आचार्य प्रशांत: सिखों के पास अपना केंद्रीय ग्रंथ है, जैनों के पास भी अपना केंद्रीय दर्शन है। ग्रंथ, दर्शन; ठीक? ‘अहिंसा’ शब्द बोलते ही आपको जैन याद आएँगे। हिंदुओं के पास मुझे बताइए, कौनसा केंद्रीय ग्रंथ है? हिंदू माने क्या? आपने कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा, आप तब भी हिंदू हो। आप अपने किसी ग्रंथ का नाम नहीं बता सकते, आप तब भी हिंदू हो।
कोई एक ग्रंथ है नहीं, इतने सारे ग्रंथ हैं। उन सब ग्रंथों में जो आम हिंदू है, वो किसी ग्रंथ को केंद्रीय, सर्वोच्च स्थान देता ही नहीं। मैं इतनी बार बोल चुका हूँ कि भाई लोगों, गीता पढ़ लो। उन्हें बताता हूँ कि गीता आत्मा के एकत्व पर ज़ोर देती है, तो गीता के और उपनिषदों के विरोध में लोग आकर मुझे मनुस्मृति और गरुड़ पुराण का हवाला देने लग जाते हैं।
हिंदू धर्म माने ऐसे लोग जिनके लिए गीता और गरुड़ पुराण एक है और उपनिषद् और मनुस्मृति एक बराबर है। सर्वोच्च स्थान किसको देना है इनको पता ही नहीं है। तो पहली बात तो ग्रंथ कोई पढ़े नहीं, दूसरी बात, ग्रंथ कोई अगर पढ़े भी हैं तो जो हज़ारों ग्रंथ हैं, उनमें से केंद्रीय कौनसा है लोगों को इस बात का कुछ पता ही नहीं है।
फिर आते हैं दर्शन पर। नेमैंने कहा, ग्रंथ और दर्शन। कौनसा दर्शन? छः तो प्रमुख ही दर्शन हैं, आस्तिक। दो-तीन नास्तिक दर्शन हैं। जो प्रमुख दर्शन हैं, उनकी भी न जाने कितनी शाखाएँ, धाराएँ, उपधाराएँ, प्रशाखाएँ हैं। कोई कुछ भी मान ले।
एकदम फ़्री मार्केट डेमोक्रेसी चल रही है। जिसको जो मानना है मानते रहो, हिंदू कहलाओगे। तो फिर कुछ भी कर लो। सबकुछ करने की छूट है। यहाँ तक कि अपने ही तीर्थस्थल को बर्बाद कर देने की भी छूट है, सब चलता है। जब कुछ भी कर सकते हो, तो अपने ही तीर्थस्थल में आधुनिकीकरण और सौंदर्यीकरण के नाम पर बहुत सारे मंदिर क्यों नहीं तोड़ सकते? कुछ भी कर सकते हो।
जैनों में ऐसा नहीं हो सकता। कोई जैन अगर माँस खा ले, तो मुझे नहीं लगता वो अपनेआप को जैन कह पाएगा। खुलेआम तो नहीं खा सकता। छुप-छुपकर मैं जानता हूँ, बहुत सारे जैन माँस-वाँस खाने लग गए हैं, पर कोई जैन कहे, ’मैं जैन हूँ’ और खुलेआम माँस खा रहा हो, उसका मुँह पिचक जाएगा। उससे बोला ही नहीं जाएगा। ये बात इतनी बेतुकी, इतनी अतार्किक हो जाएगी कि तुम कहाँ के जैन हो भाई जो तुम माँस खा रहे हो।
इसी तरीक़े से कोई सिख अगर बोल दे कि मैं गुरुग्रंथ साहिब जी को नहीं मानता, आदि ग्रंथ का मैं सम्मान ही नहीं करता, तो वो सिख कहलाएगा ही नहीं। अगले दिन से वो सिख जमात से ही बाहर हो जाएगा। सिख हो ही नहीं तुम। तुमको अगर गुरुग्रंथ साहिब जी को ही नहीं मानना है, तो तुम सिख कहाँ से हो गए।
