जब जीवन निरर्थक और लक्ष्यहीन दिखे

Acharya Prashant

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जब जीवन निरर्थक और लक्ष्यहीन दिखे

प्रश्नकर्ता: कभी-कभी ऐसे हालात आ रहे हैं लगता है कि जो भी मैं इस वक्त कर रहा हूँ, जैसे कॉलेज जाना इत्यादि, यह सभी निरर्थक है, और ऐसा एहसास मुझे अक्सर इसलिए आता है क्योंकि मैं देखता हूँ कि जीवन की दौड़ में सभी मुझसे आगे निकल चुके हैं और मैं ही पीछे रह गया हूँ, हालाँकि मुझे यह नहीं मालूम कि मैं सचमुच कहाँ खड़ा हूँ और मेरे माता-पिता मुझे कहाँ ले जाना चाह रहे हैं।

आचार्य प्रशांत: तुम्हें सब कुछ निरर्थक कहाँ लग रहा है? तुम्हें दूसरों का आगे निकल जाना अर्थपूर्ण लग रहा है, अपना पीछे रह जाना अर्थपूर्ण लग रहा है, दोस्तों, माँ-बाप इत्यादि की नज़रों में गिरना या बने रहना महत्वपूर्ण लग रहा है। अब समस्या यही है, तुमने ऐसी चीज़ों को अर्थपूर्ण मान लिया जिनमें कोई वास्तव में अर्थ था नहीं। उसका अंजाम यह हुआ है कि आज तुम्हें कहना पड़ रहा है कि जीवन निरर्थक है। जीवन निरर्थक नहीं है, तुमने उसमें गलत अर्थ भर दिए हैं। गलत अर्थों को निरर्थ नहीं कह सकते। अर्थ तो तुमने खूब जोड़े हुए हैं अन्यथा तुममें इतनी उदासी वगैरह न होती।

इस बात का तुम्हारे लिए बड़ा अर्थ है कि कोई तुमसे आगे निकल गया। इस बात का तुम्हारे लिए बड़ा अर्थ है कि तुम माँ-बाप की उम्मीदें वगैरह पूरी कर पाओ। तो अर्थ तो तुम अभी पचास चीज़ों में देख रहे हो, बस जिन सब चीज़ों में अर्थ देख रहे हो वहाँ कोई अर्थ है नहीं। जहाँ अर्थ वास्तव में है उसकी ओर तुम्हारी कोई नज़र नहीं। तो इस गलती की सजा मिल रही है, मायूसी के तौर पर, निराशा के तौर पर।

यह मत बताओ कि दूसरे तुमसे आगे निकल गए या नहीं निकल गए। तुम बताओ कि तुम अपने भीतर की वेदना को, अपनी कहानी और अपनी सच्चाई को अभिव्यक्ति दे पाए या नहीं दे पाए। यह बात ग़ौरतलब है, इसमें अर्थ है। तुम्हारा जन्म दूसरों से अपनी तुलना करने के लिए नहीं हुआ है। तुम्हारा जन्म अपनी सच्चाई को अभिव्यक्ति देने के लिए हुआ है। और वह बिलकुल निजी है, कोई तुलना की बात नहीं है।

