स्वयंसेवक (प्रश्न पढ़ते हुए): आचार्य जी, जिस तरीक़े के परिवेश में मैं पला-बढ़ा हूँ और अभी-भी अपना दिन बिताता हूँ, और जैसा समाज भी है, उसमें छोटे-छोटे क़दमों पर असफलता और छोटे होने का भाव लगातार मेरे सामने आता रहता है। इतनी असफलताएँ दैनिक रूप से देखने के बाद मुझ में आत्महीनता पैदा हो रही है, और फिर अवसाद एवं आत्महत्या करने का मन होता है। इस मनोजाल से मुझे बाहर निकालिए।
आचार्य प्रशांत: किस तरह की असफलताएँ बता रहे हैं आप?
स्वयंसेवक: उसका विवरण उन्होंने अपने सवाल में नहीं दिया है। कहा है कि छोटी-छोटी बातों में असफलताएँ देखी हैं, छब्बीस वर्षीय छात्र हैं।
आचार्य प्रशांत: मैं अनुमान लगाकर बोल रहा हूँ कि शायद शिक्षा संबंधी या रोज़गार संबंधी असफलताओं की बात कर रहे हो, चौबीस से छब्बीस की उम्र में यही सब असफलताएँ होती हैं जो सालती हैं।
देखो, अंक कितने आएँगे नहीं आएँगे उसके लिए कोई जादू-मंतर नहीं होता है। मैं वही पुरानी सीख दे सकता हूँ कि "श्रम करोगे तो जो परिणाम आ रहा है वो बेहतर होगा”, लेकिन गारंटी या आश्वासन कुछ नहीं है, ख़ासतौर पर नौकरी जैसी चीज़ में। अगर कहीं पर रिक्त पद ही दस हैं, और उन पदों के लिए आवेदन करने वालों की संख्या एक लाख है, तो मैं तुम्हें ये नहीं कहना चाहूँगा कि ऐसा घनघोर श्रम करो कि तुम शीर्ष दस में आ जाओ, क्योंकि यदि एक लाख लोग कोई परीक्षा दे रहे हैं, तो उसमें शीर्ष दस में आने के लिए श्रम ही काफ़ी नहीं होता। बहुत हद तक खेल क़िस्मत का बन जाता है।
इसके अलावा जिस तरह की हमारी परीक्षाएँ होती हैं, चाहे कॉलेज इत्यादि में और चाहे नौकरी के लिए, उनमें नैसर्गिक प्रतिभा का भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान होता है। अगर किसी में जन्मजात प्रतिभा है ही गणित की तरफ की, तो उसे गणित में बाज़ी मारने के लिए दूसरों की अपेक्षा काफ़ी कम श्रम करना पड़ेगा, और अब किसमें प्रतिभा है किसमें नहीं है, ये बात संयोग की है। पैदा होते वक्त तुम अपने जींस का, अपने अनुवांशिक गुणों का फैसला करके नहीं पैदा होते। तुम्हें नहीं पता होता कि तुम्हारे देह में किस तरह की व्यवस्था छुपी हुई है, वो तो जन्म लेने के कई-कई सालों बाद धीरे-धीरे परत-दर-परत उद्घाटन होते रहते हैं। तुम्हें पता चलता रहता है, "अच्छा! मेरे शरीर में ये बात है।" कभी कोई बीमारी हो गई पैदा होने के चौबीस साल बाद, उसके बाद जाते हो चिकित्सक के पास, तो चिकित्सक बोलता है कि, "अरे! चीज़ जेनेटिक है।" तब तुम्हें पता चलता है, "अरे! मैं माँ के गर्भ से ये चीज़ लेकर पैदा हुआ था।" तो ये सब संयोग है।
श्रम पर तुम्हारा अधिकार है, लेकिन संयोगों पर तो तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है। और किसी भी परीक्षा के अंतिम परिणाम में श्रम के अलावा कई अन्य कारक भी होते हैं। श्रम तुम कर सकते हो, और बाकी चीज़ें सांयोगिक होती हैं।
तो इसीलिए मैंने कहा कि मैं तुमको सिर्फ़ अभीप्रेरित करने के लिए, मोटिवेट करने के लिए इस तरह की बात नहीं बोलूँगा कि— "मेहनत करे जाओ और एक दिन सफलता ज़रूर तुम्हारे कदम चूमेगी", इत्यादि-इत्यादि, क्योंकि ऐसा होता नहीं है। मेहनत आवश्यक होती है, पर काफ़ी नहीं होती। जो मेहनत नहीं करेगा वो सफल नहीं होगा किसी परीक्षा में, ये बात तो नब्बे प्रतिशत तय है। पर ये कहना कि जो ही मेहनत करेगा वही प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण कर लेगा, ये बात ठीक नहीं है। मेहनत नहीं करोगे तो उत्तीर्ण नहीं होगे, ये तो ठीक, पर मेहनत करोगे और उत्तीर्ण हो ही जाओगे, ऐसा कुछ निश्चित नहीं होता।
