प्रश्नकर्ता: अगले प्रश्नकर्ता आपके साथ गोवा शिविर में भी थे और वहीं से ही वे उद्धृत करते हैं। आपने कहा था, ‘आदमी वास्तव में जान जाए उनके ऊपर कौन है। तो आगे लिखते हैं कि आचार्य जी, इस बात को मैं कैसे समझूँ और जान पाऊँ कि ज़िन्दगी निजी भोग के लिए नहीं है। कृपया इस बात पर प्रकाश डालें।
आचार्य प्रशांत: निजी भोग तो बेटा, तबसे कर रहे हो, जबसे पैदा हुए हो। ये तुम्हारी ही भाषा है या किसी ने तुम्हारे नाम पर चढ़ा दी (मुस्कुराते हुए)।
प्र: हाँ मेरी ही है, आचार्य जी।
आचार्य: तुम्हारी ही है। निजी भोग समझते हो, क्या? पर्सनल कन्सम्प्शन (निजी भोग)। वो तो तुम कर ही रहे हो न, जब से पैदा हुए हो, नहीं कर रहे? तो ये नहीं पूछते कि मैं ये कैसे जानूँ कि निजी भोग से सुख नहीं मिलता। दुबारा पढ़ो।
प्र: आदमी वास्तव में जान जाए उनके ऊपर कौन है? फिर आगे लिखते हैं कि आचार्य जी, मैं कैसे जान पाऊँ कि ज़िंदगी निजी भोग के लिए नहीं है।
आचार्य: तो ज़िन्दगी निजी भोग के लिए नहीं है ये जानने की बहुत ज़रूरत नहीं है। हमसे ऊपर कौन है ये जानने की भी ज़रूरत नहीं है। वास्तव में ये जानना ख़तरनाक हो जाता है।
इतना जानना काफ़ी होता है कि निजी भोग भाई, दस-बीस साल करके देख लिया है और इतने बेवक़ूफ़ नहीं हैं कि दस-बीस साल पिटने के बाद भी बात समझ में न आये।
इसी तरीक़े से ऊपर कौन है ये पूछने की ज़रूरत नहीं है। नीचे वालों से उम्मीद रखकर और उलझकर दस-बीस साल देख लिया है और नीचे वालों से हमें पता चल गया, कितना मिल सकता है और कितना नहीं, इतनी अक़्ल रखते हैं।
बोध और बुद्धि, दोनों वास्तव में एक ही चीज़ के नाम हैं, अगर बुद्धि शुद्ध हो। दोनों की जो मूल धातु है वो भी एक ही है। तो बोधवान होना और बुद्धिमान होना मूलतः अलग-अलग बात नहीं है, अगर बुद्धि शुद्ध हो।
तो इतनी बुद्धि तो हम रखते है न कि दिखे कि नीचे से कितना मिल सकता है और कितना नहीं। नीचे से जितना मिल सकता है उसे तुम ज़रूर लो। मैं ये कभी नहीं कहा करता कि संसार तो बिलकुल आसार है और दुनिया तो मिथ्या है। माया है। दुनिया को छूना ही पाप है।
जिस मुँह से मैं ये बोल रहा होऊँगा, वो मुँह बोलते वक़्त भी दुनिया के सम्पर्क में है, तो किस मुँह से बोलूँ ये कि दुनिया से बिलकुल सम्पर्क मत रखो। जब तक ये शरीर है, तब तक दुनिया है न। शरीर भी पदार्थ, दुनिया भी पदार्थ, तो मैंने ऐसी सीख कभी किसी को नहीं दी कि दुनिया से कुछ नहीं मिलना। शरीर के लिए तो भाई, दुनिया से ही मिलना है।
तो जब तक शरीर है, जितने भी साल शरीर है, दुनिया को तो स्वीकृति देनी ही पड़ेगी। दुनिया है और जहाँ तक शरीर की परवरिश का सवाल है वो तो दुनिया के ही माध्यम से होगी। तो कुछ तो हमें दुनिया से लेना ही है, कुछ तो रिश्ता बनाकर रखना ही है।
मूर्खता तब शुरू होती है जब हम दुनिया से वो सब माँगने लगते हैं जो दुनिया दे नहीं सकती। अगर तुम शरीर मात्र होते तो दुनिया तुम्हें सब कुछ दे देती, जो तुम्हें चाहिए था।
पर तुम शरीर मात्र हो नहीं। तुम शरीर से आगे भी कुछ हो, भले ही तुम्हारा शरीर भाव कितना भी सघन हो। तुम बड़ी कोशिश कर लो बिलकुल देह भाव में जीने की। पूरी तरह से बॉडिली आइडेंटिफाइड (शारीरिक पहचान) रहने की, तो भी तुम्हें पता है कि शरीर कितना भी स्वस्थ रहें, मन उजड़ा-उजड़ा रह सकता है। जानते हो कि नहीं जानते हो ये?
