प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सामान्यत: तो हम ऐसे होते हैं कि अपने लिए कर्म करते हैं, अपने हित का सोचते हैं। और अपने लिए ना करने का चुनाव, यह करने वाले भी क्या हम ही होते हैं?
आचार्य प्रशांत: वो तो एक सुंदरता होती है जो तुमको असहाय कर देती है, एक नूर होता है जिसके आगे तुम हथियार डाल देते हो। पर सतर्क रहना क्योंकि वो प्राकृतिक भी हो सकता है। सच्चाई के आगे समर्पण कर देना एक बात है और किसी इंसान के रूप लावण्य के आगे घुटने टेक देना बिलकुल दूसरी बात है।
प्र: जैसे अपने विरुद्ध जाने के कई सामान्य उदाहरण भी होते हैं, कि कभी शरीर में आलस आया फिर भी हम उसके विरुद्ध चले गए, या कोई एडवेंचर स्पोर्ट कर लिया या इस तरह की चीज़ें कर लीं। तो वो भी क्या इसी दिशा में कुछ है कदम, पर निचले तल पर?
आचार्य: हाँ, वो इसी दिशा में कदम है, लेकिन उससे भी बेहतर है कि तुम अपने आप को किसी ऐसी चीज़ में झोंक दो जो तुमसे बड़े-से-बड़ा, ऊँचे-से-ऊँचा काम करा ले तुम्हारे ही खिलाफ़, और तुम्हें पता भी ना चले कि तुम अपने ख़िलाफ़ जा रहे हो। देखो सबसे निचले तल का काम हुआ अपने साथ जाना, उससे ऊँचा काम हुआ अपने ख़िलाफ़ जाना, और सबसे ऊँचा काम हुआ कि न अपने साथ हैं न अपने ख़िलाफ़ हैं; ये ‘अपना’ माने क्या होता है ये भूल ही गए।
नहीं समझे?
क्योंकि अपने ख़िलाफ़ भी जब तुम जा रहे हो तो ये अपनापे का खयाल तो तुम्हें बना ही हुआ है न? तुम बोलते हो, “मैं अपनी सीमाएँ तोड़ रहा हूँ, मैं अपने से आगे जा रहा हूँ, मैं वो बन रहा हूँ जो मैं श्रेष्ठतम हो सकता हूँ।" निश्चित रूप से अपनी ही वृत्तियों का अनुगमन करने से ये श्रेष्ठ है। तुम बोलो कि, "मुझे डर लग रहा है तो इसलिए मैं कुछ नहीं कर रहा", वो तो बिलकुल ही निचली बात हो गई। उससे बेहतर है तुम बोलो, “मुझे डर लग रहा है लेकिन मैं डर के होते हुए भी, डर के बावजूद, डर के ख़िलाफ़ जा रहा हूँ”, ये निचले तल से ऊपर की बात हो गई। लेकिन इससे भी ऊपर की बात क्या हुई? कुछ है इतना ज़रूरी कि उसके सामने अपना डर भूल जाते हैं हम, बाद में याद आता है तो आता है, कि डर बहुत लग रहा था। बाद में याद आता है, कि, “अरे! ये काम हम कर कैसे गए? बहुत खौफ़नाक काम था!” एक काम करो, तुम अब बेहोश हो लो। भई, वृत्ति में तो यही लिखा है, कि जब उतनी कोई ख़तरनाक चीज़, चुनौती सामने आए तो तुम्हें डर के मारे बेहोश हो जाना है। लेकिन साहब, उस वक़्त नहीं, क्योंकि उस वक़्त कुछ था जो बहुत ज़रूरी था, तो उस वक़्त तो हम कर गए; आग से गुज़र गए। और बेहोश होने का जो कोटा बचा हुआ था वो हमने बाद में पूरा कर लिया। जब सबकुछ हो गया तो फिर हम बेहोश हो गए, कि, “अब ठीक है चलो। निपट गया सब? ठीक है?” बढ़िया से पूरा अच्छे से जाँच लो, सब ठीक है न, फिर