तो तुम मेहनत करे चलो। मेहनत करे चलो, क्योंकि उसी पर तुम्हारा बस है।
अब बचते हैं 'संयोग’, उनका क्या करें? *संयोगों के प्रति बिलकुल अविचल हो जाओ, अक्रिय हो जाओ। संयोगों के प्रति बिलकुल अडिग हो जाओ, अनछुए रहो उनसे। जिस भी चीज़ को जान लो कि ये घटना तो यूँ ही है, इसमें तो मेरा कोई हाथ नहीं, उस घटना को स्पर्श मत करने दो अपनी गहराई को। तुमने अपने प्रश्न में एक शब्द का इस्तेमाल किया है कि "मुझमें अब 'आत्महीनता' आ रही है”, यह ख़तरनाक बात है।
आत्मा माने तुम्हारी गहराई, आत्मा माने तुम्हारा केंद्र, आत्मा माने तुम्हारा ह्रदय। और सांयोगिक घटनाएँ माने वो सब जो बाहरी हैं। बाहरी चीज़ों को अगर तुमने अपने केंद्र को स्पर्श करने दिया, तो ये तुमने बड़ा अनर्थ कर डाला। पहली बात तो श्रम जी जान से करो। श्रम जब जी जान से करो, तब हार-जीत का फ़र्क़ यूँ भी नहीं पड़ता फिर। तुम्हें पता होता है कि अधिकतम जो तुम कर सकते थे तुमने किया, अब परिणाम जो भी आए उसकी बात करने से कोई लाभ नहीं। अधिकतम जो तुम कर सकते थे वह कर ही दिया, अब क्या सोचना और क्या पछताना?
मान लो श्रम नहीं भी किया तुमने, तो भी एक बात का ख़याल रखो—जीतना-हारना, सफल होना-असफल होना, ये सब बाहर-बाहर की बातें हैं, इनका प्रभाव अपनी आत्मा पर मत पड़ने देना। जो चीज़ आत्मिक है ही नहीं, उसको आत्मिक मत बना लेना। दिख भी रहा हो कि ग़लती हुई है, दिख भी रहा हो कि मेहनत में कमी रह गई, तो भी स्वीकार कर लेना कि ग़लती हुई है। ये मत कह देना कि "मैं ही ग़लत हूँ"।
बाहर की कोई भी चीज़ तुम्हारी आत्मा को परिभाषित नहीं कर सकती। तुमने लाख ग़लतियाँ कर ली हों, तुम लाख गए-गुज़रे हो, दबे-कुचले हो, हो सकता है कि तुम दुनिया के सबसे निकृष्ट और पतित आदमी हो, लेकिन फिर भी आत्मा तो तुम्हारी उतनी ही साफ़, उतनी ही आसमानी और उतनी ही पूजनीय है, जितनी सदा से थी।
ग़लतियाँ मानो, और ग़लतियों से सीखो! पर किसी भी ग़लती को ये अधिकार ना दे दो कि वो तुम्हें ही ग़लत साबित कर दे। ये कहना एक बात है कि "मैंने गलती करी" और ये बात बड़ी विनम्रता के साथ कह दिया करो, मान लिया करो अगर ग़लती करी हो तो। अड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है, साफ़- साफ़ कहो, "हाँ, मैंने ग़लती करी है"। लेकिन सौ ग़लतियाँ करके भी ये मत कह देना कि "मेरी हस्ती ही ग़लत है”, कि "मेरा वजूद ही ग़लत है”, ये मत कह देना। ग़लतियाँ हो गईं हैं, लेकिन ग़लतियाँ स्वभाव नहीं हैं, ये याद रहे। ग़लतियाँ हो गईं हैं लेकिन उसके बाद भी मेरे केंद्र में वो बैठा है जो कभी ग़लत नहीं हो सकता, तो मेरा काम है उसको अभिव्यक्त होने देना। मन ग़लतियाँ कर गया है, आत्मा ग़लत नहीं हो गई। मन ने ग़लतियाँ करी हैं, हम सुधारेंगे, पूरे श्रम से सुधारेंगे, पूरी विनम्रता से सुधारेंगे, लेकिन ये हम कभी नहीं मान लेंगे कि आत्मा में ही कोई खोट है; तुमने जो शब्द इस्तेमाल किया - 'आत्महीनता'। बात समझ में आ रही है? अगर आत्मा को ही खो दोगे तो ग़लती सुधारेगा कौन?
