चंद्रयान: ISRO वैज्ञानिक की जिज्ञासा || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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चंद्रयान: ISRO वैज्ञानिक की जिज्ञासा || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैं इसरो बैंगलोर में कार्यरत हूँ। मैं चन्द्रयान-3 मिशन से भी जुड़ा हुआ हूँ, और आपको विगत चार वर्षों से सुन रहा हूँ। आचार्य जी इस चन्द्रयान-3 मिशन में कई उतार-चढ़ाव आये, और उतार-चढ़ाव के मध्य खासतौर पर जो आखिरी पैंतालीस दिन का मिशन था। उसमें हम लोगों ने कई बहुत महत्वपूर्ण निर्णय लिये। इस पूरी प्रक्रिया में आपकी शिक्षाओं से मुझे बहुत बल मिला।

दूसरी तरफ़ हम बहुत तनाव में थे इस यान की लैन्डिंग को अपनी योजना के अनुसार देखने के लिए। इस प्रक्रिया में जो हमने योजना बनायी उसी का नतीजा होगा जो आगे होने वाला है। इस दौरान मैं दो रात पहले से बिलकुल निद्रारहित हो गया था, मैं काफ़ी तनाव में आ गया था, फिर मैंने आपकी शिक्षाओं को याद करना शुरू किया। तब मुझे आपकी एक बात याद आयी — अपनी तरफ़ से जितना प्रयास कर सकते हो करो, और भरोसा रखो। इस बात से मुझे बहुत राहत मिली।

आचार्य जी एक और प्रश्न था इस चीज़ को लेकर कि ये जो मिशन था, इसमें मतलब तकनीकी विषय तो थे ही एक आध्यात्मिक पहलू भी था इसका। एक अध्यात्मिक पहलू ये था कि कई सारी टीमें एक साथ काम कर रही थीं तो हम बिलकुल फोकस्ड थे। और मन में शान्ति का अनुभव हुआ। लेकिन जैसे ही इस मिशन से बाहर निकलकर आये, अब एक व्यावहारिक ज़िन्दगी फिर से शुरू हो गयी है, और फिर से एक बेचैनी पकड़े हुए है।

तो क्या इस तरह के मिशन ही ज़रूरी हैं? आप जैसे बताते हैं कि कोई ऐसा बड़ा काम लो जो आपको सोख कर ले। तो क्या यही एक तरीका है कि इन सब चीज़ों को या कुछ और भी है?

आचार्य: हाँ, बस यही एक तरीका है। देखिए, या तो हम मेहनत करके इस संसार को, माने ये जो समाजकृत संसार है, जो हमारा संसार है वो तो हम ही ने बनाया है न? प्राकृतिक जंगल तो है नहीं, हम जहाँ रहते हैं वो हमारी बनायी दुनिया है। वो जो आदिम प्रकृति है, उसकी दुनिया से तो हम कबके बाहर आ गये। तो हम तो समाज के बनाये संसार में रहते हैं।

तो या तो समाज का बनाया संसार ऐसा हो जाए कि उसमें आप शान्ति से जी लो। वो इतना साफ़ हो जाए, इतना इतना सुन्दर हम उसको कर लें कि उसमें हमें चैन मिल सके। नहीं तो आप उस संसार में निकलोगे तो बेचैनी ही होगी। और अगर ईमानदार आदमी को अपने ही बनाये संसार में बेचैनी हो रही है, तो उसके सामने फिर एक ही रास्ता रहेगा न। मैंने ही इसको बनाया है और ऐसा बना दिया है कि ये मुझे बेचैन करता है, तो मैं इसको फिर ठीक भी करूँगा। तो फिर एक ही काम है जिसमें चैन मिलेगा — ठीक करने का काम। आप बात समझ रहे हैं?

आप एक कमरे में हो, आप वैज्ञानिक हो इसरो में, आप वहाँ काम कर रहे हो। आप वहाँ जो काम कर रहे हो वो ऊँचे दर्ज़े का काम है। उसमें बुद्धि लग रही है, उसमें व्यवस्था लग रही है, उसमें आप खोज करना चाहते हो। चाँद पर हम मौज-मस्ती करने नहीं गये हैं, चाँद पर हम खोज करने गये हैं, हम जानना चाहते हैं बात क्या है।

क्योंकि बात को अगर जानेंगे नहीं, तो फिर धारणाओं पर चलना पड़ेगा। और धारणाएँ अन्धविश्वास बन जाती हैं। तो ये ऊँचा काम है, खोज का काम है जिसमें बुद्धि को लगना पड़ता है, एक आन्तरिक अनुशासन चाहिए, ये सब है। तो आप कमरे के अन्दर तो ऊँचा काम कर रहे हो, कमरे से मेरा आशय मान लीजिए, ‘इसरो की प्रयोगशाला।’

कमरे के भीतर तो आप अच्छा काम कर रहे हो। और जब आप अच्छा काम कर रहे हो, तो आप एक ऊँचे व्यक्ति हो। क्योंकि ऊँचा ही आदमी ऊँचा काम करेगा। और आप उस कमरे से बाहर निकलते हो, तो आप बाहर हमारे ही बनाये इस संसार को कैसा पाते हो? आप पाते हो नीचा। हाँ?

