जातिवाद: कारण और समाधान

Acharya Prashant

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जातिवाद: कारण और समाधान
मनुष्य चाहे किसी भी देश में हो, किसी भी परिस्थिति में हो, दुर्भाग्यवश विभाजन उसे सहज लगता है। जहाँ जाति के आधार पर विभाजन नहीं होता, वहाँ कोई और नाम लेकर यह प्रवृत्ति सामने आ जाती है। इन सभी बँटवारों का मूल स्रोत केवल मन की अज्ञानता और भ्रम है। जातिवाद मात्र एक लक्षण है, और मनुष्य को इससे नहीं, बल्कि समूची समस्या से मुक्ति चाहिए। इसका एकमात्र उपाय है—जीवन को गहराई से देखना, मन को समझना, जो वेदांत, गीता और उपनिषदों के अध्ययन से संभव है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता:

प्रणाम आचार्य जी, कुछ कोहरा है जो पूरी दुनिया पर छाया हुआ है। यह किसी एक व्यक्ति का मसला नहीं है, बल्कि समस्त मानवता पर एक आवरण बनकर बैठा हुआ है। इसका एकमात्र समाधान है कि व्यक्ति के भीतर के अंधकार का निवारण किया जाए — और उसका उपाय है: उपनिषद्।

लेकिन जिस देश ने पूरी दुनिया को उपनिषद् दिए, वही आज सबसे अधिक अंधकार में डूबा हुआ प्रतीत होता है। एक समय था जब भारत विश्वगुरु कहलाता था, लेकिन आज वह अधिकतर ग़लत कारणों से जाना जाता है। बहुत ही कम लोग हैं जो भारत को एक आध्यात्मिक देश के रूप में देखते हैं।

मेरी समझ में इसकी एक प्रमुख वजह है — जाति प्रथा। हम इतने विभाजित हैं कि अपनी ही संकीर्ण दुनिया में सिमटकर रह गए हैं। हमें देश के व्यापक हितों से कोई सरोकार नहीं रह गया, हम केवल अपने व्यक्तिगत जीवन तक सीमित हो गए हैं।

तो मेरा प्रश्न है: जातिवाद क्या है? इसका वास्तविक अर्थ क्या था? यह क्यों बनाया गया था? हमारे यहाँ जाति हमेशा से नहीं थी — हमारे यहाँ वर्ण , गोत्र और कुल की व्यवस्थाएँ थीं। तो आज के समय में जातिवाद कितनी प्रासंगिकता रखता है? और इसका समाधान क्या हो सकता है?

आचार्य प्रशांत: देखो, ऐसे शुरुआत करते हैं जैसे हमें कुछ पता ही नहीं, ठीक है? चलो, मुझे नहीं पता जात क्या होती है, मुझे समझाओ। जब हम कहते हैं कि एक आदमी एक जात का है और दूसरा दूसरी जात का है तो इसका व्यवहारिक, ज़मीनी अर्थ क्या होता है, बताओ? (इशारा करते हुए) अगर आप एक जात के हैं और वो दूसरी जाति के हैं तो इसका क्या अर्थ हुआ? ये बात हमें ज़मीन पर किस तरह से देखने को मिलेगी?

प्रश्नकर्ता: दोनों एक दूसरे के दुश्मन होंगे।

आचार्य प्रशांत: ये सब तुम सिद्धांत, कॉन्सेप्ट की बात कर रहे हो, ज़मीन पर क्या होगा? मैं किसी और ग्रह से आया हूँ, मैं जात नहीं जानता, ठीक है? मैं दो लोगों से मिल रहा हूँ जो अलग-अलग जात के हैं, या दो ऐसे समूहों से मिल रहा हूँ जो अलग-अलग जाति के हैं, और मैं कुछ जानता नहीं। मैं तो साहब बाहर से आया हूँ—तो मुझे क्या दिखाई पड़ेगा?

(दाईं तरफ़ और बाईं तरफ़ उपस्थित श्रोताओं की ओर इशारा करते हुए) ये एक जाति है, ये दूसरी जाति है। इधर एक जाति है, उधर दूसरी जाति है। और मैं कौन हूँ? मैं एलियन हूँ। तो अब मुझे क्या दिखाई देगा?

