस छलके पसीने के कारण बार-बार यह ख्याल आए, “मुझे असुविधाजनक महसूस हो रहा है” और दस बातें और ख्याल में आ जाएँ। पसीने से आपको कोई और स्थिति याद आ सकती है। आपको पसीना था – वो विचार आपको कहीं और ले जा सकता है, वो कहीं और ले जा सकता है, जैसे मैं कह रहा था, कहानी पर कहानी पर कहानी पर कहानी खड़ी हो सकती है।
और एक दूसरा आदमी होगा उसको भी शायद उतना ही पसीना आ रहा होगा क्योंकि शरीर एक से ही हैं लेकिन उसके मन में कोई कहानी आगे नहीं बढ़ रही है। और यह काम संयोगवश नहीं होता कि यह तो रैंडमनेस है कि एक आदमी कितना सोच गया और दूसरा नहीं सोच पाया।
इस दूसरे आदमी ने सावधानी पूर्वक दो काम किए हैं:
१. कचरा इकट्ठा होने दिया नहीं है, या परिस्थितियाँ अनुकूल रही हैं जिसके कारण कम कचरा इकट्ठा हुआ है।
२. इसने सफ़ाई जम कर करी है।
उस सफ़ाई का ही परिणाम होता है जो हमारी रोज़ाना की ज़िंदगी होती है। आपका मन कैसा है उसका सूचक आपकी रोज़ाना की ज़िंदगी ही है। आप यहाँ बैठे हो और मन कहीं उड़ गया तो बस यही दिखाता है कि मन कैसा है, आपने पूरा जीवन कैसे जीया है। यह जानना है अगर कि कोई कैसा है, उसका पूरा इतिहास ही क्या है, क्योंकि जब आप कहते हैं कि कोई कैसा है तो उसके इतिहास की ही बात कर रहे होते हो, उसका मन कैसा है? मन इतिहास से ही निकल कर आ रहा है।
सब कुछ जान जाएँगे, ‘आदमी एक खुली किताब है’ कहा जाता है, उसका अर्थ यही होता है। उसकी एक हरकत देखो और सब बता सकते हो। उसका जो हार्डवेयर है, पूरा पता चल जाएगा कि कैसा है, क्या है।
अगर आपको कोई शांत दिखता है तो यह संयोग की घटना नहीं है, यह साधना से निकली हुई बात है। उसने काम करा है, उसने मेहनत करी है अपने ऊपर, शांति ऐसे नहीं टपक पड़ती। या फ़िर वो ज़बरदस्त रूप से सौभाग्यशाली रहा है कि उसकी कंडीशनिंग हुई ही नहीं। इन दोनों में से एक ही चीज़ हो सकती है। या तो उसको ऐसा वातावरण मिल गया है जहाँ उस पर धब्बे लगे ही नहीं या उसने ज़बरदस्त सफ़ाई करी है अपनी।
पहली बात की संभावना नगण्य है। ऐसा होता ही नहीं कि आप पर धब्बे ना लगें। संसार का मतलब ही है धब्बे, तो कंडीशनिंग तो होगी, हमेशा होगी।
प्र२: सर जब हम छात्रों से बात करते हैं तो बहुत सारे छात्र ऐसा क्यों कहते हैं कि उनके माँ-बाप और मित्र बहुत ज़्यादा सपोर्टिव हैं? वो देख नहीं पाते हैं कि उनकी कंडीशनिंग की गई है। वो सारे तर्क देते हैं कि उन्होंने हमारी फ़ीस दी है, हमारी पढ़ाई कराई है, और हमने जो दोस्त बनाए, वो भी अच्छे हैं।
आचार्य: जब यह स्थिति आ जाए जहाँ पर यह समझ में ही ना आए कि, "मैं इन्फ़्लुएनस्ड हूँ", वहाँ पर उनको थोड़ा रोक कर के, पाँच मिनट बताना पड़ेगा कि तुम कंडिशन्ड , इन्फ़्लुएनस्ड सिर्फ़ तभी नहीं हो जब कोई ज़ोर से दिखा करके, चिल्ला कर के तुमको गुलाम बनाए।