भीतर बुद्धि और तर्क के अलावा कुछ चलेगा नहीं। चन्द्रयान वहाँ ऊपर तक नहीं पहुँच सकता था अगर बुद्धि और तर्क के अलावा हमने और चीज़ें लगा दी होती तो।

तो कार्यशाला, प्रयोगशाला के भीतर तो बुद्धि और तर्क पर काम चल रहा है। और बाहर निकलो संसार में, या परिवार में भी आ जाओ, बाज़ार, परिवार, संसार एक ही बात है। इनमें आ जाओ, तो वहाँ पाते हो बुद्धिहीनता और तर्कहीनता। वहाँ पर लोग कह रहे हैं, ‘नहीं-नहीं हम तो जी भावनाओं पर जिएँगे।’ भले ही हमें स्वयं भी न पता हो कि हमारी भावनाएँ, हमारी पशुता के किस केन्द्र से आ रही हैं। ‘नहीं, हम बुद्धि पर नहीं चलते, हम तो परम्परा और धारणा पर चलते हैं। नहीं, हम तर्क पर नहीं चलते, हम तो मान्यता पर चलते हैं।’

तो अब आपने स्वाद ले लिया है ऊँचाइयों का। कहाँ? कमरे के भीतर। और जो एक बार कमरे के भीतर ऊँचाइयों का स्वाद ले लेता है, उससे कमरे के बाहर फिर जिया नहीं जाता। इसीलिए जो व्यक्ति सचमुच अच्छे काम में लगा हुआ है, उसकी पहचान ये होती है कि वो हॉलिडे या ब्रेक नहीं ले सकता। क्योंकि अच्छे काम का ये अर्थ होता है — ऊँचा काम। ऊँचाई के अलावा कोई अच्छाई तो होती नहीं न।

इन तीनों को जो परस्पर समानार्थी बना लेता है, वो आदमी बहुत दूर तक जाता है — ‘ऊँचाई’, सच्चाई, अच्छाई।’

हम ज़्यादातर लोगों के लिए तीनों, तीन अलग-अलग आयाम होते हैं। ज़्यादातर लोगों के लिए ‘ऊँचाई, सच्चाई, अच्छाई’ तीन अलग-अलग चीज़ें होती हैं। उदाहरण के लिए घर में माहौल अच्छा रखना ठीक है, भले ही उसके लिए झूठ बोलना पड़ता है। घर में माहौल अच्छा रखने के लिए झूठ बोलना ठीक है। तो आपने फिर सच्चाई और अच्छाई को अलग-अलग कर दिया न?

आप कह रहे हो, ‘अच्छाई तो झूठ से आती है।’ यही करते हैं न हम? वो आदमी बहुत दूर तक जाता है जिसकी ‘ऊँचाई, अच्छाई, सच्चाई’ तीनों एक हो जाते हैं। तो जिसके पास अच्छा काम मिल गया, वो बाहर कैसे जिएगा? क्योंकि बाहर की दुनिया में तो सच्चाई को अच्छाई माना ही नहीं जाता। बाहर की दुनिया में सच्चाई को अच्छाई मानते ही नहीं।

तो वो बाहर थोड़ा सा निकल सकता है। इधर-उधर घूमेगा-घामेगा और फिर वापस लौटकर के आएगा और दोबारा अपनेआप को पहले से भी ज़्यादा किसी ऊँचे प्रोजेक्ट में झोंक देगा। यही तरीका है।

आप ये नहीं कह सकते कि चन्द्रयान-3 अब सफल हो गया है, तो अब मैं जा रहा हूँ छुट्टी लेने के लिए। आपने इतना ये कर दिया, वो हो गया, उसके बाद आप मेरे पास आ गये। ठीक है। अब इतना कर लिया, वापस जाइए और अगले मिशन की तैयारी करिए। आप बात को समझ रहे हो न?

ये जो डिफ्रेंस बिटवीन पर्सनल एंड प्रोफ़ेशनल लाइफ़ (व्यक्तिगत जीवन और व्यावसायिक जीवन में अन्तर) होता है, ये बहुत घातक चीज़ होती है। और ये इस बात का उदाहरण होता है कि आपका काम अच्छा नहीं है इसीलिए आपको अपने काम से माने अपनी प्रोफ़ेशनल लाइफ़ से भागकर के अपनी पर्सनल लाइफ़ में कहीं सुकून या हॉलिडे ढूँढना पड़ रहा है।

और बार-बार हमें बताया जाता है; ‘देखो, वर्क लाइफ़ बैलेंस (काम और जीवन का संतुलन) होना चाहिए, वर्क लाइफ़ बैलेंस होना चाहिए। कोई वर्क लाइफ़ बैलेंस नहीं चाहिए। वर्क इज़ लाइफ़ (काम ही जीवन है)। और वर्क अगर लाइफ़ नहीं है तो इतना घटिया काम कर क्यों रहे हो?

ऐसा घटिया काम क्यों कर रहे हो जिसको लाइफ़ माने ज़िन्दगी नहीं बना सकते? अगर मैं अपने काम को अपनी ज़िन्दगी नहीं बना सकता, तो मेरा काम तो बाज़ारू हो गया न। फिर तो मैं कह रहा हूँ कि मैं अपने काम में बिकने के लिए जाता हूँ। और कुछ पैसे ले आता हूँ, उससे अपना घर चलाता हूँ।

ये वर्क लाइफ़ बैलेंस जो है, ये आदमी की ज़िन्दगी का नर्क होता है। आपका सौभाग्य है और आपका पुरुषार्थ है कि आप एक बहुत ऊँचे काम में लगे हुए हो।

स्पेस एक्सप्लोरेशन (अन्तरिक्ष की खोज) मानवीय ज्ञान के फ्रंटियर्स (प्रमुख) में से है इस वक्त। स्पेस, बायोटेक्नोलॉजी, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (अन्तरिक्ष,जैव प्रौद्योगिकी और कृत्रिम बुद्धिमत्ता) — ये तीन क्षेत्र हैं जहाँ पर आदमी वर्तमान शताब्दी में नयी-नयी सीमाओं को टटोल रहा है।

तो आप एक बहुत ऊँचा काम कर रहे हैं। उस काम में ही लगे रहिए न, बाहर क्यों निकालना है? उस काम में तब तक लगे रहिए जब तक बाहर की दुनिया वैसी ही नहीं हो जाती जैसी उस कमरे के भीतर की दुनिया है। हम एस्केपिज़्म (पलायनवाद) की बात नहीं कर रहे हैं। हम ये नहीं कह रहे हैं कि भगोड़े हो जाओ और अपने काम में मुँह छुपाए रहो।

हम कह रहे हैं, ‘मैं काम ही वही कर रहा हूँ जो एक दिन दुनिया बदल देगा।’

