जब प्यार किया तो डरना क्या

Acharya Prashant

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जब प्यार किया तो डरना क्या

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। इस गीत में प्यार का मतलब प्रतीत होता है किसी व्यक्ति के प्रति गहरा आकर्षण। मैंने खुद की ज़िन्दगी में भी ये महसूस किया है कि किन्हीं व्यक्तियों को देखते या सुनते ही अचानक एक जुड़ाव अनुभव होता है और बाद में समय के साथ यह आकर्षण और जुड़ाव इतना ताक़तवर हो जाता है कि हम जान देने को भी तैयार हो जाते हैं। और यह भी मन करता है कि खुलेआम ऐलान कर दिया जाए कि मुझे ये व्यक्ति बहुत प्रिय है।

क्या यह प्यार का अनुभव वास्तविक प्यार से अलग है?

आचार्य प्रशांत: राहुल (प्रश्नकर्ता), मन आकर्षित तो किसी दिशा को होगा ही। पर दिशाएँ दो हो सकती हैं क्योंकि मन के ऊपर दो विरोधी ताक़तें काम कर रही हैं। या ये कह लो कि मन दो विभिन्न ताक़तों को अपने ऊपर अनुभव करता है।

जो पहली ताक़त मन के ऊपर काम करती है वो उसकी जीव-वृत्ती या मृत्यु-ग्रंथि की है। समय ने आदमी का, जीव का निर्माण किया है। प्राकृतिक विकास की एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़र करके जीव उस रूप में आया है जिस रूप में तुम उसे आज देखते हो। समय ने उसका निर्माण किया है इसीलिए वो कहता है कि समय ही मेरा साथी है। वो समय के प्रति उपकृत अनुभव करता है। वो समय का एहसान मानता है। वो कहता है, "मुझे जो मिला, समय से मिला।" और उसकी बात भी ठीक है। तुम्हें नाक, कान, हाथ, बाल, जिस्म पूरा, अपनी पूरी व्यवस्था समय से ही तो मिली है। विकास की प्राकृतिक प्रक्रिया से ही तो मिली है।

तो मन की बड़ी चाहत रहती है कि समय का ही पालन किया जाए। समय माने बदलाव। समय माने गत और आगत। तो मन खींचा रहता है अतीत की ओर और भविष्य की ओर। अतीत से वो आया है और उसकी इच्छा है कि भविष्य की ओर चला जाए। अतीत का वो अनुसरण करना चाहता है क्योंकि उसे अतीत ने एक चीज़ तो दी ही है। क्या?

उसकी वर्तमान स्तिथि।

वो कहता है, "अतीत ठीक ही था।" क्यों ठीक था? क्योंकि अतीत ठीक ना होता तो हम कहाँ से आते?

जब हम अतीत की ही प्रक्रियाओं का परिणाम हैं तो हमारा होना ही ये साबित करता है कि अतीत अच्छा था। अतीत अच्छा था तभी तो हम आए। तो मन फ़िर भविष्य का निर्माण करना चाहता है और वैसा ही भविष्य चाहता है जैसा अतीत रहा है। ऊपर-ऊपर से भिन्न, भीतर-भीतर बिल्कुल वैसा जैसा पुराना अतीत रहा है।

तो एक तो ये आकर्षण है मन को कि समय में उसकी सत्ता कायम रहे। शरीर बचा रहे, मन बचा रहे और जब ये शरीर नष्ट भी हो तो अपने पीछे अनेक शरीरों को छोड़ जाए।

लेकिन जीव केवल समयगत विकासधारा का परिणाम नहीं है। इंसान के पास बस हाड़-मांस और मन ही नहीं हैं। इंसान इनसे आगे भी कुछ और है। इंसान की जो असलियत है, उसी को हासिल करने के लिए मन व्याकुल रहता है। और जब तक वो उपलब्ध ना हो जाए तो तन और मन मौजूद होते हुए भी अपूर्ण रहते हैं।

मन को तन दे दो, मन को मन दे दो, मन बहुत समय तक संतुष्ट नहीं रह पाएगा। मन को कुछ और भी चाहिए। इससे हमें पता चलता है कि मन को दूसरा आकर्षण किसका है। मन को दूसरा आकर्षण उसका है जो अचल है। क्योंकि मन तो लगातार चल रहा है। जो चल रहा है उसको और चलती हुई चीज़ें क्या तृप्ति देंगे?