गलत दिशा में जा रहे हो इसलिए मंज़िल की जगह मायूसी मिल रही है। अर्थ बिलकुल रखो, अर्थ बिलकुल ढूँढो, पर वहाँ जहाँ वास्तव में वह है। अर्थ माने लाभ। कोई वस्तु निरर्थक तभी है जब उससे कोई लाभ ना हो। जहाँ तुम्हारे लिए लाभ है, उधर आगे बढ़ो न। कहाँ है तुम्हारे लिए लाभ? उसके लिए तुम्हें पता होना चाहिए कि तुम्हारी बीमारी क्या है, तुम्हारी कमज़ोरी और कमी क्या है। जहाँ कमी होती है वहीं तो लाभ चाहिए होता है। जहाँ कमज़ोरी होती है वहीं तो बल चाहिए होता है। तो क्या है फिर वह चीज़ जो तुम्हारे लिए अर्थवान है? वह जो तुम्हें संतुष्टि दे दे, वह जो तुम्हारे तपते हुए मानस को शीतल कर दे। और तुम दूसरों जैसे नहीं हो। कोई भी व्यक्ति दूसरों जैसा नहीं होता। एक के व्यक्तित्व की जो माँग होती है वह दूसरे के व्यक्तित्व की माँग से कभी पूरी तरह मेल नहीं खा सकती। एक फूल की, एक फल की, एक वृक्ष की, एक नदी की जो अभिव्यक्ति होती है वह कभी दूसरे फल-फूल, वृक्ष और नदी की अभिव्यक्ति से मेल नहीं खाती। तुम्हें अपनी अभिव्यक्ति करनी पड़ेगी। तुम्हें अपना गीत गाना पड़ेगा। वहाँ है सार्थकता। तुम्हें अपने शब्दों और अपने स्वर और अपने सुर में परमात्मा को पुकारना पड़ेगा। और तुम्हारे शब्दों और स्वर और सूर की, दूसरों की गीतों से तुलना नहीं की जा सकती। तुम, तुम हो। जो तुम्हारे लिए सार्थक है वह आवश्यक नहीं कि दूसरों के लिए सार्थक हो। जिससे तुमको लाभ मिलना है, वह आवश्यक नहीं है दूसरों के लिए भी लाभप्रद हो।

तो अपने चित्त को देखो, अपने संस्कारों को और अपने व्यक्तित्व के परतों को देखो। तुम्हें दूसरों से होड़ नहीं लगानी है। तुम्हें यह नहीं देखना है कि, "दूसरे ज़िंदगी में कहाँ पहुँच गए, मैं कहाँ पीछे रह गया।" और जब तुम इस तरह की बातें करते हो तो आशय बहुत सीधा होता है, दूसरा ज़्यादा कमाने इत्यादि लग गया है, दूसरे को नौकरी में पद-पदवी, प्रतिष्ठा वगैरह मिल गई है, तुम्हें नहीं मिली है। इसलिए तुम्हारा थोड़े ही जन्म हुआ है कि तुम दूसरों की ओर देखते रहो। हर इंसान के पास अपने ही बंधन बहुत हैं। वह अपने बंधन काटे या दूसरों से होड़ लगाए? देखो कि अगर कोई भी दूसरा मौजूद ना हो तो भी तुम्हें क्या चाहिए होगा। देखो कि तुम्हारे ऊपर अगर दूसरों की परछाइयाँ ना पड़ रही हों तो तुम कैसे दिखाई दोगे। कितना भी सुंदर चेहरा हो, कितना भी प्यारा वजूद और व्यक्तित्व हो किसी का, उस पर पचास दूसरे लोगों की परछाइयाँ पड़ने लगे तो कुंभलाया सा ही दिखता है। देखो कि तुम पर, तुम्हारे व्यक्तित्व और वजूद पर अगर दूसरों की परछाइयाँ ना पड़ रही हों तो कौन हो तुम और कैसे दिखते हो। वहाँ सार्थकता है। दूसरों का ख्याल करना बंद करो। तुम्हें दूसरों की ज़िंदगी नहीं जीनी है, न तुम्हें दूसरों की मौत मरनी है। अपने आप को देखो। अपने प्रति ईमानदारी ही कसौटी है।

दूसरों से तुलना करने में बड़ी घातक बात यह भी हो जाती है कि हो सकता है कि तुलनात्मक रूप से तुम दूसरों से श्रेष्ठ दिखाई देते हो, लेकिन फिर भी तुम्हारे जीवन में कोई आनंद ना हो, कोई उल्लास ना हो, कोई सृजनात्मकता ना हो। और तुलना की दृष्टि से देखा जाए तो तुम सबसे आगे, बिलकुल अव्वल। तुलना से थोड़े ही पेट भरता है। तुलना से जी थोड़े ही ठंडा होता है। कुछ ऐसा चाहिए जो भीतर तक जा सके, और शांत कर सके। तुलना तो हमेशा बाहरी चीज़ होती है। चाहिए तुम्हें पानी और तुम्हारे पास शराब दूसरों की तुलना में ज़्यादा है तो जियोगे कि मरोगे?

