इश्क़ दी नवियों नवीं बहार || आचार्य प्रशांत, संत बुल्लेशाह पर ( 2014)

Acharya Prashant

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इश्क़ दी नवियों नवीं बहार || आचार्य प्रशांत, संत बुल्लेशाह पर ( 2014)

बुल्हे नूं समझावण आइयां

*बुल्हेनूं समझावण आइयां,*भैणा ते भरजाइयां | टेक |

*“मन्न लै बुल्लिहआ साडा कहणा,छड दे पल्ला, राइयां, आल नबी औलादि अली नूं,*तूं क्यों लीकां लाइयां?”

*“जेहड़ा सानूं, सैयद आखे,दोज़ख़ मिले सज़ाइयां, जो कोई सानूं राईं आखे,*भिश्तीं पींघां पाइयां |”

*राईं साईं समनीं थाईं,रब दियां बेपरवाहियां, सोहनियां* *परे हटाइयां,*ते कोझियां लै गल लाइयां |

*जे तूं लोड़े बाग़ बहारां,चाकर हो जा राइयां, बुल्ल्हे शाह दी ज़ात की पुछणें,*शाकिर हो रज़ाइयां |

– बुल्ले शाह

मैं क्योंकर जावां क़ाबे नूं

*मैं क्योंकर जावां क़ाबे नूं,*दिल लोचे तख़्त हज़ारे नूं | टेक |

*लोकीं सज़दा क़ाअबे नूं करदे,*साडा सज़दा यार पिआरे नूं |

*औगुण देख न भुल्ल मियां रांझा,*याद करीं उस कारे नूं |

*मैं अनतारु तरन न जानां,*शरम पई तुध तारे नूं |

*तेरा सानी कोई नहीं मिलिआ,*ढूंढ़ लिया जग सारे नूं |

*बुल्ल्हा शौह दी प्रीति अनोखी,*तारे औगुण हारे नूं |

-बुल्ले शाह

वक्ता: ये असल में भक्ति का एक विशेष प्रयोग है- लाज रखना| सुना होगा, ‘लाज रखो गिरधारी’? यहाँ पर लाज से मतलब यही है कि, ‘बचा लो’, तुम नहीं बचाओगे तो बर्बादी ही है’| जैसे कोई पत्नी सहायता के लिए अपने पति को पुकार रही हो कि तुम अगर बचाने नहीं आते हो तो लूट ले रहा है संसार, लाज लूट ले रहा है संसार|

तो उसी अर्थ में कहा जाता है परम को कि तुम बचाने नहीं आते हो तो ये संसार, ये जगत खाए जा रहा है, लूट ले रहा है| अब तुम ही हो जो बचा सकते हो| ज्ञानमार्गी कभी इस शब्द का प्रयोग नहीं करता|

श्रोता १: इसको ऐसे कह सकते हैं कि इंसान बनाया है, तो इंसान बने रहने की गरिमा बनी रहे?

वक्ता: ठीक|

श्रोता १: ‘बुल्ला शौह दी प्रीति अनोखी…’, ये जो ‘अनोखी प्रीति’ की बात कर रहे हैं, उस पर थोड़ा प्रकाश डालें|

श्रोता २: हमारी जो साधारण प्रीति है, जो हम करते हैं, वो गुण देखकर करते हैं| कुछ अच्छा हो तो मैं तुम्हारे साथ रहूँगा, कुछ परेशानियाँ हुईं तो छोड़ दूंगा| बुल्ले कह रहे हैं कि, ‘अवगुण से भरे हुए हो तुम, हारे हुए हो पूरी तरीके से, फिर भी मेरी प्रीति तुम्हारे लिए कम नहीं होती’, इसलिए ‘अनोखी’ कही जा रही है, जो देखने को नहीं मिलती|