मन कुछ ऐसा चाहता है जो स्वयं भी थमा हुआ हो और मन को भी थाम दे। तो आदमी बटा हुआ है। आदमी की हालत बड़ी दयनीय है। एक ओर तो उसको अपने जिस्म का, अपनी सहूलियतों का, अपनी सुविधाओं का, अपनी धारणाओं और मान्यताओं का, अर्थात अपने तन और मन का खयाल रखना है और किसी तरीक़े से ये सुनिश्चित करना है कि तन को और मन को क्षति ना पहुँचे। शरीर सुरक्षित रहे और मन में जो मान्यताएँ, धारणाएँ, विचारधाराएँ हैं उनको भी चोट ना लगे। तो एक ओर तो मन की कोशिश रहती है कुछ ऐसा इंतज़ाम करने की कि चोट ना लगे। एक खिंचाव ये है। तो इस खिंचाव के चलते आप उन जगहों की ओर जाएँगे और उन लोगों की ओर जाएँगे जो आपको सुरक्षा देते हों और जो आपको चोट ना देते हो।

और दूसरी ओर मन की माँग है तृप्ति की, अचलता की। कुछ ऐसा पाने की जो इस दुनिया का है ही नहीं। इस दुनिया में तो जो कुछ है वो तो समय का है। कुछ ऐसा पाने की जो आँखों से दिखाई ना देता हो, कानों से सुनाई ना देता हो। कुछ ऐसा पाने की जो बदलता ना हो, चलता ना हो।

अब दोनों चीज़ें चाहिए मन को। कुछ ऐसा चाहिए जो उसको बनाए रखें और कुछ ऐसा चाहिए जो उसको तोड़-फोड़ के, घोल के, लीन करके मिटा ही दे। और मन दोनों को मानता है। इसीलिए आदमी बिलकुल दो फांक में बटा हुआ है।

दो फांक में बटा हुआ है। इधर को चलता है तो उसकी याद आती है, उधर को चलता है तो इसकी याद आती है। तन, मन को बचाता है तो आत्मा से हाथ धोता है और सत्य की ओर ही चलता है तो सुरक्षा छूटती है। दोनों ही हालत में बेचारा मारा जाता है।

अब सुनने से ऐसा लग रहा होगा कि जैसे आदमी तो फँसा। जैसे आदमी के लिए मुक्ति का कोई उपाय ही नहीं। उपाय है। ये दो तरह के आकर्षण हैं, दो दिशाएँ हैं पर इन दोनों दिशाओं में एक मूलभूत अंतर है। तन-मन की दिशा जब तुम जाओगे तो वो इतने छोटे हैं कि इस दिशा में तन और मन ही मिलेंगे, आत्मा नहीं मिलेगी। शांति और मुक्ति नहीं मिलेगी।

लेकिन जब तुम सत्य की और तृप्ति की और आत्मा की दिशा जाते हो तो उधर कुछ इतना बड़ा है कि उससे तन और मन भी तृप्त हो जाते हैं। उस तरफ़ को चले तो थे तुम अपनी सुरक्षा को नज़रअंदाज़ करके। पर जो उधर को चल देते हैं उन्हें पता चलता है कि उन्हें अब सुरक्षा की ज़रूरत ही नहीं है।

