जब हर काम में हार मिले || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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जब हर काम में हार मिले || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ताः आचार्य जी, पिछले आठ-नौ महीनों से आपको सुन रहा हूँ, काफ़ी स्पष्टता आ गयी है। अपनी समस्या सुनाने से पहले आपके बारे में कुछ कहना चाहूँगा। सर, मैंने आपके आर्टिक्लस (लेख) पढ़े, आपकी वीकिपीडिया पेज भी पढ़ी। मुझे एक बात पता चली आपके बारे में कि आपने हर आयाम में एक्सीलेंस (उत्कृष्टता) हासिल की, चाहे वो एकेडमिक्स (शैक्षणिक) हो, चाहे स्पोर्ट्स (खेल), चाहे आर्ट्स (कला)। आप नाटक में काम करते थे, आप तेज़ गेंदबाज़ थे, आप एक्सीलेंट डिबेटर (उत्कृष्ट बहसकर्ता) थे, आप आईआईटी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) के अलुमनस (भूतपूर्व छात्र) थे, उसके पहले आपने एनटीएसई एग्जाम (राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा) उत्तीर्ण की थी। ये प्रेरणा, ये ठसक, ये आग आपके भीतर आयी कहाँ से?

और अब मैं अपनी समस्या सुनाना चाहता हूँ। सर, समस्या ऐसा है कि मैं पिछले दस सालों का ख़ुद की ज़िंदगी का ब्योरा दूँ तो एक मीडिओकर (औसत दर्जे की) ज़िदंगी मैंने जिया है। आई वॉस़ नॉट इवन एकेडमिकली ब्रिलियंट (मैं शैक्षणिक तौर पर भी उतना उत्कृष्ट नहीं था), आई नेवर प्लेड स्पोर्टस (मैंने कभी कोई खेल खेला नहीं), आई नेवर पार्टिसीपेटेड इन ऐनी एकस्ट्राकररिक्युलर एक्टिविटीज़ (मैंने कभी कोई पाठ्यक्रमेतर क्रियाकलापों में भाग नहीं लिया)। आपको सुनने के बाद भयंकर पछतावा हुआ, आप कहते हैं कि युवा होने का मतलब हैं मज़बूत कंधे, चौड़ी छाती, विराट हृदय। बहुत सही मार्गदर्शन करते हैं आप।

मैं कोशिश कर रहा हूँ एक्सेल करने की, पर हो नहीं पा रहा है। पता नहीं एक बेचैनी है मन में, ऐसा लगता है कि अगर कोई नयी चीज़ मैं सीखने की कोशिश करूँगा तो उसमें फेल (असफल) हो जाऊँगा। एक फेलियर , एक लूज़र (हारा हुआ व्यक्ति) का जैसे ठप्पा लगा हुआ है इतने सालों से, ऐसा लगता हैं जैसे अपना वैभव भूल बैठा हूँ। तो सर, एक लूज़र का ठप्पा लग गया है कि नहीं होगा, कुछ करना ही नहीं है ज़िंदगी में। लेकिन अंदर-ही-अंदर भीतर से आवाज़ आती है कि भाई कुछ कर, कुछ कर! इनके वीडियो देख रहा है, ये इतना अच्छा बताते हैं, तो कुछ कर। लेकिन, सर, वो भीतर से जो ज्वाला जलनी चाहिए, जो आग होनी चाहिए, वो हो नहीं पाती है। अपनी नज़रों में गिर चुका हूँ मैं, लगता है कि मेरी कोई औकात नहीं है। तो मार्गदर्शन कीजिए।

आचार्य प्रशांतः ये लगभग अहंकार की बात है या उससे कुछ मिलती-जुलती सी। आत्म-सम्मान, कि हो अगर तो गौरव, गरिमा के साथ रहो न। हो भी, और कोई मान भी नहीं है, तो हो ही क्यों? लाभ क्या? क्यों हो? मान माने ये नहीं कि दूसरों से सम्मान मिल रहा है, आत्म-सम्मान की बात करी। स्वयं को तो पता ही रहता है न कि कितने पानी में हो, तो बुरा लगना चाहिए। कई कोणों से देख सकते हो, ऐसे भी कह सकते हो कि एक ज़िंदगी है, उसको अगर यूँही मीडियोक्रिटी में बिता दिया तो जी क्यों रहे हैं, पैदा ही क्यों हुए। ऐसे भी कह सकते हो कि भीतर कुछ है जिसका स्वभाव है अनंतता, बड़ा होना। जब भीतर कुछ है जो इतना सुंदर, साफ़, बड़ा, अद्वितीय है तो तुम हर क्षेत्र में फिसड्डी क्यों हो। आत्मा अगर ‘द्वितीयो नास्ति’ है, तो हम इतने फिसड्डी क्यों हैं, ऐसे भी देख सकते हो।

