जब घरवाले ही धोखा दें || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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जब घरवाले ही धोखा दें || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी! मैं आपको एक साल से सुन रही हूँ और जीवन में थोड़ा बदलाव भी आया है लेकिन एक-दो महीने से दिमाग थोड़ा कुंद हो गया है, किसी चीज़ में मन नहीं लगता, कुछ नहीं किया जाता, बस एक जगह बैठी रहती हूँ और डॉक्टर ने भी बताया कि ये जो लॉस ऑफ इंटरेस्ट (रुचि की कमी) है ये डिप्रेशन (उदासी) का एक लक्षण है।

मैं इस अद्वैत महोत्सव में भी आयी थी लेकिन दूसरे ही दिन मेरे पिता मुझे हाई ब्लड प्रेशर (उच्च रक्तचाप) का बहाना बनाकर ज़बरदस्ती घर ले गये। कृपया मार्गदर्शन दें।

आचार्य प्रशांत: जाने से पहले मार्गदर्शन माँगा था? ऐसे नहीं देता मैं। सलाह भी उनके लिए होती है जो सलाह को सम्मान दें। आप मेरे बुलावे पर आयीं, आप मेरे महोत्सव में आयीं, आप तीन-सौ लोगों के परिवार में आयीं और आप बीच में नदारद हो गयीं। ये मेरे आमंत्रण का अपमान है। ये तीन-सौ लोगों की संगत का अपमान है। अब मैं आपको क्या बोलूँ?

आप कह रही हैं पिताजी ने बहाना बनाया — किस चीज़ का? आप ही के पिताजी हैं। आपको पता नहीं वो बहानेबाज़ हैं? ये मुझे पता होगा क्या कि आपके पिताजी कैसे हैं!

आपके पिताजी हैं तो आप जानती ही होंगी कि वो कैसे हैं। तो पता नहीं था क्या कि बहाना बना रहे हैं। और जब पता था कि वो इस तरह के बहाने बनाते हैं तो पहले से पीछे इंतज़ाम करके आतीं कि पता है कि दूसरे-तीसरे दिन तक ये बोलना शुरू कर देंगे, 'ये हो गया, वो हो गया।’ वहाँ कुछ रखकर के आतीं या उन्हें साथ ही ले आतीं।

अध्यात्म में इंटरेस्ट (रुचि) अहंकार की निशानी होता है। पर हमारा जो मेडिकल साइंस (चिकित्सा विज्ञान) है वो पूरे तरीक़े से फ़िज़िकल (शारीरिक) है, मटीरियल (भौतिक) है। इसीलिए वो इंटरेस्ट को बहुत बड़ी बात समझता है।

अगर आपमें वैराग्य उठ रहा है तो डॉक्टरों की भाषा में ये लॉस ऑफ इंटरेस्ट है। वैराग्य — राग माने इंटरेस्ट । वो तुरन्त घोषित करने लगेंगे कि डिप्रेशन (उदासी) आ रहा है तुममें अब। उनके लिए वैराग्य डिप्रेशन जैसी चीज़ है और उनके लिए एक हेल्दी इंडिविजुअल (स्वस्थ व्यक्ति) कौन है? जिसका इसमें भी राग हो, इसमें भी राग हो, इसमें भी राग हो। भाई! जितनी चीज़ें हैं उन सबमें इंटरेस्ट होना चाहिए न।

आपको दिख जाए वो चीज़ घटिया है, आपकी उसमें अरुचि हो जाए तो ये आपको बताने लग जाते हैं कि आपको डिप्रेशन हो रहा है, डिप्रेशन हो रहा है। आप सुनती बहुत हैं — कभी पिताजी की, कभी डॉक्टरों की; बस जिनकी सुनी जानी चाहिए उनकी नहीं सुनतीं।

आजकल के डॉक्टरों के अनुसार तो कृष्ण हों या उद्दालक हों, ये सब मनोरोगी थे क्योंकि इन्होंने तो वैराग्य की, त्याग की बात करी है। तो कहेंगे, 'अरे! इन्हें तो कुछ इंटरेस्ट ही नहीं था। देखो, इतना बढ़िया मटन कबाब है तुम्हारा इंटरेस्ट नहीं है इसमें?'