अभी जब चन्द्रयान लॉन्च हुआ, तो मैंने कहा कि उसकी सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि भारत विज्ञान के बारे में कम-से-कम कुछ बात तो करने लगा। नहीं तो हमारे यहाँ बातें तो खेल और राजनीति और मनोरंजन और सट्टेबाजी और सब जो व्यर्थ की चीज़ें होती हैं, वही पब्लिक डिस्कोर्स (सार्वजनिक संवाद) की चीज़ें होती हैं।

आम आदमी अगर बात कर रहा है कि अच्छा ये स्केप-वेलॉसिटी क्या होती है, लैंडर क्या होता है, ऑर्बिटर क्या होता है, रोवर क्या होता है। तो ये बहुत बड़ी बात है। अच्छा, चन्द्रयान-2 लैन्ड क्यों नहीं करा था? अरे, वो जो उसका अन्त में दो किलोमीटर में ब्रेकिंग मैकेनिज़्म (रोकने वाला तंत्र) था न, वो काम नहीं कर रहा था। तो ब्रेकिंग (रोक) कैसे होगी, ब्रेकिंग कैसे होती है? उसके अन्दर ब्रेकिंग कैसे होगी? लोग इस पर थोड़ा बात करना चाहते हैं।

जिनका वैज्ञानिक कुछ पृष्ठभूमि जिनकी नहीं भी है, वो भी इस बारे में कुछ बात करने लग गये, कुछ-कुछ समझने लग गये। तो ये मुझे अच्छा लगा।

हालाँकि बहुत लोग ऐसे भी हैं जिनको विज्ञान से कोई लेना-देना नहीं है। और इसमें शोर सिर्फ़ इसलिए मचा रहे हैं कि उससे अहंकार उनका आगे बढ़ता है। बहुत सारे लोग तो चन्द्रयान के बहाने अपना हिडेन एजेंडा (छिपा हुआ उद्देश्य) आगे बढ़ा रहे हैं। वो चन्द्रयान का श्रेय लेना चाहते हैं और चन्द्रयान को आगे रखकर के पीछे से अपने मंसूबे पूरे करना चाहते हैं, वो सब अलग बात है। लेकिन जो उसमें सकारात्मक बात थी, वो ये थी कि भारत ने विज्ञान का नाम तो लिया कम-से-कम। नहीं तो भारत में तो अन्धविश्वास का ही नाम लिया जाता है। तो वो मुझे अच्छा लगा था।

तो आप बहुत अच्छा काम कर रहे हो। आपको इतने सारे मिशंस लाने हैं। और आपको समझ लीजिए कि स्पेस (अन्तरिक्ष) से सत्य ही लेकर आ जाना है भारत के लिए। हमें चाहिए कि भारत के घर-घर में विज्ञान की बात हो। और वो काम आप उस कमरे से बाहर निकलकर तो कर नहीं सकते।

आप क्या करोगे? जब तक आप उस कमरे के भीतर हो, मैं ‘इसरो’ की बात कर रहा हूँ। वो जो कमरा है ‘इसरो’, जो प्रयोगशाला है। उसके भीतर हो जब तक आप, तब तक आपकी एक गरिमा है। वहाँ आप बहुत ऊँचा काम कर रहे हो। उससे बाहर निकलकर आप क्या करोगे?

उससे बाहर निकलकर आप किसी बाज़ार में कुछ ख़रीददार बन जाओगे। किसी सुन्दर जगह पर जाकर कुछ पर्यटक से बन जाओगे। या कि इधर-उधर जाकर दोस्तों-यारों के साथ बैठ जाओगे, तो कुछ गपशप हो रही है, कुछ पार्टी हो रही है। यही तो करोगे। इन कामो में कौन सी ऊँचाई है?

क्या आपकी गरिमा थी, क्या आपकी भव्यता थी जब आप उस ऊँचे मिशन की तैयारी कर रहे थे, जब आप अपनी आँखों से उसको लॉन्च होता देख रहे थे? भले ही आप कह रहे हैं, ‘उसके लिए पैंतालीस दिन तक बहुत तनाव झेला’, तो भी। क्या उसकी बात थी, क्या उसमें जीवन की सुन्दरता थी। और फिर आप उससे बाहर निकल जाओ। ऐसा है न, जैसे एंटी क्लाइमेक्स (अपकर्ष)। एंटी क्लाइमेक्स समझते हो?

एक ऊँचाई और उसके बाद धड़ाम से नीचे आकर गिरे। क्यों ऐसा करना है? फिर मैं उस ऊँचाई को कायम रखूँगा न? अगर ऊँचा काम मिल गया तो उसको अपनी ज़िन्दगी बनाऊँगा न, उस ऊँचे काम से बाहर ही मुझे क्यों आना है? क्यों कहना है कि ऊँचा काम सिर्फ़ मेरा प्रोफ़ेशन है और प्रोफ़ेशन के बाहर मेरी पर्सनल लाइफ़ है? बाहर आना ही क्यों है? बताओ न बाहर क्यों आना है?

जब नोएडा में संस्था काम करती थी हमारे शुरुआती दिन थे। तो मेरा इतना छोटा सा कमरा था एक, मेरे खयाल से जो आठ फ़ीट बाय आठ फ़ीट, इससे ज़्यादा नहीं रहा होगा। वहीं पर मेरी कुर्सी-टेबल लगी हुई थी। आपमें से कुछ लोगों ने शायद वहाँ देखा भी हो। और उसके बगल में मैं अपना गद्दा बिछा लेता था। ये मेरी चेयर थी, चेयर के बगल में मेरा गद्दा होता था। मैं वहीं पर सो भी जाता था। मुझे उससे बाहर निकलना ही नहीं पसन्द था, मैं क्यों बाहर निकलूँ?

बाहर की दुनिया में ऐसा क्या है कि बाहर निकलूँ? या तो मैं बाहर की दुनिया को ऐसा बना दूँ कि फिर उसमें बाहर निकलने में मुझे गरिमा और सौन्दर्य दिखाई दे। और जब तक मैं बाहर की दुनिया को वैसा बना नहीं देता, मैं बाहर निकलकर के करूँगा क्या? यहाँ क्या है मनोरंजन का? कैसा मनोरंजन? इस कुरूपता में मनोरंजन है क्या?