बेहोश हो जाओ। इसी बात को जब तुम आध्यात्मिक किंवदंती में सुनते हो तो ऐसे सुनते हो कि फलाने योद्धा ने रेगिस्तान में तीन दिन तक बिना पानी पिए युद्ध कर लिया। इसका क्या मतलब है? तीन दिन के बाद तो प्राण त्याग दिए, लाश थी। ये नहीं था कि वो बहुत प्यास लग रही थी लेकिन अपने-आपको समझा रहे थे कि देखो पानी बाद में मिल जाएगा, उस तीन दिन तक पानी का स्मरण ही नहीं था। या कि कोई और युद्ध था जो इतना ज़रूरी था कि गले पर चोट लग गई, घाव बहुत गहरा था, ये भी कहा जा सकता है कि गला कट ही गया। गले पर चोट लगी, घाव गहरा था, उस बात को ऐसे भी कह सकते हो कि गला कट ही गया। पर कटे हुए गले के साथ लड़ते रहे जबतक जीत नहीं मिल गई, और जब जीत मिल गई, प्राण त्याग दिए।
जीत से पहले हम मरेंगे भी नहीं, क्योंकि मौत भी किसकी है, मेरी है न? जब अपने लिए हम कुछ नहीं कर रहे, तो अपने लिए मरें कैसे? मरना भी तो एक व्यक्तिगत काम है न? जो कुछ भी व्यक्तिगत है, अभी वो नहीं करा जा रहा। जब कुछ भी अभी व्यक्तिगत करा नहीं जा रहा, जब अभी मेरी भूख नहीं, जब अभी मेरी प्यास नहीं, जब अभी मेरा सुख नहीं, जब अभी मेरा दुःख नहीं, तो फिर अभी मेरी मौत कैसे? जब सुख भी मेरा होता है, दुःख भी मेरा होता है, और ये सब अभी रोककर रखे गए हैं, ये सब अभी लंबित हैं, तो ये मौत भी तो स्वार्थ का ही दूसरा नाम है न? मौत भी किसका खेल होता है, प्रकृति का ही। जन्म किसमें है? मौत भी किसमें है? जानते हो कई बार जब दर्द बहुत बढ़ता है तो मौत हो जाती है। वो भी स्वार्थ की बात है, “इतना दर्द कौन झेले, मर ही जाओ”, स्वार्थ है उसमें भी। "जब हम अपने स्वार्थ का बिलकुल भी पालन नहीं कर रहे तो मर भी कैसे सकते हैं? अभी हम मरेंगे भी नहीं।" काम पूरा हो जाए, फिर मरने के मुद्दे पर चर्चा की जाएगी, कि, “हाँ साहब! मरने का हो गया क्या?”
“देखिए आपको तो छ: दिन पहले मर जाना चाहिए था, ये क्या कर रहे हैं आप?”
“अच्छा ठीक है, कोई बात नहीं, माफ़ करना, अब मर जाते हैं। काम ज़रूरी था, देखो समझा करो, छ: दिन तक अभी नहीं मर सकते थे।“
कह रहे हैं, “वो बड़े साहब परेशान हो रहे हैं, भैंसा भूखा खड़ा है। छ: दिन से इंतज़ार कर रहे हैं।“
“बड़े साहब हों, छोटे साहब हों! हम बहुत बड़े साहब, एकदम बड़े वाले साहब का काम कर रहे थे अभी। तो भैंसे वाले साहब को भी इंतज़ार करना पड़ेगा, अभी हम मर नहीं सकते।”