मुझे बताया गया है कि कई डॉक्टर चिल्ला उठते हैं जब आप उनको बताते हो कि हम डेयरी प्रोडक्ट्स (दुग्ध उत्पाद) नहीं लेते, गिर-विर गये अपनी चेयर (कुर्सी) से नीचे। 'अरे! क्या कर रहे हो, क्या कर रहे हो, कल शाम तक मर जाओगे!'

मुझे तो वो बता चुके हैं, मैं अठारह साल पहले मर गया था। बोल रहे हैं, 'जैसी तुम ज़िंदगी जी रहे हो, तुम ज़िंदा हो ही नहीं सकते। हमारी किताबें बता रही हैं तुम मुर्दा हो।' ठीक।

क्या उम्र बतायी? बत्तीस। और पिताजी उठा ले गये (श्रोतागण हँसते हैं)। ग़ज़ब है भाई! हम चाहते ही नहीं न कि हमारे बच्चे कभी बड़े हों? बच्चे बड़े हो गये तो उन्हें ऐसे उठाकर कैसे ले जा पाएँगे। ये हम अभिभावक हैं। हम बच्चे को बोनसाई (लघुकृत पौधे) बनाते हैं।

आपने देखा है, पीपल का पेड़ गमले में लगा हुआ? ये हम अपने बच्चों की परवरिश करते हैं। पीपल का पेड़ गमले में कैसे लगाया जाता है? लगातार उसकी जड़ें काटते रहते हैं ताकि वो कभी बड़ा होने ही न पाये, वरना गमला तोड़ देगा। गमला तोड़ देगा और हमारे घर में वो जो क्यूटी बनकर के शान से ड्राइंग रूम (बैठक) में रखा हुआ है, हम उसे वैसे नहीं रख पाएँगे न! तो माँ-बाप बच्चे नहीं बोनसाई पैदा करते हैं।

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, लक्ष्य को लेकर वैसे ही इतनी चुनौतियाँ हैं जीवन में लेकिन कुछ भी करने बैठो तो अभिभावकों की ओर से तरह-तरह की सलाहें आने लगती हैं। तो मैं जानना चाहता हूँ कि परिवार को किस तरह लिया जाए? कैसे उनसे डील (समझौता) किया जाए? क्या उनको एक तरह से अलग ही रख दिया जाए?

आचार्य: देखो, उनका अगर भला करना चाहते हो तो अपनी ताक़त से ही कर सकते हो। उनकी सीख पर चलकर अगर तुम कमज़ोर हो रहे हो तो उनका भला नहीं कर पाओगे। उनका भला भी करना चाहते हो तो तुम्हें बल चाहिए। और बल तुम्हें मिलेगा नहीं अगर उनकी सीख पर चलो।

मैं ये मानकर चल रहा हूँ कि उनकी सीख ग़लत है, हो सकता है सीख ग़लत न हो। अगर उनकी सीख ग़लत है तो वो तुम्हें कमज़ोर करेगी। अगर तुम कमज़ोर हो गये तो तुम उनकी सहायता नहीं कर पाओगे।

प्र२: आचार्य जी, यहाँ सहायता की चीज़ें नहीं होतीं। यहाँ तो सबकुछ पूरी तरह भावनात्मक हो जाता है कि हमने तुम्हारे लिए इतना करा, ऐसे करा। वे आपकी उपस्थिति चाहते हैं। कोई दूसरा करे, वो उन्हें स्वीकार्य नहीं होता। 'आप ही करो', ऐसा होता है। और दूसरी चीज़, उन्हें दख़ल बहुत देने होते हैं, बहुत ज़्यादा।

आचार्य: जब जानते हो ये सब क्या है तो फिर उसमें प्रभावित क्यों होते हो?

