जानते-बूझते क्यों फिसल जाता हूँ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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जानते-बूझते क्यों फिसल जाता हूँ || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: अजीत का सवाल है कि ये सारी बातें बहुत अच्छी हैं। अभी सुन रहे हैं तो समझ में भी आती हैं लेकिन बाहर निकलते ही परिस्थितियाँ कुछ ऐसे बदलती हैं कि हम इन पर चल नहीं पाते। बाहर लोग हैं, ताकतें हैं जो जानते-समझते भी हमको वो करने नहीं देते जो उचित है। वो पढ़े लिखे लोग हैं फिर भी हमको गुमराह करते रहते हैं। दो हिस्से हैं अजीत। एक हिस्सा तो यह है कि हम अपने आप को देखें और दूसरा कि दूसरों को देखें। जब अपने आप को देखें तो ये सवाल उठना ही चाहिए कि अभी यहाँ बैठे हुए हैं, ध्यान से सुन भी रहे हैं, कुछ लिख भी रहे हैं लेकिन उसके बाद भी ये होगा कि बाहर निकलते ही ये सब खो जाना है। थोड़ी ही देर में बाहर जाओगे और जो कुछ है, वो ख़त्म ही हो जाना है, खो ही जाना है। ऐसा होता क्यों है? ऐसा होता इसलिए है क्योंकि अभी जो तुमने सुना, वो एक ऐसे माहौल में सुना है जो मैंने बनाया है। ये माहौल तुम्हारी समझ के लिए अनुकूल है। सदा तो तुम मेरे बनाए माहौल में नहीं रह सकते। बाहर निकलते ही एक दूसरा माहौल तुम्हारे इंतज़ार में खड़ा हुआ है। वहाँ पर जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर होगी कि या तो अपने आप को उस बदले माहौल में भी सुरक्षित रखो या फिर अगर माहौल दूषित है तो उससे दूर ही हो जाओ। यहाँ तो बैठे हुए हो ध्यान से, यहाँ तो चुप हो, मौन हो, एकाग्र हो, और बाहर निकलते ही तुम्हारी स्थिति बिल्कुल बदल जानी है।

बाहर निकलते ही दस लोगों के प्रभाव में होंगे। मन जो अभी शान्त है, वो चलना शुरू हो जाएगा। वो मन जो अभी सिर्फ सुन रहा है उसमें दस तरीके के ख्याल आने शुरू हो जाऐंगे। वो आँखें जो अभी स्थिर हैं वो, दस दिशाओं में देखना शुरू कर देंगी। हज़ार तरह के शब्द तुम्हारे कानो में पड़ने शुरू हो जाऐंगे ।चल यार उधर चलते हैं, चल ये कर करते हैं, चल ऐसा है, चल वैसा है। माहौल बदल गया तो मन पूरी तरह बदल गया, और माहौल बदला नहीं कि तुम गिर गये। दो रास्ते हैं अब। या तो अपने आप को इतना ताकतवर बना लो कि माहौल कैसा भी रहे मैं हिलूंगा नहीं या दूसरा कि जब तक मुझे ये विश्वास नहीं हो जाता कि मुझमें इतनी ताकत है, तब तक मैं वैसे माहौल से ही बचूँगा। अगर पूरा-पूरा विश्वास हो जाए कि मुझमें इतनी ताकत है कि कोई मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता, तब तो कैसे भी माहौल में तुम कूद जाओ, आँख बंद करके कूद जाओ। इसलिए मैंने कहा कि वो तब करो जब पूरा और सच्चा विश्वास आ जाये कि कोई माहौल मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकता, मैं जैसा हूँ, मैं डटा रहूँगा, अडिग ही रहूँगा। माहौल बदलते रहेंगे, मैं नहीं बदलूँगा।

यदि ये साफ़-साफ़ दिखाई दे कि ये ऐसा है तब तो कैसे भी माहौल में कूद जाओ, कोई माहौल तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा, लेकिन जब तक वैसा नहीं होता तब तक अपने आप को थोड़ी सी सुरक्षा दो। कैसी सुरक्षा? तब तक वैसे माहौल से बचो। तुम ठीक-ठीक देख रहे हो। तुम अभी यहाँ पर कैसे बैठे हो? ना तुम्हारी आँखें हिल रही हैं, ना शरीर, स्थिर चित्त, जैसे एक धुरी पर अटका हुआ है। अब अगर ये वो स्थिति है जिसमें तुम ऊँचाई छू रहे हो, तो कोशिश करो खुद को ऐसी और स्थितियाँ देने की। कोशिश करो कि ऐसी और स्थितियाँ तुम्हें मिल सकें। और दूर रहो उन स्थितियों से जो इनसे तुम्हें अलग खींचती हैं। दूर रहो उन लोगों से जिनका काम ही है तुमको लगातार विचलित रखना। दूर रहो उन लोगों से जिनका काम ही है तुमको लगातार छोटा अनुभव कराना। मैं ये नहीं कह रहा कि सदा दूर रहो। बस तब तक दूर रहो जब तक तुम्हें अपने ऊपर पूरा विश्वास ना आ जाए कि अब मैं कही भी चला जाऊँ, मुझे कोई बीमारी लगेगी नहीं। फिर कहीं भी कूद जाना, फिर कोई भी दिक्कत नहीं है। रही दूसरों की बात। तुमने कहा था कि लोग इतना पढ़े लिखे होकर भी हमें क्यों परेशानी में डालते हैं? बेटा पढ़े-लिखे होने से कुछ नहीं हो जाता। जैसी हमारी शिक्षा है, वो हमें बाहर के ज्ञान से भर देती है। पंखा कैसे चलता है? ए. सी. कैसे चलता है?

श्रोता: सर वो अपने आप तो ज्ञानी समझने लगते हैं ।

वक्ता: ये भी शिक्षा ने ही किया है कि अगर तुमको ये सब पता है, भाषाएँ पता हैं, अर्थशाश्त्र पता है, विज्ञान पता है, टेक्नोलॉजी पता है, तो तुम बड़े ज्ञानी हो गये। ये बात भी तुम्हें शिक्षा ने ही दी है। इस शिक्षा से आदमी रोज़ी-रोटी तो कमा सकता है पर ज़िन्दगी में वो बौना ही रह जाता है। खाने को पा जाता है पर ज़िन्दगी उसकी खाली-खाली सी ही रहती है। तो ये सवाल तो अब उठाओ ही नहीं कि पढ़े-लिखे लोग क्यों ऐसा कर रहे हैं। उनका वो पढ़ा लिखा होना किसी काम का नहीं है, उसका कोई अर्थ नहीं है। उनपर ध्यान अभी दो मत। ध्यान अपने ऊपर दो कि मैं अपने आप को एक ठीक-ठाक, अच्छी स्थिति में निरन्तर रखूँ। उसी बात का कुछ महत्व है। अपना माहौल ठीक रखो। लगातार देखते रहो। मैं सुबह से शाम तक जो कुछ करता हूँ, उसमें कैसा माहौल है, कैसे लोग हैं? मैं क्या कर रहा हूँ ? मैं इंटरनेट पर हूँ, तो किस तरह के माहौल से घिर रहा हूँ? मैं किनके साथ उठ-बैठ रहा हूँ? किनके साथ मेरी बात-चीत है? कौन-सी किताबें पढ़ रहा हूँ? बस इन बातों पर ध्यान दो, यही तुम्हारा माहौल है। कुछ ही दिनों में इतने पक्के हो जाओगे कि कैसा ही माहौल हो तुम्हें कोई अंतर नहीं पड़ेगा।

-‘संवाद’ पर आधारित।स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्तहैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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