मैं बाहर निकलकर के शॉपिंग मॉल में खड़ा हो जाऊँ। वहाँ जो भोग की हवस और अज्ञान दिखाई दे रहा है और मूर्खता दिखाई दे रही है, उससे मेरा मनोरंजन हो जाएगा? तो मैं बाहर निकलना ही नहीं पसन्द करता था, मैं वहीं पड़ा रहता था। ऐसा नहीं कि कभी नहीं निकलता था, निकलता था। थोड़ा-बहुत देख आये, लेकिन मेरा ठिकाना, मेरा अड्डा वही था।

मैं वहाँ पर अपना बैठा हूँ, वहाँ लेट जाऊँ। और छोटा खरगोश था मेरा, रात में अपना वो नन्दू, वो आ जाए थोड़ी देर के लिए। वहीं पर मेरी किताबें सारी रखी हुई थीं। वहीं पर सारा काम करता था। बाहर जाना क्यों है?

अगर पूरे समुद्र की सफ़ाई नहीं कर सकते हो, तो कम-से-कम अपने लिए एक छोटा सा द्वीप खोज लो। और फिर उस द्वीप से कहो कि अब इसको में बेस (आधार) बनाकर के पूरे समुद्र को साफ़ कर दूँगा। हम भागे नहीं हैं, ये एस्केपिज़्म नहीं है। हमने अपना एक बेस बनाया है, हमने अपना एक आधार खड़ा करा है कि ये मेरा बेस है। अब यहाँ से मैं आगे का काम करूँगा, पूरी दुनिया की सफ़ाई का।

पर जिसको पूरी दुनिया की सफ़ाई का काम करना हो, वो पूरी दुनिया में पर्यटक बन जाए, या दुनिया में जाकर रच-पच जाए, इसमें कोई शोभा की बात नहीं है। एक-से-एक ऊँची चुनौतियाँ उठाइए, आगे बढ़िए, और वो है न, जो अभी मैं बोल रहा था ‘प्रहार’ मूवी का— 'जोकर्स, हम यहाँ पिकनिक के लिए नहीं, ट्रेनिंग के लिए आये हैं।’ पिकनिक क्या करनी है?

इसरो के वैज्ञानिक को पिकनिक शोभा देता है क्या? और ये सब लोग अगर पिकनिक करते रह जाते, तो हम लोग कभी चन्द्रयान पाते क्या? तो, “मेरा जीवन ललकार बने”, हम यहाँ ललकारने के लिए आये हैं। “असफलता ही असिधार बने, इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने।”

निर्मम रण है, उसको लड़ेंगे। इसमें हम क्या करें कि रण को छोड़कर के उधर जाएँ और उत्सव मनाएँ। किस बात का उत्सव मनाकर आये हो? कुरुक्षेत्र से भागे हुए हो, और नाच-गाना कर रहे हो? और कह रहे हो कि ये हमारा जीवन है, कर्म है, और धर्म है — झूठ।

तो संस्था में हम कहा करते हैं कि सही काम पकड़ो। बोलो आगे, कौन पूरा करेगा संस्था से उसको?

स्वयंसेवक: और उसमें डूब जाओ।

आचार्य: और उसमें डूब जाओ। यही दो सूत्रीय चीज़ है जो जीवन को जीने लायक बना देती है। पहला, “सही काम पकड़ो”; और दूसरा, “उसमें पूरी तरह डूब जाओ।” फिर ये नहीं कहो कि इस काम के आगे मेरी पर्सनल लाइफ़ है।

सही काम खोजो और उसमें पूरा डूब जाओ। जो प्रोफ़ेशनल है, वही पर्सनल है। और अगर प्रोफ़ेशनल और पर्सनल एक नहीं हैं, तो जीवन बाज़ारू है। बात आ रही है समझ में कि नहीं आ रही?

अगर आपका काम सचमुच दिली है, हार्दिक है तो आप ऐसा कैसे कहोगे कि अब रुक गया? ‘शाम छः बजे के बाद मैं नहीं करता हूँ।’ छः बजे के बाद दिल धड़कना बन्द कर देता है क्या? छः बजे के बाद साँसों का आवागमन रुक जाता है क्या? तो काम कैसे रुक गया? काम ही तो ज़िन्दगी है।

निष्काम कर्मयोग और क्या होता है? ‘सच को पूरा समर्पण।’ और जब सच जान जाते हो, तो उसमें से निष्कामता आती है वो जीवन बन जाती है। हमें अभी बहुत आगे जाना है, तो काम करना है, रुकना नहीं है।

उसी फ़िल्म से, प्रहार से ही वो जो गाना है; जो कई बार मैं आप लोगों से उल्लेख करता रहता हूँ कि “जिन पर है चलना नयी पीढ़ियों को, उन राहों को बनाना हमें है।”

जिन पर है चलना नयी पीढ़ियों को — ‘अरे! अब इतना ऊँचा काम कर रहे हैं, इसमें ब्रेक किसको चाहिए? नयी पीढ़ियाँ जिन राहों पर चलेंगी हम उन राहों का निर्माण कर रहे हैं।’ कितनी ये करुणा और भव्यता की बात है कि आप जो काम कर रहे हो वो नहीं करोगे तो न जाने कितने लोग झूठे अहम् और अज्ञान और अन्धविश्वास के जंगल में खोये रहेंगे। आप उनके लिए राहें बना रहे हो, नहीं तो वो जंगल में खोएँगे।

ठीक है?

तो हमेशा याद रखिए। जब भी आप अच्छा काम कर रहे हो और उसमें चाहे चुनौती आये, बोरियत आये, भय आये, आगे की चिन्ता आये, कुछ आये। ये याद रखिए कि काम ज़रूरी कितना है।

मैं अक्सर कहा करता हूँ, “मंज़िल के प्रति प्रेम ही पथिक की ऊर्जा बन जाता है।” और कोई चीज़ आपको ऊर्जा दे ही नहीं सकती, न साहस दे सकती है। मंज़िल की तरफ़ जो आपका प्रेम होता है न, वही आपकी ऊर्जा बनता है, साहस बनता है। मैं कह रहा हूँ, वही आपकी दृष्टि भी बनता है। नहीं तो रास्ता अन्धेरा है, आपको मंज़िल दिखाई कैसे देगी?

