जान कर अनजान? || आचार्य प्रशांत (2013)

Acharya Prashant

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जान कर अनजान? || आचार्य प्रशांत (2013)

प्रश्न: ऐसा बहुत बार होता है कि सत्य की झलक मिलती है। पर हम झलक मिलने के बाद भी क्यों अनजान बने रहते हैं?

वक्ता: जिस क्षण में तुम्हें झलक मिलती है, उस क्षण में तुम कुछ भी नज़रंदाज़ नहीं कर रहे होते हो। सत्य की झलक मिलने के बाद जो प्रक्रिया होती है उसका नाम ‘अज्ञान’ है ही नहीं। उसका नाम है, ‘दमन’। हम ‘उपेक्षा’ नहीं करते, हम ‘दमन’ करते हैं। हमें दमन इसलिए करना पड़ता है क्योंकि सच की झलक ये दिखा जाती है कि बाकी सब कितना झूठ है। सच की झलक खतरनाक होती है। वह तुम्हारे सामने सिर्फ दो ही विकल्प छोड़ती है:

पहला: जो दिख गया उसके अनुसार ज़िन्दगी जीयो।दूसरा: अपने झूठे तरीकों पर वापिस लौट जाओ।

अब ये तो निश्चित सी बात है कि जो दिख गया उसके अनुसार ज़िन्दगी जीयोगे तो जो बंधी-बंधाई प्रक्रिया चल रही थी ज़िन्दगी की, वह अव्यवस्थित हो जाएगी। उसे टूटना होगा। इसका टूटने का ख्याल भर ही बड़ा दर्द देता है क्योंकि जो टूटने जा रहा है उसी से हम जुड़े हैं, उसी से हमारी पहचान है। सच जिसको तोड़ देना चाहता है उसी से हमारा तादात्म्य है। उसके टूटने का विचार ही बड़ी पीड़ा देता है। इसलिए जैसे ही सच दिखाई देता है उसके कुछ ही क्षणों बाद आदमी जो देखा था, वो सब दबा देता है, कोशिश करता है कि भूल जाए। भूल सकता नहीं है, तो उसे दबा देता है। जब हमने रोहित से पूछा कि आज की चर्चा का विषय बताओ, तो रोहित ने कहा, ‘पानी’।

‘पानी’ का लाओ त्ज़ो ने बड़े गहरे अर्थों में प्रयोग किया है। बड़े ही गहरे अर्थों के साथ! उसने कहा है कि पानी एक ऐसी ताकत है जो प्रतिरोध भी नहीं देती है और फिर भी काट डालती है। यह पानी इन पत्थरों पर पड़ रहा है, इनका आकार कैसा हो गया है?

श्रोता १: ये गोल हो गए हैं।

वक्ता: पानी ने पत्थरों को काट डाला। लाओ त्ज़ो आगे इसी में कहते हैं कि जो ‘ताओ’ है, वो पानी जैसा ही है। वह आकर आपका प्रतिरोध नहीं करेगा। वो एक झटके में नहीं कहता है, ‘बंधी-बंधाई प्रक्रिया है, तोड़ डालो, अतीत से मुक्ति पा लो’। अनवरत, निरंतर और बिना रुके उसका काम चलता रहता है। इस पानी ने पत्थर को कब काटा? प्रतिक्षण काटा, लगातार काटा! ये मन की प्रक्रिया है। मन समय में रहता है। अंततः समय लगेगा कटने में। लेकिन पानी लगातार काट रहा है। जो कुछ भी पुराना है, वह पत्थर बन चुका है, जम चुका है। एक झटके में नहीं काट पाओगे उसे।

लेकिन लगातार-लगातार उस पर चोट करते रहो, पानी जैसी चोट। लगातार एक प्रतिरोध बना रहे। मज़ेदार बात ये है कि प्रतिरोध भी है और बहाव भी। पत्थर से पत्थर नहीं टकरा रहे। जब पत्थर से पत्थर लड़ता है, तो टूट जाता है, रुक जाता है। और जब बहता हुआ पानी टकराता है तो क्या पानी रुक जाता है? पानी लगातार अपना काम करता रहता है। अपनी मौज में है! पानी को जिधर जाना है वह चलता जा रहा है। यह सिर्फ एक संयोग की बात है, एक प्रतिफल है कि पानी के बहने के साथ ही पत्थर कटता जा रहा है।

जीवन पानी की तरह है। पानी बहता जा रहा है और पत्थर कटता जा रहा है। क्या पानी इसलिए बह रहा है क्योंकि उसे पत्थर काटना है?