श्रोता ३: वहाँ लाभ-हानि की कोई धारणा नहीं है|

वक्ता: एक और अर्थ होता है| एक तो ये है ही कि वो ये देखकर नहीं होती है कि मुझमें कितनी पात्रता है, दूसरा यह है कि जो साधारण प्रीति होती है वो सुख को केंद्र में रखकर होती है| साधारण प्रीति में तुम सामने वाले को किसी प्रकार की ख़ुशी, उत्तेजना, मज़ा देते हो| इस ‘अनोखी प्रीति’ में वो छिनते हैं|

श्रोता ४: एक और काफ़ी है बुल्ले शाह की जिसमें कहा गया है कि उसका प्रेम इतना अनोखा है, ऐसा है कि जैसे तेल भरी कढ़ाई में तेल भरा जाता है, वैसे ही सद्गुरु अपने प्रेम से मुझे तलते हैं| फिर कहते हैं कि सद्गुरु की प्रीति कुछ ऐसी है कि जैसे वो कांटा चुभा-चुभा कर प्रीति करते हैं| इस प्रीति का क्या अर्थ है? कृपया इस पर प्रकाश डालें|

श्रोता ५: माँ अपने बच्चे से प्रीति करती है, माँ अपने बच्चे को मारती भी है, अगर गलती होती है तो सज़ा भी देती है और ऐसा करके उसे पछतावा भी होता है कि मैंने अपने बच्चे को मारा, तो बस वही है गुरु और शिष्य की प्रीति|

वक्ता: क्या कुछ अंतर है, माँ-बच्चे और गुरु-शिष्य की प्रीति में?

श्रोता ३: माँ कई बार बुराइयों को देखकर अनदेखा भी कर देती है, लेकिन गुरु उनको भी सुधारने की कोशिश करते हैं|

श्रोता ५: वो ऐसा क्यों करते हैं कि इतने सारे अवगुण हैं फिर भी वो छोड़ते नहीं, फिर भी वो हमारे साथ रहते हैं?

श्रोता ६: यहाँ पर जो उन्होंने ‘याद करीं उस कारे नु’ बोला है, तो क्या उन्हें कोई संदेह है इसलिए वचन याद दिलाना पड़ा?

वक्ता: अगर सब पक्का-पक्का हो जाएगा तो कोई गाना नहीं बचेगा| दुनिया के सारे गीत विरह के गीत हैं, सारे गीत अपूर्णता के गीत हैं| पूर्णता हो गयी, सब शुद्ध हो गया, सब पक्का हो गया, अब कोई गीत बचेगा ही नहीं|

श्रोता ६: सर, पर जब आप समर्पण की बात करते हैं तब?

वक्ता: समर्पण हो गया अगर तो फिर ‘मिलन’ कहलाता है, ‘समर्पण’ नहीं कहलाता, फिर योग हो जाता है| योग में कोई गीत नहीं होता, वहाँ मौन होता है, अक्षय मौन| गीत तभी तक है जब तक दूरी है और जब तक दूरी है तब तक शक तो है ही| गीत हमेशा दूरियों में गाए जाते हैं| परम मिलन के बाद सिर्फ मौन रहता है| सैद्धांतिक रूप से कह लो कि कोई सवाल नहीं, कोई संदेह नहीं, पर जहाँ मन है वहां संदेह है, सवाल हैं| उन्हीं से तो गीत निकल रहा है न? नहीं तो यह बहुत सीधी-सी बात है कि गुरु तो आत्मा है, अपने ही पास है, अपने ही भीतर है, ये गाना गाने की क्या ज़रुरत है कि मुझे कभी छोड़कर न जाना?

