आचार्य प्रशांत: तुम्हारे सामने, तुम्हारे साक्षात् नहीं खड़ा होगा ब्रह्म। ब्रह्म अनन्त है। और ये अहंकार का बचपना है, छोटे बच्चे की ज़िद जैसा है कि ब्रह्म सामने खड़ा हो और हम उसका साक्षात् कर रहे हैं। और पड़ोस की पिंकी को बता भी रहे हैं कि अहा-हा! देखो कितना बढ़िया ब्रह्म है, हम देखकर आये हैं।
अरे, चिड़ियाघर का गोरिल्ला है, क्या ब्रह्म? कि तुम देखकर आ गये, और वो पिंजड़े के पीछे था? ब्रह्म को जो देख ले, ब्रह्म उसको खा जाता है। कोई ऐसा है नहीं, जो ब्रह्म को देखकर के बच गया हो। ब्रह्म ही सिर्फ़ ब्रह्म को देख सकता है, तो बताओ तुम बचे कहाँ?
तुम गये थे ब्रह्म को देखने। अगर तुमने सफलता पा ली, ब्रह्म को देखने में तो तुम क्या हो गये? ब्रह्म। तो अब तो ब्रह्म ही बचा, तुम कहाँ गये? तुमको ब्रह्म खा गया। तो चिड़ियाघर जैसे मामला नहीं हैं कि बब्बरशेर है, और तुम देख रहे हो, सलाखों के पीछे की सुरक्षा से। वो जंगल का मामला है। पोटैशियम सायनाइड जैसा खेल है, स्वाद तो चख लोगे, पर बचोगे नहीं बताने के लिए कि अहा-हा! क्या स्वाद आ रहा है!
समझ में आ रही है?
ब्रह्म माने? KCN (केसीएन)। सोडियम सायनाइड भी बराबर का ज़हरीला होता है, उसमें कोई दिक्कत नहीं है, NaCN कर लो। ये बहुत दूर की, बड़ी गरीबी की उपमाएँ हैं, क्योंकि पोटेशियम सायनाइड को चखकर तुम साइनाइड ही नहीं हो जाते, लेकिन ब्रह्मदर्शी ब्रह्म ही हो जाता है। अहंकार की बड़ी-से-बड़ी कोशिश रहती है कि मैं बचा रहूँ, ये दावा करने के लिए कि मैंने देखा, मैंने देखा।
अहंकार को जैसे वाइल्ड लाइफ़ फोटोग्राफ़ी बहुत पसन्द हो, कॉर्बेट गया है घूमने, ‘मैंने देखा, ये देखो तस्वीर, झाड़ी के पीछे से बस मुहँ बाहर निकाल ही रहा था ब्रह्म कि मैंने तस्वीर खींच ली, मैं देखकर आया हूँ, मैं हूँ ब्रह्मदर्शी।’
ऐसे नहीं है। बिलकुल अपने भीतर से ये भावना निकाल दें कि आपको आत्मा का, ब्रह्म का, ईश्वर का, सत्य का किसी का साक्षात्कार हुआ है, या हो सकता है। मुझे मालूम है, ये भावना निकालने में आप बड़ा आहत अनुभव करेंगे। लेकिन सत्य तक जाने की बहुत छोटी कीमत है, थोड़ी सी चोट खाना। चोट लगती हो तो लगे, हटाइए ये बात कि देवी, देवता, ईश्वर कुछ भी आपके सामने साक्षात् है।
जो कुछ आपके सामने खड़ा है, निवेदन कर रहा हूँ, वो बिलकुल आप ही जैसा है, आपकी ही निर्मित्ति है। आपसे किसी और ऊँचे आयाम का नहीं हो सकता वो। आपसे ऊँचा होता तो आपके सामने कैसे आ जाता? तो लोग कहते हैं, ‘पर पुरानी कथाओं में तो कहते हैं न, फ़लाने ने इत्ते साल तपस्या की, तो वो आकाश में शिव जी प्रकट हुए, उन्होंने कहा 'बता, क्या चाहिए?' तो उसने कहा फ़लानी चीज़ चाहिए। उन्होंने ऊपर से चिज्जू दे दी।’
ये सब कहानियाँ उनको बताने के लिए हैं, जो बहुत ही भोथरी, ब्लंट बुद्धि के हैं, जिनको सूक्ष्म बात समझ में ही नहीं आएगी, उनको इस तरह से बता दी जाती है, और फिर चित्रों में भी दिखा दी जाती है। कैसे दिखा देते हैं कि वो भक्त ध्रुव नीचे खड़ा हुआ है, या फ़लाने ऋषि हैं वो नीचे खड़े हुए हैं, या फ़लाना असुर है तपस्वी, वो नीचे खड़ा हुआ है, और बस कुछ पन्द्रह-बीस फ़ीट की ऊँचाई पर शंकर भगवान दिखा दिये जाते हैं। वो ऐसे (हाथ को आशीर्वाद की मुद्रा में दिखाते हुए) खड़े हुए हैं कि बता वत्स क्या चाहिये? वो कुछ बोल रहा है; बोल रहे हैं, ‘तथास्तु!’
