प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अक्सर हम ईश्वर से कुछ माँगते रहते हैं और न मिलने पर दुखी हो जाते हैं। क्या हमें दुखी होना चाहिए?
आचार्य प्रशांत: माँगने का अंजाम ही यही होना है — ठुकराये जाओगे। वो बड़ा निष्ठुर है। सूफ़ियों ने उसे कसाई तक कहा है। सीना फाड़कर दिल निकाल देता है और खून-खून करके क्षत-विक्षत कर देता है, टुकड़ा-टुकड़ा उछाल देता है। तुम्हारे अरमानों की, तुम्हारे कोमल ख़्वाबों की कोई परवाह ही नहीं करता है। बड़ा निर्दयी है! एकदम अलमस्त है!
तुम ऐसे हो कि तुम जाते हो सज-धजकर उसके पास। तुमने रात भर सपने संजोये हैं, श्रृंगार किया है सुबह। और वो अपनी धुन में नाच रहा है! एकदम स्वार्थी है, एकदम स्वार्थी! किसी और का कोई ख़याल ही नहीं करता। जानते हो न क्यों? कोई और है ही नहीं। तो वो किसी और का कोई ख़याल नहीं करता, परम स्वार्थी है।
उसे बस अपनी चलानी है। तुम माँगते रहो मन्नत! पूरी तो तब हो न जब वो सुने! सुनता भी वो किसकी है? बस अपनी। वहाँ सिफ़ारिश भी लगती है तो किसकी? बस अपनी। ख़ुद ही सिफ़ारिश करेगा, ख़ुद की ही सिफ़ारिश करेगा और ख़ुद ही मानना होगा तो मानेगा, नहीं मानना होगा तो नहीं मानेगा। तुम उससे जुदा होकर अगर उससे प्यार भी करना चाहोगे तो तुम्हारा प्यार भी ठुकराया जाएगा। उससे जुदा होकर तुम उसे परमात्मा भी घोषित कर दोगे तो वो अपनेआप को परमात्मा भी न मानेगा।
उससे जुदा होकर तुम जो भी कुछ करोगे, वो बस जुदाई का ही कारण बनेगा। प्रार्थना में बड़ी जुदाई है। प्रार्थना में बड़ा द्वैत है। प्रार्थनाएँ कभी पूरी हो ही नहीं सकतीं, क्योंकि प्रार्थनाओं के मूल में ही विभाजन बैठा हुआ है। मैं अलग और तू अलग, कैसे पूरी होगी ये प्रार्थना जो आधारित ही झूठ पर है। जब झूठ से शुरू कर रहे हो तो सच तक कैसे पहुँच जाओगे? माँगने किससे गये हो, सजदा किसका कर रहे हो, किसको नमन कर रहे हो?
कल कोई कह रहा था न आप ही में से कि मांगन से मरना भला। अब समझ में आया, कबीर ने क्यों कहा, “मांगन से मरना भला”? माँगो नहीं, मर जाओ। तुम मर जाओगे तो वही बचेगा। अब जो माँगा था, वो मिल गया। माँगोगे तो पाने के लिए ज़िन्दा बचे रहोगे। जब तक तुम पाने के लिए ज़िन्दा हो, तब तक दूरी भी ज़िन्दा है। माँगो नहीं, मरो। मांगन से मरना भला। जिसके दरवाज़े पर दस्तक दिये जाते हो न, उसी के दरवाज़े पर दम तोड़ दो। इससे भली मौत तुम्हें नहीं मिलेगी।
कहते हैं, रावण ने ये सारा आयोजन किया ही इसलिए कि राम के हाथों मर सके। इससे भली मौत नहीं मिलेगी तुम्हें। प्रार्थना मत करो, मन्दिर के द्वार पर दम तोड़ दो। एक ही चीज़ है माँगने लायक़ — मौत। माँगने के लिए मैं शेष बचूँ ही नहीं, क्योंकि मैं तो जब तक हूँ, भिखारी ही रहूँगा, माँगे ही चला जाऊँगा। कुछ नहीं चाहिए, तुम ही मिल जाओ। और तुम्हारे मिलने का एक ही उपाय है — हम न रहें। हम न रहेंगे तो तुम ही तुम हो। पर हमारी रुचि जिये जाने में है। हमारी रुचि अपने ही कष्ट को और खींचने में है। इसलिए बार-बार कह रहा हूँ, ‘मौन!’ मौन महामृत्यु है। चुप हो गये! जब तुम चुप हो जाते हो तो मात्र वो रह जाता है।
प्र: आचार्य जी, जो प्रार्थना हम आज सुन रहे थे (जो तेरा है वो तुझको अर्पण), वो आम संसारी की प्रार्थनाओं से कैसे भिन्न है?
आचार्य: जो तेरा है, वो तुझको मिले। अपना कुछ नहीं माँग रहा। जो तेरा है, वो तुझे ही समर्पित हो जाए। दिन तेरा तुझे मिले, रात तेरी तुझे मिले। मन मेरा तुझे मिले, तन मेरा तुझे मिले। सबकुछ तेरा है, तुझे ही समर्पित हो जाए।
जीवन किसका? अगर तेरा है तो मैं क्यों पकड़े बैठा हूँ! जीवन अगर तेरा है तो मैंने क्यों पकड़ रखा है! जा! ले जा अपनी चीज़। वैसे भी मैं पकड़ूँ तो पकड़कर कष्ट ही मिलना है मुझे। जो तेरा, तुझको दिया। इससे बड़ा दान नहीं हो सकता। परमात्मा को दान दो। छोटे-मोटों को क्या दान देते हो! दान सिर्फ़ एक — जो परमात्मा को दिया जाए। दान सिर्फ़ एक — जिसमें अपनेआप ही को दे दो। अब तुम महादानी बने, परमदानी! हम कौन? जो परमात्मा की झोली भर देता है। और दान में उसे क्या देते हो? ख़ुद को ही दे देते हैं।
प्र: आचार्य जी, ऐसा कहा जाता है कि जो भगवान को चढ़ाया हुआ है, वो पवित्र हो जाता है। क्या ऐसा होता है?