असल में, मेरे लिए थोड़ा मुश्किल है, मैं विचार कर रहा हूँ, ये समझ पाना कि ऐसा मन कैसा होता है जो कुछ कर रहा है और उसमें उसको अक्षम होना या मीडियोकर होना बर्दाश्त हो जाता है। एब्सोल्यूट (संपूर्ण) कोई नहीं होता, आप कुछ भी करो उसमें कुछ-न-कुछ ग़लती होती ही है। लेकिन ये मेरी समझ से बाहर है कि ऐसा मन कैसा होता होगा जो ग़लतियों पर ग़लतियाँ करता भी जाता है और बर्दाश्त भी करता जाता है और उसके आत्म-सम्मान पर कोई चोट नहीं पड़ती! बुरा लगना चाहिए न, कि नहीं लगना चाहिए? बुरा लगना चाहिए न?

एक प्रेम होना चाहिए। आपने एक ज्वाला की बात करी, वो प्रेम की ज्वाला होनी चाहिए। वो प्रेम की ज्वाला होनी चाहिए कि कुछ चीज़ें हैं जिन पर जान छिड़कते हैं हम। मेरे लिए बहुत क़ीमत की बात थी कि मेरे नंबर कैसे आ रहे हैं, मैं जान छिड़कता था और आसानी से संतुष्ट नहीं होता था। वो अभी भी है।

अभी भी कुछ करता हूँ, मैं उससे बहुत संतुष्ट नहीं रहता हूँ। ये सब जो वीडियो प्रकाशित होते हैं, मैं इन्हें आमतौर पर देखता ही नहीं हूँ। इतनी सारी किताबें हैं, बाहर अस्सी किताबें लगी हुई हैं, यहाँ भी तमाम मौजूद हैं। इनमें से अधिकांश का मैंने एक अध्याय भी नहीं पढ़ा है, क्योंकि पढ़ता हूँ तो कहीं-न-कहीं लगने लगता है कि ये बात यहाँ पर और बेहतर तरीक़े से कही जा सकती थी, इस शब्द की जगह दूसरे शब्द का चयन किया जा सकता था। और वो देखकर फिर मुझे पीड़ा होती है। जैसे स्कूल में लगता था न कि अगर दो नंबर भी कट गये तो क्यों कट गये! वैसे ही इन किताबों को देखता हूँ और अगर कहीं इनमें कोई टाइपो (मुद्रण की ग़लती) वाली त्रुटि हो, तो वो बात तो नागवार हो जाती है कि स्पेलिंग (वर्तनी) ग़लत लिख दी या कहीं पर कॉमा (अल्प विराम) लगना था, लगाया नहीं। इसके अलावा मैं और क्या बताऊँ!

सिर उठाकर चलना बहुत ज़रूरी होता है। अपनी नज़रों में गिर जाओ, फिर जियो, उससे मौत भली होती है। अब ये बोलने में दिक्क़त ये है कि ये बात अहंकार के बहुत निकट की है। पर ये अहंकार से अलग है।

काम वो चुनो जिसमें जान झोंक सको, और उसके बाद अगर उस काम से बेईमानी कर रहे हो, तो अपनेआप को माफ़ मत करो। सज़ा देना सीखा करो।

मेरी कल-परसों तबीयत ख़राब थी, आज भी पूरी तरह ठीक नहीं हूँ, तो परसों मैं जिम (व्यायामशाला) नहीं गया। तो कल— इसलिए नहीं बता रहा हूँ कि अपना उदाहरण पेश कर रहा हूँ कि जैसे मैं कोई बहुत गौरवशाली जीव हूँ, इसलिए बता रहा हूँ कि शायद समझा सकूँ— तो कल गया, परसों का मिस हो गया था जिम। तो कल टेनिस गया, उसके बाद जिम जाना था और कल तब़ीयत ठीक नहीं थी। तो एक घंटे मुझे खेलना होता है, कल मैं डेढ़ घंटे खेला, क्योंकि परसों छूट गया था। पहले डेढ़ घंटे खेला भी, और उसके बाद फिर जिम भी गया। क्योंकि उसमें एक दूसरी बात भी है, जो मेरे ट्रेनर (प्रशिक्षक) हैं, वो पूरी ईमानदारी से मेरे साथ लगे हुए हैं, मैं कैसे बेईमानी कर लूँ। ये अपनी इज़्ज़त की बात है न, अपने आत्म-सम्मान की बात है। मैं इस चीज़ में भी उनको आगे कैसे निकल जाने दूँ, ईमानदारी में भी तुम ही आगे निकल जाओगे! आप तो लगातार उपलब्ध हो अपना काम करने के लिए, हम ही बेईमान कहला जाएँ।