फिर आप सोचते हैं ऐसे ही कुछ होता होगा दर्शन। ऊपर से उतरते होंगे, और हम नीचे से देख लेते होंगे। ये सब बातें ये कहानियाँ बच्चों तक भागवद्तत्व को पहुँचाने के लिए रची गयी थीं, इस तरह की कहानियाँ या छवियाँ बड़ों के लिए नहीं हैं। सत्य के साधकों के लिए तो बिलकुल ही नहीं हैं। शिव कोई व्यक्ति हैं, कोई छवि हैं कि साक्षात् आ जाएँगे और आप उनका दर्शन कर लेंगे?
बाकी आप अपने नशे में, बेहोशी में कुछ भी कल्पना करते रहें, उस पर कोई पाबन्दी नहीं है, वो आप कर लीजिए कि हाँ, मैंने शिव को देखा। कर सकते हैं, दावा करने से कौन किसको रोक सकता है? अभिव्यक्ति की आज़ादी सबको है, कोई कुछ भी बोल सकता है लेकिन इसका मतलब ये थोड़े ही है कि शिव कोई देहधारी हैं, और प्रकट हो जाएँगे।
तमाम तरह के आध्यात्मिक अन्धविश्वास हैं, जो बहुत प्रचलित हैं। बहुत ज़्यादा वो पढ़े-लिखे लोगों में प्रचलित हैं। बहुत पढ़े-लिखे लोग होंगे एकदम, वैज्ञानिक स्तर के भी होंगे, वो ऐसे बोल रहे होंगे, ईश्वर क्या है, एनर्जी, एनर्जी। और उनको ये बोलते हुए बड़ा फ़क्र सा अनुभव होता है, देखो हमने कितनी ऊपर की बात करी, हम कह रहे हैं 'गॉड इज़ एनर्जी' (ईश्वर ऊर्जा है)।
अरे पगले हो क्या? जिसको तुम ऊर्जा कह रहे हो, वो पदार्थ ही तो है। और ये जानने के लिए विज्ञान की ज़रूरत भी नहीं है, यूँ ही पता है हमें। इ इज़ इक्वल टू एम सी स्क्वेर तुम्हें नहीं भी बताया जाता, तो भी सामान्य बुद्धि से तुम जान जाते कि पदार्थ और ऊर्जा एक ही तल की बातें हैं। तो अगर तुमने कह दिया कि ईश्वर ऊर्जा है, तो तुमने क्या कह दिया? ईश्वर पदार्थ है। लो कर दी न, तुमने बिलकुल वही “अहम् देहास्मि” वाली बात। ‘मैं पदार्थ हूँ, मेरा ईश्वर भी पदार्थ है,’ इसमें अध्यात्म कहाँ है? अध्यात्म का मतलब तो सूक्ष्मता होता है न! और तुमने तो ईश्वर को ही अपने पदार्थ बना दिया।
अजन्मा कहो कि निश्चल कहो, इनमें साझा क्या है? इन दोनों शब्दों में? दोनों ही ये शब्द नकार की भाषा में किसको नकारा जा रहा है? माया को। और, कौन जन्मता है? और, और कौन जन्म देता है? और जो सबकुछ चलायमान है, वो क्या है? वही तो है। माया को लेकर के कोई खतरनाक सा चित्र मत बनाया करो दिमाग में कि राक्षसी जैसी कुछ होगी माया। माया माने यही सबकुछ, पूरी दुनिया। तुम्हारा जन्म लेना क्या है? माया। तुम्हारी मौत क्या है? माया। तुम्हारा जीवन क्या है? माया।
जिनसे आ रहे हो वो कौन हैं? माया। तुम जिनको पैदा कर रहे हो, वो सब क्या है? माया। सब माया-ही-माया है, ये। माया माने क्या? जो सदा न रहे, वो माया। जो कल नहीं था, आज अचानक खड़ा हो गया, सो? माया। जो अभी ऐसा दिख रहा है, छानबीन करो तो पता चले, अभी ऐसा नहीं है। और अभी जैसा दिख रहा है, अगले पल तो बिलकुल वैसा नहीं रहेगा, सो? माया। जिसका कभी तुम पूरा भरोसा न कर पाओ वो?