अब यह जो पंखा है, यह अपना बड़ा दोस्त है, इसका उदाहरण सब बता देता है। दो तरह से किसी से काम कराया जा सकता है। अगर मैं अभी तुमसे कहूँ कि यहाँ पर वैसे ही नाचो, गोल-गोल घूमो जैसे यह पंखा घूम रहा है, तो तुम कहोगे, "मुझसे ज़बरदस्ती करवाई जा रही है!" क्योंकि स्पष्ट दिख रहा है कि मैं तुमसे कुछ करवाना चाहता हूँ, कोई बाहरी प्रभाव है जो तुमसे काम करा रहा है।
लेकिन एक दूसरा तरीका है, वो यह है कि मैं तुमको पंखा ही बना दूँ। मैं तुमसे यह ना कहूँ कि पंखे की तरह घूमो, मैं तुमको पंखा बना ही दूँ। मैं तुम्हारे दिमाग में ऐसी ही एक मोटर फ़िट कर दूँ। मैं तुमको पंखा ही बना दूँ, तुम्हारे दिमाग में एक मोटर ही फ़िट कर दूँ, जैसे इस पंखे के दिमाग में लगी है और फ़िर तुमको लगेगा कि गोल-गोल घूमना दुनिया का सबसे स्वाभाविक काम है, इसके अलावा और है ही क्या दुनिया में? बटन दबेगा नहीं और तुम घूमना शुरू कर दोगे।
यह बड़ी खौफ़नाक चीज़ होती है। तो उसको समझाना पड़ेगा कि, "देखो जब बात दिखती है कि अधिरोपित है, थोपी गई है, तो हम सब विद्रोह करना चाहते हैं, पर अगर कंडीशनिंग इतनी सूक्ष्म हो कि वो पता ही ना चले कि कंडीशनिंग है, तो आप उससे विद्रोह भी नहीं कर पाते। विद्रोह का सवाल भी तो तब पैदा होता है न जब कुछ बचा रहे विद्रोह करने के लिए। किसी पंखे को आज तक विद्रोह करते हुए देखा है? “मैं गोल-गोल नहीं घूमूँगा, मुझे सीधी चाल चलनी है”? देखा है क्या? जब कंडीशनिंग इतनी पूरी हो जाए, इतनी कम्पलीट हो जाए कि कोई बचे ही ना जानने वाला कि वो कंडिशन्ड है, तो वहाँ बड़ी दिक्कत होनी है।
सौभाग्य से हमारे साथ कभी ऐसा हो नहीं सकता क्योंकि हम में हमेशा वो बचा रहेगा जो जान सकता है कि हम कंडिशन्ड हैं, उसी का नाम इंटेलिजेंस है, उसी का नाम आब्ज़र्वर है। तो ध्यान से देखोगे तो दिख जाएगा, फ़िर उनको उदाहरण देने पड़ेंगे दस तरीके के, वो उदाहरण हमें पता होने चाहिए।
एक आदमी ने दूसरे से पूछा “स्कर्ट पहनना पसंद करोगे?” दूसरा बोला “नहीं”। पहले ने कहा, “दुनिया में ऐसे देश हैं जहाँ पर अच्छे-अच्छे मर्द स्कर्ट पहनते हैं, और यह फक़्र की बात होती है कि हमने स्कर्ट पहन रखी है।” तुमको अभी स्कर्ट पहनने को कह दिया जाए तो यह तुम्हारे लिए बड़ी शर्मिंदिगी की बात हो जाएगी कि, "हम को स्कर्ट पहना कर घुमा दिया!" पर वहाँ स्कर्ट पहन कर घूम रहे हैं।