प्रश्नकर्ता: आपस में बातचीत नहीं कर रहे होंगे।

आचार्य प्रशांत: अरे बाबा! आप दोनों आपस में बातचीत भी कर रहे हैं, पूरा ही एक समाज है। तो अगर मैं यहाँ बैठकर ऑब्जर्व कर रहा हूँ, तो मुझे क्या दिखाई देगा? और मैं शार्प हूँ, मुझे चीज़ें समझ में आती हैं—तो मैं क्या नोट करूँगा?

प्रश्नकर्ता: दोनों बाहर से तो एक जैसे प्रतीत होते हैं।

आचार्य प्रशांत: बाहर से एक जैसे प्रतीत होते हैं—वाकई ऐसा है क्या?

प्रश्नकर्ता: कुछ नहीं पता लगेगा।

आचार्य प्रशांत: नहीं पता लगेगा? मान लीजिए, एक जात के लोग बैठे हैं जो सोचते हैं कि हम बहुत ऊँची जाति के हैं, और दूसरी जाति के लोग बैठे हैं जो मानते हैं कि हम नीची जाति के हैं। और मैं एलियन हूँ, मैं यहाँ बैठा हूँ। तो मुझे क्या दिखाई देगा? इधर भी स्त्री-पुरुष और बच्चे हैं, उधर भी स्त्री-पुरुष और बच्चे हैं। मैं क्या देखूँगा, क्या नोट करूँगा?

चलो एक बात तो ये देख लूँगा कि शारीरिक बनावट करीब-करीब एक जैसी है। फिर क्या दिखाई देगा? हाँ, इतना मैं समझ पाऊँगा कि इधर वाले अपने-आपको ऊँचा समझते हैं, और उधर वालों को नीचा दिखा रहे हैं। ठीक, ये एक बात दिखाई देगी—कि इधर वाले अपने-आपको श्रेष्ठ समझते हैं, और उन्हें तुच्छ।

(दूसरी ओर इशारा करते हुए) अब उधर वालों में क्या देखूँगा? जब इन्हें नीचा समझा जा रहा है तो उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी? उनमें रोष होगा, वे सिद्ध करेंगे कि हम नीचे नहीं हैं।

और मैं क्या देखूँगा? एक-दूसरे का भय होगा—एक समूह का दूसरे समूह से डर, अलगाव, और क्या देखूँगा?

प्रश्नकर्ता: विवाह नहीं होगा एक-दूसरे से, दूर-दूर रहेंगे।

आचार्य प्रशांत: यह... ये मैं कुछ ऐसी बात जानना चाहता हूँ न; मैं एलियन बैठा हूँ तो मैं देखूँगा कि अगर यहाँ बात हो रही है तो कैसी हो रही है? आपस में ज़्यादा हो रही है, इधर (दूसरी तरफ़) बात हो रही है तो क्या हो रही है? आपस में ज़्यादा हो रही है। और इन दोनों समूहों के बीच बातचीत काफ़ी कम है। (ध्यान से देखने का अभिनय करते हुए) तो मैं ऐसे देख रहा हूँ, "अच्छा, ठीक है! तो ये दोनों आपस में नहीं बात कर रहे। इनका इधर चल रहा है, इनका उधर चल रहा है।" ठीक है! और मैं क्या देखूँगा?

मैं देखूँगा कि इधर के ये थे, उधर के आप थे—इन दोनों में लड़ाई हो गई, तो उधर वाले जितने थे, आकर के किसका पक्ष लेने लग गए?

प्रश्नकर्ता: उधर वालों का।

आचार्य प्रशांत: और इधर वाले किसका पक्ष लेने लग गए?

