आचार्य प्रशांत: जो ये सारा छवि बचाने का खेल है, ये माल के लालच का खेल है।
ये जो पूरी बात ही है कि समाज में अपनी छवि अच्छी रहे, इज्ज़त ऊँची रहे, समझिए अच्छे से, कि वो बात पूरे तरीक़े से भौतिक है, मटेरियल है। भौतिक है, मटेरियल है।
अध्यात्म की भाषा में कहेंगे तो देहभाव से आती है। जिसमें देह से तादात्म्य जितना ज़्यादा रहेगा, उसे भौतिक चीज़ें पाने की लालसा उतनी ज़्यादा रहेगी क्योंकि वो पहला मटेरियल जो आपको बहुत पसंद आता है वो होती है आपकी देह।
एक बार ये पदार्थ, ये मटेरियल (शरीर को इंगित करते हुए) पसंद आ गया, उसके बाद दुनियाभर के पचासों अन्य पदार्थों पर आपकी निर्भरता बन जाती है। जिसको इससे मोह हो गया, इस पदार्थ से, उसे पचासों अन्य पदार्थ अब चाहिए, कि नहीं चाहिए? बोलो कौन-कौन से पदार्थ चाहिए?
एक बार ये बहुत क़ीमती लगने लग गया, एक बार यह धारणा बना ली कि यह बड़ी क़ीमती चीज़ है, यह मटेरियल — यह शरीर मटेरियल ही है न—एक बार यह बहुत कीमती है तो अब और कौन-कौन से मटेरियल चाहिए? खाना चाहिए, घर चाहिए, गाड़ी चाहिए। वो सब शरीर के लिए ही तो चाहिए होते हैं न। एक से बढ़कर एक फिर कपड़े चाहिए, दुनिया की तमाम तरह की सुख सामग्री चाहिए। और वो जो कुछ भी आपको चाहिए इसके वास्ते, वो आसमान से तो नहीं टपकेगा, वो कहाँ से मिलेगा? दूसरे लोगों से मिलेगा और फिर आपकी मजबूरी हो जाएगी कि दूसरे लोगों के मन में आपकी छवि अच्छी रहे ताकि आपको जो पाना है, वो आपको मिलता रहे।
बहुत लोग कहते हैं, "अरे! ये तो नैचुरल (प्राकृतिक) बात है न कि हम दूसरों के मन में अपनी अच्छी छवि, अच्छा इम्प्रेशन (प्रभाव) रखना चाहते हैं।" इसमें कुछ भी स्वाभाविक नहीं है। ये बात सीधे-सीधे देहाभिमान की है, बॉडी आइडेंटिफिकेशन की है।
ये जो हम रो पड़ते हैं, सार्वजनिक रूप से बेइज़्ज़त हो जाने पर। बहुत लोग देखे हैं न ऐसे, वो कहते हैं कि हम बड़े संवेदनशील हैं। उनकी भाषा में कहते हैं हम बड़े टची हैं। हमें कुछ कह दिया तो हम रो पड़ेंगे। यह बात भावनाओं की नहीं है, यह बात संवेदनशीलता की नहीं है, ये बात सीधे-सीधे मटेरियल गेन की है, भौतिक लाभ की है।
आप लालची हैं इसलिए बेइज़्ज़त होने पर रो पड़ते हैं। "ये क्या हो गया? ऐसा तो शायद कभी सुना नहीं।"
आप लालची हैं, इसलिए आपको इज़्ज़त का इतना ख़्याल है। आपको दूसरों से जो इज़्ज़त मिलती है, उस इज्ज़त के माध्यम से बहुत कुछ मिलता है। इसलिए आपको इज़्ज़त प्यारी है। इज़्ज़त से आपको कुछ नहीं मिल रहा होता तो आप इज़्ज़त के पीछे नहीं भागते। ये बात लेकिन थोड़ा सूक्ष्म हो जाती है तो हमारी पकड़ में नहीं आती।