इस बात को समझो न, तुम जब छोटे से थे, तभी से तुम देख रहे हो कि तुम्हारी बहन को स्कर्ट पहनाई जा रही है और तुम पैंट पहन रहे हो और यह एक स्वाभाविक बात की तरह तुम्हारे मन में प्रवेश कराई गई है। तुमको यह लगा ही नहीं कि तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती की जा रही है, तुमको यह ही लगा कि ऐसा तो होता ही है। जैसे सूरज बड़ा और चाँद छोटा होता है, ठीक वैसे ही लड़की स्कर्ट और लड़का पैंट पहनता है। तुमको लगा, यह तो दुनिया का कोई नियम ही है, कोई मूल-भूत बात है। इसमें मूल-भूत बात कुछ नहीं है। धीरे-धीरे तुम्हारे दिमाग में इसको भर दिया गया था।
प्र२: सबसे घटिया यहाँ पर सवाल होता है, “ज़बरदस्ती किया था तो क्या स्कर्ट पहनना शुरू कर दें?” मतलब बात कुछ और कही जा रही होती है मगर…
आचार्य: तो इसका जवाब यही है कि हाँ तुम पहनना शुरू भी कर दोगे, क्योंकि जो आदमी दूसरों के कहने पर पैंट डाल सकता है, वो किसी और के कहने पर स्कर्ट भी डाल सकता है। लेकिन तुम चाहे पैंट पहनो या चाहे स्कर्ट, रहोगे फ़िर भी नंगे ही, क्योंकि ना तुमने पैंट अपनी मर्ज़ी से पहनी थी, अपनी समझ से पहनी थी, ना तुमने स्कर्ट अपनी समझ से पहनी है।
आओ चलो पैंट को समझते हैं। बताओ मुझे कि यह आदमी का शरीर है, यह उसकी शरीर-रचना है, मुझे बताओ, पैंट जैसी चीज़ क्यों होनी चाहिए? और दुनिया भर में हज़ार और आवरण होते हैं जो पहने जा सकते हैं कमर से नीचे, हम वो क्यों नहीं पहन सकते? पैंट ही क्यों?
अच्छा बताओ यह जो शर्ट है, इसके नीचे पैजामा क्यों नहीं पहन सकते? अच्छा हँसो मत, अभी तुम सोच रहे हो, तुमको अजीब सा लग रहा है कि शर्ट के नीचे पैजामा अजीब लगेगा। तुम्हें अजीब ही इसलिए लग रहा है क्योंकि तुमने किसी को पहने देखा नहीं। अगर कोई ऐसा देश हो जहाँ लोग बचपन से ही शर्ट के साथ पैजामा पहनते हों तो तुमको बहुत स्वाभाविक सी बात लगेगी कि शर्ट के साथ पैजामा।
अब दक्षिण भारत में शर्ट के नीचे पैंट कम पहनी जाती है और लुंगी ज़्यादा। अब यह तुम्हारे लिए अजीब सी बात हो गई कि यह अच्छी फॉर्मल शर्ट के नीचे कोई पैंट की जगह लुंगी कैसे पहन सकता है?
प्र३: स्कॉटलैंड में बहुत प्राइड के साथ, फ़क़्र के साथ, स्कर्ट पहनते हैं, उनकी राष्ट्रीय ड्रेस है।
आचार्य: समझ रहे हो? तो सिर्फ़ यही चीज़ कि कपड़े कितने तरीके के होते हैं, उसको तुम देखोगे तो तुम हैरान रह जाओगे। तुमने कभी यह सोचने की कोशिश करी कि शर्ट का यही रूप क्यों होना चाहिए? और तुम उसको पहने जाते हो, पहने जाते हो।
दो-चार लोगों को यूँ ही उठा कर पूछो कि तुमने कभी यह जानना चाहा कि शर्ट में कॉलर होना ही क्यों चाहिए? पर हमको यह लगता है कि बहुत प्राकृतिक सी बात है। उसमे प्राकृतिक कुछ नहीं है, तुमको सिर्फ़ आदत लग गई है। और सोचो अगर ऐसी चीज़ में आदत लग सकती है जो तुम्हारे ठीक सामने है, जिसपर तुम कभी भी सवाल उठा सकते हो, तो उन चीज़ों की आदत कितनी ज़्यादा लगेगी जिन पर सवाल उठाना ही मना है?