यहाँ हिंदुओं में तो श्रीमद्भगवद्गीता को नहीं मानते, उपनिषद् नहीं मानते। कुछ नहीं मानते, फिर भी हम हिंदू हैं। हिंदू क्यों हैं? क्योंकि हमारे बाप हिंदू हैं। तुम्हारे बाप के हिंदू होने से तुम हिंदू थोड़े हो जाते हो? ‘हम होली-दिवाली मनाते हैं, हम हिंदू हैं। हम रोटी और कद्दू की सब्ज़ी खाते हैं, हम हिंदू हैं। हम जन्माष्टमी पर खीर चटाते हैं, हम हिंदू हैं।’ ऐसे हिंदू हो जाते हैं! तो हिंदुओं में कुछ भी चलता है।
दो चीज़ें होती हैं जो वास्तव में धर्म के केंद्र में होती हैं। पहली बात ‘दर्शन’, दूसरी बात वो ‘ग्रंथ’, जिसमें उस दर्शन का एक्सपोज़िशन (प्रदर्शन) होता है। हिंदुओं में ये दोनों चीज़ें होकर भी नहीं हैं। हिंदुओं में ग्रंथ भी मौज़ूद हैं और वो ग्रंथ हैं — उपनिषद्। दर्शन भी मौज़ूद है, वो दर्शन है — वेदांत। वास्तव में सनातन धर्म यही है — उपनिषद् और वेदांत। ठीक है? और वेदांत जब मैं कहता हूँ, तो उसमें उपनिषदों में ब्रह्मसूत्र और श्रीमद्भगवद्गीता और जोड़ दीजिए। लेकिन हिंदू सौ विचारों में, सौ दर्शनों में भटका हुआ है। उसको कोई बताने वाला ही नहीं है, बल्कि उसको भटकाने वाले न जाने कितने लोग हैं। कितने लोग हैं जो उसको हज़ार तरीकों से भटका रहें हैं। तो इसलिए फिर वो कुछ भी बर्दाश्त कर लेता है।
हाँ, जिस चीज़ पर वो भड़कता है, वो ये है कि उसका जो जीने का तरीका है, जो उसका बोल, बातचीत, व्यवहार, आचरण, आदतें हैं पुरानी, जिसको वह अपनी संस्कृति बोल देता है, उसपर जब हमला होता है, तो वो भड़क जाता है। माने जो बिलकुल बेकार की बात है, उसपर भड़क जाता है। उसकी आदतों पर हमला करो, वो भड़क जाता है। लेकिन जो मूल बात होती है, उसके पास है नहीं, और तब भी उसे न बुरा लगता है, न दर्द होता, न आहत होता, न चोट लगती, भड़कना तो बहुत दूर की बात है।
तो इसलिए हिंदू कुछ भी स्वीकार कर लेते हैं। तो उन्होंने अपनी नदी इतनी गंदी कर ली, सबसे प्रमुख नदी, जिसको हिंदू ‘माँ’ बोलते हैं। अरे! कहाँ ये संभव है कि कोई और कर लेता। कैसे कर लेते तुम?
कानपुर में जितना गंदा करा गया, ये जो पूरा चमड़ा उद्योग है, टैनरीज़। गंगा के प्रदूषण के अगर आप दस प्रमुख कारण लिखेंगे तो उनमें से एक ये भी आएगा और ये सब सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम चला है, न जाने कितने दशकों से, अभी भी चल रहा है। अभी भी चल रहा है। चमड़ा उद्योग को और प्रोत्साहित किया जा रहा है, टैनरीज़ को और ज़्यादा, सब्सिडाइज़्ड तक कर देते हैं।
श्रोता १: हम एक सांख्यिकी पढ़ रहे थे कि तीन-अरब माइक्रो प्लास्टिक प्रतिदिन गंगा नदी से, गंगा की घाटी से बंगाल की खाड़ी पर पहुँच रहा है।
आचार्य: हाँ, जा रहा है। वो समुद्र को भी खराब कर रहा है, पूरी एक्वेटिक लाइफ़ को खाएगा। बिलकुल ठीक है। आप को पता है, देश भर में जो भैंसे का — भैंस का माँस होता है, कहते तो उसको ’बीफ़’ ही हैं — देश भर में बीफ़ का जितना उत्पादन होता है — ‘उत्पादन’ बोलते हुए मुझे बड़ा बुरा सा लगता है, ऐसा लगता है कोई जड़ पदार्थ है, उत्पादन किया जा रहा हो — देश भर में जितनी भैंसें कटती हैं, उनमें से आधी उत्तर प्रदेश में कटती हैं। भारत से जितना बीफ़ का निर्यात होता है, उसमें से लगभग आधा या आधे से ज़्यादा उत्तर प्रदेश से होता है।