श्रोता २: नहीं।

वक्ता: क्या पानी पत्थर से रुक कर लड़ने की सोच रहा है? क्या पानी की पत्थर से कोई दुश्मनी है? पानी अपनी धार में मस्त होकर बह रहा है। पानी के बहने के फलस्वरूप सिर्फ संयोगवश पत्थर कट रहा है।

अब हम क्या करें? हम बहें! हम बहते रहें। हम बहते रहेंगे तो अपने आप जितने पत्थर हैं ये कटते भी रहेंगे।

ध्यान रखना हमने कहा था कि पत्थर समय की उत्पत्ति है। वह हमारे बड़े लम्बे समय के संस्कार हैं। एक समय में, एक झटके में नहीं कट पाएँगे। पानी बहता रहे, पत्थर अपने आप घुल जाएँगे। जीवन पानी की तरह है, वह बहता रहे। याद रखना इसमें यह भी नहीं कहा जा रहा है कि पत्थरों से मुँह चुरा लेना है। जब पत्थर सामने पड़ता है तो पानी क्या करता है? पत्थर से बचकर जाता है। अपना रास्ता बना लेता है। पर जहाँ ज़रुरत है और कोई रास्ता नहीं है, तो भिड़ने में संकोच भी नहीं करता। और जब पत्थर और पानी भिड़ते हैं तो कौन हारता है? पत्थर हारता है। पानी ने तय नहीं कर रखा है कि उसे पत्थर को घिस ही देना है, मार ही देना है, काट ही देना है। लेकिन स्वभाव है यह पत्थर और पानी का। जब ये दोनों मिलेंगे, तो हारेगा पत्थर ही।

अपना काम करो, अपनी मौज में रहो, पत्थर अपने आप कटते रहेंगे।

श्रोता १: मौज नकली नहीं होनी चाहिए।

वक्ता: हाँ, मौज नकली न हो। बहाव नकली न हो। अगर तुम्हारी मौज नकली नहीं है, अगर तुम्हारा भाव सतत है तो जिस पत्थर को समय ने पैदा किया था वह समय के साथ धीरे-धीरे घुल भी जाएगा और कट भी जाएगा।

श्रोता १: कैसे पता चले कि एक ढाँचे से बाहर किया हुआ कार्य मेरे मन और अहंकार की ही एक और घटना नहीं है?

वक्ता: हमारा स्वभाव है जानना, प्रेम, मुक्ति। जब भी कभी इनके विपरीत की प्रतीति हो, जब भी दिखाई दे कि इनका विपरीत अनुभव हो रहा है तो समझ लेना कि जो सोच रहे हो या जो कर रहे हो, वह ध्यान से नहीं आ रहा है। कुछ करके अगर बंधन का अनुभव होता है तो पक्का-पक्का यही जानना कि यह तुम्हारे संस्कार हैं पुराने। पक्का-पक्का यही जानना कि वह कर्म या विचार ध्यान से नहीं निकला है। ईर्ष्या उठती हो मन में, तो समझ जाना कि ध्यान में नहीं हो। दुविधा रहे तो समझ जाना कि बात ध्यान से नहीं आई है।

और जब भी इनके विपरीत एक सहजता रहे, साफ़-साफ़ और स्पष्ट दिखे कि मैं कर क्या रहा हूँ, तब समझ लेना कि यहाँ कुछ नया घटित हो रहा है। नया अपने साथ एक रोमांच लेकर आता है। एक जीवंत उत्तेजना! और जब संस्कार चल रहे होते हैं तब कुछ नया नहीं हो रहा होता। जब भी कभी समय ऐसा बीत रहा हो कि साफ़-साफ़ दिखाई दे कि एक गहरी सुस्ती है, तो समझ लेना कि जो भी कर रहे हो वह संस्कारों से ही कहीं आ रहा है।