अपनेआप को सज़ा देना भी आना चाहिए कि अगर एक घंटा भी छूटा है तो अगले दिन डेढ़ घंटा कम-से-कम करूँगा और उसके बाद और भी करूँगा। बुरा लगना ज़रूरी है, लाज आनी ज़रूरी है। और, एक बात अच्छे से समझना, जिस आदमी को शर्म नहीं आती उसके लिए तरक़्क़ी बहुत मुश्किल हो जाती है। बस शर्म ऐसी नहीं होनी चाहिए जो आपको ज़मीन में गाड़ दे। एक वो वाली भी शर्म होती है जो आपका सिर ही झुका देती है। शर्म वो होनी चाहिए जो आपको आकाश में उछाल दे। इतनी शर्म आयी कि दोगुनी मेहनत करी।

आप मेरे विषय में कह रहे थे कि मैं इस चीज़ में अच्छा रहा, उस चीज़ में अच्छा रहा। मैं कोई प्रतीभाशाली व्यक्ति नहीं हूँ। मुझे चीज़ें सीखने मे वक़्त लगता है। नैचुरल टैलेंट (प्राकृतिक प्रतिभा) जिसको बोलते हैं, वो मुझमें ज़्यादा नहीं है। लेकिन जब कुछ शुरू कर देता हूँ, जब किसी चीज़ में प्रवेश कर देता हूँ तो उसमें ईमानदारी रखता हूँ, कि अब ये कर लिया है तो करना है, भले ही सीखने में देर लगे। मैं दो-तीन दफ़े अपनी पढ़ाई में फेल भी हो चुका हूँ। मैं नर्सरी में ही फेल हो गया था। लेकिन इतना ज़रूर रहा है कि अगर एक परीक्षा में फेल हुआ हूँ तो जैसे जादू सा हुआ हो, अगली में फिर टॉप (प्रथम स्थान प्राप्त) किया है सीधे! और बड़ा मज़ा आता था मुझे, ‘ई’ से ‘ए’ ग्रेड (अंक श्रेणी) लगती थी तीसरी क्लास में। तो क्वाटरली (त्रैमासिक) में लिखा हुआ है ‘ई’ ग्रेड ,‘ई’ लिखा हुआ था या ‘एफ’ लिखा हुआ था पता नहीं, और हाफ-ईयरर्ली (अर्धवार्षिक) में सीधे ‘ए’ !

वो जज़्बा होना चाहिए। जो आपको आगे बढ़ा सकता हो, उसके सामने सिर झुकाना आना चाहिए, उसकी डाँट खाने की आपकी पूरी तैयारी होनी चाहिए। ये आत्म-गौरव का हिस्सा होता है। ये आंतरिक ईमानदारी का तकाज़ा होता है।

ऐसे लोग जिन्हें लाज नहीं आती, ये तो आगे बढ़ते ही नहीं हैं, और ऐसे लोग जिन्हें अपने शिक्षक, प्रशिक्षक या गुरु से डाँट खाने में लाज आती है, ये तो एकदम ही आगे नहीं बढ़ेंगे। क्योंकि आपको लाज बहुत ज़्यादा आएगी तो या तो आप झूठ बोलना शुरू कर दोगे, जो काम करा नहीं, बोल दोगे कर दिया। या फिर जो सिखा रहा है, उससे आप नाता तोड़ लोगे, क्योंकि वो डाँट लगाएगा। आपको लाज आ जाएगी, और आप उससे नाता तोड़ लोगे।

तो मैंने कहा, आत्म-सम्मान होना चाहिए। इस बात की बहुत परवाह नहीं करनी है कि दूसरे कितना सम्मान कर रहे हैं। दूसरों से तो अपमान खाने की भी पूरी तैयारी होनी चाहिए। ख़ासतौर पर यदि दूसरे आपके हितैषी हों तो। दूसरे अगर हितैषी नहीं भी हों और वो भी अगर अपमान वग़ैरा कर दे तो बहुत फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। आत्म-सम्मान होना चाहिए; दूसरे की नज़र में सम्मान हो, नहीं हो, बड़ी बात नहीं।