प्रश्नकर्ता: इधर वालों का।

आचार्य प्रशांत: और पता इधर वालों को भी नहीं है कि लड़ाई किस बात की है, और उधर वालों को भी नहीं पता कि लड़ाई किस बात की है। पर उन्होंने तुरंत कह दिया, "नहीं, अपने भाई का पक्ष लेना है" और इन्होंने कह दिया, "अपने भाई का पक्ष लेना है।"

ठीक है, अच्छा! और मैं क्या देखूँगा? मैं देखूँगा कि इधर (एक जाति) के लड़के-लड़कियाँ आपस में रिश्ता बना रहे हैं, उधर (दूसरी जाति) के लड़के-लड़कियाँ आपस में रिश्ता बना रहे हैं। और ऐसा भी हो रहा है कि खाना-पीना भी ज़्यादा साथ-साथ नहीं है। चार लोग उधर बैठकर एक थाली में खा रहे हैं, चार इधर बैठकर खा रहे हैं। आपस में खाने में संकोच है, परहेज़ है।

ये सब मैं देखूँगा, ठीक है? ये सब मैं देखूँगा।

ये सब दुनिया के किस देश में हो रहा है? मैं एलियन हूँ, मुझे कुछ नहीं पता। बस जो मैंने बताया, वो सुनो—कि दो समूह हैं, जिनमें से एक समूह अपने-आपको ऊँचा समझता है, एक नीचा। वे आपस में ज़्यादा शादी-ब्याह नहीं करते। ये सब दुनिया के किस देश में हो रहा है?

ये साहब हर जगह है। बात समझ में आ रही है?

हाँ, कहीं यह किसी रास्ते से घुसा है, कहीं किसी और रास्ते से। लेकिन मूल कारण एक ही है। कहीं तुम उसे कास्ट कह सकते हो, कहीं क्लास , कहीं कुछ और। पर मूल वजह एक ही है , जानते हो क्या?

ये जो खोपड़ा है न हमारा, इसे सीमाएँ चाहिए। इसे बँटवारे पसंद हैं। इसे बाँटना बहुत ज़रूरी है।

जहाँ जाति के नाम पर बँटवारा नहीं होता, वहाँ किसी और नाम पर हो जाता है। जिन देशों को तुम कहते हो "बहुत विकसित, परिपक्व, उदार", वहाँ भी क्या ऐसा हो पाएगा कि कोई बहुत गरीब आदमी और एक बहुत अमीर आदमी एक ही थाली में खाना खा रहे हों? बोलो!

चलो, अगली बात — क्या ऐसा हो पाएगा कि कोई बहुत अव्वल दर्जे का रेस्टोरेंट है और उसमें गरीब लोग पाए जा रहे हैं? और पाए भी जाएँगे तो वेटर होंगे। विभाजन तो हो गया ना! दरवाज़े पर लिखा नहीं है कि "यहाँ सिर्फ़ अमीर लोग प्रवेश कर सकते हैं", पर उस नोटिस की ज़रूरत भी नहीं है। मेन्यू कार्ड, रेट कार्ड काफ़ी है।

अंग्रेज़ दरवाज़े पर चस्पा कर देते थे, ‘Dogs and Indians not allowed’ , अब उसकी ज़रूरत नहीं है। अब सिर्फ़ मेन्यू कार्ड चाहिए। वही काफ़ी है 99% लोगों को यह बताने के लिए कि "बाहर रहो, अंदर मत आ जाना।" क्योंकि मेन्यू कार्ड पर सिर्फ़ यह नहीं लिखा होता कि खाने में क्या है, यह भी लिखा होता है कि कितने का है । और कई लोगों की स्थिति बड़ी उलझन वाली, awkward हो जाती है—बैठते हैं, फिर चुपचाप उठकर निकल जाते हैं।

समझ रहे हो बात?

इंसान जहाँ भी है, जैसा भी है, दुर्भाग्यवश बँटवारा उसे पसंद है।

मैं नहीं कह रहा कि बँटवारे का मारा हुआ है। तो एक बात समझो—इसका ताल्लुक सिर्फ़ भारत से नहीं है। इसका ताल्लुक दुनिया की हर जगह से है। हाँ, भारत में यह समस्या बहुत गंभीर रूप में ज़रूर देखी गई। पर भूलना मत कि जिस समय भारत में जातिवाद चरम पर था, उसी समय भारत में आर्थिक ह्रास भी था, सामरिक ह्रास भी था, और गुलामी भी चल रही थी।

उसी समय भारत में कई सौ सालों तक कोई वैज्ञानिक प्रगति नहीं हुई।

ये सारी बातें मिलकर किस ओर इशारा कर रही हैं? सोचो—एक ऐसा समाज, जहाँ जातिप्रथा भयानक रूप ले चुकी है, सतीप्रथा है, वैज्ञानिक तरक्की नहीं हो रही, आर्थिक और सैन्य प्रगति ठप है। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये पाँचों-छहों बीमारियाँ एक ही स्रोत से निकली हैं? और जब यह स्रोत हटेगा, तो सारी बीमारियाँ एक साथ हटेंगी?