प्र२: नैतिक दायित्व जैसा कुछ हमेशा दिमाग में हावी सा रहता है।

आचार्य: ये तो उन्होंने ही सिखाया है।

प्र२: नहीं। इससे निकलें कैसे? ये हमेशा हावी ही रहता है। जैसे चार दिन हो गये घर पर बात नहीं की हमने, तो वो अजीब सा मोरल ऑब्लिगेशन (नैतिक दायित्व) दिमाग में है कि माता-पिता से हमने बात नहीं की है, वो परेशान हो रहे होंगे। जैसे एक बच्चा होता है न, वो अपनी ज़िद लिए बैठा रहता है तो उसे समझा भी नहीं सकते, बता भी नहीं सकते कुछ।

आचार्य: तो करो न बात! क्यों नहीं करते बात?

प्र२: नहीं। ये कर्तव्य की तरह है कि उनसे बात करना ही करना है।

आचार्य: ड्यूटी (कर्तव्य) तो होती भी है, क्यों नहीं होती है! शरीर तो तुम्हें उनसे ही मिला है तो कुछ तो उनके प्रति धर्म या ऋण है ही। करो बात, क्यों नहीं करते?

प्र२: जैसे मैं किसी चीज़ में बिज़ी (व्यस्त) हो गया, नहीं बात कर पाया तो...

आचार्य: चार दिन तक थोड़े ही बिज़ी थे।

प्र२: नहीं। उतना ज़रूरी नहीं लगा उनसे बात करना और पता है कि क्या ही बातें करेंगे उनसे...

आचार्य: ये क्या है? क्या ही बात करेंगे उनसे माने?

प्र२: नहीं, वो सिर्फ़ इतना जानना चाहते हैं कि तुम कहाँ हो, क्या कर रहे हो। और कुछ भी बताएँगे तो उसमें वो प्रश्न करेंगे।

आचार्य: नहीं, तो बात करने की बात है न? बात करो, अपनी बात करो।

प्र२: जैसे उनसे, कुछ बात करने को नहीं होता है, उनके पास सिर्फ़...

आचार्य: तुम्हारे पास हैं न?

प्र२: मेरे पास भी कुछ ज़्यादा नहीं होता है।

आचार्य: क्यों नहीं है? निरालम्ब उपनिषद् श्लोक क्रमांक छब्बीस से शुरू करो (श्रोतागण हँसते हैं)।

प्र२: वो तो वहीं बंद हो जाएगा फिर। वही मैं कह रहा हूँ, आचार्य जी। उन्हें समझाने का तो कुछ...

आचार्य: नहीं, वो नहीं समझें तो रूठो। मैं आपसे बात करना चाहता हूँ, बात क्यों नहीं कर रहे, करिए न! फ़ोन काट देंगे, फिर कॉल करो, सत्ताईसवाँ श्लोक बताओ (श्रोतागण हँसते हैं)।

प्र२: ऐसा हो चुका है एक-दो बार।

आचार्य: तो बस यही किया करो।‌ 'तुम्हें जितनी बात करनी है, बताओ। तुम एक घंटा बोलोगे, हम दो घंटे बात करेंगे।' 'एक-सौ-आठ तो उपनिषद् हैं, ख़त्म ही नहीं होंगे। मैं बात करते ही जाऊँगा तुम्हारे साथ।'

प्र२: ऐसा एक-दो बार करा है, आचार्य जी। लेकिन ऐसा होता है कि तुम्हें फ़ोन नहीं दिया जाएगा पापा से बात करने के लिए क्योंकि तुम उनका बीपी बढ़ा देते हो, जब भी बात करते हो।

आचार्य: तो मत करो! नहीं, तुम्हें करनी है या नहीं करनी है?

