जानना और श्रद्धा काफी हैं || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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जानना और श्रद्धा काफी हैं || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

श्रोता: सर, एक बार आपने बात की थी, मन के तीन तलों की। मन की जो शरुआत होती है, वो है, ऊपर जो भी चलता है, थोडा-थोडा। उसके नीचे आपकी वृत्तियां आती हैं, और उसके नीचे वो शांत, मौन मन, जो स्थिर होता है, वो है। जब से मैं अपनी वृत्तियां देखने लग गया हूं, जो आलसी है, जो टाल-मटोल करता है, तो मैं ये पता हूं कि वो वृत्तियां, जब भी मैं उन्हें तोड़ने की कोशिश करता हूं, वो और तेजी से वापस आती हैं। जैसे की अगर मैंने सोच लिया कि मैं आलसी नही होऊंगा और मैं काम करूंगा, तो मुझसे वो काम अब पहले जैसा भी नही होता।

वक्ता: ये, कौन कह रहा है कि ‘मैं आलसी नही होऊंगा’?

श्रोता: अहंकार।

वक्ता: वृत्ति ही तो कह रही है? वृत्ति से लड़ते नही हैं, वृत्ति से लड़ा नही जाता। जानना काफी है कि ये वृत्ति है। क्योंकि वृत्ति से लड़ने वाली एक दूसरी वृत्ति बैठी होगी। बोध, ‘अकर्ता’ है। वो कुछ भी नही करता, तो लड़ेगा कैसे? ‘बोध अकर्ता है’, इसको याद रखो। ये कुछ करता नही है। ये केवल जान लेता है।

श्रोता १: जान लेता है।

वक्ता: हां। और इस जानने में सही क्रिया अपने आप हो जाती है।

श्रोता १: सर, मुझे नही पता कि सही क्रिया क्या है।

वक्ता: तुम नहीं जानोगे। मैंने कहा कि सही क्रिया जो है, वो अपने आप हो जाएगी। तुम नहीं जान पाओगे। क्योंकि अगर तुम जानोगे, तो फिर ये समय में हो रहा है। तो फिर ये योजनाबद्ध तरीके से हो रहा है। मैं पहले जनता हूं, तब क्रिया होती है। तब ये कोई अपने आप होने वाली घटना नही रही।

श्रोता १: अच्छा, तो हम इसमें पहले गणना कर रहें हैं। ,और फिर काम कर रहें हैं।

वक्ता: बिल्कुल ठीक। वहां कोई सहजता नहीं है।

श्रोता २: ‘समझ’ का मतलब पूरी तरह सहजता से है।

वक्ता: सहजता। तो जानो और तब जो सहज ही होता है, उसे होने दो।

श्रोता १: तो जब मैं अपने अंदर कुछ करने की बेकार सी जिद्द को देखता हूं, और अब मैं तर्कपूर्वक, वही जिद्द को देखूं कि ये मेरी वृत्तियों से आ रहा है, या समझ से, तो मैं उलझन में पड़ जाता हूं, क्योंकि मुझे लगता है कि मन मेरे साथ चाल चल रहा है। उसके बाद मुझे ये बात समझ आती है कि मन वास्तव में बहुत चालाक होता है। और ये उसी चीज को दोबारा मुझ पर दाग देता है। तो आप कैसे कुछ समझ से करेंगे?

वक्ता: कभी भी ‘मैं’ नही। तुमने कहा कि मन ‘मेरे साथ’ चाल चल रहा है। तो ये ‘मैं’ फिर तुम जानते हो कौन है?

श्रोता १: अहंकार।

वक्ता: तो तस्वीर में कभी भी ‘मैं’ नही हो । पूरे खेल को ध्यान से देखो, और अधीर मत होवो। अधीर मत हो। कुछ करने की जिद्द मत करो।

श्रोता १: हां, मुझमें ये जिद्द है कि मैं करूं।

वक्ता: जब भी तुम करने की जिद्द करोगे कोई तुम्हें बेवकूफ़ बना जाएगा। जानना काफी है, यहीं पर रुक जाओ। जानना काफी है। और जानने के बाद, ये निरीक्षण मत करो कि कुछ हो रहा है या नही। ‘जान तो रहें हैं, अब क्या हो रहा है?’ इस तरह की बात मत करो।

श्रोता १: बस जान लें?