वो साझा स्रोत क्या है, उसे समझो।

वो स्रोत होता है—दिमाग़ के भीतर का अज्ञान, कोहरा। जब वो कोहरा छाता है, तो आदमी न जाने कितनी पागलपन की हरकतें करता है। इंसान, इंसान को मारने लगता है, खा जाने लगता है। हर तरीके से दूसरों का भी शोषण करता है और अपना भी नाश।

तो तुम क़ानून से जाति व्यवस्था को प्रतिबंधित भी कर दो—वो किसी और रूप में आ जाएगी। वो एक ऐसा नासूर है, एक जगह से साफ़ करोगे तो दूसरी जगह फूट पड़ेगा। नाम बस बदल जाएगा। ब्रिटेन में जाति नहीं थी, फिर भी ‘Dogs and Indians not allowed’ कैसे आ गया?

कोई और नाम ले लेगा वह।

एक मज़ेदार बात थी। गोवा गए हुए थे तो मेरे साथ ये सब लोग थे। एक जगह बोले कि आज चलते हैं, डांस पार्टी है वहाँ पर। इन्हें बिचारों को घुसने नहीं दिया। बोले, स्टेग एंट्री नॉट अलाउड (बिना महिला साथी प्रवेश वर्जित है)।” ये तो वही हो गया — “डॉग्स एण्ड इंडियन्स नॉट अलाउड।”

ये भी तो एक तरह की बाध्यता ही लगाई जा रही है ना, कि जब तक तुम्हारे बगल में एक देवी जी नहीं हैं, तब तक नाचने नहीं देंगे; नाचना छोड़ो, बैठने भी नहीं देंगे। बाहर खड़े होकर बोल रहे हैं — भूखे-प्यासे हैं, लेकिन पूछते हैं: “वो (साथ में लड़की) कहाँ हैं?” बोले, “हम सातों में किसी के पास नहीं।” (हँसी) गार्ड बोले, “बाहर खड़े रहो, अंदर नहीं आ सकते।”

"डॉग्स एण्ड इंडियन्स नॉट अलाउड।” अपार्टमेंट्स में लिखा रहता है — “बैचलर नॉट अलाउड।”

हमें किसी-न-किसी को दुश्मन बनाना है, किसी-न-किसी को पराया घोषित करना है। घोषित कर देना है कि ये अवांछित है, ये हमें अपनी ज़िंदगी में नहीं चाहिए। ये बात बहुत दूर की कौड़ी लगेगी आपको, लेकिन कभी सोचो — पहले मंदिरों में कहते थे कि शूद्रों को आना वर्जित है। अब वही प्रवृत्ति और जगहों पर और लोगों को वर्जित कर रही है। और जिनको वर्जित किया जा रहा है, उनको एक वर्ग विशेष के रूप में वर्जित किया जा रहा है।

उनकी कोई व्यक्तिगत गलती नहीं है कि उनको रोका गया — तुम शूद्र हो, तुम वर्जित हो; तुम बैचलर हो, तुम वर्जित हो। वो बैचलर कोई भी हो सकता है। हमारे देश में तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री — कोई भी हो सकता है। “As a class, you are barred.” समझ रहे हो बात को?