मतलब समझ रहे हो न? भूल जाओ! भूल जाओ! भूल जाओ! अष्टावक्र कहते हैं, “विस्मरण में ही मुक्ति है।" तुम्हारी सारी तकलीफ़ उन चीज़ों की है जो याद है और जो कुछ याद है वो ‘मैं’ पर टँगा हुआ है। तुम्हें कुछ भी ऐसा याद है जिससे तुम्हारा कोई संबंध ना हो? तुम बता दो, कुछ भी ऐसा बता दो जिससे तुम्हारा कोई संबंध नहीं है फिर भी तुम्हें याद रहता है। तो हमें जो कुछ भी याद है उसको टाँगने वाली खूँटी का क्या नाम है? 'मैं'। तो भूलो, भूलो, भूलो! जो असली है बस वो याद रहे; उसका फायदा ही यही है कि सब नकली भुलाया रहेगा। और वही मौज है जीने की; ‘मैं'- हीन जीवन। जी तो रहे हैं, पर जीवन की छाती में जो शूल घुसा रहता है 'मैं' नाम का, वो नहीं है। जीवन है, 'मैं' नहीं है; 'मेरा' जीवन नहीं है। ये तन है, यहाँ जो खंजर घुसा रहता है, शूल, जिसका क्या नाम? 'मैं'; वो नहीं है। अब मज़ा है, बहुत मज़ा है। ‘मैं’ केंद्र नहीं है तुम्हारा; ‘मैं’ तुम्हारी छाती में घुसा हुआ शूल है, और वही केंद्र बन गया है क्योंकि उसी शूल के इर्द-गिर्द हमारी ज़िंदगी नाचती है। जानते हो, घाव के ही इर्द-गिर्द नाचा जाता है; घाव के ही इर्द-गिर्द नाचा जाता है। तुम्हारी एड़ी में घाव हो जाए, तुम अपनी ज़िंदगी को देखना कि वो किस केंद्र के इर्द-गिर्द नाचना शुरू कर देती है। वो तुम्हारी एड़ी के ही चारों ओर नाचेगी तुम्हारी पूरी ज़िंदगी। और हमारी पूरी ज़िंदगी अगर ‘मैं’ के परित: नाचती है तो इसका क्या मतलब है? ‘मैं’ ही हमारा घाव है। तुम्हारी एड़ी में चोट लग जाए, तुम चल रहे हो, तुम्हें किस का खयाल है?
श्रोतागण: एड़ी का।
आचार्य: वैसे ही हम जब भी जी रहे होते हैं, हमें किस का खयाल है? ‘मैं’ का। तुम सो भी रहे होओगे तो किस एड़ी को बिलकुल सही जगह पर बिस्तर में रखकर सोओगे? जहाँ चोट लगी है। तुम्हें अपने घुटने का खयाल है? तुम्हें अपनी कोहनी का खयाल है? तुम्हें अपनी गर्दन का खयाल है? तुम्हें किस का खयाल है? तुम्हें अपनी चोट का खयाल है; जहाँ कहीं भी तुम्हारी चोट है वहीं तुम्हारा केंद्र बन जाना है। कितनी गंदी बात है न? कितनी छि बात है ये। और इस बात के मायने समझो, इसका मतलब ये है कि जो कुछ भी तुम्हारी ज़िंदगी के केंद्र पर है वही तुम्हारी चोट है। जिसको भी तुम कहते हो न, कि मेरी ज़िंदगी तो फलानी चीज़ के चारों ओर घूम रही है; वो कुछ भी हो सकता है, तुम्हारे अरमान, तुम्हारा पैसा, तुम्हारी उपलब्धियाँ, तुम्हारा अतीत, तुम्हारा भविष्य, तुम्हारा कोई हमराज़। जो कोई भी तुम्हारे जीवन के केंद्र पर है वो तुम्हारी चोटिल एड़ी है। तुम्हारी एड़ी से खून बह रहा है, उसमें मवाद बह गया, सूज गया, इतनी बड़ी हो गई है; वो तुम्हारे प्यारे की शकल है, वो तुम्हारे अरमानों का रूप है।
जो कुछ भी ठीक होता है, याद आता है क्या? तो इसी बात को पलट देना है। जो कुछ भी ठीक होता है वो याद नहीं आता। तो माने जो कुछ भी हम याद करना छोड़ देंगे वो ठीक हो जाएगा। जो कुछ ठीक होता है वो याद नहीं आता; जो कुछ भी याद करना छोड़ दोगे, ठीक हो जाएगा। तो जो कुछ भी बीमार है, ख़राब है, वो बीमार, ख़राब है ही क्यों? याद बहुत आता है। खोपड़ा झन्नाता है तो क्या कोशिश करते हो? भाई मैं तो सोने की कोशिश करता हूँ आँख बंद करके, क्योंकि और कहीं थोड़े ही कोई समस्या थी, समस्या काहे में है? (सिर की तरफ़ इशारा करते हुए) जो घूम रहा है।