तुम बचपन से ही मुक्त थे, तुम किसी से कभी भी कह सकते थे कि, "शर्ट में कॉलर नहीं चाहिए, मुझे बिना कॉलर की शर्ट बना करके दो", पर तुमने कभी कहा नहीं। और भारत में कॉलर जो है, वो एक बहुत न्यूसेंस चीज़ ही है। आपको कॉलर चाहिए नहीं पर आप फ़िर भी कॉलर पहन रहे हो। एक गर्म देश में, एक उमस वाले देश में, कॉलर सिर्फ़ आपको परेशान करेगा, और पसीना जमा होगा यहाँ गर्दन पर। कॉलर से इतना ही होने वाला है। आपको कोई फायदा नहीं दे सकता है कॉलर * । ठंडे देशों में वो आपको बचाएगा। गर्म देशों में उससे आपको खुजली और पैदा हो जाएगी गर्दन के पीछे और कुपित और महसूस करोगे कि हर समय * कॉलर लगा हुआ है एक।
लेकिन आप सवाल नहीं करते, जबकि कोई इसमें धार्मिक बात भी नहीं है। इसमें कोई बड़ा विद्रोह नहीं करना है। तो सोचो जिन बातों में विद्रोह करना है, वहाँ तो तुम सवाल बिलकुल ही नहीं कर पाओगे। जहाँ सवाल करना इतना आसान था, वहाँ भी नहीं कर पाए क्योंकि वो बात बहुत सामान्य लगने लग गई, तो जहाँ बात धार्मिक किस्म की हो, थोड़ा सेंसिटिव (संवेदनशील) किस्म की हो, तो वहाँ पर कैसे सवाल उठा पाए होगे, नहीं उठा पाए होगे न?
तो जब तुम कहते हो, “नहीं सब सपोर्टिव हैं”, तो तुम बस इतना ही कह रहे हो कि तुम्हारी और उनकी सोच एक सी है। जब तुम कहते हो “मेरे दोस्त सपोर्टिव रहे हैं” उस ‘सपोर्टिव ’ से अर्थ तुम्हारा बस इतना है कि वो भी वही सोचते हैं जो तुम सोचते हो और इसी को कबीर ने कहा है “अँधा अँधे ठा लिया।” एक अँधा दूसरे अँधे को सपोर्ट कर रहा है, अब यह सपोर्ट है या क्या है? वो भी कंडिशन्ड , तुम भी कंडिशन्ड , तुम्हारे आपसी सपोर्ट का कोई अर्थ बनता है? यह सपोर्ट तो नहीं हो सकता न?
अगर एक चूहेदानी हो, उसमें चार चूहे हों, तो वो आपस में एक दूसरे को क्या सपोर्ट करते होंगे? क्या कर सकते हैं सपोर्ट ? और बंद हैं, हमेशा से बंद हैं, क्या सपोर्ट करेंगे एक दूसरे को? उनको सपोर्ट भी तो कोई ऐसा ही करेगा न जो उनसे थोड़ा अलग हो, जो उनकी दुनिया से बाहर का हो।
उनकी दुनिया बस इतनी सी है, उनको अगर उससे बाहर भी निकलना है, अपनी चूहेदानी से, उनको अगर बाहर भी निकलना है तो उनको कोई बाहर वाला चाहिए और बाहर वाले से उनका कोई परिचय ही नहीं है क्योंकि उनको तो बस वो चार लोग पता हैं जो उनके पिंजरे के ही अंदर हैं। अब पिंजरे के अंदर के चार चूहे कुछ भी कर लें, क्रांति नहीं कर सकते। यूनियनबाज़ी कर सकते है। नारे लगा सकते हैं, पर पिंजरे से बाहर तो नहीं आ पाएँगे? कितना भी ज़ोर लगा लें अंदर के चार चूहे, मिलकर के पिंजरे से बाहर तो नहीं आ पाएँगे।
प्र२: सर उनके लिए तो वह पिंजरे से बाहर ही हैं।
आचार्य: ठीक। उनके लिए वो पिंजरे से बाहर ही हैं, बस यही है। और यही कारण है कि वो सदा अंदर रहेंगे। जो अंदर होते हैं वो यह मान लें कि “मैं बाहर हूँ”, उनकी सम्भावना बड़ी कम हो जाती है बाहर आने की। इसीलिए यह जो पूरा आत्म-बोध का आयोजन है, यह हमेशा से कुछ लोगों के लिए ही रहा है जिन्हें सबसे पहले यह दिखाई दे जाए कि वो चूहे हैं जो बंद हैं। जिनको अभी यही भ्रम हो कि वो तो मुक्त हैं, उनकी मुक्ति नहीं हो सकती।