हाँ, दूसरे के पास आधा लीटर शराब है, तुम पूरा ड्रम रखकर बैठे हुए हो। पर क्या हो गया तुम दूसरे से ऊपर भी हो तुलना के खेल में तो? तुम्हें तो चाहिए था बस थोड़ा सा पानी। यह देखो तुम्हारी वास्तविक माँग क्या है, आंतरिक, निजी, मौलिक।

प्र: क्या बहुत मेहनत करके किसी भी विषय को सीखा जा सकता है, जैसे क्वांटम फिजिक्स या यूपीएससी इत्यादि की तैयारी करना या सब कुछ पहले से ही निर्धारित होता है कि कौन-कौन क्या सीख सकता है और कितना सीख सकता है?

आचार्य: इसी विषय पर अभी बात करी। तुम्हारे बस में तो दो ही चीज़ें हैं: पहली बात, लक्ष्य समझदारी से बनाओ और दूसरी बात, लक्ष्य बना लिया तो अब उसमें अपने आप को झोंक दो, पूरा श्रम करो। लेकिन तुमने कितनी भी ईमानदारी से लक्ष्य बनाया हो और अपनी तरफ से तुमने कितनी भी मेहनत कर ली हो उस लक्ष्य के लिए, आवश्यक नहीं है कि तुम उस लक्ष्य को पा ही लो। इस दुनिया में कार्य-कारण के ना जाने कितने अंतर संबंधित चक्र चल रहे हैं। किसी भी काम का परिणाम सिर्फ काम में डाले गए श्रम या बुद्धि या विवेक पर निर्भर नहीं होता, वह पचास और अन्य चीजों पर निर्भर करता है। तो हो सकता है तुम्हारी समझदारी पूरी हो, तुम्हारा श्रम भी पूरा हो, उसके बाद भी मनचाहा परिणाम ना आए।

ना आए, तो तुम कह देना कि बड़ा बुरा हुआ, थोड़ा रो लेना, फिर कुछ और। और वह कुछ और तुम तभी कर पाओगे जब कोई भी परिणाम तुम्हारे भीतर के एक बिंदु को स्पर्श ना कर पाता हो। अगर तुम पूरी ही तरीके से अपने काम के परिणाम पर आश्रित हो गए, तो परिणाम तुमको तोड़ कर रख देगा। अगर परिणाम तुम्हारी इच्छा के विपरीत आया तो तुमको इतना निराश और निरुत्साहित कर देगा कि तुम कहीं के नहीं बचोगे। और अगर परिणाम तुम्हारी इच्छा के अनुकूल आ गया तो तुम्हें इतना फुला देगा कि तुम्हारा गुब्बारा फूल-फूल कर फट जाएगा।

तो जी जान से श्रम करो, जूझ जाओ बिलकुल, लेकिन फिर भी भीतर कुछ अनछुआ रहे। भीतर कुछ ऐसा रहे जो इन सब घटनाओं को, इस पूरे खेल को, लक्ष्य को पाने की पूरी कोशिश को देख रहा हो और कह रहा हो, “हाँ ठीक है, लगे रहो, हमें कोई मतलब नहीं। तुम्हारा शौक है, लगे रहो।” जैसे घर का कोई बुजुर्ग, वह घर के बाहर अपना बैठ गया है, खाट डालकर, हुक्का गुड़गुड़ा रहा है, और घर के सब आते-जाते लोगों को देख रहा है। दो-चार जवान लोग हैं, वो बड़ी दौड़-धूप कर रहे हैं, कभी भीतर घुसते हैं कभी बाहर जाते हैं, कभी कुछ उठाकर घर में लाते हैं, कभी कुछ कागज़ पत्थर करते हैं, कभी कोई किताब लेकर भागते हैं। उन्हें कुछ पाना है। उन्हें जमाने में आगे बढ़ना है। और यह बुजुर्ग अपना उनको देख रहा है, "ठीक है, करो भैय्या, जो करना है।" अब बुजुर्गों को क्या फर्क पड़ता है, वो सब जवान लोगों की हार हो कि जीत हो। तुम्हारी बाँहों में वो जवान लोग होने चाहिए और हृदय में वो बुजुर्ग।