बहुत लोग कहेंगे — “This is the trivialisation of the issue.” नहीं, trivialisation नहीं है।

जब आप खुद को नहीं जानते, तो आप दूसरे को भी नहीं जानते। जब आप दूसरे को नहीं जानते, तो आप उनसे डरते हैं। और जब डरते हैं, तो उन्हें प्रतिबंधित कर देते हैं।

भारत में तो जातिप्रथा पर बात कर लेते हो, लेकिन जहाँ कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट एक-दूसरे का गला काटते रहे हैं, वहाँ की बात नहीं करोगे? वहाँ कह दोगे — “ये तो लिबरल लोग हैं।” तो फिर Irish Republican Army क्या थी? पता है उसके पीछे मामला क्या था? वहाँ भी एक बड़ा धार्मिक पहलू था।

जातिप्रथा नि:संदेह बहुत गंधाती हुई चीज़ है। लेकिन मैं बार-बार कहा करता हूँ — अगर तुम बाकी सारी मन की बीमारियाँ छोड़कर सिर्फ़ एक बीमारी पर ध्यान केंद्रित करोगे, तो कोई सफलता नहीं मिलेगी।

जो आदमी जातिप्रथा में बहुत यकीन रखता है, वो पचास और बेवकूफ़ी की चीज़ों में भी यकीन रखता होगा। तुम सर्वे करके देख लो। उसकी ज़िंदगी में और भी कई बीमारियाँ होंगी। और उन सब बीमारियों का एक साझा स्रोत होता है। ये वैसा ही है जैसे आपको कोई वायरस लग गया हो, और उसकी वजह से शरीर में चौदह तरह के लक्षण दिखाई दे रहे हों। उसमें से एक लक्षण यह भी है कि आपकी हथेली पर खुजली हो रही है। और आप उसी खुजली का इलाज करते चले जा रहे हो। हो सकता है आपके इलाज से हथेली की खुजली मिट भी जाए, लेकिन जो भीतर घुन लगा हुआ है, वो तो लगा ही रहेगा।

और मैं उसका प्रमाण दिए देता हूँ। जिनकी हथेली की खुजली मिट भी गई है, वो कौन से खुदा के बंदे हो गए हैं! बहुत सारी जनता घूम रही है अभी जो कहती है, "साहब हम तो जात-पात में यकीन नहीं रखते।" वो जात-पात में यकीन नहीं रखते लेकिन उनका जीवन फिर भी उतना ही गंधा रहा है जितना जात-पात वालों का। वो जात में नहीं यकीन रखते पर पचास और गंदगियाँ कर रहे हैं। तो फर्क़ कहाँ पड़ा, तरक्की कहाँ हो गई? हम जात-पात में यकीन नहीं रखते लेकिन हम चाहते हैं कि वेश्यावृत्ति को कानूनी घोषित कर दिया जाए। ये तो बहुत उदारमना हैं! कितनी इन्होंने आंतरिक तरक्की की! "अरे देखिए साहब, हम प्रोग्रेसिव आदमी हैं तो कास्ट वगैरह में यकीन नहीं रखते।"

एक लक्षण से मुक्ति चाहिए या पूरी बीमारी से ही? पूरी बीमारी से अगर मुक्ति चाहिए तो तरीका सिर्फ़ एक है — ज़िंदगी को देखना पड़ेगा, मन को समझना पड़ेगा। नहीं तो कुएँ से निकलकर खाई की तरफ़ भागने में कोई बुद्धिमानी नहीं है। समझ में आ रही है बात? और ये तो कर ही मत देना ग़लती कि सनातन धर्म पर जातिवादी होने का इल्ज़ाम लगा कर के कहीं उपनिषदों को ही नकार दो। ये भी चल रहा है कि "हम क्यों पढ़ें इनके शास्त्र, ये ब्राह्मणों ने लिखे हैं और इन्हीं शास्त्रों से तो जाति व्यवस्था आयी है।"

कौन से उपनिषद् से जाति व्यवस्था आयी है, बता दो। बेवकूफ़ी की बात! और उपनिषदों से आयी है तो पाकिस्तान में क्यों अहमदियों की पिटाई है? और शिया और सुन्नी क्यों लड़ रहे हैं? बोलो! और क्यों सिक्खों में जाट सिख अलग हैं और दूसरे अलग हैं, और जो पाकिस्तान से आए हैं उन्हें भापा बोलते हैं? क्योंकि बात हिंदू की, मुस्लिम की या सिक्ख की है ही नहीं, जब भीतर सब कुछ खंडित है, बँटा-बँटा, तो हम बाहर भी बँटवारा कर ही डालते हैं। हम अपने प्रति इतनी ज़्यादा हीनता से भर गए हैं कि हमें ऐसा लगता है कि सारी बुराइयाँ तो सनातन धर्म में ही हैं।

