इंस्टा मॉडल और एयर होस्टेस: ग्लैमर का गणित || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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इंस्टा मॉडल और एयर होस्टेस: ग्लैमर का गणित || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं गर्ल्स हॉस्टल (लड़कियों का छात्रावास) में रहती हूँ, इंदौर में। तो वहाँ पर बहुत बड़ा हॉस्टल है। सौ-डेढ़ सौ लड़कियाँ रहती हैं तो उसमें से फ़िफ़्टी पर्सेन्ट या सिक्स्टी पर्सेन्ट (पचास या साठ प्रतिशत) कह सकते हैं, एयर होस्टेस (विमान परिचारिका) बनना चाहती हैं। मैंने पूछा कि एयर होस्टेस क्यों बनना है, मतलब कैसे डिसाइड (निर्णय) किया? तो उनका आन्सर (जवाब) होता है, ‘इंस्टाग्राम पर देखा था।‘

अधिकतरों का यही है कि इंस्टा पर देखकर आये हैं और, मतलब बहुत फ़्री टाइम (खाली समय) होता है उनके पास। दिनभर करने को कुछ भी नहीं। कॉलेज के दो-तीन घंटे होते हैं, उसमें भी उनका मन नहीं होता और कॉलेज में बेसिक इंग्लिश (शुरुआती अंग्रेजी) सिखा रहे हैं, मतलब बच्चों वाली। नोज़ (नाक), फ़िंगर्स (उँगलियाँ), एलबोज़ (कोहनी); मतलब इस लेवल (स्तर) की इंग्लिश सिखा रहे हैं उन्हें और उन्हें गारंटी (पक्का) है कि उनका सिलेक्शन (चयन) हो जाएगा। स्टडीज़ (पढ़ाई) वगैरह सब छोड़ दी है। मतलब स्पोर्ट्स (खेल) वगैरह में भी कुछ नहीं, ढंग से मैप (नक्शा) भी यूज़ (इस्तेमाल) करना नहीं आता।

और बस यही सोचते हैं कि एक बार बस सिलेक्शन हो जाए; सब हो जाएगा। पैरेंट्स (अभिभावक) को तो इतनी चिंता रहती है कि दिन में तीन-तीन, चार-चार बार बस कॉल ही करते रहते हैं कि बेटा कैसी है करके। कभी बाहर घूमने नहीं जाते, हॉस्टल के आसपास का एरिया (इलाका) तक ठीक से देखा हुआ नहीं है।

अकेले कभी रहते नहीं, हॉस्टल में बहुत, मतलब इतना फ़्री टाइम रहता है कि पूरे टाइम (समय) मतलब आसपास हॉस्टल्स ही हैं, बॉयज़ हॉस्टल्स (लड़कों का छात्रावास), गर्ल्स हॉस्टल्स (लड़कियों का छात्रावास) तो बस बातें ही चलती रहती हैं। मतलब वो जानती हैं कि ख़ुद भी बोर (ऊब) हो रही हैं करके, तब भी कुछ नहीं करती। जैसे कभी मुझे देखती हैं जिम वगैरह जाते हुए या स्पोर्ट्स में बहुत ज़्यादा एक्टिव (सक्रीय) हूँ तो कभी देख लेती हैं और पूछती हैं कि आप ऐसे रह क्यों रही हैं हॉस्टल (छात्रावास) में, आपको कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं है।

मतलब मैं ट्रेडिंग (व्यापार) करती हूँ स्टॉक्स (शेयरों) में तो बाहर ऐसे ही रहने आयी थी कि जो करना चाहती हूँ, कर सकूँ तो ऐसे ही रहती हूँ जो करना है। मतलब इंदौर में फ़ॅसिलिटीज़ (सुविधाएँ) ज़्यादा हैं, मेरे एरिया में नहीं हैं। तो वो बोलते हैं, ‘आपको ये सब करने की ज़रूरत ही क्या है।‘ मतलब बोलती हैं कि आप ये सब कर ही क्यों रहे हो, ये सब थोड़े ही करना होता है।

आचार्य प्रशांत: पहले तो उनको किसी तरह की विज़्डम (बुध्दि) दो मत कि अन्दर से उनमें कुछ ज्ञान आए। और दूसरा और ये कर दो कि बाहर से उनको सौ तरह की चकाचौंध दिखा दो। भीतर कर दो घुप्प अन्धेरा और बाहर लग दो जगमगाती रोशनियाँ तो फिर इंसान बाहर की ओर ही तो भागेगा न इधर-उधर। वो कितने साल की होंगी, अठारह-बीस साल?