तो बहुत हमब्लिंग चीज़ है। पहले तो यह देखना पड़ता है साफ़-साफ और उस पीड़ा से गुज़रना होता है कि “मैं चूहा हूँ और मैं पिंजरे में बंद हूँ”, उसके बाद ही उस पिंजरे से बाहर आने का कोई रास्ता सम्भव हो पाता है। यह काम कष्ट देता है, अहंकार को चोट लगती है।
कृष्णमूर्ति जब कहते हैं न “फर्स्ट स्टेप इज़ द लास्ट स्टेप ” (पहला कदम ही आखिरी कदम है), पहला ही कदम अगर ले लिया ठीक-ठीक, “मैं चूहा हूँ, जो पिंजरे में बंद है”, तो अब लास्ट स्टेप दूर नहीं है। उसी को “फर्स्ट एंड दा लास्ट फ्रीडम ” (पहली और आखिरी आज़ादी) भी बोलते हैं। बहुत आज़ादी चाहिए यह बशर्त कहने के लिए कि, "मैं एक चूहा हूँ जो बंद है।"
“आई ऍम ए रैट इन अ ट्रैप”, वन्स यू हैव सीन इट, इट्स ए वैरी हमब्लिंग थिंग ”। दिमाग भन्ना जाएगा और मन यही करेगा कि इस बात को ठुकरा दो, स्वीकार ही मत करो। “मैं स्वीकार ना करूँ तो शायद मैं चूहा ही ना रहूँ?”, मन का विशेष तर्क है यह, “मैं अगर स्वीकार ही ना करूँ तो मैं चूहा ही नहीं रहूँगा।” बड़ी ईमानदारी चाहिए होती है, बड़ी मज़बूती चाहिए होती है, यह स्वीकार करने के लिए, “मैं चूहा हूँ और मैं बंद हूँ।” देयर इज़ दा फर्स्ट फ्रीडम, एंड देन दा लास्ट फ्रीडम इज़ नॉट फार अवे, इन्फेक्ट इट्स वैरी क्लोज़ (आरम्भिक आज़ादी जब आती है, तो अंतिम ज़्यादा दूर नहीं होती, बल्कि वो बहुत पास होती है)।
प्र२: सर, अगर चूहे को पता भी चल गया कि वो पिंजरे में है, और वो बाहर निकलने की कोशिश करे तो उसके ऊपर बहुत सारी बेट (प्रलोभन) फेंकी जाती हैं अंदर से, ताकि वो कभी बाहर निकल ही ना पाए।
आचार्य: समझो तो, अंदर वाले चूहे किसको बेट फेंक रहे हैं? एक चूहे को।
प्र४: हाँ, चूहे को।
आचार्य: उस बेट से आकर्षित कौन होगा?
प्र४: आकर्षित होना तो हमारे हाथ में ही होगा।
आचार्य: चूहा ही तो आकर्षित होगा।
प्र४: हाँ, चूहा ही होगा।
आचार्य: और अगर तुम जान जाओ कि तुम चूहे तो हो नहीं, तो वो बेट तुम्हें आकर्षित करेगी?
प्र४: नहीं, बिलकुल नहीं।
आचार्य: वो बेट भी तुम्हें तब तक आकर्षित कर रही है, जब तक तुमने अपने आप को चूहा बना रखा है।
प्र३: वैसे जो चूहे ट्रैप्ड (बंदी) हैं, वो सब अगर मिल कर कोशिश करें तो वह बाहर निकल सकते हैं।
आचार्य: नहीं, बिलकुल भी नहीं, बिलकुल भी नहीं। इसको समझिएगा ज़रा, जो चूहा है, जो ट्रैप (जाल) है, जो बेट है, उसको समझिए क्या है पूरा मामला। आप अंदर बंद ही तभी तक हो जब तक आपने अपने आप को चूहा मान रखा है, क्योंकि वो जो ट्रैप है वो सिर्फ़ चूहों को क़ैद कर सकता है। वो जो ट्रैप है, जो पिंजड़ा है, जो चूहेदान है, वो सिर्फ़ चूहों को ही फँसाने के लिए बनी है, वो सिर्फ़ चूहों को ही फँसाने के लिए बनी है। उसमें आपको फँसाए रखने के लिए आपको जितने लालच दिए जा रहे हैं वो सारे लालच सिर्फ़ चूहों को आकर्षित कर सकते हैं। जिस क्षण आपने पहचान लिया कि, "मैं कौन हूँ, चूहा होना मेरा स्वभाव नहीं", उस क्षण वो बेट आपको आकर्षित ही नहीं करेगा।
प्र२: बेट कुछ और हो, बेट यह हो कि “तुम बाहर निकलो, मैं सुसाइड (आत्महत्या) कर लूँगा। मैं मज़ाक नहीं कर रहा!”