ग़लतियाँ करते-करते अगर तुमने ये कह दिया कि - "मैं तो पूरे तरीक़े से ग़लत ही हूँ, मेरी आत्मा भी ग़लत ही है", तो अब वो जो ग़लतियाँ हैं, वो सुधरेंगी भी कैसे? क्योंकि सुधारने वाला अगर ख़ुद ही ग़लत है, तो ग़लतियाँ कैसे सुधरेंगी? तुम अपनी ग़लतियाँ सुधार पाओ इसके लिए आवश्यक है कि तुम्हारे भीतर हमेशा कोई बना रहे जो ख़ुद गलत नहीं है। बात समझ रहे हो? तुम पूरे तरीक़े से ग़लत हो सकते हो, लेकिन तुम्हारा एक अंश छूटा हुआ होना चाहिए न जो ग़लत ना हो, तभी तो अपनी सब ग़लतियों को ठीक कर पाओगे।
अच्छा, तुम्हारे दोनों हाथ, दोनों पाँव बाँध दिए जाएँ, गर्दन भी कहीं बाँध करके छोड़ दी जाए, कमर भी बाँध दी जाए, कंधे-पीठ भी बाँध दिए जाएँ, तुम्हारे पूरे शरीर को ही गिरफ़्त में ले लिया जाए—उसके बाद क्या तुम अपने बंधन खोल सकते हो? बंधन तभी खुलेंगे न जब पूरा शरीर भले ही बंधनों में हो, पर कम-से-कम एक हाथ छूट गया हो, एक हाथ बचा हुआ हो?
तुम्हारी हस्ती का वो हिस्सा जो कभी बंधनों में बंध नहीं सकता, उसी का नाम है 'आत्मा'। अगर पूरे ही तुम बंधन में हो, अगर पूरे ही तुम ग़लत हो, तो तुम्हारे बंधन काटेगा कौन? तुम्हारे ग़लत को सही करेगा कौन? ये हमेशा याद रखना कि एक हाथ खुला रहे। तुम कह दो कि "मेरी हस्ती अब पूरी ही मलिन हो गई है, कलंकित हो गई है, लेकिन फिर भी कुछ है जो अभी आज़ाद है, तैयार है, मुक्त है। उसी के दम पर मेरे पूरे अस्तित्व को मुक्ति मिल जाएगी।" एक हाथ भी अगर तुम्हारा खुला छूट गया है, तो तुम्हारे बाकी सारे बंधनों को खोल देगा।
आत्मा तुम्हारा वो खुला हुआ हाथ है जो तुम्हारी हस्ती पर पड़े, सारे बंधनों को खोल डालता है। बाकी सब कुछ बंधन में हो तो रहा आए, एक हाथ बचा रहना चाहिए। उस हाथ का नाम 'आत्मा' है। ये सांकेतिक तौर पर बोल रहा हूँ।
ये ना कहने लग जाना कि आचार्य जी ने समझाया था कि आत्मा हाथ में निवास करती है। वो भी बाएँ हाथ में!
कोई भरोसा नहीं!