प्र२: नहीं, करनी है, आचार्य जी। मैं कह रहा हूँ कि ये जो मोरल ऑब्लिगेशन (नैतिक दायित्व) है न, वो दिमाग से नहीं उतरता।

आचार्य: नहीं, मोरल ऑब्लिगेशन बात करने की है? किस चीज़ की मोरल ऑब्लिगेशन है? पहले स्पष्टता तो रखो।

मोरल ऑब्लिगेशन ये होती है कि संतान माता-पिता के प्रति प्रेम रखे और उनकी भलाई करे। माता-पिता स्वयं चेतना के तल पर शिशु समान हों तो शिशु की भलाई शिशु से पूछकर की जाती है क्या? अब वो है एक साल का, उसको नहलाने ले जा रहे हैं और वो 'एँ-एँ-एँ' कर रहा है तो नहलाओगे नहीं? वैसे ही आत्मस्नान उपनिषदों से होता है।

मानो दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, उनको खड़ा कर दो सामने, उनका स्नान कराओ। उन्होंने तुम्हें नहलाया था न बचपन में? अब तुम नहलाओ उनको। और भागें इधर-उधर तो पकड़-पकड़ के लाओ। दिन में दस बार फ़ोन करो — कितना पढ़ा? क्यों नहीं पढ़ा? तब तक करो जब तक ब्लॉक (अवरोधित) न कर दें। (श्रोतागण हँसते हैं)

तुम उल्टा चल रहे हो, तुम बचने की कोशिश कर रह हो। बचना नहीं है, उन्हें बचाना है। उन्हें बचाओ। ये उनतक लेकर जाओ न! और फिर वो अगर इसको नहीं पढ़ते तो जो मोरल एक्विज़ीशन (नैतिक अधिग्रहण) आएगा वो उनपर आएगा न? अभी मोरल प्रॉब्लम (नैतिक समस्या) तुम्हारे लिए खड़ी हो रही है। कि तुम फ़ोन नहीं उठाते होगे, फ़ोन नहीं करते होगे।

तुम फ़ोन करो और इससे (उपनिषद् की ओर संकेत करते हुए) करो। फिर वो नहीं कर रहे, तुम बोलो, ‘देखिए, आपको प्यार नहीं है मुझसे। मम्मी, सच बताना प्यार नहीं करती न? फ़ोन करता हूँ उठाती नहीं।' और जैसे ही उठाएँ वैसे ही बोलो, 'इकतीसवाँ शलोक।’ और फिर रख दें फिर बोलो, 'माँ, तेरी याद बहुत आ रही थी। बत्तीसवाँ।’ (श्रोतागण हँसते हैं)

वो तुम्हारे साथ अपना एजेंडा चला सकते हैं, तुम उनके साथ अपना क्यों नहीं चला सकते? साथ ही तो रहना है न? हाथ पकड़कर चलेंगे लेकिन दिशा सही होगी। 'हाथ नहीं छोडूँगा लेकिन ग़लत दिशा नहीं जाऊँगा।’

‘हाथ नहीं छोड़ूँगा और सही दिशा जाऊँगा।’ इसके लिए, मैंने कहा, तुम्हारे पास होना चाहिए बल। 'हाथ भी नहीं छोड़ूँगा तुम्हारा और तुम्हें ग़लत दिशा भी नहीं जाने दूँगा।’ ऋण तो है ही, ऋण चुकाना भी है। ऋण ऐसे ही चुकाया जाता है, सही दिशा ले जाकर।

अब समस्या ये आएगी कि तुम ख़ुद उपनिषदों से इतना प्रेम नहीं रखते कि तुम्हारे मुँह से फूट पड़ें कॉल पर। सारी समस्या यहीं पर है बस। बल नहीं है तुममें।

प्र२: अभी उतनी क्लैरिटी (स्पष्टता) नहीं है कि मैं...

आचार्य: हाँ, तो क्लैरिटी पैदा करो।

प्र२: मैं ख़ुद ही थोड़ा समझने में लगा रहता हूँ।

आचार्य: पहले इसको समझो न! जब इसको समझोगे तब संस्कृत नहीं भी बोलोगे तो भी उपनिषद् बोलोगे, श्लोक नहीं भी होगा तो भी जो भी बोल रहे होगे उसमें उपनिषद् होगा। और वो नाराज़ होने लगेंगे तो शांतिपाठ निकलेगा। चिल्ला रहे हैं पापा, तुम बोल रहे हो, "ॐ शांति: शांति: शांति:। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते, ॐ शांति: शांति: शांति:।” वो चीख रहे हैं वहाँ से, ठीक है।

प्र२: धन्यवाद, आचार्य जी!