समझना बात को।

एक तरफ़ है सुरक्षा और दूसरी तरफ़ को तुम चलते हो अपनी सुरक्षा को नज़रअंदाज़ करके, अपनी सुरक्षा की उपेक्षा करके। लेकिन जो दूसरी तरफ़ चलते हैं, अपनी सुरक्षा की उपेक्षा कर देते हैं, उन्हें पता चलता है कि वो असुरक्षित नहीं हो गए। वो वहाँ पहुँच गए जहाँ अब उनके लिए सुरक्षा महत्व ही नहीं रखती।

इन दोनों बातों में अंतर समझना।

असुरक्षित होने का अर्थ होता है कि सुरक्षा चाहिए पर मिल नहीं रही। तो तुम कहते हो, "मैं असुरक्षित हूँ।" जब तुम्हें सुरक्षा चाहिए पर उपलब्ध नहीं हो रही तो तुम कहते हो कि तुम "असुरक्षित हो।" पर जब तुम आत्मा की दिशा चल लेते हो तब तुम कहते हो, "सुरक्षा चाहिए ही नहीं।" अब तुम असुरक्षित नहीं हो, अब तुम सुरक्षातीत हो। अब तुम सुरक्षा के पार चले गए हो। अब सुरक्षा तुम्हारे लिए छोटी बात हो गई है।

तो इन दोनों दिशाओं में से एक दिशा ऐसी है जहाँ वो तो मिलता ही है जिसकी ओर चले, वो भी मिल जाता है जिसकी ओर नहीं चले, जिसके विपरीत चले।

समझना।

तन-मन की ओर चलोगे तो तन-मन ही मिलेगा, आत्मा उधर मिलेगी नहीं। और तन-मन को ज़रा पीछे रख कर, ज़रा बगल में रख कर सत्य की ओर चलोगे तो सत्य तो मिलेगा ही मिलेगा, तन-मन को भी तृप्ति मिल जाएगी। या ये कह लो कि तन-मन की तृप्ति फ़िर छोटी बात हो जाएगी, नगण्य हो जाएगी।

अब तुम देख लो कि दोनों में से किस दिशा जाना है। और इसी बात से तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी मिल जाना चाहिए, राहुल (प्रश्नकर्ता)। आकर्षण तुम्हें हो रहा है, देख लो कि जिसके प्रति आकर्षण हो रहा है वो इस दिशा खड़ा है या उस दिशा खड़ा है। आम तौर पर, निन्यानवे प्रतिशत मामलों में हमें आकर्षण तन और मन के ही होते हैं।

हाँ, कोई ऐसा मिल गया हो तुमको जिसके प्रति बढ़ते हुए मन पीछे छूट जाता हो, शरीर की सुविधाएँ और सुरक्षाएँ पीछे छूट जाती हों और बस एक शून्य, खाली, निर्भार चैन बचता हो तुम्हारे पास तो समझ लेना कि किस्मत वाले हो। बढ़े जाओ।

जब भी कभी लगे कि प्रेम हो रहा है तो इसी कसौटी पर कस लेना। क्या मिल रहा है वहाँ पर? किसलिए खिंचा चला जा रहा हूँ? तन की उत्तेजना की खातिर? जिस्म की भूख की खातिर? मन की सुरक्षा की खातिर? या उधर कुछ ऐसा है जो किसी बहुत-बहुत गहरी अपूर्णता को पूर्णता देता है। उधर कुछ ऐसा है जो मन से और शरीर से कहीं ज़्यादा गहरा है। इस बात को ईमानदारी से परख लेना।

जिसकी ओर बढ़ रहे हो अगर उससे तुम्हारा नाता दैहिक या वैचारिक मात्र है तो तुम अपने लिए नर्क खड़ा कर रहे हो। और जिसकी ओर बढ़ रहे हो वो ऐसा है कि तुम्हें मन की असुरक्षाओं और तन के झंझटों से आज़ादी देता हो तो कल्याण हो तुम्हारा, बढ़े जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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