आचार्य: हाँ, बिलकुल समझ रहा हूँ, पर यह जो बात है यह किस को रोक सकती है?
प्र३: जो उसके जैसा ही हो।
आचार्य: याद रखना कि यह जो द्वैत के दो सिरे होते हैं, दिखते विपरीत हैं, होते एक हैं। धमकाने वाला और धमक जाने वाले में कोई बहुत अंतर नहीं हो सकता। यह विपरीत दिख रहे हैं पर एक ही हैं। डराने वाले और डर जाने वाले में कोई विशेष अंतर नहीं होता है।
एक आदमी हिंसा करने आता है, आप डर जाते हो। हिंसा जो कर रहा है, लगता है कि वो अपराधी है और जो डर रहा है, वो बेचारा है। जबकि सच यह है कि डर जब बाहर की ओर बहता है तो हिंसा के रूप में दिखाई देता है और हिंसा जब अपने ही मन पर छा जाती है तो वो डर के रूप में दिखाई देती है।
आप डरे हो, यही डर अगर बाहर की ओर चैनलाइज़ हो जाए तो हिंसा का रूप ले लेगा, और आपकी ही हिंसा जब आपके ही मन को सताने लग जाए तो वह डर कहलाती है। हिंसा और डर एक ही चीज़ हैं।
इसी तरीके से धमकाने वाला और उस धमकी से डर जाने वाला बिलकुल एक ही मिट्टी के बने हुए हैं। उनका एक्सप्रेशन बस अलग-अलग है। एक अभी धमका रहा है, एक धमक जा रहा है, थोड़ी देर में वो किरदार बदल भी लेंगे, कोई बड़ी बात नहीं है।
बात यह नहीं है कि मैं द्वैत के एक सिरे से दूसरे पर कूद जाऊँ, बात यह है कि मैं दोनों सिरों के आगे कूद जाऊँ—वही बियॉन्डनेस है, उसी को ट्रानसेनडेंस कह रहे थे।
मुझे कोई कैसे डरा सकता है या लालच दे सकता है अगर मेरे मन में डरने के या लालच के बीज और उसके लिए ज़मीन मौजूद ही ना हो? कोई मुझे कैसे डरा पाएगा अगर डरने के लिए मैं तैयार ही ना हूँ, उत्सुक ना हूँ? कोई मुझे लालच कैसे दे पाएगा अगर मैं लालची नहीं हूँ? आप बताइए कोई मुझे लालच दे कैसे पाएगा अगर मैं लालची नहीं हूँ?
हमें यह बहुत ध्यान से देखना होगा। इसको आप सूत्र की तरह जीवन में इस्तेमाल कर सकते हैं। जब भी कभी कोई बहुत हावी हो रहा हो आपके ऊपर, कोई परिस्तिथि, कोई व्यक्ति, या कुछ भी, कोई विचार, तो उससे लड़िए मत, अपने मन को तलाशिए, उसमें ऐसा क्या है जिसका उपयोग करके वो व्यक्ति आपको नचा रहा है? अगर कोई आप पर हावी हो रहा है तो अपने मन को तलाशिए कि उसमें ऐसा क्या है जिसका उपयोग करके वह व्यक्ति आपको नचा रहा है।
कोई बार-बार आपके ऊपर ऐसे फंदा डालता है और आपको फँसा लेता है, तो निश्चित रूप से कुछ हुक है आपके पास जिनमें वो फंदा फँस जा रहा है। आप उन फंदों से लड़ेंगे या उन हुकों को ही हटा देना चाहेंगे?