इतना आसान नहीं है भुला देना; वो छोटी चीज़ भूल सकें इसके लिए कोई बड़ी चीज़ याद करनी पड़ेगी, क्योंकि मन खाली जगह बर्दाश्त नहीं करेगा। समझ में आ रही है बात? मन को धोखा देना पड़ता है। कुछ इतना महत्वपूर्ण, इतना आवश्यक, इतना सुंदर पकड़ लो कि पीछे वाली चीज़ चुपचाप भूल जाए; इसे बोलते हैं रफ़ा-दफ़ा करना। कहते हैं, ज़िंदगी के सब फालतू मुद्दों का क्या किया, रफ़ा-दफ़ा कर दिया, पता ही नहीं चला वो कब विलुप्त हो गए। हाँ, तुम उनको याद रखते, तुम उनको किसी औपचारिक प्रक्रिया के माध्यम से ससम्मान विदाई देना चाहते तो वो ससुरे कभी नहीं जाने वाले थे, वो चिपके ही रहते। उनको भगाने का एक ही तरीका है, उनको बेइज़्ज़त करके निकाल दो। सबसे बड़ी बेइज़्ज़ती क्या है? भुला दिया। भुलाया भी जानबूझ कर नहीं; जानबूझ कर भी किसी को भुलाओ तो उसमें उसका बड़ा सम्मान हो जाता है, कि तुम किसी को भुलाने की कोशिश कर रहे हो। लोग करते हैं, “भुलाने की कोशिश कर रहे हैं”, जिसको भुलाने की कोशिश कर रहे हो उसकी तुमने बड़ी इज़्ज़त बढ़ा दी। भुला ऐसे दिया कि कुछ और याद कर लिया, “जी आपके लिए जगह नहीं थी।"
“दावत थी, हमें काहे नहीं बुलाया?” ये मत बोल देना कि भूल गए, क्या बोलना? “आपके लिए जगह नहीं थी”, घनघोर बेइज़्ज़ती। अपने साथ ये बर्ताव करना है, किसी और के साथ नहीं कह रहा हूँ ये करने को, किसके साथ करना है? अपने साथ। ज़िंदगी में आखिरी जगह किसकी होनी चाहिए? अपनी। ज़िंदगी बिलकुल दावत की तरह हो, जिसमें बस एक व्यक्ति आमंत्रित नहीं होना चाहिए, कौन? हम। अब इधर-उधर से, इधर-उधर से क्या, भीतर से ही आवाज़ आए कि, “बाकी सब तो ठीक है, ये खुद को नहीं बुलाओगे क्या?” बोलो, “जगह नहीं है, जगह नहीं है। बाद में, बाद में। अरे ऊँची दावत है, ऊँचे लोगों को बुलाएँगे। तुम्हारी टुच्चई के लिए क्या? तुम कहीं और जाओ। इंतज़ार करो, इंतज़ार करो।"
ये किससे बोला जा रहा है? ख़ुद से। इसमें बातें समझ में आ रही हैं? हम नीचे पैदा होते हैं, काया के स्वरूप को भूलो मत, बहुत आत्म-विभोर मत हो जाया करो। यूँ ही नहीं संतों ने, ऋषियों ने बार-बार समझाया है कि— कुणाल का पसंदीदा गाना है कौन-सा— “काया गार से काची, जैसे ओसरा मोती।“ काहे को बार-बार तुमको समझाएँगे? ओस का मोती, जैसे कच्ची मिट्टी का कोई घड़ा, तुम्हें लग रहा है मोती है, है क्या? पानी की बूँद। और सबकुछ जिसे हम अपना बोलते हैं वो इसी (शरीर को इंगित करते हुए) से उठता है, सबकुछ इसी से है। तो पहली चीज़ ये याद रखनी है कि ये (शरीर) नीचा है, इसीलिए तो इसको दावत में नहीं बुलाना है। वो कहेगा, “हमें नहीं बुला रहे?”
