आचार्य प्रशांत: मैं जो बोलूँगा वो बात बहुत चुभेगी बहुत लोगों को, एकदम बरछी जैसी लगेगी, लेकिन बता देता हूँ। इस समय पृथ्वी पर बच्चा पैदा होने से ज़्यादा अशुभ काम दूसरा नहीं है। मातम का काम है यह अगर एक भी बच्चा और पैदा हो रहा है। पर हमारी समझ में ही नहीं आ रहा।
हम मूर्ख भी हैं और क्रूर भी। और यह बड़ा घातक जोड़ा होता है, जब मूर्खता क्रूरता से मिल जाती है।
और मैंने कहा कि आठ अरब लोग हैं हम, हमें शायद दो अरब होना चाहिए, यह दो अरब भी खा जाएँगे पृथ्वी को अगर इनमें भोगने की लालसा उतनी ही है जितनी आज है। दो अरब भी बहुत हो जाएँगे।
हमें दो अरब सुलझे हुए लोग चाहिए। पहली बात तो आठ अरब ना हों, दो अरब हों और ये दो अरब भी सुलझे हुए स्त्री-पुरुष होने चाहिए। क्योंकि दो अरब भी हो गए, उसमें से प्रत्येक व्यक्ति, हर आदमी, हर औरत उतना ही कंजप्शन , उपभोग कर रहा है जितना आज कोई अमेरिका में या ब्रिटेन या कनाडा में करता है, तो दो अरब भी काफ़ी हैं पृथ्वी को खा जाने के लिए, वो बर्बाद कर देंगे।
लेकिन न जाने हम कैसे ज़ाहिल लोग हैं! विकास-विकास की बात करते रहते हैं, विकास का मतलब समझते हो? चीन का हो तो गया विकास, भारत को चीन बनना है।
दुनिया का तीस प्रतिशत कार्बन एम्मीशन (कार्बन उत्सर्जन) आज चीन करता है और अभी और बढ़ाता ही जा रहा है, बढ़ाता ही जा रहा है। और कार्बन कम करने की जितनी भी संधियाँ हैं उनसे पीछे हटता जा रहा है, उसमें दस्तख़त करने में उसको कोई रुचि भी नहीं है।
भारत बहुत पीछे नहीं है, आठ प्रतिशत हमारा अब हो गया है उसमें योगदान। चीन है, चीन के बाद अमेरिका है मेरे ख़्याल से पंद्रह-बीस प्रतिशत पर, फिर हमारा ही नंबर है आठ प्रतिशत पर।
लेकिन मिठाई खाने हैं न सबको! ‘पड़ोसी मिठाई खा रहा है, मैं क्यों चूक जाऊँ।’ लोग अपनी ग्लानि मिटाने के लिए, अपनी मोरल गिल्ट (नैतिक दोष) मिटाने के लिए, मालूम है क्या करते हैं? वो कहते हैं, 'अरे, हम ऐसा करेंगे, हम प्लास्टिक का कंजप्शन कम कर देंगे’, होगा क्या उससे?
तुम जो पृथ्वी के साथ अत्याचार करते हो, वो अस्सी प्रतिशत इस बात से है कि तुमने बच्चे पैदा कर दिए। बाक़ी सब कुछ जो तुम करते हो, चाहे वो प्लास्टिक का उपभोग हो, चाहे वो गाड़ी से जो तुम धुआँ निकालते हो, वह हो। चाहे एयर कंडीशनर के कारण जो तुम इलेक्ट्रिसिटी (बिजली) का कंजप्शन करते हो, वह हो। वो सब कुल मिलाकर बीस प्रतिशत है। बात समझ में आ रही है?
तुम जो पृथ्वी पर अत्याचार करते हो उसमें अस्सी प्रतिशत हिस्सा किसका है, समझ रहे हो? किसका है? बच्चे पैदा करने का। और बाक़ी बीस प्रतिशत वो सबकुछ है कि – प्लास्टिक का उपभोग न करो, और क्या-क्या चीज़ें होती हैं जो एक्टिविस्ट (कार्यकर्ता) सिखाते हैं कि ऐसा करा करो, दो बल्ब की जगह एक बल्ब जलाओ, कार एफिशिएंट (कुशल) यूज़ (उपयोग) करो। और क्या-क्या होता है? हाँ, पेड़ लगा दो पेड़, दो ठो पेड़ लगा दो कहीं पर जाकर के। और?