ऐसा सा है, जैसे आप किसी लाइट हाउस की ओर बढ़ रहे हों। आप जिसकी ओर बढ़ रहे हैं, उसी की रोशनी में उसकी ओर बढ़ रहे हैं। आप जिसकी ओर बढ़ रहे हैं, उसी की रोशनी में उसकी ओर बढ़ रहे हैं। और उसकी तरफ़ आप जितना निकट पहुँचते जाते हैं उसके, रोशनी उतनी ज़्यादा बढ़ती जाती है।

तो सही काम चुनिए। दुनिया में उससे अभागा कोई नहीं है, जिसने ज़िन्दगी में सही काम नहीं चुन रखा है। और हमें जो बचपन से ये एक गलत बात बता दी जाती है वो ये है कि वर्क इज़ पार्ट ऑफ़ लाइफ़ (काम जीवन का एक हिस्सा है)। हमें बता दिया जाता है कि कमाते तो इसलिए हो न ताकि परिवार चला सको। कमाते तो इसलिए हो न ताकि अपनी कामनाएँ पूरी कर सको। इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता, और खासतौर पर जवान लोग इस बात को समझ लें।

दुनिया का सबसे बड़ा झूठ ये है कि कमाया इसलिए आता है ताकि परिवार चले या कमाया इसलिए जाता है ताकि कामनाएँ पूरी हों। नहीं, *वर्क इज़ एन इंड इन इटसेल्फ़ (काम अपनेआप में ही सब कुछ है)। काम वो करो, जो तुम बिना एक रुपया लिए भी कर सको। तुम कहो, ‘काम में ही सौन्दर्य है, और गौरव है। पैसा कौन चाहता है?’

काम वो करो जिस काम को करने के लिए भले तुमसे पैसे ले लिए जाएँ, तो भी तुम कहो, ‘काम तो यही करना है। पैसे के लिए थोड़ी कर रहा था। इस काम की अपनी महत्ता है और गरिमा है। उसके लिए कर रहा था।’

हमें झूठ बोला गया है कि कामना और भावना पहले आती है। कामना क्या आती है कि पैसा आएगा, तो उससे नया फ़ोन खरीदूँगा। ये हो गया कामना के लिए काम करना। और भावना के लिए काम करना क्या हो गया? ‘पैसा आएगा, तो उससे फ़लाने को कहीं घुमाने ले जाऊँगा’, ये हो गया भावना के लिए काम करना। ये दोनों बातें एकदम झूठ हैं।

“काम सिर्फ़ काम के लिए करना है। और काम जब सिर्फ़ काम के लिए होता है, तो उसे ही निष्काम कहते हैं। और काम जब परिणाम के लिए होता है, तो उसको बुरा अंजाम कहते हैं।” सकामता माने बुरा अंजाम।

किसी परिणाम के लिए काम नहीं करना है। चन्द्रयान-2 असफल हो गया था। अगर सिर्फ़ परिणाम के लिए काम कर रहे होते तो यही कहना चाहिए था न, ‘अरे! अरे! अरे! बर्बादी आ गयी, बर्बादी आ गयी।’ क्या बर्बादी आ गयी? कुछ नहीं हुआ। और आगे बढ़ो न।

कुछ चीज़ें उसमें सफल रही थीं, एक चीज़ असफल हो गयी थी— लैंडिंग। ऑर्बिटर तो उसका काम कर ही रहा था। और उसी से जो फिर सीख हुई, अगर मैं मुझे सही याद है तो चन्द्रयान-3, चन्द्रयान-2 से कम लागत में बना है। उसी की तो सीख है, उसी की तो सीख है।

कम समय में और कम लागत में बना है। तो कौन परवाह कर रहा है कि अंजाम क्या होगा, कौन परवाह कर रहा है? एक विद्वान का कथन था — बार-बार इधर-उधर की बात पर वो बोले, “इन द लॉन्ग रन, वी आर ऑल डेड” (लम्बी यात्रा में हम सब मृतक ही हैं)। बोले, “अंजाम की ही बात कर रहे हो, तो आखिरी अंजाम तो मौत ही होना है।” अंजाम की इतनी क्या बात करनी है? काम की बात करनी है, अंजाम नहीं देखो, काम सही होना चाहिए।

पूछो, ‘फिर लेकिन ये तो आप आदर्शवादी बातें कर रहे हैं, अव्यवहारिक बातें कर रहे हैं, अरे हमें ज़िम्मेदारियाँ देखनी होती है।’ तुम्हें क्या लग रहा है, तुम इतने मूर्ख आदमी हो कि जिस काम में तुम्हारा हृदय है, और सौन्दर्य है, वो काम करोगे तो तुम्हें कोई दो रूपया नहीं देगा। कैसी बातें कर रहे हो?

मैं कह रहा हूँ, तुम्हें कुछ भी अच्छा लगता है, तुम्हें कंचे खेलना अच्छा लगता है, तुम्हें लगता है उस कंचे खेलने के माध्यम से तुम्हारी आन्तरिक तरक्की हो रही है, तुम्हारा मन साफ़ हो रहा है, तुम्हें जीवन के रहस्य समझ में आ रहे हैं। यदि ऐसा होता है। मैं सिर्फ़ एक काल्पनिक उदाहरण ले रहा हूँ। यदि ऐसा होता है, तो मैं कह रहा हूँ तुम खेलो। तुम उसको ही एक कला के तौर पर इतना निखार दोगे कि उससे तुम्हारी आजीविका चलने लगेगी।