आत्मा तुम्हें छोड़कर जा सकती है क्या? तो वो जो थोड़ी-सी अपूर्णता होती है, उसी से गीत निकलता है, जैसे चाँद पर धब्बा|

ये नहीं कहना चाहिए कि ये तो बुल्ले शाह हैं, तब भी ये ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं? ये क्यों कह रहे हैं कि मैं अवगुणों से भरा हूँ? वो बुल्ले शाह हैं इसलिए कह पा रहे हैं कि मैं अवगुणों से भरा हूँ, हम-तुम नहीं कह पाते हैं|

इश्क़ दी नवियों नवीं बहार

इश्क़ दी नवियों नवीं बहार | टेक |

*जां मैं सबक़ इश्क़ दा पढ़िआ,मसजिद कोलों जियूड़ा डरिआ, पुछ पुछ ठाकरद्वारे* *वेड़िआ | जित्थे वजदे नाद हज़ार |*

*वेद कुरानां पढ़-पढ़ थक्के,सिजदे करदिआं घस गये मत्थे, ना रब तीरथ ना रब मक्के,*जिस पाया तिस नूर अनवार |

*फूक मुसल्ला भन्न सुट लोटा,ना फड़ तसबी आसा सोटा, आशक कहंदे दे दे होका,*तरक हलालों खा मुरदार |

*हीर-रांझे दे हो गये मेले,भुल्ली हीर ढूंन्डेदी बेले, रांझण यार बग़ल विच खेले,*सुरत न रह्मा सुरत संभार |

– बुल्ले शाह

वक्ता: इसमें एक-दो नहीं कई महत्वपूर्ण बातें हैं जो समझनी पड़ेंगी|

पहली बात तो कह रहे हैं कि जब मुझे इश्क़ हुआ तो मुझे मस्जिद से डर लगने लगा और पूछ-पूछ कर ठाकुर-द्वारे पहुँच गया, जहाँ हज़ार नाद बज रहे थे|इसके दो तरफ़ा मायने हैं|

पहली बात- धर्म विरासत में नहीं मिल सकता, धर्म पाया जाता है| और धर्म को पाने की प्रक्रिया यह होती है कि जो पहले विरासत में मिला है, उससे मुक्त हो जाओ| बुल्ले शाह से ज़्यादा सच्चा मुसलमान कोई नहीं था, लेकिन वही बुल्ले शाह कह रहे हैं कि मुझे मस्जिद से डर लगने लग गया जब से मुझे इश्क़ हुआ| इसका अर्थ क्या है?

जिस मस्जिद से बुल्ले शाह को डर लग रहा है, वो वह है जो उनको विरासत में मिली है, पहले उसे खोना पड़ेगा| वो मस्जिद तो उनके रीति-रिवाजों का, जो उनको दे दिया गया है, थमा दिया गया है, उसका हिस्सा है, तो उसको पहले पीछे छोड़ना पड़ेगा| वो उनके संस्कारों का, माहौल का, परवरिश का हिस्सा है, उस से आगे जाना पड़ेगा|

दूसरी बात- ठाकुर-द्वारे की तरफ क्यों आकर्षित हुए, मंदिर की तरफ क्यों आकर्षित हुए? प्रेम में मूलभूत मान्यता ही यही होती है कि मैं अलग हूँ, मैं विरह में हूँ, मैं मन हूँ, मैं देह हूँ, और मुझे आत्मा की तरफ जाना है’| ‘मैं मन हूँ, मैं देह हूँ’, का अर्थ होता है- मैं मूर्त हूँ, मेरा आकार है, मैं साकार हूँ, निराकार नहीं|

तो प्रेम इसी अवधारणा पर ही बैठा होता है कि मैं मन हूँ, देह हूँ और जो मन है, देह है उसका आकार होगा, वो मूर्त होगा| जो मूर्त है वो अपने प्रभु को भी मूर्त रूप में ही देखेगा, इसलिए प्रेम हमेशा मूर्त की तलाश करता है| मस्जिद तुम्हें मूर्त कुछ नहीं देती, मस्जिद तुम्हें ख़ालीपन देती है, शून्यता देती है| इसी कारण इस्लाम में जो प्रेमी हुए हैं, जो सूफ़ी हुए हैं, उन्होंने मूर्ति-पूजन भले ही नहीं किया पर किसी न किसी रूप में उन्होंने उसको पुकारा ज़रूर है, नाम ज़रूर दिए हैं|