ये सब काम करके न हम अपना जो मोरल गिल्ट होता है वो कम कर लेते हैं, कि देखो ‘मैं तो बहुत एनविरोनमेंटली कॉन्शियस (पर्यावरण के प्रति जागरूक) आदमी हूँ, मैं क्रूर नहीं हूँ, मैं तो अच्छा काम करता हूँ। मैं क्या करता हूँ? मैं सुबह-सुबह जाकर के कुत्तों को रोटी डाल आता हूँ।’
और इससे बड़ा अच्छा लगता है, भीतर जो ईगो (अहम्) होती है उसमें बड़ी गर्व की भावना आती है, 'देखो हम गिरे हुए आदमी नहीं हैं, हम अच्छा काम करते हैं। हम क्या करते हैं? हम कुत्ते को रोटी डाल देते हैं, हमें कोई गाय दिख गई उसके ज़ख्म था तो हमने गौशाला वालों को फोन कर दिया, वो आए, उन्होंने उसके ज़ख्म पर पट्टी कर दी।’ बड़ा अच्छा लगता है, आदमी दो-चार लोगों को बताता है, अपने फेसबुक पर डाल देता है ‘देखो मैं अच्छा आदमी हूँ।’ और इस अच्छे आदमी ने तीन बच्चें पैदा कर रखे हैं!
अस्सी प्रतिशत—मैं फिर बोल रहा हूँ, अच्छे से समझ लो—अस्सी प्रतिशत जो हम पृथ्वी पर, प्रकृति पर, पशुओं पर, पर्यावरण पर क्रूरता कर रहे हैं, वो अस्सी प्रतिशत क्रूरता कहाँ से आ रही है - यह जो तुमने बच्चा पैदा कर दिया है, वहाँ से आ रही है। और यह मैं कोई कल्पना करके नहीं बोल रहा हूँ, रिसर्च रिपोर्ट्स (अनुसंधान रिपोर्ट्स) पढ़ लो।
वो अस्सी प्रतिशत क्रूरता करने के बाद बाक़ी जो तुम बीस प्रतिशत करते हो, उसमें दो-चार प्रतिशत घटा भी दिया, तो तुम्हारा गुनाह कौन-सा कम हो गया यार!
लेकिन पढ़े-लिखे तबक़ों में यह ख़ूब प्रचलन है; क्या? कि वो अस्सी प्रतिशत तो पूरा तबाह कर के रखो, बाक़ी बीस प्रतिशत में दो-चार प्रतिशत की कमी ला करके बोलो कि 'मैं एक एनवर्मेंटली कॉन्शियस सिटिजन हूँ।' यह चल क्या रहा है?
तुम्हें उस पूरे तंत्र को, उस पूरी व्यवस्था को समझना पड़ेगा जिसकी वज़ह से आज वो घटना घटी है। वो घटना किसी एक व्यक्ति, इंडिविजुअल की व्यक्तिगत क्रूरता का परिणाम नहीं है; वो घटना एक पूरे तंत्र, एक पूरी व्यवस्था से निकल रही है। वो एक सिस्टम का बल्कि एक सिविलाइजेशन का नतीज़ा है।
तुम हटाओ बाक़ी जितने तुम तरीक़े चला रहे हो पृथ्वी को बचाने के, बस एक काम कर दो — बच्चे मत पैदा करो, सब ठीक हो जाएगा।
बाक़ी किसी काम की कोई ज़रूरत नहीं है। ये तुम्हारा क्योटो प्रोटोकॉल, ये पेरिस की संधि, किसी संधि की कोई ज़रूरत नहीं है, बस जवान लोग एक बात समझ लें कि बच्चे नहीं चाहिए। और जो बहुत कुलबुलाते हों कि हमारे गर्भ से एक-आध तो निकलना ही चाहिए तो एक पैदा कर लो यार!
या तो एक भी नहीं या बहुत अगर मन उछल रहा हो तो एक। इतना कर लो बस, फिर देखो दस-बीस साल के अंदर सारी तस्वीर बदल जाती है या नहीं!
लेकिन दो बातें बोली न मैंने, दो अपराधी हैं: पहला, बच्चे पैदा करने की वृत्ति और दूसरी भोग-वृत्ति। ये दोनों एक साथ चलती हैं, तुम देख लेना। जो जितना भोगी होगा उसको उतना ज़्यादा खुजली होगी बच्चे पैदा करने की।
जैसे आदमी कहता है न, 'ख़रीद-ख़रीद के घर में फर्नीचर भरना है तभी तो घर भरा-भरा लगेगा,' ठीक वैसे ही बोलता है कि पैदा कर-करके घर में बच्चें लाने हैं, तभी तो घर भरा-भरा लगेगा। ये दोनों चीज़ें साथ-साथ चलती हैं। घर भरना है न! घर भरने के लिए दो चीज़ें चाहिए, गाड़ी चाहिए, फर्नीचर चाहिए और बच्चें चाहिए। तो यह साथ-साथ चल रहा है।
और इसको साथ-साथ क्या चीज़ आगे बढ़ा रही है? एक जीवन-दर्शन जो हमें पढ़ा दिया गया है, जो कहता है, 'सुख करो, मज़े मारो! जीवन किस लिए है? सुख करने के लिए, मज़े मारने के लिए,' यह है। आज हर इंसान का, ज़िंदगी से यही उम्मीद है, अपेक्षा है। हम सबकी ज़िंदगी से यही माँग है; क्या? सुख, सुख, सुख!