हम सोचते हैं जैसे इज़्ज़त का अपना कोई मूल्य है, हम सोचते हैं दूसरों की नज़र में हमारा जो सम्मान है, उसका अपना कोई मूल्य है। उसका अपना कोई मूल्य नहीं है। उसका सिर्फ़ एक आश्रित मूल्य है, डेराईव्ड वैल्यू है। इज़्ज़त की क़ीमत इसलिए है क्योंकि इज़्ज़त के माध्यम से आपको कुछ और मिलता है। क्या मिलता है? माल (हाथ से संकेत करते हुए), तमाम तरह का माल मिलता है।
जब आप इस बात को साफ़-साफ़ देख लेंगे तो फिर आपके लिए इज़्ज़त को अधिक क़ीमत देना मुश्किल हो जाएगा। और ग़ौर करिएगा कि जिससे आपको माल की जितनी ज़्यादा अपेक्षा होती है, उम्मीद होती है, उसकी नज़रों में आप अपनी इज़्ज़त उतनी ऊँची रखना चाहते हैं।
हिंदुस्तान में स्त्रियों को ख़ासतौर पर हया का, लज्जा का, इज़्ज़त का, शर्म का, पाठ पढ़ाया गया। कहा गया कि स्त्री को तो सम्मानीय होना ही चाहिए। पुरुष कलंकी निकल जाए, बुरे चरित्र का निकल जाए, कोई बात नहीं। स्त्री के दामन पर कोई दाग़ नहीं होना चाहिए। स्त्री के लिए इज़्ज़त का मूल्य बहुत-बहुत ऊँचा बताया गया।
किसकी नज़रों में इज़्ज़त? अधिकांशतः पुरुषों की नज़रों में। स्त्री के लिए इज़्ज़त क्यों इतनी महत्वपूर्ण बना दी गई? क्योंकि स्त्री पुरुष पर आर्थिक रूप से निर्भर है, आश्रित है।
बात समझ रहे हो?
चूँकि उसको तमाम तरह के बंधनों में रखा गया, ख़ुद कमाती नहीं, दुनिया का कुछ हालचाल जानती नहीं। उसको जो भी मिलना है भौतिक रूप से, माल-असबाब, पदार्थ, वो पुरुष से ही मिलना है।
तो स्त्री से कहा गया, "तू इज़्ज़तदार रह और तेरी इज़्ज़त इतनी बड़ी चीज़ है कि अगर तू बेइज़्ज़त हो जाए तो प्राण त्याग दे।"
बात समझ रहे हो?
इज़्ज़त के माध्यम से जितना तुम्हें दूसरों से मिलता है उतने ही तुम दूसरों के गुलाम भी तो हो जाते हो क्योंकि अब लगातार तुम्हें कोशिश करनी है कि दूसरे के सामने तुम वही छवि रखो जो वो तुमसे चाहता है।
स्त्री को पुरुष के सामने बिलकुल वही छवि रखनी होगी जो पुरुष चाहता है। घर की औरत को बिलकुल पाक-दामन रहना होगा, सच्चरित्र, सती-सावित्री। वो जितनी सती-सावित्री है, जितनी सच्चरित्र है, पुरुष से उसे उतना माल मिलता जाएगा। वो पूरी तनख्वाह लाकर उसके हाथ में रख देगा। "बोलो और क्या चाहिए? गहने चाहिए? देंगे।"
और यही अगर पता चल जाए कि घर की स्त्री इधर-उधर आती जाती है, दो-चार और सम्बन्ध हैं, इज़्ज़तदार नहीं है तो सबसे पहले उसे चोट कहाँ पड़ेगी? आर्थिक रूप से पड़ेगी। इज़्ज़त गँवाई नहीं कि रोटी गँवा देगी।
इज़्ज़त का सीधा संबंध रोटी से है। इस बात को समझो। जो रोटी का जितना तलबगार होगा, वो इज़्ज़त पर उतना मरेगा। और रोटी के तुम कितने तलबगार हो वो निर्भर इस पर करता है कि तुममें देहभाव कितना सघन है।
जितना तुम अपने आपको पेट मानते हो, उतना ही ज़्यादा तुम रोटी के लिए मरोगे और जितना तुम रोटी के लिए मर रहे हो, उतना ज़्यादा तुम इज़्ज़तदार रहना चाहोगे रोटी देने वाले की निगाहों में।