आचार्य: इसीलिए तो पुराणों में कहानियाँ है न कि ईश्वर भेष बदलकर, भिखारी बनकर आया राजा के द्वार। और तुम्हें अच्छे से पता है कि फिर क्या होता है। जब भी कभी ईश्वर भिखारी बनकर राजा के द्वार आता है तो समझ लो कि राजा की आफ़त आ गयी है। अब वो लूटकर ही जाएगा राजा को। सुनी हैं न कहानियाँ? पूरा राज्य माँगेगा, रानी माँगेगा, इज़्ज़त माँगेगा, प्राण भी माँग लेगा। लेकिन ये सब माँगने के बाद उसने तार दिया राजा को। राजा ने परमात्मा को दान दे दिया। तुम भी वही राजा हो जाओ जो परमात्मा को दान देता है, सब दे दो।
आध्यात्मिकता का जो परम्परागत मॉडल है, उससे बचिएगा। उसमें इन शब्दों के लिए बड़ा ऊँचा स्थान है — माँगना, प्रार्थना, भरोसा। और मैं आपसे कह रहा हूँ कि ये सब बहुत झूठे शब्द हैं। आपका भरोसा तोड़ दिया जाएगा। आपकी प्रार्थनाएँ ठुकरा दी जाएँगी। अरे! वहाँ तक पहुँचेंगी ही नहीं जहाँ तक आपने उनको प्रेषित किया है। आपकी सारी अर्ज़ियाँ नामंज़ूर होनी हैं। क्यों? वहाँ तक पहुँचेंगी ही नहीं जहाँ आपने भेजी हैं।
प्र: आचार्य जी, लोगों के जीवन में अलग-अलग तरह की घटनाएँ होती ही रहती हैं, जैसे किसी को संतान-प्राप्ति हो गयी, किसी की नौकरी लग गयी। तो उनको तो यही लगता है कि ये चीज़ें उनको उनके पूजा-पाठ के फलस्वरूप ही मिला है। बहुत समझाने पर भी उनकी यह धारणा बनी ही हुई है, जाती ही नहीं।
आचार्य: बेटा! फिर इसी का तो ये नतीजा होता है न कि जिन क्षणों में गहरे आत्मविश्वास की, गहरी श्रद्धा की ज़रूरत होती है, वहाँ तुम अपनेआप को जड़ से उखड़ा हुआ पाते हो। दिखाने को तो कह देते हो कि ईश्वर ने हमारी सुन ली, हमें बच्चा दे दिया, हमें नौकरी दे दी, हमारा बहुत ख़याल रखता है परमात्मा। दिखाने को तो कह देते हो, पर मन-ही-मन तुम्हें कोई भरोसा होता नहीं है। कि होता है, बताइए?
प्र: नहीं।
आचार्य: ऊपर-ऊपर की बात है, बहलाने-फुसलाने की बात है। कह देते हो कि अरे! तूने बड़ा अच्छा किया, तूने बड़ा अच्छा किया। दिल-ही-दिल में डरे रहते हो, न जाने कल क्या कर दे! जाने अभी उसने किया भी है या उसकी लापरवाही से हो गया है! फिर जिन मौक़ों में अडिग रहना होता है, वहाँ तुम पाते हो कि तुम्हारे पास कोई संबल नहीं है, कोई आधार नहीं है, क्योंकि झूठे आधार को पकड़ रखा है न। ये झूठा आधार, ज़रा सी ज़मीन काँपती है और कँप जाता है। देखा है न लोगों को, ऊपर-ऊपर से दिख रहे होंगे कि बड़े स्वस्थ हैं, स्थिर हैं, और जीवन में ज़रा सा भूचाल आया नहीं कि मनोविशेषज्ञ के पास नज़र आते हैं। देखा है कि नहीं देखा है?
चाचाजी बड़े धीर-गम्भीर रहते थे। बिलकुल सुविचारित! नपी-तुली बातें कहते थे। स्थिरता की प्रतिमूर्ति थे। और स्टॉक मार्केट में ज़रा भूडोल आया नहीं कि जैसे माता चढ़ गयी हों उन पर! नाचे जा रहे हैं, पगलाये जा रहे हैं, सिर पटक रहे हैं। अब कहाँ गयी सारी गम्भीरता! अब कहाँ गया सारा स्थायित्व! कल तक तो वो लोगों को भी ज्ञान देते फिरते थे, ‘देखिए, चिन्ता वैगरह की कोई ज़रूरत नहीं है। भगवान पर भरोसा रखिए, सब ठीक करता है।’
और भग गयी है बीवी! और जिसने भगायी है, उसका नाम भी भगवान! बात तो तुम्हारी सच साबित हुई, पर बड़े मज़ेदार तरीक़े से। भगवान पर भरोसा रखिए, भगवान सब ठीक करता है! अब बाल नोंच रहे हो। अब चिल्ला रहे हो। कहाँ गयी तुम्हारी सारी शान्ति! कहाँ गयी सारी भक्ति! (आचार्य जी व्यंग्य करते हुए)