मज़ेदार सी बात ये है कि ज़्यादातर लोग जिन्हें दूसरों से सम्मान चाहिए होता है, उनमें आत्म-सम्मान बिलकुल नहीं होता। हाँ, उन्हें दूसरा कोई कुछ बोल दे तो तुरंत मिर्ची लग जाती है। दूसरे ने भले ही अपनी ओर से उनका अपमान नहीं भी करना चाहा हो, तो उनको बहुत बुरा लग जाता है कि ऊफ़! ये क्या बोल दिया! उसने ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया। दूसरे ने तुम्हें ज़रा सा कुछ कर दिया, तो तुम्हें इतना बुरा लग रहा है और अपनी ही नज़रों में तुम इतना गिरे हुए हो, तो उसका बुरा नहीं लगता? ऊपर से लेकर नीचे तक तुम मीडियोक्रिटी की प्रतिमूर्ति हो, तुम्हें अपना अस्तित्व बुरा नहीं लगता? लेकिन कोई दूसरा आकर कुछ बोल गया तो अहंकार पर बड़ी चोट लग जाती है, उसने मुझे ऐसा बोल दिया! अब वो बोले न बोले, तुम अपना यथार्थ नहीं जानते क्या, तब बुरा नहीं लगता? दूसरे को झाँसा दे भी दिया, मान लो, और उसने तुम्हारा सम्मान कर दिया, दूसरे को झाँसा दिया जा सकता है, तुमने उसको दिखा दिया कि तुम बड़े सम्माननीय हो, वो हाथ जोड़कर चला गया, इससे तुम्हारा यथार्थ बदल जाएगा क्या? अपनी असलियत तो तुम जानते ही हो न, या नहीं जानते?

मेरे लिए समझ पाना मुश्किल होता है कि जो आदमी अपने प्रति ईमानदार नहीं है, सच्चा नहीं है, वो अपने साथ जीता कैसे है, नींद कैसे आ जाती है। शायद माहौल से होता होगा, आपके माहौल में सभी वैसे ही हैं, तो आपको लगता है ऐसे ही चलता है। या पता नहीं कैसे होता होगा, मुझे मालूम नहीं। पर घूम-फिरकर वही एक शब्द मेरे दिमाग में आता है — बुरा लगना। एक प्रेम होना चाहिए उत्कृष्टता के प्रति। मन में एक आदर्श होना चाहिए, और उस आदर्श को पाने की, जीने की एक ललक। और जल्दी से अपनेआप को माफ़ नहीं कर देना चाहिए। स्वयं को सज़ा देना बहुत ज़रूरी है। मुझे नहीं मालूम कि मेरा यह उत्तर, आपके कितने काम का है।

प्र: सर, वो हम सुनते आ रहे हैं न स्कूल से कि उस बच्चे की कैपचरिंग पावर (सीखने की क्षमता) ज़्यादा है, उसकी कैपचरिंग पावर बहुत कम है। ऐसा कुछ होता है क्या, सर? कोई विद्यार्थी होता है वो जल्दी कॉनसेप्ट को समझ लेता है और कोई समझ नहीं पाता, तो उस पर थोड़ा प्रकाश डालिए।

आचार्य: दे तो दी जानकारी, मैं उनमें से था जिनकी कैपचरिंग पावर कम थी। दे तो दी जानकारी! मैं तो आपकी बात को पूरी तरह कैप्चर नहीं कर पा रहा (हँसते हुए कहते हैं)।

प्र: नहीं सर, फिर वो कॉन्सेप्ट अगर समझा नहीं, तो सवाल पूछने में डर लगता है।

आचार्य: किससे डर लगता है? कहाँ की बात कर रहे हो, क्लासरूम की?

प्र: हाँ, क्लासरूम की।

आचार्य: किससे पूछते हो, प्रोफेसर से?

प्र: हाँ, प्रोफेसर से।

आचार्य: तो, किताब में पढ़ लो। वो भी तो किताब से ही बताते हैं। किताब में ही पढ़ लो।

प्र: जी, मुझे लगा कि वो स्पेशल (विशेष) लोग हैं, जिनकी कैप्चरिंग पावर बहुत हाई (ज़्यादा) है।

आचार्यः होते हैं ऐसे, मैं भी आईआईटी गया था तो चकित रह गया! कुछ ऐसे थे, ख़ासतौर से कंप्यूटर साइंस डिपार्टमेंट में, जितने देर में मैं क्वेश्चन (सवाल) समझता था, उतनी देर में वो उसको सॉल्व (हल) कर देते थे। और उसमें कोई वो जादुई सी चीज़ थी, वो एक प्राकृतिक प्रतिभा है। आप उससे लोहा नहीं ले सकते।