आपको क्या लगता है कि इस्लाम में कोई भी मुसलमान किसी भी दूसरे मुसलमान से शादी कर ले जाता है? आप हैं किस दुनिया में! जाकर के कुछ मुसलमान भाइयों से बात तो करिए, वो बताएँगे आपको हक़ीक़त क्या है। बँटवारा कहाँ नहीं है? उस बँटवारे को हटाने का जो तरीका है आप उसे ही हटाए दे रहे हैं। (श्वेताश्वतर उपनिषद् की ओर इशारा करते हुए) यह है उसे हटाने का तरीका, ये सामने श्वेताश्वतर उपनिषद्। कानून एकता और समानता नहीं ला पाएगा, लाएगा भी तो बहुत सतही होगी। कानून आपको विवश कर सकता है क्या किसी से प्यार करने को?

कानून तो अधिक से अधिक यही कह सकता है कि सरकारी नौकरियों में भेदभाव नहीं किया जाएगा, सार्वजनिक जगहों पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। इतना ही तो कर सकता है न कानून? कानून एकता समरसता नहीं ला सकता। वह तो उपनिषद ही लाएँगे; वो जब आपको बताएँगे कि तुम किसकी जात की बात कर रहे हो; "देह की जाति की? तुम्हें देह इतनी प्यारी हो गई?" क्योंकि जाति अगर पैदाइशी होती है, पैतृक होती है तो देह की ही होगी, देह ही तो पैदा होती है न। इन्होंने तो आपको बता दिया कि देह ही दो कौड़ी की है, तुम कहाँ फँसे हुए हो इस चक्कर में? जानवर के भी देह होती है, तुम्हारी भी देह है; तुम किस बात पर नाज़ कर रहे हो! चेतना की बात करो। अब चेतना की तो कोई जाति होती नहीं—ऐसे हटेगी जात।

जब आप देह से अपना सरोकार थोड़ा कम करेंगे, तो फिर आपने जाति से भी अपना सरोकार कम कर लिया। क्योंकि जात होती ही सिर्फ़ देह की है और जो जितना देह से लिप्त है वो उतना ज़्यादा बेवकूफियाँ करेगा, जात की नहीं करेगा तो कोई और करेगा।

हो सकता है कोई जात को न मानता हो पर जेंडर (लिंग) को मानता हो। उसका यही चल रहा है कि हाय मैं कितनी सुंदर हूँ, मैं क्या करूँ (हँसी)। मूल तो एक ही हुआ ना! थोड़ी देर पहले ये बोल रही थी कि हाय मैं तो ऊँची जाति की हूँ मैं क्या करूँ, अब बोल रही है सुंदर हूँ क्या करूँ। ये दोनों ही चीज़ें कहाँ से आ रही हैं? देह से आ रही हैं। दोनों में से एक नहीं हटेगी, हटेंगी तो दोनों हटेंगी।

निवेदन है सबसे मेरा वही कि कचरा साफ़ करने के चक्कर में घर में जो एकमात्र हीरा है, उसको बाहर मत फेंक देना। पहली ग़लती ये कि घर में कचरा भरने दिया, दूसरी ग़लती ये कि कचरा साफ़ करने के चक्कर में हीरा भी उठा कर बाहर फेंक आए। थोड़ा-सा भी अगर जागृत आदमी होगा तो उसको हँसी आएगी। थोड़ा पीछे जाएगा, देखेगा कि ये चीज़ें आयीं कहाँ से, इनका अर्थ क्या है; ब्राह्मण का अर्थ क्या होता है, शूद्र का अर्थ क्या होता है। कितनी बार तो मैं ही बता चुका हूँ। उपनिषदों ने खुद साफ़ किया कि ब्राह्मण माने क्या, शूद्र माने क्या, जाति माने क्या।