श्रोतागण: माया।
आचार्य: तो ये है, माया। तो ये सबकुछ जो गतिमान है, वो माया ही तो है। गतिमान होने का मतलब ही ये है कि अभी है, फिर गति करेगा तो नहीं रहेगा, कुछ और हो जाएगा।
हम किसको जानते हैं? पवित्रता को जानते हो कभी? पवित्रता माने तो विशुद्ध निर्दोषता हो गया न। जब तुम कहो कुछ पवित्र है, माने अब उसमें अपवित्रता कितनी है? एकदम शून्य। तुम्हारी ज़िन्दगी में, तुम्हारे अनुभव में, कभी कुछ भी ऐसा रहा है, जो शत-प्रतिशत शुद्ध हो? बताना।
ये पानी है (पानी का गिलास हाथ में लेते हुए), शत-प्रतिशत शुद्ध है? ये कॉंच है, शत-प्रतिशत शुद्ध है? बोलो ये शरीर शत-प्रतिशत शुद्ध है? एकदम अभी नहाकर आओ तो भी शुद्ध हो जाता है पूरा पूरा? विचार कभी पूरे शुद्ध होते हैं? वस्त्र कभी होते हैं पूरे शुद्ध? मन होता है कभी पूरा शुद्ध? कुछ भी, कभी पूरा शुद्ध होता है? तो ले-देकर के हमारा कुल परिचय किससे है? अपवित्रता से। चूँकि हमारा परिचय अपवित्रता से है, इसलिए नकार की भाषा में परमात्मा को कह देते हैं पवित्र।
समझ रहे हो?
उसको चाहे पवित्र कहें, चाहे अजन्मा कहें, चाहे अचल कहें, उद्देश्य तुमको ये जताना है कि भाई, वो तुम्हारे जैसा बिलकुल नहीं है। तुम ज़रा अपनी हद में रहो। तुम इस तरह के मंसूबे मत बाँधने लग जाओ कि मैं उसके सामने खड़ा हो जाऊँगा। वो तुम्हारे जैसा है ही नहीं, वो तुम्हारे तल पर है नहीं। तो तुम उसके सामने कैसे खड़े हो जाओगे? दो लोग एक-दूसरे के सामने कब खड़े हो सकते हैं? जब दोनों के पाँव तले की ज़मीन एक हो। तुम्हारे पाँव के नीचे जो ज़मीन है, वो उसकी ज़मीन से बिलकुल अलग है। वो बिना ज़मीन के खड़ा है, तुम ज़मीन पर खड़े हो। तुम उसके सामने कैसे खड़े हो जाओगे?
समझ में आ रही है बात?