पेट की इतनी परवाह नहीं करनी चाहिए। पेट कितना बड़ा होता है आदमी का? पेट छोटा सा होता है। तो ये तो चिन्ता ही छोड़ दो कि अगर मैं अच्छा काम करूँगा, तो पेट कैसे चलेगा। पेट चल जाता है, पेट की बहुत बड़ी माँग होती नहीं है। कितना बड़ा पेट है हमारा? कुछ नहीं।

और ज़्यादा हो जाए पेट तो वो एक समस्या का विषय हो जाता है। कहेंगे, ‘अब पेट ज़्यादा बड़ा हो गया।’

असली पेट यहाँ (दिमाग में) होता है। इसकी भूख नहीं खतम होती। इसकी भूख के लिए नहीं काम करना है। प्रेम के लिए काम करना है, सुन्दरता के लिए काम करना है। मस्त हो जाएँ, ऐसे काम करना है कि नंगे दौड़ पड़े युरेका-युरेका। काम ऐसा होना, चाहिए मस्त हो गये।

‘आर्कमिडीज़।’ उनको कोई पैसा दे रहा था नंगे दौड़ने का? कि आज तू ज़रा एक न्यूड रन (नंगी दौड़) दिखा, इतना रुपया दूँगा। ऐसा हुआ था? काम ऐसा होना चाहिए कि भूल गये, “मैं इतना ज़ोर से नाची आज कि घुँघरू टूट गये।”

तो घुँघरू तुड़वाने के पैसे मिले थे, कहा गया था इतनी ज़ोर से नाचो? वो तब होता है, जब “मोहे आयी न जग से लाज।” समझ में आ रही है बात?

दुनिया का कोई ऊँचा काम नहीं हो सकता अगर जग से बहुत लजाओगे तो। और अगर जग से बहुत तुम परिणाम की उम्मीद करोगे तो।

मैं नहीं जानता उन ख़बरों में कितना सच है, वो तो अन्दर के लोग ही बताएँगे। कहते हैं कि शायद कुछ अन्दरूनी मसला है, कुछ वैज्ञानिकों को तनख्वाह वगैरह भी ठीक से नहीं मिली है। वो बात झूठी है?

प्र: हाँ। (प्रश्नकर्ता हाँ में सिर हिलाते हैं)

आचार्य: वो बात झूठी है। पर मैं कह रह हूँ, अगर वैसा हो भी, यदि वैसा हो भी। तो भी, तो भी क्या हो गया? समझ में आ रही है बात?

मैं बिलकुल जानता हूँ कि इसके विरोध में आपके पास क्या तर्क होंगे। तर्क यही होगा व्यवहारिकता का, और मैं उस व्यवहारिकता को जानता हूँ भाई, मैं भी इंसान हूँ। मुझे भी खाना-पीना पड़ता है, मैं जानता हूँ ये जो शर्ट है, ये रुपये से आती है। संस्था चला रहा हूँ और संस्था में आधा समय मैं यही देख रहा होता हूँ, ‘खर्चा कितना हो गया? आया कितना? आगे का काम कैसे चलेगा?’

आज सुबह भी इन लोगों से यही बोला है कि बेटा ये महीना तो अब नहीं चलेगा। अपनी-अपनी तनख्वाहें तुम देख लो, ये महीना तो नहीं निकलने वाला।

तो मैं जो व्यवहारिकता के आपके मसले हैं, उनसे परिचित हूँ। लेकिन मैं किसी और बड़े मसले से भी ज़्यादा परिचित हूँ। वो मुद्दा है ज़िन्दगी में सच्चाई का, सौन्दर्य का, राम का, कृष्ण का, मुक्ति का, गौरव का, आदमी की गरिमा का। वो मुद्दा ज़्यादा बड़ा है न? हाँ, तो काम का मतलब गरिमा होना चाहिए। पैसा कम आये, ज़्यादा आये। आप ये गिनते हो क्या कि गाँधी के पास पैसे कितने थे? ऐसे गिनते हो?

श्रोता: नहीं। (श्रोतागण नहीं में सिर हिलाते हैं)

आचार्य: देखो! अच्छा बताइएगा, बुद्ध जब मरे हैं तो पीछे कितनी स्वर्ण मुद्राएँ छोड़कर गये थे?

बताइए-बताइए! आज आप यहाँ बैठकर के जिनकी बात को गा रहे थे तीन घंटे तक। मुझे बताइए न, आप उनको इसलिए याद रखते हो कि उनका बहुत बड़ा सिंहासन था, उनका बहुत बड़ा राज्य था, उनके बहुत पैसे थे। क्या इसलिए याद रखते हो? बताओ तो? कल मैं स्पिनोज़ा का नाम ले रहा था, स्पिनोज़ा ने बात कर दी थी, बोले थे, ‘ये जो चर्च वाला गॉड है, इसको हम नहीं मानते।’

दार्शनिकों का अक्सर यही रहता है। जो समाज में चल रही होती हैं चीज़ें, उनको मानते नहीं हैं। डच दार्शनिक स्पिनोज़ा का कल उल्लेख कर रहा था न मैं? तो चर्च ने उनको ऑस्ट्रसाइज़ कर दिया, बहिष्कृत कर दिया। बोले, ‘ये जो है, इसको समाज से बाहर करो।’

तो उनको कहीं से भी काम वगैरह मिलना बन्द हो गया। हालॉंकि एकदम ऊँचे दर्ज़े के दार्शनिक हैं। पर यूनिवर्सिटीज़ उनको अब नौकरी नहीं दे रही हैं, और जो तमाम तरह की संस्थाएँ हैं, उनको काम नहीं दे रही हैं, कुछ नहीं है।

तो उन्होंने कहा, ‘ठीक है, कोई काम न दे, कोई काम न दे।’ उन्होंने काँच घिसने का काम शुरू कर दिया अपने ही घर में। एक छोटी सी मशीन लगा दी और उससे उन्होंने काँच घिसना शुरू कर दिया। लेंस बनाते थे। लेंस मेकिंग होती है न। अब उस समय पर ये होता था कि आप जब काँच घिसते हो, टेक्नॉलॉजी पिछड़ी हुई थी तब, तो उसमें से फ़ाइन डस्ट (बारीक धूल) उठती थी। उसको आप घिसोगे, घिसोगे तो उसमें से डस्ट उठती थी। वो डस्ट उनके फेफड़ों में जाने लगी।