बाहर-बाहर शारीरिक और मानसिक तल पर घनघोर सक्रियता रहे, खूब मेहनत करो, और भीतर कोई बैठा है बहुत समझदार और बोधवान जो कह रहा है कि “जो कुछ भी चल रहा है बाहर और उसका जो भी परिणाम आता हो, हमें उससे कोई भी फर्क पड़ता नहीं है।” बाहर वालों को बाहर का काम करने दो और खूब डूबकर, जमकर करने दो और भीतर वाले को आराम करने दो, दोनों बातें साथ-साथ। तभी हो पाएगा कि अगर बाहर का परिणाम अनुकूल नहीं भी आया तो तुम कहोगे, “अब अगली पारी खेलते हैं, अब कोई दूसरा खेल खेलते हैं। और दूसरा खेल खेलने के लिए भी हममें उतनी ही ताकत है उतनी ही ताज़गी है जितना पहले खेल खेलने में थी।” पहले खेल को अगर तुम शत-प्रतिशत समर्पित हो गए तो दूसरा कभी नहीं खेल पाओगे। भीतर कुछ बचा रहे जो किसी खेल का नहीं है। वह अगर बचा हुआ है तो फिर तुम खेल पर खेल खेलोगे। और अगर भीतर वाला भी खेल गया तो पहला खेल ही आख़िरी हो जाएगा। तो हार मिले कि जीत फर्क क्या पड़ता है। जीत गए, मौज मनाएँगे। हार गए, दोबारा खेलेंगे। कोई और खेल, कहीं और, किन्हीं और नियमों के साथ, किसी और नाम के साथ, कुछ और बन कर, कुछ और होकर, कोई और अखाड़ा, कोई और मैदान, कभी समतल कभी पहाड़।

बात थोड़ी अंतर्विरोधी है लेकिन समझना, जी जान से खेलना होता है, बिलकुल झोंककर अपने आप को, और फिर एक बिंदु ऐसा आना चाहिए कि जितनी लगन से, जितनी कशिश से तुमने अपने आप को झोंका था उतनी ही उदासीनता, उतनी ही तटस्थता के साथ तुम चुपचाप खेल खत्म करके आगे चल दो। दोनों आने चाहिए, डूब कर खेलना, और पारी घोषित करना, दोनों। पारी घोषित भी तभी कर पाओगे न जब डूब कर खेला हो। जम कर खेला ही नहीं, रन बनाए कुल चार और कह रहे हो, "पारी घोषित करना चाहते हैं", बहुत मार पड़ेगी। डूब कर खेलो, डेढ़-सौ, दो-सौ, ढाई-सौ बनाओ और फिर पारी घोषित करके मैदान से ऐसे चल दो जैसे कोई रिश्ता नाता नहीं। जब तक खेल रहे थे, खेल रहे थे, अब अलविदा। “हम दीवानों की क्या हस्ती है, आज यहाँ कल वहाँ चले। मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले।” आज यहाँ, कल वहाँ चले, मस्ती रहनी चाहिए। बाकी तो कुछ वैसे भी टिकता कहाँ है? कौन सा खेल अनंत है? कौन सी बाजी अमर है? कि है? कोई नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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