ठीक है, वो उनके पास है एक प्राकृतिक संसाधन है, लेकिन मेरे पास मेरा हठ है। आपको प्रकृति ने ही कोई तोहफ़ा दे रखा है, बहुत अच्छी बात है। मुझे नहीं मिला है, लेकिन मुझे कुछ और मिला है, मैं मेहनत कर सकता हूँ। मैं मेहनत करूँगा। और प्राकृतिक वरदान जो मिले होते हैं, उसके दम पर आप बहुत आगे नहीं जा पाओगे, क्योंकि प्रकृति से मूलरूप से आपको देह ही मिली है न, किसी को अच्छा कद मिल जाता है, किसी को अच्छा ब्रेन (दिमाग) मिल जाता है। दोनों शारीरिक बातें हैं। ये बात आपको बहुत आगे तक नहीं ले जा सकती।

लंबी रेस में तो जो आपकी चेतना की गुणवत्ता है वही आपको जिताती है। आप कितने गॉड-गिफ्टेड (ईश्वर प्रदत्त ) हो, ये बात फिर पीछे छूट जाती है। आईआईटी में, आईआईएम (भारतीय प्रबंधन संस्थान) में मैंने ऐसे-ऐसे प्रतिभाशाली लोग देखे हैं कि पूछिए मत। आज वो, उनमें से बहुत सारे ऐसे हैं जो दुनिया में बहुत साधारण तरीक़े के काम कर रहे हैं। पैसा ख़ूब कमा रहे हैं, पर बहुत दोयम दर्जे के काम कर रहे हैं। तो प्रतिभा बहुत देर तक काम नहीं आती।

प्रः आई रिमेंबर यू गेव ऐन एक्ज़ैपल ऑफ ए थर्ड ईयर स्टूडेंट (मुझे याद है, आपने एक तृतीय वर्ष के विद्यार्थी का उदाहरण दिया था।

आचार्यः उनका मुझे पता नहीं, वो बैट्समैन (बल्लेबाज़) बहुत अच्छे थे। बैट्समैन की बात कर रहे हैं, मैं बॉलिंग (गेंदबाज़ी) भी करता था, न मेरे पास एक बॉलर (गेंदबाज़) की हाइट (कद) थी, न मेरे पास ज़बरदस्त पेस (गति) थी। तो, मैं तो जब थोड़ा-बहुत कॉम्पेटिटिव खेलना शुरू किया, तब मुझे तो बहुत मार पड़ती थी। ये मेरी बॉलिंग आर्म थी, फास्ट बॉलर (तेज़ गेंदबाज़) की कलाई ऐसी होती है, इतनी पतली? (अपनी कलाई को दिखाते हुए)।

मैंने कहा कि मेरे पास कलाई नहीं है तो कोई बात नहीं है, मैंने कंधा तैयार किया, मैं कंधे से गेंद डालने लगा। मैंने कहा कि मेरी पेस नहीं है, मैं डिसीप्लीन (अनुशासन) से अपनी लाइन-लेंथ पकड़ कर करूँगा, मेरी गेंद लाइन से हिलेगी ही नहीं। और मैं कंधा लगा कर उसे गुड लेंथ से थोड़ा बाउंस (उछाल) दूँगा। जो नहीं है, उसका क्या कर सकते हैं? जो है, उसपर तो मेहनत कर सकते हैं न। अब ये सब करके भी मैं गेंदबाज़ी में बहुत आगे नहीं जा पाया। हाँ, पर इतना हो गया एक समय के बाद, कि अच्छे बल्लेबाज़ों को भी तकलीफ़ दे देता था।

प्रः सर, आप एक्सीलेंस की आकांक्षा रखते थे या रीज़ल्ट (परिणाम) की? रीज़ल्ट के बारे में सोचते थे या एक्सीलेंस के बारे में?

आचार्यः यार! अगली गेंद डालनी है, इतना कौन सोचता है? अब अगली गेंद डालनी है, अपनी इज़्ज़त भी कोई चीज़ होती है कि नहीं? या अच्छा लगता है जब वो आगे बढ़कर आप ही के सिर के ऊपर से उछाल रहा है आपको।

प्रः अटेंप्ट (कोशिश) पर ध्यान देना है?

आचार्यः आत्म-सम्मान! बुरा लगना चाहिए, मैं क्यों पिट रहा हूँ, पिटे ही जा रहा हूँ! तीन ओवर में चार छक्के खा चुका हूँ, बुरा लगना चाहिए। और जब बुरा लगे, तो उसका नतीजा होना चाहिए कि आप उत्कृष्टता की ओर बढ़ें। बुरा लगने का ये नतीजा नहीं होना चाहिए कि आप वहाँ से पीछे हट जाएँ, सिकुड़ जाएँ, या गड़ जाएँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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