प्र: अठारह।

आचार्य: अठारह साल, क्या अठारह साल में कुछ उनको ज़िन्दगी के बारे में बताया-सिखाया तो गया नहीं है। एकदम भीतर से खाली, एकदम खाली, कुछ नहीं पता और फिर जब सोलह-अठारह की हो गयीं तब हाथ में दे दिया इंस्टाग्राम और उसमें दिखा रहे हैं कि एक मिनट के अन्दर-अन्दर जो एयर होस्टेस है वो कितनी अच्छी ज़िन्दगी जी रही है। अच्छी ज़िन्दगी भी नहीं दिखानी है, बस ये दिखा दो कि वो कितना, क्या बोलें, कूल (अच्छा) लग रहा है मामला, चार्मिंग (आकर्षक) लग रहा है।

वो प्लेन (जहाज) के अन्दर ऐसे सबको इन्सट्रक्शन (दिशा-निर्देश) दे रही है और एकदम स्टड (बन-ठनकर) बनकर घूम रही है, जम्बो जेट के अन्दर और लगता है वाह! मैं भी यही बन जाऊँ, सब लोग मुझे देखेंगे और अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने हैं और सब लोगों के बीच में ऐसे कैट वॉक करनी है; उनकी नज़र में तो यही है। उनको तो ये भी न पता हो कि एयर होस्टेस के काम में मेहनत भी काफ़ी लगती है, आसान काम नहीं है वो।

और अगर कभी कोई ऑनबोर्ड इमरजेन्सी (आपातकालीन स्थिति) आ जाए तो वो जो केबिन क्रू होता है उसके हाथ में ज़िन्दगी-मौत आती है। ये सब उनको नहीं पता। उनको तो ये पता है, अच्छे-अच्छे कपड़े पहनने को मिलते हैं, वो भी मोस्टली वेस्टर्न वियर (अधिकतर पाश्चात्य पहनावा)। वेस्टर्न वियर पहनो और वहाँ पर जितने बैठे हुए हैं पैसेंजर्स (यात्री) उनको इन्सट्रक्शन दे रहे हैं। किसी को बोल रहे हैं, ‘चलो, कुर्सी सीधी करो।‘ किसी को बोला, ‘अरे! तुमने सीट बेल्ट नहीं पहनी।‘ और हम सुन्दर हैं, हम आगे ऊपर-नीचे कर रहे हैं तो जितने भी वहाँ पर जवान लोग बैठे हुए हैं, वो हमको देख भी रहे हैं, ताक भी रहे हैं।

तो ये सब बातें अच्छी लगती हैं सोचने में। इसपर क्या बोला जाए, ये तो होना ही है अगर आप अपनी जवान पीढ़ी को कोई ढंग की, तमीज़ की शिक्षा दे ही नहीं रहे हो तो और क्या करेंगे? और उनकी ग़लती भी क्या बोलूँ? उनको खुराक ही हम यही ज़हरीली दे रहे हैं और ये जितनी हैं, जितनी भी होंगी सौ, डेढ़-सौ, पाँच-सौ जो भी होंगी आपके यहाँ, उसमें से दो-चार हैं जिनका सिलेक्शन हो भी जाएगा और जब ये चयनित होकर के अपनी फोटो डालेंगी इंस्टाग्राम पर तो बाक़ियों को और आग लगेगी। और एक पूरी अगली नयी पीढ़ी होगी लड़कियों की जो और तैयार हो जाएगी कि मुझे यही करना है।

एयर होस्टेस के काम से मुझे कोई आपत्ति नहीं है। वो भी एक ज़रूरी काम है। आप फ़्लाइट (विमान) पर चल रहे हो, वहाँ एयर होस्टेस नहीं होंगी तो कैसे वहाँ सारी व्यवस्था होगी, कौन करेगा? तो एयर होस्टेस का काम एक महत्त्वपूर्ण काम है। लेकिन एयर होस्टेस का काम वो काम नहीं है जो ये लड़कियाँ समझती हैं।

और जब उसमें नहीं सिलेक्शन होगा एयर होस्टेस में तो उसी से मिलता-जुलता कोई चकाचौंध का दूसरा रास्ता चुन लेंगी और जब कोई रास्ता नहीं मिलेगा, कहीं, किसी जगह चयनित होने लायक़ ही नहीं हैं कि कोई सिलेक्ट करें इनको तो अन्त में जाकर उस लड़के को पकड़ लेंगी जो सबसे इनको चकाचौंध की ज़िन्दगी देगा।