वक्ता: बस जान लो, और श्रद्धा रखो। बस जान लो और, श्रद्धा रखो।

श्रोता १: सर, ऐसा माहौल हो जाता है अंदर का, ऐसा हिल जाता है ना, तो अंदर से..।

वक्ता: बस, बस, बस, बस, श्रद्धा रखो। सब ठीक है, बस श्रद्धा रखो।

श्रोता १: पूरा ठनक जाते हैं।

वक्ता: मैं जनता हूं, समझता हूं। और इस क्षण पर अपने आप को किसी प्रतिक्रिया से रोकना बहुत कठिन हो जाता है। तुम प्रतिक्रिया देना चाहते हो। ‘अब मैं जान चुका हूं, अब मैं करूंगा ही’। नही, यहां कोई जरुरत नहीं है करने की। काम होगा, मैं ये नहीं कह रहा कि क्रिया को रोक दो। ये मत समझ लेना मैं ये भी नही कह रहा। मैं ये नहीं कह रहा कि क्रिया होने को है और तुम इसके सामने खड़े हो जाओ, रोक दो। तो इसको रोको मत, पर इस पर ज़ोर भी मत लगाओ। बस इसे होने दो, होने दो।

श्रोता २: सर, जब प्रश्न उठें तो क्या करें?

वक्ता: जब प्रश्न उठे?

श्रोता २: हां।

वक्ता: हां अच्छा है। जब प्रश्न उठते हैं तो जान लो कि प्रश्नों के पास कारण है। अगर प्रश्न में कोई सजीवता है, अगर प्रश्न में कोई महत्व है तो उत्तर आ जाएगा। और अगर प्रश्न कोई महत्वहीन तरह की जिज्ञासा होगी, तो ये कुछ समय में फिर चली जाएगी।

श्रोता ३: सर, आपने एक संवाद में कहा था दिमाग तो चंचल है ही, वो तो भगेगा इधर से उधर, आपको बस ध्यान देना है और देखना है कि कहां चंचलता है। लेकिन, आपने उसमें बोल रखा है कि अगर वो चंचल होता है, तो उसके साथ जाओ।

वक्ता: वरना पता कैसे चलेगा कि वो चंचल है? तुम यहां बैठे हो, वो अपनी चंचलता में भाग गया। तो तुम्हें पता कैसे चलेगा कि क्या कर रहा है? साथ जाओ का मतलब यही है कि ध्यान रखो।

श्रोता ३: इसका मतलब ये नहीं है कि जो वो काम करना चाहता है, उसी तरह करो?

वक्ता: जब तुम ध्यान दे रहे हो, तो अक्सर वो, वो काम करेगा ही नहीं जो वो करना चाहता है। एक बच्चा है, वो भागा हुआ है। उसकी माँ उसके साथ-साथ चल दी। क्या वो सार बदमाशियां करेगा जो वो करता, अगर वो अकेला होता?

श्रोता ३: नहीं।

वक्ता: बस। जहां भी मन जाता है उसे रोकने की कोशिश मत करो, लेकिन उसके साथ रहो। साथ रहने से, मेरा मतलब है कि ध्यान देते रहो।

श्रोता ३: इसका ये मतलब नहीं कि अगर उसका मन हो रहा है कि यहां से उठ कर वहां पहुँच जाऊं तो आप, जैसा आपके मन में आ रहा है, भागना शुरू कर दिया?

वक्ता: उसका मन कर रहा है भागने का, और तुम देख रहे हो कि उसका मन कर रहा है भागने का। अब हो सकता है कि वो भगे ही ना।

श्रोता ३: और अगर फिर भी मन करे, तो भग जाओ?

वक्ता: अब वो भग रहा है, तो भी उसके साथ रहो। तुम्हारे साथ रहने से, वो बदल जाएगा। मन,’ध्यान’ के तहत बदलता है। तुम्हें कुछ करने की ज़रुरत नहीं है।

श्रोता ३: हां, मैंने ये देखा है कि यदि, मन ध्यान में है..

वक्ता: तो वो बदल जाता है।

श्रोता ३: हां।

वक्ता: बस देखने वाले हो जाओ। उसके साथरहो।

श्रोता ३: एक और बात, जब मैं कुछ काम कर रहा होता हूं, तो मुझे उसमें डर दिखता है। तो मैंने अपने मित्र से पूछा कि जब तुझे डर आता है तो क्या होता है। तो वो कहता है कि मैं ध्यान देता हूं। तो मैंने कहा कि पर डर यही तो काम चाहता है कि आप रोक दो अपने आप को। क्योंकिडर आपको करने से रोकता है। तो, वो तो अपना काम कर ही रहा है, जबकि हम ध्यान दे रहे हैं। तो उसने कुछ ‘दृष्टि बोध’ की बात की कि अगर आप पूर्ण दृष्टि बोध में देखोगे तो डर नही होगा। पता नही क्या है यह ‘दृष्टि बोध’? मुझे समझ नहीं आई उसकी बात। तो आप मुझे कुछ बताना चाहेंगे?

मुझे ऐसा लगता है कि अगर आप डर पर ध्यान दें, जैसे मुझे डर लगा, मैंने ध्यान दिया, और अगर मैं उसके बाद कुछ ना करूं, तो मैं डर को अपना काम करने दे रहा हूं। वो काम ये है कि आपको कुछ करने देने से रोकना है। तो मैं क्या गलत कर रहा हूं? या फिर मेरी समझ ही गलत है?