कभी ‘राँझा’ बोला, कभी ‘पिया’ बोला, कभी उसे ‘प्यारा’ बोला, कभी ये कहा कि मैं उसकी शराब पी रहा हूँ, ये सब यही है| क्योंकि निराकार से प्रेम बड़ा मुश्किल है, निराकार से प्रेम तुम स्वयं साकार होकर नहीं कर सकते, और जहाँ प्रेम है वहाँ माना ही यही गया है कि विरह है, दूरी है, ‘मैं मन हूँ, देह हूँ, साकार हूँ’| तो मस्जिद का पीछे छूटना, मंदिर की तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक है|

लेकिन मंदिर भी तुम्हें अंततः मस्जिद में ही लेजा कर खड़ा करेगा| मूर्ति स्वयं सिद्ध नहीं होती, मूर्ति का भी प्रयोजन ये होता है कि मूर्ति पीछे हट जाए और तुम अमूर्त में पहुँच जाओ, तुम उसी खालीपन में पहुँच जाओ जहाँ मस्जिद तुम्हें ले जाती है| बुल्ले शाह पांच वक्त के नमाज़ी थे|

यहाँ पर ‘हलाल-हराम’ का भी ज़िक्र है| ‘हलाल-हराम’ से मतलब यह है कि उन्होंने समस्त द्वैत से पीछा छुड़ा लिया| ‘हलाल’ माने, जिसको उचित माना जाता है, ‘हराम’ माने जो गलत होता है| ‘हलाल-हराम’ माने, सही और गलत| तो वो सारे सही-गलत के पार निकल गए| उनके लिए न कुछ सही रहा और न कुछ गलत क्योंकि ‘हलाल-हराम’ तो तयशुदा आचरण की बातें हैं| उन्होंने कहा, ‘अब मेरे लिए सिर्फ वो हलाल है जो मुझे मेरे प्रेमी से मिलाता हो, परम से मिलाता हो| और जो मुझे उस से दूर करे, वो हराम| तो भक्त के लिए तो यही हलाल-यही हराम, उसकी और कोई व्याख्या होती ही नहीं है|

श्रोता ५: सर, क्या भक्त विरह में रहता है?

वक्ता: और कौन रहेगा विरह में? भक्त ही तो तड़पता है| ये सारे गीत किसमें लिखे गए हैं?

श्रोता ७: सर, तो भक्त की तड़प और संसार के दुःख में क्या फर्क है?

वक्ता: एक तड़प दूर ले जा रही है, और एक वापस ला रही है| संसारी की जो तड़प है, वह दूर ले जाती है और बढ़ती है| भक्त की तड़प उसे शान्ति की ओर ले जाती है, केंद्र की ओर ले जाती है| तड़प दोनों जगह है|

श्रोता ८: इस काफ़ी की पहली पंक्ति में लिखा है, नै बहार’, इसका क्या मतलब है?

वक्ता: नई-नई बहार| पुराने से कोई रिश्ता नहीं, बिल्कुल नई | जबसे उसके प्रेम में पड़ा हूँ कुछ नई अनुभूतियाँ होने लगी हैं, ताज़े फूल खिले हैं, नई बहार है|

श्रोता ४: तो मंदिर में वापस जाने के लिए मंदिर में जाना पड़ेगा?

वक्ता: मंदिर का अर्थ है- मूर्त| जहाँ भी तुम अपने आप को मूर्त जानते हो वहाँ देखो तुम्हें तलाश मूर्त की ही होगी, इसमें कोई शक नहीं| कल हम बात कर रहे थे न, की तुम जैसा अपने आप को समझते हो, सब कुछ तुम्हें वैसा ही दिखेगा| जब तक तुमने अपने आप को देह जाना है, तुम्हें अपने भगवान को भी देहधारी ही बनाना पड़ेगा| इसलिए दो बहुत अलग-अलग बातें हैं, भगवान और ब्रह्म, ईश्वर और ब्रह्म|