ये गंगा का प्रदेश है, ये हिंदू हार्टलैंड , ये गंगा का प्रदेश है और अतीत से लेकर आज तक सब सरकारें इसका न सिर्फ़ समर्थन करती रही हैं बल्कि इसे सक्रिय रूप से बढ़ावा देती रही हैं।
श्रोता २: ‘पिंक रिवोल्यूशन’ (गुलाबी क्रांति)।
आचार्य: वो ‘पिंक रिवोल्यूशन’ बोलेंगें कि इससे तो और ज़्यादा रोज़गार बढ़ेगा न, और हम जितना ज़्यादा भैंसों को काट-काटकर भैंसों का माँस निर्यात करें वगैरह-वगैरह।
तो ये सब चलता है। मतलब, जहाँ आपके इतने बड़े-बड़े तीर्थ हैं। अभी कुछ साल पहले तक उत्तराखंड भी उत्तर प्रदेश का ही एक हिस्सा था। तो ऐसा समझ लीजिए कि देश भर में हिंदुओं के जितने पूज्य तीर्थ हैं, उसमें से आधे से ज़्यादा फिर संयुक्त उत्तर प्रदेश में ही हुआ करते थे। जितने भी हिमालयी तीर्थ हैं, वो सब उत्तर प्रदेश में आते थे। उसके अलावा आपका मथुरा, वृंदावन, काशी और प्रयाग और अयोध्या और छोटे-मोटे तो अनगिनत, न जाने कितने! अनगिनत! हर जिले में छोटे-मोटे तीर्थ स्थल हैं।
तो उत्तर प्रदेश ही जैसे हिंदुओं की पुण्य भूमि। तो उत्तर प्रदेश को तो फिर ज़बरदस्त रूप से एक हिंदू धर्म क्षेत्र होना चाहिए था, पूरे प्रदेश को ही जैसे तीर्थ स्थल होना चाहिए था। लेकिन नहीं। उत्तर प्रदेश में जितना बुरा हाल रहा है धर्म का और हिंदुओं ने होने दिया है, आज भी होने दे रहे हैं, गंगा का बुरा हाल कर रखा है, गाय का बुरा हाल कर रखा है, और ‘गीता’ का बुरा हाल कर रखा है। जिन तीन चीज़ों का संबंध आम हिंदू ‘धर्म’ से जोड़ता है, कहते हैं न — ’गौ, गंगा, गीता’ — इनका सबसे बुरा हाल उत्तर प्रदेश में ही है। ये क्यों है? जो आपने कहा, ‘सब चलता है।’
सनातन धर्म में सब चलता है, बस वेदांत नहीं चलता। श्रीकृष्ण का वक्तव्य नहीं चलता है, वेदव्यास का ब्रह्मसूत्र नहीं चलता है, बाकी हिंदू धर्म में सबकुछ चलता है। बस जो केंद्रीय और सर्वोच्च है, वो नहीं चलता है, बाकी हिंदू धर्म में सब चलता है। आप कुछ भी करो, सब चलता है। कोई बात नहीं। माँस खा रहे हो, आप हिंदू हो; हिंसक हो, हिंदू हो; घोर अज्ञानी हो तब भी हिंदू हो।
जैनों में ऐसा नहीं हो पाएगा। वहाँ कुछ तो सीमाएँ खिंची हैं न। बौद्धों में नहीं हो पाएगा, सिखों में नहीं हो पाएगा। ईसाईयों में, मुसलमानों में भी नहीं हो पाएगा, यहूदियों में नहीं हो पाएगा। हिंदुओं में सब चलता है। तो यहाँ कोई किसी भी तरह का दुस्साहस कर लेता है और उसको झेल जाते हैं। हाँ, शोर हम कब मचाते हैं? जब वो तथाकथित हमारी गौरवशाली संस्कृति है उसमें लगता है कि उसके विरुद्ध कुछ हो रहा है।
भाई, मूल बात तुम्हारा ग्रंथ और तुम्हारा दर्शन होता है। ये जो इतनी हिंसा हो रही है, ये तुम्हारे दर्शन के विरुद्ध है। तुम्हें तब शोर मचाना चाहिए, लेकिन तब तुम नहीं शोर मचाते।