प्र: सबके बॉयफ्रेंड्स (लड़के मित्र) हैं।

आचार्य: नहीं, चलो बॉयफ्रेंड्स हैं वो ठीक है, कौन हैं बॉयफ्रेंड ! समस्या ये नहीं है, वो अठारह साल की है तो किसी लड़के से अगर वो मित्रता कर रही है, उसमें क्या आपत्ति करे कोई। समस्या ये है कि तुमने किसको पकड़ लिया है। पिछली गली में जो घुग्घू घूम रहा था, उसको उठा लिया कि ये रहा मेरा बॉयफ्रेंड्स। ऐसे तो बॉयफ्रेंड बनता है।

अध्यात्म इसलिए नहीं होता कि बॉयफ्रेंड बनाओ ही मत। अध्यात्म इसलिए होता है कि बॉयफ्रेंड तमीज़ का बनाओ। घुग्घूलाल घूम रहा है वहाँ पर और कोई भी मिल गया। इतनी भयानक भीतर से आग रहती है बॉयफ्रेंड की, उस समय का मौका तो तमाम तरह के पशु भी भुना सकते हैं। अगर बन्दरों, लंगूरों, सूअरों वगैरह में मौकापरस्ती होती; अपोरच्यूनिज़्म (अवसरवादिता) तो वो भी उस समय अपनेआप को हाज़िर कर दें, वो भी बॉयफ्रेंड बन जाएँगे। क्योंकि आग ऐसी लगी हुई है कि कोई भी मिले उसे बॉयफ्रेंड तो बना ही लेना है; नर होना चाहिए बस।

एक ही चीज़ परखी जाएगी, ‘तू नर है कि नहीं।‘ उसके बाद तेरी क्या प्रजाति है और क्या तेरा विवेक-बुद्धि है, इन सब चीज़ों से क्या लेना-देना। दुनिया को दिखाना ही तो है कि मेरे पास भी तो है। तो खड़ा कर दो, पूँछ छुपा दो उसकी।

प्र: मैं एकाध बार, मतलब किसी को बोला था कि चलो, साथ में जिम चलते हैं कभी। किसी को इंटरेस्ट (रुचि) आया था तो गये थे हम सब साथ में। एक पुश-अप भी ढंग से नहीं लगी किसी से। तो वहाँ पर सब पहचान के हो गये सब लोग, एक-डेढ़ साल से जा रही हूँ। तो सब बोल रहे थे कि ऐसी गधियों को मत लाया कर तू। जगह भर जाती है, हमें परेशानी होती है करके।

और कभी मुझे ही वेट लिफ्ट (भार उत्तोलन) करते हुए देखते हैं न कोई तो बोलते हैं कि मैं तो समझ रहा था कि आप तो लड़का हो करके। मतलब इतनी रेयर (बिरला) लगती हैं कुछ चीज़ें कि गर्ल्स (लड़कियाँ) ज़्यादा रहती भी नहीं हैं इन सब चीज़ों में। मतलब स्वीमिंग (तैराकी) भी करने जाओ न तो बहुत डरती हैं। अब तो बहुत सारी ऐक्टिविटीज़ (गतिविधियाँ) करने लगी हूँ तो डर थोड़ा चला गया है। बट (लेकिन) वो निकल नहीं रही हैं न, इसलिए ज़्यादा डर रहता है उनको। मतलब चार-पाँच फ़ीट भी क्रॉस (पार) नहीं कर पातीं। छह-छह महीने हो गये सीखते हुए।

आचार्य: सब हो जाता है, आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। अगर ये सब सीखे बिना ही ज़िन्दगी में कुछ चीज़ें गारंटेड (पूर्व निश्चित) हों तो कोई क्यों ये सब सीखे? आपने भी जो चीज़ें सीखीं हैं ज़्यादातर, वो मजबूरी में सीखी हैं। वो जो आवश्यकता, वो मजबूरी सामने आती है तो व्यक्ति कुछ सीखता है। वो आवश्यकता सामने ही न आए तो काहे को सीखोगे।

ले देकर के आख़िरी चीज़ ये है कि कोई लड़का मिल जाएगा, ब्याह हो जाएगा, वो सुख से रख लेगा। अब लड़का जब मिलेगा तो वो ये थोड़ी ही पूछेगा कि तैरना आता है। लड़के भी अगर थोड़ी विवेक वाले हो जाएँ, थोड़ी खोपड़ी के हो जाएँ वो भी लड़कियों से पूछा करें कि तैरना आता है तुझे। तो फिर ये स्वीमिंग (तैरना) भी सीखेंगी और लड़कियाँ भी ऐसी हो जाएँ कि वो लड़कों से पूछा करें कि बता भई! कि तुझमें कितना गुण है, ज्ञान है, कौशल है? तो लड़के भी फिर थोड़ा गुण और ज्ञान विकसित कर लेंगे। जब एक-दूसरे से मिलते हो तो ये पूछते ही नहीं न कि गुण और ज्ञान कितना है। उस वक़्त तो बस ऐसे ही अपना।