एक जो जीवंत उत्तेजना है, यह कुछ-कुछ डर जैसी लगती है। रोमांच थोड़ा बहुत डर जैसा लगता है। डर नहीं है यह। जब भी कुछ नया करोगे, जब भी कुछ ध्यान के फलस्वरूप होगा, तो वह कुछ ऐसा-सा अनुभव देगा जो डर के करीब है। डर नहीं है पर डर के थोड़ा करीब है।

याद रखना डर मृत होता है। बिल्कुल मरा हुआ और मैंने जीवंत उत्तेजना की बात की है। एक मरा हुआ डर नहीं, एक पुनरावृत्ति नहीं! नए का स्वागत करने की एक जीवंत आतुरता। जिसमें यह तो नहीं पता कि आगे आने क्या जा रहा है, पर यह ज़रूर पता है कि जो भी आ रहा है मज़ेदार है। यह सब लक्षण हैं ध्यान से निकलते हुए कर्मों के। याद रखना ध्यान का मतलब विचार-शून्यता नहीं है। ऐसा ध्यान जो विचार के लिए कोई जगह ना छोड़ता हो वह जीवन विरोधी हो जाएगा। जीवन विचार मांगता है। ध्यान वह पृष्ठभूमि है जिसके ऊपर विचार भी चलता रहता है और कर्म भी।

श्रोता १: एक लक्षण और हो सकता है। विचार और कर्म वैसे ही चलते रहें पर यह पता हो कि सभी बाहरी है। उदाहरण के तौर पर यह जानना कि इस पहाड़ की ऊँचाई कितनी है।

वक्ता: यह जानना ज़रूरी हो सकता है कि इस पहाड़ की ऊंचाई कितनी है। यह मन जो बाहर के बारे में जानना चाह रहा है, बाहर के बारे में जान रहा होगा और तुम यह जान रहे होंगे कि मन बाहर के बारे में जान रहा है।

फिर से- ऐसा ध्यान जो तुम्हें विचार-शून्य कर दे, ऐसा ध्यान जो किसी भी बाहरी वस्तु, व्यक्ति आदि से काट कर रख दे, ऐसा ध्यान जीवन विरोधी हो जाएगा। उसके साथ जीवित रहना मुश्किल हो जाएगा।

क्या बुराई है यह जानने में कि इस पहाड़ की ऊंचाई कितनी है? क्या बुराई है यह जानने में कि यह झरना कितना गहरा है? लेकिन सिर्फ यही जान रहे हो तो बुराई हो सकती है। जो कुछ बाहरी है दुनिया में, उसको जानना कहीं से भी बुरा नहीं है। लेकिन जब उस मन को नहीं जान रहे जो उसको जान रहा है, तब दिक्कत है। मन साक्षी बनकर बैठा रहता है, और विषय की तरफ देखता है। ध्यान का मतलब है पुरुष और विषय, दोनों को जानना। मन अपना काम करता रहेगा। मन का काम ही है बाहरी विषयों को जानना।

श्रोता २: हमने पिछली बार बात की थी कि हम बाहरी चीज़ों के बारे में बहुत ज़्यादा जानने की कोशिश न करें।

वक्ता: और जब उनसे कोई प्रयोजन हो?

श्रोता २: तब जानना चाहेंगे।

वक्ता: जिसने यह सड़क बनाई है, जो तुम्हें यहाँ तक लेकर आई है, उसने पूरा सर्वेक्षण किया होगा, तब जाकर यह सड़क बनी है। तो जब ज़रुरत हो तब तो जानना पड़ेगा। अगर हमने ध्यान का मतलब यह निकाल लिया कि मुझे बाहरी के बारे में कुछ नहीं जानना है तो दिक्कत हो जाएगी। लेकिन जब तुम उस मन को भी जान रहे हो जो जानने के लिए आतुर है, तब तुमको यह पता चल जाएगा कि बाहर की सूचना कितनी ज़रूरी है, काम की है और कितनी सूचना ऐसी है जिसको तुम बस अपनी आतुरता के कारण जानने को इच्छुक रहते हो।

-‘बोध-शिविर सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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