चेतना अगर आपकी ब्रह्ममुखी है सिर्फ़ तब आप ब्राह्मण हैं और जिसकी ही चेतना ब्रह्ममुखी है वो ब्राह्मण है। इतनी सीधी सपाट सरल बात है यह। फँस कहाँ रहे हो, दिक्कत क्या है? किसने कह दिया कि तुम्हारे पिता की जो जाति थी वही तुम्हारी जाति हो जाएगी, कैसे हो गया? और किसने कह दिया कि जन्म भर एक ही जाति रहती है? जब चेतना की स्थिति प्रतिपल बदलती रहती है तो तुम्हारी जाति भी तो फिर प्रतिफल बदल रही है ना? जब तुम्हारी चेतना ब्रह्ममुखी है—ब्रह्ममुखी से क्या मतलब है? सीधी बात करो? साफ़ है, निर्मल है। जब तुम्हारी चेतना साफ़ है तो ब्राह्मण हो तुम, ऊँचा स्थान मिलना चाहिए तुमको, सम्मान के अधिकारी हो।

और जब तुम्हारी चेतना शरीरबद्ध है, गिरी हुई है, गंदी है तो शूद्र हो तुम; उठो, आगे बढ़ो, बेहतर बनो। ये क्या खेल चला रखा है कि पैदा होते हो, कोई बोल देता है मैं ऊँचा हूँ, कोई बोल देता है मैं नीचा हूँ। इस तरीके से समाज ने वर्ण व्यवस्था का पालन कराया है, उपनिषदों ने नहीं कहा है ऐसे करने को। समाज की करतूत को उपनिषदों के ऊपर काहे डाल रहे हो? बल्कि ये तो दो तरफ़ा बेवकूफ़ी हो गई न। पहली बात तो तुमने उपनिषद पढ़े नहीं और उपनिषदों को न पढ़ने के कारण तुम जो करतूतें कर रहे हो उसका ठीकरा तुम उपनिषदों के सिर फोड़ रहे हो; ये तो अजीब बात है!

जैसे सिलेबस हो साल भर का, पढ़ाई करी नहीं। पढ़ाई करी नहीं, कौन मेहनत करे, पढ़े, और जब परीक्षा हुई तो उसमें क्या हो गए? फेल, सब उल्टा-पुल्टा लिख आए हैं। वहाँ अपनी मनगढ़ंत कहानियाँ, जो साल भर पिक्चरें देखते रहे, घटिया थर्ड क्लास , उन पिक्चरों की कहानियाँ लिख रहे हैं। और बहुत बेहूदी, अश्लील कहानियाँ! गणित की परीक्षा में भद्दे, अश्लील चित्र बनाकर के आ गए। एक तो ये करतूत, और फिर पकड़े गए पूछा गया कि ये बदतमीज़ी कर क्यों रहे हो, तो बोल रहे कि वो टेक्स्टबुक (किताब) में ऐसा ही लिखा है। सारी ग़लती उस टेक्स्टबुक की है, उसको जला दो।

तुमने टेक्स्टबुक पढ़ी भी है? यह जो तुम बदतमीज़ी लिखकर आए हो एग्जाम में, वही इसीलिए लिखा क्योंकि तुमने कभी पढ़ा ही नहीं। अगर तुमने पढ़ा होता, तो ऐसा कर ही नहीं सकते थे। ये जात-पात, गंद-फंद, हर तरह की कमज़ोरी—चाहे वो ये हो कि आप विज्ञान में आगे नहीं बढ़ रहे, या ये हो कि आप युद्ध के मोर्चे पर लगातार हार रहे हैं—वो सारी कमज़ोरियाँ इसलिए आई हैं क्योंकि आप इन ग्रंथों के पास कभी गए ही नहीं ठीक से। आपने कभी समझना ही नहीं चाहा।

नहीं तो तुम मुझे यह बता दो कि कृष्ण की बात का अर्जुन पर क्या असर हुआ था? अर्जुन ने अपने से दूनी शक्तिशाली सेना को हराया था। कृष्ण की बात का अर्जुन पर यह असर हुआ था कि सामने दूनी सेना खड़ी हुई थी और अर्जुन ने उसे हरा दिया। अगर कृष्ण की गीता हमने समझी होती, तो हम इतनी लड़ाइयाँ एक के बाद एक कैसे हार गए? ज़ाहिर है, हम कृष्ण की गीता समझी ही नहीं। और जब लड़ाई हार गए, तो हम बोल रहे हैं कि कृष्ण बेकार हैं, गीता बेकार है, फू-फू-फू।