और ये भी क्यों कहा जा रहा है कि वो बिना ज़मीन के खड़ा है? अभी हम थोड़ी देर पहले तो कह रहे थे, आत्मा है ही नहीं। अब हम कह रहे हैं, वो ज़मीन पर खड़ा है, और इस तरह की बातें। जैसे हम किसी विधायक इकाई की बात कर रहे हों। ये हम क्यों कह रहें हैं कि, वो? ये भी सिर्फ़ तुमको ये बताने के लिए है कि वो तुमसे बहुत दूर का है, बहुत अलग है। क्यों बताना पड़ता है? देखो, अध्यात्म का मतलब सत्य की खोज बाद में होता है, झूठ का नकार पहले होता है।
ये पूरा जो ग्रन्थ है उपनिषद्, इसमें सम्बोधित किसको किया जा रहा है? मैं बार-बार याद दिलाता हूँ किसको? अहंकार को। ये पूरी बात अहंकार के लिए रची गयी है, और अहंकार वो है, जो भीतर से खोखला होते हुए भी अपने आत्मविश्वास में जीता है। उसको बड़ा भरोसा होता है अपनेआप पर कि मैं जो कर रहा हूँ, ठीक ही कर रहा हूँ। मैं जानता हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ।
तो एक एक श्लोक इसलिए है कि तुम्हें जताया जा सके कि तुम्हें कुछ नहीं पता तुम क्या कर रहे हो। तुम सोच रहे हो कि तुम ऊँचे हो, नहीं तुम ऊँचे नहीं हो, कोई तुमसे इतना ऊँचा है, इतना ऊँचा है कि तुम उससे हाथ भी नहीं मिला सकते, तुम्हारी नज़र में भी नहीं आता।
अब ‘वो कितना ऊँचा है?’ ये बात महत्त्वहीन है। महत्त्वपूर्ण ये बात है कि तुम अपनेआप को नीचा मानो। तो ये पूरा जो आयोजन है, ये कुल मिलकर के तुमको ये जताने के लिए है कि बेटा, तुम नीचे रहो। और नीचे रहना अहंकार को पसन्द ही नहीं। वो अपनी दृष्टि में अपना सत्य खुद है। वो तो वो है जो अपने मन-मुताबिक देवी-देवता का भी चुनाव कर लेता है। वो तो वो है, जो उपनिषद् भी स्वेच्छा से पढ़ेगा, गुरु भी स्वेच्छा से चुनेगा। वो अपनेआप को सबसे ऊपर मानता है। ग्रन्थों की भी कौनसी बात पढ़नी है, या नहीं पढ़नी है, ये वो खुद तय करता है। और अपनेआप को ग्रन्थ से भी ऊपर रखता है। भले ही वो ये बोले, ‘मैं ग्रन्थ पढ़ने जा रहा हूँ, पर पढ़ना है या नहीं पढ़ना है, हम देखेंगे।’
कोई हो दिशा निर्देशक, वो भी तुम्हें कोई सलाह दे, आज्ञा दे, तो उसकी कौनसी आज्ञा माननी है, कौनसी नहीं, और माननी भी है, तो कितनी माननी है, ये अहंकार खुद तय करता है। तो बोलेगा यही कि मैं फ़लाने की आज्ञा पर काम कर रहा हूँ, पर पूरी बात पूछो, पूछो कि सारी आज्ञाओं का पालन करते हो? ‘नहीं।’ अच्छा, तो तुम चुनते हो कि तुम्हें किस आज्ञा का पालन करना है किसका नहीं? ‘हाँ।’ अच्छा। तो फिर बड़ा कौन हुआ? (हँसते हुए) आज्ञा देने वाला या तुम? बड़ा कौन हुआ?
अहंकार भले ही भीतर से आक्रान्त रहता हो, शोकाकुल रहता हो, खोखला रहता हो, लेकिन फिर भी उसकी ठसक पूरी है। चलूँगा तो मैं अपने हिसाब से, हाँ, बीच-बीच में, कुछ दो चार बातें इधर-उधर से पूछता चलूँगा। पर किससे पूछना है, वो भी मैं तय करूँगा। और जो सुनाई पड़ा पूछकर के, वो मानना है या नहीं मानना है, ये भी मैं तय करूँगा। ऐसा होता है अहंकार। बहुत ज़बरदस्त अड़ियल टट्टू। इसीलिए तो इतने उपनिषद् रचने पड़े, तब भी खैर अहंकार तो अहंकार है।