वक्ता: नहीं! गलत कुछ नहीं कर रहे हो। लेकिन एक बात समझना, ऐसा नहीं है कि डर हमेशा तुम्हें करने से रोकता है। डर, तुमसे काम करवा भी तो देता है। कितने सारे लोग ऐसे ऐसे काम कर जाते हैं डर में, जो वरना कभी करते ही नहीं।

श्रोता ३: हां।

वक्ता: डर, कुछ भी करवा सकता है। करवा भी सकता है, रुकवा भी सकता है, सोचवा भी सकता है। कुछ भी कर सकता है। तुम्हारा काम, इन सब चीजों पर ध्यान देना नही है कि अगला काम क्या करेगा डर। डर है, तो है। ‘ओह! डर है’। ये वास्तव में आसन है। मैं, बार-बार कह रहा हूं, जानना काफी है, श्रद्धा रखो। डर है। और मैं जनता हूं, डर है। ये काफी है, विश्वास रखो। ये कठिन नही है। तुम्हें उसके आगे तीन कदम उठाने की जरुरत नहीं है।

श्रोता ३: मुझे लगता है जितना मैं जानता हूं, मुझे उतना उसका मालिक बनना पड़ेगा। उससे ये परेशानी होती है कि जब भी, परिस्थितियां नियंत्रण से बाहर जाती हैं, जो चीज मैं सोच रहा था कि ये अब सही हो गई है, वो फिर डगमगा जाती है।

वक्ता: तुम कोशिश कर रहे हो न नियंत्रण की?

श्रोता ३: हां।

वक्ता: कौन कोशिश कर रहा है नियंत्रण करने की?

श्रोता ३: अहंकार।

वक्ता: जो चीज नियंत्रण से बाहर जा रही है, तुमने शांति से देख लिया ना, कि इसकी इस तरीके से गति हो रही है? वो गति अपने आप बदलती है, जानबुझ कर नही बदलती। तुम्हारे हिसाब से नही बदलेगा, पर कुछ बदल जाएगा। क्या बदलेगा? वो तुम्हारी उम्मीदों को पूरा नही करेगा, पर कुछ बदल जाएगा।

श्रोता ३: ठीक है। ये भी देखने वाली बात है। उम्मीद भी बहुत बड़ी चीज होती है।

वक्ता: देखो होता क्या है ना, कि हम कुछ ध्यान भी देते हैं, तो हम ये सोचते हैं कि अब देख लिया, अब इसका फ़ल कब मिलेगा। ‘ध्यान दे लिया अब मेरे मुताबिक इसमें से फल कब मिलेगा मुझे’। वैसे नहीं होगा। फल है, पर वो तुम्हारे हिसाब से नहीं आएगा। तुम्हारे सोचने से नहीं आएगा। सो, जानना काफी है, श्रद्धा रखो। ये श्रद्धा बहुत जरुरी है।

श्रोता ४: श्रद्धा। सर आपको याद है जब हम कैंप में थे तो आपने एक दिन प्रश्न किया था कि इतनी सारी बातें करते रहते हो, तुमने खुद कभी कुछ महसूस किया है? और उस दिन सब चुप थे। उस दिन मैंने आपसे बोला था कि एक ही चीज मुझे पता है कि हां, अभी का समय है। अभी जो इस क्षण है, वही है। और कुछ आगे होता नहीं। सर अगर मुझे इस बात पर भी विश्वास है, तो इतना जानने से चल जाएगा?

वक्ता: कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हें किस चीज़ पर श्रद्धा है, तुम उसे क्या नाम दे रहे हो, नाम दे भी रहे हो कि नहीं दे रहे हो। इन सब से कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई भी फर्क नहीं पड़ता। श्रद्धा, श्रद्धा होती है।

श्रोता ३: बस वो है।

वक्ता: श्रद्धा का मतलब है, ‘एक आखिरी चीज़ है, जो हिल नहीं सकती। श्रद्धा का इतना ही मतलब है कि कुछ है, ऐसा जो आखिरी है, जो हिल नहीं सकता। ‘वो है बस, मैं उस पर निर्भर हो सकता हूं। ये पूरी तरह वहां है, पक्का है, सत है’- ये श्रद्धा है।

श्रोता ३: सर, ये भाव तो मैं किसी भी चीज के लिए नहीं रखता।

वक्ता: तो नहीं है श्रद्धा। वो, ‘चीज’ नहीं होगी ना। इसलिए, जो भी ‘चीज़’ होगी, वो तो हिल ही जाएगी।

श्रोता ३: हां।

वक्ता: तो श्रद्धा, एक बहुत हल्का सा भाव होता है, सूक्ष्म। क्योंकि चीज़ पर विश्वास करोगे, तो हर चीज़ हिलने के लिए तैयार बैठी है। हर चीज़ आज है, कल जाने के लिये तैयार है। तो इसलिये, श्रद्धा किसी ‘चीज़’ पर नहीं हो सकती ।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुचंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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