वो फेफड़ों में जाने लगी तो वो जो उसकी सिलिका (बालू और तेज़ाब का मिश्रण) होती है, उसने उनके फेफड़े तबाह कर दिये, एकदम। बहुत छोटी उम्र में चालीस-बयालीस की उम्र में मर गये। लेकिन बहुत मौज में जिये, और आने वाले विचारकों का रास्ता साफ़ कर गये।

आज आप जिसको अस्तित्ववाद कहते हो। वो स्पिनोज़ा के बिना शायद सम्भव नहीं हो पाता। और वो आदमी बहुत कम उम्र में चला गया, उसको पैसे ही नहीं थे। बोले, ‘कोई बात नहीं, पैसे नहीं होंगे, हम देख लेंगे, क्या उखाड़ लोगे?’ अपनी बात से वो पीछे नहीं हटे। भारत में हमें सब चीज़ों के प्रति समर्पण सिखाया गया है। काम के प्रति सिखाया ही नहीं गया है।

बोल रहे हैं, ‘जाओ, गुरु की वन्दना करो।’ जाओ, ‘माँ-बाप के चरण पूजो।’ जाओ, ‘मन्दिर में मूर्ति को नमन करो।’ जाओ, ‘तीर्थ पर चढ़ जाओ।’ जाओ, ‘गंगा नहा आओ।’

और काम? काम? वो तो बताओ? ‘नहीं उसकी बात मत करो।’ काम में तो हम एक नम्बर के बेईमान हैं। और ऐसे लोगों को आप सब जानते होंगे, मैं उम्मीद कर रहा हूँ आपमें से यहाँ कोई नहीं है वैसा।

जानते हैं कि नहीं जानते हैं? ये ऐसे लोग हैं जो भक्ति में बहुत आगे, ज्ञान में एकदम आगे, तीरथ में सबसे आगे, सामाजिक व्यवहार में सबसे आगे, उत्सव में सबसे आगे, त्योहार में सबसे आगे। हर चीज़ को ये सम्मान और ऊँचा स्थान देते हैं, बस एक चीज़ से इनका कोई ताल्लुक नहीं है — काम।

और खासतौर पर अगर सरकारी कर्मचारी हो तो इसकी सम्भावना बहुत बढ़ जाती है। हर चीज़ को लेकर के बहुत बढ़िया आदमी है। पूछो, काम? कहेंगे, ‘नहीं, ये तो काम-वाम तो ठीक है, कर देते हैं, आ जाता है तो देख लेते हैं, कुछ ईमान से, कुछ बेईमानी से हो जाता है। काम का क्या है, काम तो ऐसे ही है, काम में थोड़े ही कुछ रखा है।’ काम ही सबकुछ है।

पहली वन्दना काम को, पहला प्रणाम काम को। नमन किसको कर रहा हूँ? अपने काम को। और तुम्हारा काम खराब है और तुम जाकर के भगवान को नमन कर रहे हो। तो तुम्हारा नमन तो भगवान भी स्वीकार न करे।

घटिया काम करके मन्दिर में आये हो तुम, सिर झुकाने और दान दिखाने? अपनेआप से पूछना ज़रूरी है, ‘मैं क्या काम करता हूँ? उस काम का मेरे मन पर और समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है?’ ये दो चीज़ें पूछनी होती हैं। समाज जब बोलूँ तो उसमें प्रकृति-पर्यावरण शामिल हैं। ‘मैं जो काम करता हूँ, उसका मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ता है?’ मेरे मन पर। और पूरे संसार पर और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है?

ये पूछना बहुत ज़रूरी है, ‘मैं जो कर रहा हूँ, उससे मुझे क्या मिल रहा है, और मैं संसार को, समाज को क्या दे रहा हूँ?’ ये जानना ज़रूरी है। अगर ये दोनों शर्तें पूरी होती हैं, तो आपका काम अच्छा है। ये शर्तें पूरी नहीं होती हैं, तो काम आपका बहुत खराब है। और जिनको अच्छा काम मिल गया है, मैं उनको बधाई दे रहा हूँ। और मैं कह रहा हूँ, ‘उस काम को ही ज़िन्दगी बना लो और कुछ सोचो ही मत।’

वो काम ही सबकुछ है। जैसे भगत सिंह बोले थे न, “आज़ादी मेरी दुल्हन है।” बस, वो काम ही सबकुछ है। समझ में आ रही है ये बात?

ये नहीं देखा जाता, कैंपस में अगर तुम हो तो, ‘सीटीसी कितनी है?’ ये पूछो न, ‘दिन भर मैं करूँगा क्या?’ काम ज़िन्दगी है भाई।

मान लो, आप आठ घंटे सोते हो। लेटना-सोना मिला लें तो आठ घंटे तो हो ही जाता है? आठ घंटे आप सोते हो, एक या दो घंटे आपकी दैनिक क्रियाओं में निकल जाते हैं, कितना बचा? चौदह घंटे। चौदह घंटे में इधर-उधर ट्रैफ़िकबाज़ी करी, मनोरंजन करा थोड़ा-बहुत, एक-दो घंटे उसके भी दे दो। तो भी आप बारह-तेरह घंटे दिन में काम ही तो कर रहे हो?

मैं कह रहा हूँ, ये भी जोड़ो कि जाने में कितना समय लगा दफ़्तर तक, और आने में कितना समय लगा? वो जोड़ दो, तो आप दिन के बारह-तेरह घंटे काम को दे रहे हो। और आप जागे सिर्फ़ सोलह घंटे थे। आठ घंटे तो सो ही रहे थे। तो अपनी जाग्रत स्थिति के सोलह में से बारह घंटे आप काम को देते हो, पिचहत्तर प्रतिशत।

अपनी जगी हुई हालत के, अपनी वेकिंग स्टेट के आप सोलह में से बारह घंटे किसको देते हो? काम को देते हो। ये पिचहत्तर प्रतिशत होता है। अब जब सो गये तब तो ज़िन्दगी का भी पता नहीं। उसको हम ज़िन्दगी में माने भी क्यों? तो ज़िन्दगी के तो सोलह ही घंटे थे, उसमें बारह घंटे काम को दिये। माने काम पिचहत्तर प्रतिशत ज़िन्दगी है। ज़िन्दगी माने काम। सही बोल रहा हूँ कि नहीं बोल रहा हूँ?