और बच्चा जब पैदा होता है घर में तो सुख तो लगता ही है, क्योंकि सिखा दिया गया है। हर जानवर बच्चा पैदा करने में सुख मानता है और जब तुम्हारी ज़िंदगी में कोई विस्डम नहीं, बोध नहीं, अध्यात्म नहीं, रिअलाइजेशन (अनुभूति) नहीं, अंडरस्टैंडिंग (बोध) नहीं, तो तुम फिर जानवर समान ही हो और जानवर को तो हर समय लगा ही रहता है और बच्चे पैदा करूँ, और बच्चे पैदा करूँ, सुख है इसमें। तो आदमी भी फिर लगा रहता है, 'और पैदा करो, और पैदा करो।'
मैंने कहा था, एक बच्चा जो पैदा होता है वो अपने पैदा होने के साथ ही लाखों-करोड़ों जानवरों की मौत लेकर के आता है और न जाने कितनी प्रजातियों का एक्सटिंक्शन (विलुप्ति) लेकर के आता है।
क्योंकि वो जो पैदा हुआ है, वो माँ के गर्भ से हवा तो लेकर नहीं आया, खाना भी लेकर के नहीं आया। अपने रहने और बसने के लिए ज़मीन भी लेकर के नहीं आया। अपने चलने के लिए गाड़ी भी लेकर नहीं आया। माँ ने तो खट से वो बच्चा पैदा कर दिया है। वो रहेगा कहाँ? वो खाएगा क्या?
उसको चलने के लिए अब सड़क भी चाहिए होगी न, अब सड़क भी बनानी पड़ेगी; कहाँ से आएगी वो सड़क? वो सड़क आती है फिर जंगल काट करके। और तुम्हें पता भी नहीं चलता जब तुम जंगल काट रहे हो, अनजाने में ही तुमने कितनी प्रजातियों को विलुप्त कर दिया क्योंकि अब उनके रहने को घर नहीं, हैबिटेट (प्राकृतिक आवास) गया उनका।
तुम्हें पता भी नहीं, तुम्हारे मन में कोई ग्लानि, कोई गिल्ट भी नहीं आएगी। तुम्हें लगेगा मैं तो ठीक ही हूँ, मैंने क्या किया, मैंने अभी एक फोर बी.एच.के. ख़रीद लिया है।
तुमने तो अपनी तरफ़ से बस एक मकान ख़रीद लिया, तुम्हें पता भी नहीं कि वो जो तुम्हारा मकान है तुमसे पहले वो किसी और का मकान था। और जिनका मकान था वो तुम्हारा मकान होने से पहले, वो अब रहे ही नहीं। तुम्हारा मकान करोड़ों लाशों पर खड़ा हुआ है।
तुम और कोई सात्विकता मत दिखाओ, तुम भईया कोई रिस्ट्रेंट (संयम) मत दिखाओ, तुम किसी तरह का कोई त्याग मत करो। तुम बस बच्चा मत पैदा करो; बात बन जाएगी। और अगर तुम इतना कर सकते हो कि बच्चा भी नहीं पैदा कर रहे, और कंसंप्शन भी कम कर रहे हो, तब तो 'सोने पर सुहागा।' वैसे अगर तुम हो जाओ, समझ लो कि पूरी पृथ्वी तुम्हें आशीर्वाद देगी।
कैसा आदमी चाहिए आज – जो बच्चे न पैदा करे और साथ-ही-साथ कन्सम्शन भी कम-से-कम करे। चलो तुम अगर ऐसे नहीं हो पाते तो ऐसे हो जाओ कि चलो कन्सम्शन हम करते हैं, मन रोका नहीं जाता, लेकिन बच्चे नहीं पैदा करेंगे। अगर वैसे भी नहीं हो पा रहे तो ऐसे हो जाओ कि चलो मैं बच्चा पैदा करूँगा पर सिर्फ़ एक। पर इन तीनों कोटियों के अलावा तुम अगर चौथी कोटि में आ गए – महापापी हो, महाअपराधी हो।
पूरा लेख यहाँ पढ़ें: https://acharyaprashant.org/en/articles/ek-gadhe-ki-mout-par-1_21f9499
YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=nbyLRQVKelY