“हमारा कोई स्टैंडर्ड (स्तर) है न, तुम्हें कैसे बुला सकते हैं?”
“हाँ? तो फिर ये दो हो गए क्या? एक, जिसका स्टैंडर्ड है, माने जो ऊँचा है, और दूसरा जो नीचा है? क्या बात है?”
हाँ, हम दो हैं। एक, जो हमारी सच्चाई है, जो हमें होना ही चाहिए, और दूसरे वो जो हम बनकर पैदा होते हैं।
जो तुम्हें होना ही चाहिए, जिसके अधिकारी हो, जो सच्चाई है, वैसे ही जीना है तो जो बनकर पैदा हुए हो उसका ज़रा तिरस्कार करना सीखो। बिलकुल दो हो, और दो हो इसका प्रमाण बताए देता हूँ। तुम्हारी तस्वीरें ली जाएँ चौबीस घंटे में, कोई लगा दिया जाए कैमरामैन , फोटोग्राफर , लगातार तस्वीरें ले रहा है, तुम देख लेना कि दो हो या नहीं हो। तुम्हें एक चेहरा अपना वैसा भी दिख जाएगा जैसा इस वक़्त है, और एक चेहरा तुम्हें वैसा भी दिख जाएगा जो जानवरों से भी बदतर है। तुम दो कैसे नहीं हो मुझे बताओ न? और दो से मेरा आशय है- दो तल। उन दो तलों के बीच में अनंत संभावनाएँ हैं, पर दो तो हो ही, कम-से-कम, एक नीचे वाले, एक ऊपर वाले, और ऊपर और नीचे के बीच में बहुत कुछ है। तुम्हारी तस्वीरों में तुम्हारे कई तरह के चेहरे होंगे, यहाँ (ऊपर) से लेकर यहाँ (नीचे) तक के बीच में, पर दो तो निश्चित है, यहाँ (ऊपर) का, यहाँ (नीचे) का; दो तल तो हैं ही हैं। दो कैसे नहीं हैं हम, बोलो न? आदमी अकेला है जो दो है, जानवर दो नहीं होता। तुम किसी कुत्ते की, शेर की, गधे की तस्वीरें लेना शुरू करो, तुम्हें बहुत अंतर नज़र नहीं आएगा। तुम महीनों तक तस्वीरें लेते रहो, बहुत अंतर नज़र नहीं आएगा; थोड़ा बहुत। इतना ही नहीं, तुम कई कुत्तों की तस्वीरें ले लो, कई गधों की, कई शेरों की ले लो, आपस में भी तुम्हें उनमें बहुत अंतर नज़र नहीं आएगा। पर इंसानों में बहुत, बहुत, बहुत अंतर हो सकता है। एक इंसान की आँख और दूसरे इंसान की नज़र; ज़मीन-आसमान का अंतर हो सकता है। ऊपर वाले में डूब जाओ और नीचे वाले को दावत में मत बुलाओ। बात समझ में आ रही है? (एक प्रचलित मीम को दोहराते हुए) "ये मैं हूँ, ये मेरी सच्चाई है, और ये हमारी पाओरी हो रही है।"
(श्रोतागण हँसते हैं)
और उसमें कौन नहीं है? वो जो नीचे वाला है वो नहीं है, वो उधर दूर खड़ा होकर के झुनझुना हिला रहा है, उसको नहीं बुलाया। समझ में आ रही है बात?