बाकी सब बातें एक तरफ़, पिचहत्तर प्रतिशत ज़िन्दगी तो काम में बीतनी है, पिचहत्तर प्रतिशत। और अगर काम घटिया है तो आशय क्या हो गया? ज़िन्दगी घटिया है। और घटिया काम की पहचान क्या? उससे मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ता है? उससे क्या मैं एक बेहतर आदमी बनता हूँ? और क्या उससे में बेहतर समाज और संसार का निर्माण करता हूँ? ये प्रश्न पूछना होता है। क्यों ऐसा काम करूँ?

अगर जीवन का उद्देश्य है— ज्ञान, बोध, सरलता, मुक्ति, निडरता। तो क्या मेरा काम मुझमें ये सब चीज़ें संचारित कर रहा है? भाई, जीवन का एक लक्ष्य है, ये हम अच्छे से जानते हैं न। क्या है जीवन का लक्ष्य? मैं बेहतर बनूँ, मैं ऊँचा उठूँ, मेरे भ्रम मिटें, मुझमें साहस आये, मैं ऊँची चुनौतियाँ स्वीकार कर पाऊँ, यही है न?

और ये सब आप कैसे करोगे? काम के माध्यम से ही तो करोगे? और आपके काम से आप में ये सब आ ही नहीं रहा, तो आपका काम कैसा हुआ फिर? बेकार। बेकार हुआ कि नहीं हुआ? लेकिन भारत में हमारा यही चलता है। पूरी दुनिया में चलता है, भारत थोड़ा ज़्यादा चलता है, क्या?

कि बेटा, बस ये देखो कि पैसा आएगा कि नहीं आएगा, काम तो जो भी है, करो। पैसा आना चाहिए।

लगे हुए हैं फ़ॉर्म भरने में। पूछो, ‘ये तुमने ये एक साथ अठारह फ़ॉर्म भर दिये हैं। तुमने पढ़ा भी है, ये अठारह नौकरियाँ किस-किस दिशा की हैं?’

‘नहीं, क्या फ़र्क पड़ता है?’ ये सरकारी नौकरी का हिसाब है।

‘एक नौकरी है तुम्हारी मत्स्य पालन की, मछली पालने की ओर काम कर रहे हैं। एक है तुम्हारी इरिगेशन डिपार्टमेंट (सिंचाई विभाग), एक है बिजली विभाग, एक है वन विभाग। तुम करना क्या चाहते हो? कहाँ जाना चाहते हो?’ बोल रहे हैं, ‘जिधर को ही..।’

माने बस अड्डे पर खड़े हो, जो बस मिलेगी चल दोगे? तुम्हें जाना कहाँ है? ‘जहाँ की भी बस में सीट मिल जाए।’ तुम्हें जाना कहाँ है? ‘जहाँ की भी बस में सीट मिल जाए। मछली पालन में मिल गयी तो मछली पालन में, वन विभाग में मिल गयी तो वन विभाग में, पोस्ट ऑफ़िस मिल गयी तो पोस्ट ऑफिस में घुस जाएँगे। पुलिस में मिल गयी तो पुलिस में घुस जाएँगे। सेना में मिल गयी तो सेना में घुस जाएँगे।’

और यही हाल कैंपसेज़ में रहता है, जहाँ प्राइवेट जॉब के लिए कोशिश कर रहे हैं। कोई भी कम्पनी आ रही है किसी भी दिशा से, कर दिया।

‘तूने इसमें क्यों कर दिया?’ ‘नहीं तूने तो मैकेनिकल इंजीनियरिंग पढ़ी थी?’ ‘ये कम्पनी आ रही है, ये बोल रही है कि क्रेडिट कार्ड बेचने की नौकरी है, क्रेडिट कार्ड बेचने हैं। ग्राहक फँसाओ, क्रेडिट कार्ड बेचो।’

‘तूने मैकेनिकल इंजीनियरिंग करी है, तू इसमें क्यों घुसा? क्यों घुसा?’

‘क्योंकि फ़ोन पर घर पर बापू जी को बताना है, लग गयी।’

हाँ बेटा, लग गयी! (श्रोता हँसते हैं)

और तुम बताओ बापू जी को कि पाँच लाख की लग गयी वो बगल वाले को बताएँगे, ‘आठ लाख की लग गयी।’ और फिर जब रिश्ते वाले आएँगे तो उनको बताएँगे, ‘बारह लाख की लग गयी।’ उसी हिसाब से दहेज आएगा।

काम कोई संयोग नहीं होता कि जिधर की बस मिली बैठ गये। काम प्रेम होता है। प्रेम संयोग से किया जाता है? प्रेम आपका सबसे ऊँचा चुनाव होता है। संयोग से हो जाए उसे प्रेम नहीं बोलते, उसे दुर्घटना बोलते हैं। ज़्यादातर हमारे प्रेम और हमारा काम सब दुर्घटना होते हैं, एक्सीडेंटल (दुर्घटनावश)।

‘न तूने सिग्नल देखा, न मैंने सिग्नल देखा, एक्सीडेंट हो गया रब्बा-रब्बा!’ ‘दोनों जवानी की मस्ती में चूर, न तेरा कसूर,न मेरा कसूर।’

न तूने सिग्नल देखा, न मैंने सिग्नल देखा। ऐसे ही काम होता है, ऐसे ही प्रेम होता है। बाज आ जाओ ये सीटीसी बाज़ी से।

खैर आपको चन्द्रयान की बधाई! सबकी ओर से, पूरी संस्था की ओर से।

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=6Xl3Ic8as_E

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