तो शरीर मात्र तो तुम हो नहीं लेकिन शरीर भी हो। कम-से-कम अपनी नज़र में तो शरीर हो न। सत्य की नज़र में बिलकुल हो सकता है।
न अहम् देहास्मि।
मैं शरीर हूँ ही नहीं। पर ये बात कौन कहता है। ये तो सत्य से उठता हुआ उद्बोधन है। हम तो ये कह नहीं सकते सच्चाई के साथ, ईमानदारी के साथ, कि मैं शरीर नहीं हूँ। तो मैं अगर शरीर हूँ तो दुनिया से कुछ मुझे मिल जाना है, लेते चलो।
बुद्धिमानी है ये जानने में कि एक सीमा के आगे दुनिया काम नहीं आती। जिस सीमा तक दुनिया काम आती है दुनिया से रिश्ता-नाता रखो, दुनिया से व्यापार-व्यवहार रखो और उसके बाद भाई अपने मे रहो।
ये जो कहलाता है — अपने में रहना। बेटा, यही है — ऊपर की बात। दुनिया कहाँ दिखायी देती है हमें सारी, बाहर-बाहर फैली हुई, है न। बाहर-बाहर से हमें कुछ चीज़ें मिलती हैं, मिलती हैं न।
तुमने जो जैकेट पहन रखी है, मैंने ये शॉल पहन रखी है। हमें कहाँ से मिली, बाहर से मिली। तुम यहाँ पर आये हो टिकट कटाकर के। ठीक है।
वो जो जेट इंजिन था, वो हमने घर में नहीं बनाया। घर में तो नहीं ही बनाया हमारे भीतर से तो बिलकुल ही नहीं निकला है। चीज़ बाहरी है। है न। ये माइक भी बाहरी है। इन सब प्रक्रियाओं में रूपया-पैसा खर्च होता है वो भी चीज़ बाहरी ही है। ठीक है।
तो एक सीमा तक बाहरी चीजें महत्वपूर्ण हैं हमारे लिए क्योंकि हम देही लोग, शरीरी लोग हैं। एक सीमा के बाद महत्वपूर्ण नहीं हैं। उस सीमा के बाद कुछ अंदरूनी है, जो काम आता है।
ये जो अंदरूनी है, इसी को ऊपरी भी कहते है।
समझे बात को?
बाहर की दुनिया एक सीमा तक काम आती है, उस सीमा के बाद बाहर का कुछ काम नहीं आता। चूँकि बाहर का कुछ काम नहीं आता। इसीलिए कहने वालों ने इसको ऐसे कह दिया —मुहावरे के तौर पर — कि उस सीमा के बाद भीतर का कुछ है, जो काम आता है। भीतर से आशय इतना ही है कि नही बाहरी नॉट एक्सटर्नल (बाहरी नहीं)।
समझ में आ रही है बात?
एक्सटर्नल अब कुछ काम नहीं आ रहा तो कह दिया कि वो फिर इंटरनल (आन्तरिक) होगा, आन्तरिक होगा। है न। तो वही जो आन्तरिक हैं उसी को कहने वालों ने, सिर्फ़ कहने का तरीक़ा है, क्या कह दिया है — ऊपरी भी कह दिया है कि भई, इधर तो मामला सब ज़मीन का है। चूँकि चीज़ें ज़मीन की काम नहीं आ रहीं, तो इसीलिए कोई ऊपर बैठा है, आसमानों में, वो काम आता है और उससे तात्पर्य ईश्वर इत्यादि से नहीं है।
उससे तात्पर्य बस ‘निषेध’ से है। नॉट वर्ल्डली दैट डज़ नॉट नेसेसरली मीन गॉडली (सांसारिक नहीं इसका मतलब ज़रूरी नहीं कि ईश्वरीय हो) इन दोनों चीज़ों का भेद समझना।
नॉट वर्ल्डली दैट डज़ नॉट नेसेसरली मीन गॉडली। सांसारिक नहीं, उसका तात्पर्य निश्चित रूप से ईश्वरीय नहीं है। हम सोचते हैं, यही दो तल होते हैं। यही दो भेद होते हैं, कि या तो संसारिक होगा, नहीं तो ईश्वरीय होगा। नहीं।
बस ये कह दो सांसारिक नही, सांसारिक नहीं है। परासांसारिक कह सकते हो। पराभौतिक कह सकते हो। बियॉन्ड वर्ल्ड (संसार से परे) मेटाफ़िज़िकल (आध्यात्मिक)।