हम इज़्ज़त को बहुत बड़ी बात समझ बैठते हैं। हमारे जीवन का, समय का, ऊर्जा का, ध्यान का, न जाने कितना बड़ा भाग, सिर्फ़ दूसरों की नज़रों में अपनी छवि चमकाने में लग जाता है; है न? समझो तो सही कि यह छवि चमकाने के पीछे पूरी बात क्या है? वो जो बात है, वो जैविक है। वो जो बात है, उसका मनुष्य की विकास यात्रा से, इवोल्यूशन से संबंध है।
हमारी एक-एक भावना, अंतत: सिर्फ़ एक उद्देश्य के लिए है — इस शरीर को आगे बढ़ाते रहने के लिए। इसमें जो भावनाएँ बैठी हैं, उनमे जो डीएनए बैठा है, उसका प्रसार करते रहने के लिए।
आपको क्रोध क्यों आता है प्राकृतिक रूप से? देखा है प्रकृति में सभी जानवरों को क्रोध आता है। आपमें और पशुओं में व्यवहार के तल पर जो कुछ भी साझा हो, समझ लीजिए कि उसका उद्देश्य एक ही है — आपके डीएनए को आगे बढ़ाना। प्रकृति और कुछ चाहती ही नहीं।
क्रोध आपको भी आता है, क्रोध पशु को भी आता है, उद्देश्य एक ही होगा और वो एक ही उद्देश्य, एक ही हो सकता है। क्या? डीएनए आगे बढ़ाना है। क्रोध का और कोई उद्देश्य नहीं है। आप रो क्यों पड़ते हैं? आप हँस क्यों पड़ते हैं? इन सबका सम्बन्ध—आपमें ईर्ष्या क्यों उठती है? आपमें मोह क्यों उठता है? आपमें ममत्व क्यों उठता है? वजह बस एक है, कुछ और मत समझिएगा।
आप जिसको प्यार कहते हैं आपको वो क्यों हो जाता है? वजह बस एक है। आप जिसको तकरार कहते है वो क्यों हो जाती है? वजह बस एक है। प्राकृतिक तौर से आपमें जो कुछ भी उठता है, उसका उद्देश्य बस एक है।
बात समझ में आ रही है?
साँप को देखा है? रस्सीनुमा होता है जब वो ज़मीन पर रेंग रहा होता है। देखा है? आपके सामने आता है तो उसका आकार कुछ बदल जाता है। कैसे बदल जाता है? जब तक वो ज़मीन पर रेंग रहा है आपसे उसका कोई मतलब नहीं तब तक वो कैसा है? ट्यूब जैसा है, एक नली जैसा है, एक रस्सी जैसा है न, एक सिलिंडर जैसा उसका आकार है।
लेकिन आपके सामने आता है तो ऐसा हो जाता है (एक हाथ से सॉंप के फँन का संकेत करते हुए)। अब ये आकार ट्यूब या सिलिंड्रिकल तो नहीं है न? यह आकार बदल क्यों लिया उसने? इससे क्या होगा?
श्रोतागण: दिखा रहा है।
आचार्य: दिखा रहा है, आपके मन में अपनी?
श्रोतागण: छवि बना रहा है।
आचार्य: छवि बना रहा है और ये छवि बनाने का उद्देश्य क्या है? अपनेआप को अब वो बड़ा करके दिखा रहा है। जितना बड़ा वो है नहीं, उससे ज़्यादा वो अपनेआप को बड़ा करके दिखा रहा है।
क्यों दिखा रहा है अपनेआप को इतना बड़ा करके? ताकि आप डर जाएँ। डर जाएँ तो उसकी जान बचे।
प्रकृति भी यह खेल खेलती है, प्रकृति में भी जानवरों को पता है दूसरे के मन में अपनी छवि बनाओ क्योंकि छवि बनाने से इसका (शरीर का) व्यापार आगे बढ़ेगा।
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