क्या तुमने इसे समझा है, जिस चीज़ को छू-छू कर रहे हो? पढ़ा है? नहीं, असली चीज़ को कोई महत्व नहीं है, उसके साथ मज़ाक और खिलवाड़ करना है। अब यूट्यूब पर छोटे-छोटे वीडियो आ रहे हैं, जिसमें एक मसखरा कृष्ण बनकर आता है। वह कृष्ण जैसी वेशभूषा पहनकर, गीता के नाम पर अजब ज्ञान देता है जैसे ये सब गीता में लिखा हो।

यह बदतमीज़ी है, है ना? क्या तुम यह काम किसी सामान्य लेखक के साथ कर सकते हो? जो बात उसने कही नहीं, लिखी नहीं, उसे उसके नाम पर चिपका दो, कर सकते हो क्या? अगर आप कोई पोस्टर देखें जिसमें भद्दी बातें लिखी हों और नीचे लिखा हो ‘अचार्य प्रशांत’, तो आपको कैसा लगेगा? पर सनातन धर्मियों ने यही किया है—भद्दी-भद्दी बातें लिखकर उनके नीचे भगवद्गीता का नाम चिपकाया है। क्या तब बुरा नहीं लगा? और वही भद्दी बातें हमारी ज़िंदगी बन गई हैं; हमें खा गईं—व्यक्ति के तौर पर, समाज के तौर पर, राष्ट्र के तौर पर। वही भद्दी बातें हमें खा गईं, तो हम दोष किस पर लगा रहे हैं? गीता पर, उपनिषदों पर।

लेकिन तुम उस आदमी को नहीं पकड़ते जो कृष्ण का नाम लेकर बेहूदी बातें बोलता है। उससे पूछो कि वह जो बात बोल रहा है, वह किस श्लोक में लिखी है? और जो संगठन कहते हैं कि वे कृष्ण को समर्पित हैं, उनके प्रवक्ताओं की बातें सुनो। उनके वीडियो मिलियन्स (लाखों) में चल रहे होते हैं। उनसे पूछो, “आप जो बात बोल रहे हैं, वह कृष्ण की बात के बिल्कुल खिलाफ़ है, फिर भी आप बोले जा रहे हो।”

सिर घुटा लिया है, टीका लगा लिया है, और बोले जा रहे हो। मुझे बताओ, यह बात गीता में कहाँ है जो तुम बोल रहे हो? कृष्ण तो कहते हैं कि जो ऐसी बातें बोलता है, वह असुर है। तुम जो बोल रहे हो, वह कृष्ण भक्त होने का दावा करते हुए, कृष्ण के खिलाफ है। लेकिन नहीं, हम ऐसी बातें सहन करते हैं। और फिर जब उन बातों से हमें नुकसान होता है, तो दोष किस पर लगता है? गीता पर, कि "अरे! गीता कुछ ठीक नहीं है, गीता की वजह से जात-पात है, गीता की वजह से अंधविश्वास है। चलो वेदों को जला दो, उपनिषदों को जला दो, गीता को जला दो।" और जो जितना शास्त्रों को जलाए, वह उतना ज़्यादा प्रगतिशील माना जाएगा।

यू नो, रिलिजन इज़ फॉर द मासेस, नॉट फॉर द क्लासेस (धर्म भीड़ के लिए है, श्रेष्ठ लोगों के लिए नहीं)।

यह दुनिया का सबसे बड़ा अजूबा है कि जिस देश ने—असल में देश ने नहीं, कुछ ऋषियों ने—उपनिषदों का निर्माण किया। कौन सा पूरा देश उठकर उपनिषदों का निर्माण करता? कुछ मुट्ठी भर ऋषि थे जिनकी साधना से यह आए। यह बड़े जादू की बात है कि उसी देश में इतनी पिछड़ी हुई सोच भी है। लेकिन पिछड़ी हुई सोच इनसे नहीं आई है। पिछड़ी हुई सोच इसलिए आई है क्योंकि तुमने इनका कभी सम्मान नहीं किया, और सम्मान किया भी तो कैसे किया? (सामने रखे उपनिषद को हाथ जोड़कर प्रणाम करने का अभिनय करते हुए)।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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