ईश्वर मन के लिए होता है, ब्रह्म आत्मा के लिए होता है|

जब तक तुम अपने को मन और देह जानते हो, तब तक ब्रह्म का तुम्हारे लिए कोई अर्थ नहीं है, तब तक तुम भगवान की पूजा करो और चुन लो कि तुम्हें कौन-सा भगवान पसंद है|

ब्रह्म का अर्थ है- स्वयं को निर्गुण जान लिया, और जो स्वयं को निर्गुण जान सकता है मात्र वो ही निर्गुण का उपासक हो सकता है| पर फिर उसकी उपासना भी क्या! उसकी उपासना योग है, मिलन है| इस्लाम में भगवान नहीं हैं, इस्लाम में ब्रह्म है, विशुद्ध ब्रह्म, साफ़|

तो थोड़ी अड़चन आती है, क्यों? तुम क्या हो? तुम तो हो देह, सगुण, सरूप, साकार और ब्रह्म है तुम्हारी पहुँच से दूर, निराकार| तो थोड़ी अड़चन आ सकती है| अड़चन उसे नहीं आएगी जो तैयार बैठा हो कि ‘हूँ तो देह पर छलांग लगाने के लिए तैयार बैठा हूँ, मुक्ति के लिए तैयार बैठा हूँ’|

श्रोता ९: सर, उसे भी अड़चन तो आएगी?

वक्ता: सगुण से निर्गुण का सेतु भी होता है| जो सेतु के एक सिरे पर तैयार ही खड़ा है उसे अड़चन नहीं आएगी, लेकिन अड़चन बहुत बड़ी नहीं है| सूफी संत हुए हैं, फ़रीद हों चाहे बुल्ले शाह हों, इन्होंने सारी रवायतों का पालन किया, निश्चित रूप से इन्होंने निर्गुण अल्लाह की ही उपासना की, जिसकी कोई छवि नहीं, जिसका कोई रूप-रंग, आकार कुछ नहीं है, उन्होंने उस की ही उपासना की, लेकिन फिर उन्होंने अपने लिए दूसरे प्रतीक भी खोजे|

अब बुल्ले शाह जो ‘राँझा’ कहते रहते हैं, वो ‘राँझा’ उन्होंने प्रतीक खोजा है| जो फरीद कहते रहते हैं, ‘मोहे पिया मिलन की आस’, तो ये पिया क्या है? ये पिया उसी मूर्त का प्रतीक है| निर्गुण अल्लाह को मन ने उपासना के लिए सगुण ‘पिया’ के रूप में याद किया| पर मन बेचारा और क्या करे? मन की मजबूरी है न, मन तो छवियों में ही जीता है| तो मन को अगर अल्लाह को भी याद करना है, तो कोई न कोई छवि वो बना ही लेगा, वो इस बेचारे की मजबूरी है| तो ‘पिया’ एक छवि है|

लेकिन याद रखना, छवि से चिपका नहीं जा सकता| अंत में तुम्हें निर्गुण के पास ही जाना पड़ेगा| जो छवि से चिपक गया वो अटक गया, उसी को योग-भ्रष्ट कहते हैं, कि वो मूर्त से ही चिपक गया| मूर्त का इस्तेमाल कर लो, अमूर्त में पहुँचने के लिए| तुम आख़िरी दम तक ‘पिया-पिया’ ही करते रह गए, तो ज़िन्दगी विरह में ही बीत गयी| विरह इसलिए थोड़े ही होती है कि वो स्थायी हो जाए, विरह इसलिए होती है कि अंत में मिलन हो जाए| और मिलन का अर्थ ही होता है- अमूर्त से मिलन| मूर्त का मूर्त से मिलन कोई मिलन नहीं होता, देह और देह का कोई मिलन नहीं होता|

श्रोता ५: सर, गुरु की दीक्षा क्या है?

वक्ता: गुरु की दीक्षा यही है कि पहले मैं किसी और चीज़ को प्रेम समझता रहता था, जब से गुरु से मिला तब पता चला कि वास्तव में प्रेम किसको कहते हैं|

-‘बोध-शिविर सत्र’ पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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