इज़्ज़त से जीना है तो अपनी बेइज़्ज़ती करना सीखो। जो अपनी बेइज़्ज़ती नहीं कर सकता उसे ज़िंदगी बेइज़्ज़त करेगी; और अगर ज़िंदगी तुमको कदम-कदम पर बेइज़्ज़त करती है तो अच्छे से समझ लो कि तुम अपने प्रति बड़ी इज़्ज़त से भरे हुए हो, अपनी नज़र में गिर ही नहीं पा रहे, तुम्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि तुम कितने गिरे हुए हो। चूँकि तुम्हें समझ में नहीं आ रहा तुम कितने गिरे हुए हो, इसीलिए फिर ज़िंदगी को तुम्हारा कान पकड़कर के तुम्हें गिराना पड़ता है। तथ्यों का काम क्या है? कल्पनाओं को तोड़ना। तुम अपने प्रति कल्पना से भरे हुए हो ऊँचाई की, तो फिर तथ्यों के पत्थर को तुम्हारी कल्पनाओं के शीशमहल को तोड़ना पड़ता है। तुम खुद ही जान जाओ कि तुम्हारा यथार्थ क्या है तो फिर ज़िंदगी तुम्हें कोई चोट क्यों देगी? ज़िंदगी चोट दे रही है मतलब साफ़ है, तुमने ग़लत आदमी को दावत में बुला रखा है। इसलिए तुम्हें चोट देनी पड़ती है, क्योंकि तुम्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि तुम किसी ऐसे को अपने भीतर सजाकर, समेटकर, सुरक्षा के साथ रखे हुए हो जो सम्मान का अधिकारी बिलकुल नहीं है। तुम उसे अपने भीतर रखते हो, उसी की भाषा बोलना शुरू कर देते हो, वही बन जाते हो; तुममें उसमें कोई अंतर ही नहीं रह जाता। जिसको घर से बाहर निकालना चाहिए था उसे तुम घर का मालिक बना देते हो, अब कोई भला आदमी आएगा तुम्हारे घर में? बोलो?
तुम्हारे पास एक गधा है, तुमने उस गधे को घर का मालिक बना दिया, और तुम घर में अब दे रहे हो दावत, तुम्हारी दावत में अब कोई आएगा? आएगा न, गधे का पूरा कुनबा। अरे गधे को मारने को नहीं कहा जा रहा, गधे को बाहर छोड़ो, खुला छोड़ो, जाए अपना, घास चरे। तुमने उसको घर में आसन पर बैठा दिया है, पूजा-गृह में बैठा दिया है, रसोई में खड़ा कर दिया है। तुम कह रहे हो, “मैं बार-बार लोगों को बुलाता हूँ, बहुत ऊँचे-ऊँचे लोगों को दावत में बुलाता हूँ, कोई आता क्यों नहीं है?” गधे की लीद खाने आएँगे? उस गधे का क्या नाम है? ‘मैं’; उसको बाहर करो तो तुम्हारी ज़िंदगी में ऊँचाईयों का प्रवेश हो कुछ। जो आना चाहता है उसको द्वार पर ही कौन दिखता है? गधा। वो द्वारे से ही वापस लौट जाता है, कहता है, “ये लो! भीनी-भीनी खुशबू उठ रही है लीद की। वेलकम-ड्रिंक परोसा जा रहा है।" क्या? अब छोड़ो!
अब क्या बताएँ, कुछ भी ऊँचा जो हो सकता है ज़िंदगी में वो है ही नहीं हमारे पास, है ही नहीं; है ही नहीं। पता नहीं क्यों नहीं है! गदहवा तो है न? वो कहाँ से आता है? वो गर्भ से आता है; गर्भ से गर्दभ पैदा होता है। जो गर्भ से आया है उसको बाहर छोड़ना पड़ता है, “तू घास चर।" जो ना गर्भ से आता है ना चिता को जाता है, उसको ससम्मान आमंत्रित करना होता है।