प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। अपने मन के बारे में थोड़ा-थोड़ा समझ आ रहा है। देखती हूँ कि बहुत स्वार्थ भरा हुआ है। लोग बिलकुल भी आध्यात्मिक नहीं लगते। जो लोग बिलकुल भी आध्यात्मिक नहीं लगते वो भी मुझसे कम स्वार्थी और निष्पाप दिखते हैं।

मैं शादीशुदा हूँ और दो लड़के हैं। एक माँ की जो भावनाएँ होती हैं वो मुझमें ज़्यादा नहीं हैं लेकिन मैं उनके साथ वेदान्त पर ज़रूर चर्चा करती हूँ और जो भी मैंने समझा है उन्हें बताती हूँ। आपसे सुना था कि परिवार जंगल से आया है, तब से परिवार और रिश्तेदारों के प्रति देखने का जो दृष्टिकोण है वो बदल गया है; किसी के प्रति ज़्यादा भावनाएँ नहीं बची। क्या मैं सही मार्ग पर जा रही हूँ ?

आचार्य: मैं कुछ नहीं बता सकता। सही सिर्फ़ समझदारी होती है। कोई मार्ग सही या ग़लत नहीं होता।

आप तो मुझसे वही करने को कह रहे हैं जिसकी निस्सारता मैंने आज पिछले दो-तीन घंटे में समझायी। आप मुझे अपने कर्म बताकर के कह रही हैं कि ये कर्म ठीक है या नहीं है; और मैं तीन घंटे से क्या बता रहा हूँ? कर्म सही या ग़लत नहीं होता।

मुझे कैसे पता कि आप बच्चों को वेदान्त पढ़ा रही हैं तो सही है या नहीं। सही भी हो सकता है, ग़लत भी हो सकता है। भावना क्या है आपकी, मैं क्या जानूँ!

तो कोई दूसरा व्यक्ति समय लेगा और उसको बड़ी जानकारी चाहिए होगी ये निर्णय करने के लिए कि आप किस केंद्र से संचालित हो रहे हैं। इसीलिए सबसे अच्छा होता है कि अपनी ईमानदारी को ही अपना निर्णेता बना लो।

मैं इसपर आपको कुछ सलाह दे सकता हूँ लेकिन उसके लिए मुझे आपसे आधे घंटे तक जानकारियाँ चाहिए होंगी। आप कुछ बोलेंगी मैं उसपर प्रतिप्रश्न करूँगा। कहीं आपने कुछ झूठ बोला होगा तो उसको उघाड़ने के लिए मैं तीन तरह की जानकारी माँगूँगा, फिर आपसे कुछ तर्क करूँगा। और फिर ऐसे करके मैं आपको बता पाऊँगा कि आप ईमानदारी से खेल रही हैं या गड़बड़ कर रही हैं।

तो मुझे तो इतना समय लगेगा वो सब करने में। आपको कितना समय लगेगा? आपको? तत्क्षण आप कर सकती हैं, है न? अभी बस मैं आपको इतना ही बता सकता हूँ कि कोई कर्म बताकर के ये मत पूछिए कि ठीक है या नहीं।

साधारणतया आप अगर वेदान्त पढ़ायें बच्चों को तो ये बात अच्छी ही होनी चाहिए। लेकिन मैं कुछ निश्चित तौर पर नहीं बोल सकता। माँ अगर भावुक कम है तो साधारणतया ये बात अच्छी ही होनी चाहिए। लेकिन इसपर मैं कोई आख़िरी राय नहीं बना सकता क्योंकि मुझे पूरी बात नहीं पता है।

पूरी बात किसको पता है? आपको पता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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