प्र: (एक स्वर में) हुक।
आचार्य: अगर इस दीवार पर खूँटियाँ ना हों तो आप इस पर अपनी शर्ट टांगेंगे कैसे? अगर कोई बार-बार आ कर के इस दीवार पर अपने गंदे कपड़े टाँग जा रहा है तो इसका अर्थ क्या है? इस दीवार पर खूँटियाँ मौजूद हैं। अगर चाहते हो इस दीवार पर कोई आ कर अपने गंदे कपड़े ना टाँगे तो क्या करना होगा? लोगों से लड़ूँ? पूरी दुनिया से लड़ूँ? और खूँटियाँ मौजूद हों तो किसी को भी लालच हो सकता है, “लाओ यार टाँग ही दो, मस्त दीवार है, खूँटी है, लाओ इस पर टाँग ही दो।” खूँटियाँ मौजूद हैं तो कोई-न-कोई आ ही जाएगा गंदगी मचाने के लिए। दुनिया भर से लड़ूँ? नोटिस लगाऊँ: “गधे के पूत यहाँ न…” वाला? या खूँटियाँ ही हटा दूँ?
प्र३: खूँटियाँ ही हटा दूँ।
आचार्य: खूँटियाँ हटा दू न। हमारे पास वो सारी खूँटियाँ मौजूद हैं जिसका लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। उनको हटा दीजिए, कोई आपका इस्तेमाल नहीं कर पाएगा। निश्चित रूप से आपको किसी बात का लालच होगा जिसका उपयोग करके कोई आप पर हावी होता है। निश्चित रूप से आपको कोई लालच है और वो सामने वाला जानता है कि आपको क्या लालच है। आप वो लालच हटा दीजिए, वो व्यक्ति आपके जीवन पर हावी नहीं हो पाएगा, कोई परिस्थिति हावी नहीं हो पाएगी, समाज में, संसार में, कोई बड़े-से-बड़ा आप पर हावी नहीं हो पाएगा।
हम जो बार-बार अपनी असमर्थता का रोना रोते हैं, वह कुछ नहीं है, हम एक बड़ा दोहरा खेल खेलना चाहते हैं। हम कहते हैं, "हमारा लालच भी बरक़रार रहे और हम ग़ुलाम भी ना बनें।" यह अब नियमों के विपरीत बात कर रहे हैं आप। आप चाहते हैं आपका लालच भी बरक़रार रहे और आपको ग़ुलाम भी ना बनना पड़े। जहाँ लालच है, वहाँ ग़ुलामी है। जिसको ग़ुलामी छोड़नी है, उसे लालच छोड़ना होगा। अगर आप बार-बार पा रहे हैं कि आप ग़ुलाम बन जा रहे हैं, तो देखिए कि क्या-क्या लालच है, उस लालच को हटा दीजिए और ग़ुलामी को हटा दिया आपने।
प्र२: तो वो जो खूँटी है, एक इंसान का बेटा, बेटी या पत्नी बन जा रहे हैं?
आचार्य: ना, ना, वो तो एक बाहरी चीज़ है। चलो पैदा हुए हो तो किसी के तो रिलेटिव (रिश्तेदार) कहलाओगे ही। बाहर अगर आपको एक नाम दे दिया गया तो कोई बड़ी बात नहीं हो गई। हम सब यहाँ अपना-अपना नाम तो ले कर बैठे ही हैं। नाम की उपयोगिता है, एक-दूसरे से बात करने में उस नाम के साथ क्या लालच जुड़ा हुआ है, वो देखो न, वहाँ कोई लालच जुड़ा है क्या?
प्र४: सर नाम तो बस एक रिकॉग्निशन (पहचान) बताता है।
आचार्य: हाँ, अगर वो सिर्फ़ रिकॉग्निशन बताए तो कोई दिक्कत नहीं होगी, फ़िर उसकी उपयोगिता बस है। पर उसके साथ कुछ और भी जुड़ गया है, क्या? "बेटा होना क्या है मेरे लिए? पिता की संपत्ति का वारिस होना तो नहीं है? पिता के घर में रहना तो नहीं है कहीं? पिता की सहूलियतों पर कब्ज़ा जमाना तो नहीं है कहीं? अगर बेटे होने का यह अर्थ है मेरे लिए तो अब पिता मुझ पर हावी हैं", इसमें ताज्जुब क्या है? हो कर रहेगा ऐसा। जिस बेटे की नज़र पिता द्वारा दी जा रही सहूलियतों पर हो, उस बेटे पर पिता हावी होगा ही। पिता का इसमें कोई कसूर नहीं, आपने खूँटियाँ तैयार कर रखी हैं कि “आओ और मुझ पर हावी हो जाओ।”