तुम लोगों को लगता होगा कई बार मैं कटु क्यों हो जाता हूँ इतना, डाँट देता हूँ, चिल्ला पड़ता हूँ। तुमको कभी नहीं डाँटा मैंने, बस गधे से गधे की भाषा में बात करी है। तुम गधे हो? हो तो तुम्हें डाँटा, नहीं हो तो तुम्हें नहीं डाँटा, एकदम नहीं डाँटा। जिसको डाँटा उसे और कोई भाषा नहीं समझ में आनी थी। तुम जो हक़ीक़त में हो उसके प्रति तो बहुत सम्मान है मुझमें और बहुत प्यार है, वही तुम हो सको, बने रह सको, उसी के लिए तो जी रहा हूँ। मेरा कोई इरादा नहीं है किसी के साथ रोष-पूर्वक, कटुता-पूर्वक व्यवहार करने का। पर वक़्त है दावत का, जीवन की जवानी है तुम्हारे, और दावत-स्थल पर घूम रहे हैं गधे, तो गुस्सा करूँ कि ना करूँ? या डी.जे. लगा दो, जितने गधे हैं वो दो पाँव पर... (नाचने का इशारा करते हुए)। तुम्हारे गधे को डाँटा, तुम्हें क्यों बुरा लगा? तुम काहे को बुरा मानते हो? ये अंतर समझो। हम दो हैं, और इससे पहले कि इसको (ऊपर वाले को) नमन किया जाए, इसको (नीचे वाले को) चमन में छोड़ना ज़रूरी है। इसकी (ऊपर वाले की) जगह है नमन-स्थल में, और इसकी (नीचे वाले की) जगह है चमन-स्थल में, “तू जा बेटा, बाहर जा, चमन में घूमो।"
और अध्यात्म में ये खूब चला है: इसको (ऊपर वाले को) नमन करना। इसको (नीचे वाले को) तो चमन में छोड़ा नहीं, इसको (ऊपर वाले को) नमन कर रहे हो, तो फिर ले देकर नमन किया किसको? इसी को (नीचे वाले को) किया; गधे के आगे दंडवत हुए पड़े हो। चलो खैरियत है, कुछ ऐसे भी हैं जो गधे के पीछे दंडवत हो जाते हैं, और जो वो फिर दुलत्ती देता है, जाने उसको भी यही कहते होंगे, “परमात्मा का आशीष है। माथे पर ये जो घूमड़ा निकला है ये तीसरा नेत्र खुला है अभी-अभी।“ है क्या वो? गधे की दुलत्ती; ग़लत जगह सर झुका रहे थे, दुलत्ती खाकर आए हैं। सही जगह सर झुकाओ इससे पहले ग़लत जगह सर झुकाना बंद करना पड़ता है न? लगातार ग़लत जगह झुकते रहोगे, झुकते रहोगे, तो सही जगह पर होने का अधिकार ही खो दोगे तुम। दो मालिकों के साथ नहीं जिया जाता ज़िंदगी में, ऐसे नहीं चलता, सॉरी , मेरा नहीं नियम है, अस्तित्व का है।
जीसस बोलते हैं बाइबल में, “इंसान के दो आक़ा नहीं हो सकते; तो या तो वो (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) होगा, या सोना।" हाँ, वो अहंकार या ऐसा कोई शब्द नहीं इस्तेमाल करते- गधा; वो कहते हैं- सोना। हमेशा से यही दो रहे हैं, आदमी को चुनाव करना पड़ता है दोनों के बीच में। अब चुनाव करने वाला अगर ऊपर वाला (ऊपर के तल वाला) हो तो उसे चुनाव की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, क्योंकि उसने तो चुनाव कर लिया। और जो नीचे वाला (नीचे के तल वाला) हो तो उसे भी चुनाव की ज़रूरत नहीं पड़ती, क्योंकि गधे को अगर सच और घास में चुनाव करना होगा तो चुनाव निश्चित है। हम ना ऊपर हैं ना नीचे हैं, हम बीच में हैं; ऊपर होते बिलकुल तो चुनाव की कोई ज़रूरत नहीं थी, चुनाव हो चुका। गधे ही होते हम बिलकुल, तो चुनाव की कोई आवश्यकता ही नहीं थी, क्योंकि गधों को क्या आवश्यकता चुनाव की? तुम उसके सामने अगर गीता रख दो और घास रख दो, तो घास की तरफ़ ही जाएगा। हम बीच के हैं, इसीलिए हमें सतर्कता चाहिए; उसी को ध्यान कहते हैं। हमें दोनों बुलाते हैं, ये (ऊपर का तल) भी, ये (नीचे का तल) भी; हमें देखना होता है हम कौन हैं, किसके साथ हैं। हर पल होगा ये, कोई ख़ास, चुने हुए, विशिष्ट क्षणों की बात नहीं है, लगातार, ये (ऊपर का तल), ये (नीचे का तल)।