प्र: सर, जैसा मैंने ग़ौर किया है कि आमतौर पर इस उम्र में इंसान किस व्यवसाय के प्रति आकर्षित होता है। वो निर्णय बहुत हद तक बाहरी दुनिया के प्रभावों का नतीजा होता है। चूँकि वो महिलाओं का हॉस्टल है तो उन लड़कियों के बीच में जो बातचीत होती भी हैं। वो मुख्यतः इन्हीं विषयों के आसपास होती हैं, जैसे- सुन्दरता, स्त्रीत्व और समाज के लोगों में उनकी छवि कैसी है! और कौनसी लड़की किस सुयोग्य लड़के को आकर्षित कर ले जा रही है। ऐसा लड़का जो देखने में सबसे आकर्षक हो।

इंदौर एक ऐसा शहर है जो विकासशील है। मैंने हाल ही में इंदौर शहर के बारे में लिखा एक लेख भी पढ़ा। वहाँ पर देहभाव को काफ़ी बढ़ावा मिलता जा रहा है। एक बड़ा मशहूर नया गाना आया है, मुझे उस गाने के फिलहाल बोल तो याद नहीं हैं, पर वो जानी-मानी अभिनेत्री पर फ़िल्माया गया है। यामिनी गौतम और अदाकार विक्की कौशल का भाई है। अब वो गाना बहुत मशहूर हो गया है और उसी गाने में अभिनेत्री एक एयर होस्टेस के किरदार में है और एक खूबसूरत पुरुष को आकर्षित करती है, अपने एयर होस्टेस पेशे के कारण। तो इस तरह के गानों को वो काफ़ी प्रसिद्धि दिलाते हैं और एक पूरा पंथ सा बनता जा रहा है इसके इर्द-गिर्द क्योंकि ये एक आरामपसन्द पेशा है।

विकास को लेकर भी भारतीयों में यही बात चलती है कि आप अच्छी अंग्रेजी बोल सकते हैं, आपका व्यक्तित्व आकर्षक है, आप आकर्षक कपड़े पहन सकते हैं। तो जब आप एयर होस्टेस की कोचिंग के लिए जाते हैं, वो ऐसे ही संस्कार सिखाते हैं जो उच्च वर्गीय माने जाते हैं। ये पेशा आपको वो सब देता है जो आपको सफलता की सीढ़ी चढ़ने में तुरन्त मदद करता है। मतलब, सफलता बस इस पर निर्भर कर रही है कि फ़लाने पेशे में ग्लैमर, चकाचौंध कितनी है।

तो वे छोटे कस्बों के लड़कों-लड़कियों की कहानियाँ लेकर आते हैं जो हर प्रकार की कठिन परिस्थितियों से गुज़रते हैं और उनके अभिभावकों ने भी बहुत संघर्ष किया। उनकी कहानियाँ प्रचारित की जा रहीं हैं। वो ‘ग्लैमर फैक्टर’ बहुत ज़रूरी दिख रहा है, किसी भी पेशे में युवाओं को आकर्षित करने के लिए। जो एयर होस्टेस वाले हैं तो इसमें इनकी ग़लती नहीं है कि वो ऐसा कर रहीं हैं। तो वो लडकियाँ एयर होस्टेस बनने का चुनाव इन्हीं सब प्रभावों के कारण ही कर रही हैं।ये विकट बात है, पर ऐसे ही इस बात को बढ़ावा दिया जा रहा है।

आचार्य: इसमें या तो आप ये कर लो कि जो सही चीज़ें हैं उन्हें ग्लैमरस (आकर्षक) बना दो, कि आप इसरो (ISRO) को ग्लैमरस बना दो या आप जो जवान पीढ़ी है, उसको समझा दो कि करियर (पेशा) ग्लैमर (चकाचौंध) पर नहीं चूज़ (चुना) किया जाता। ये दो विकल्प हैं कि या तो जितने सही रास्ते और सही धन्धे हैं, सही नौकरियाँ हैं, क्षेत्र हैं, उनको भी ग्लैमरस बना दो। एक तो ये है; दूसरा ये है कि उनको बचपन से ही ऐसी शिक्षा दे दो कि ये चीज़ें ग्लैमर में नहीं देखी जातीं।

अब आप इसरो (ISRO) में जाने को तो ग्लैमरस बना सकते हो; आप लेकिन कैसे कैमिस्ट्री (रसायन शास्त्र) में पीएचडी को ग्लैमरस बना दोगे? और आप जब इतनी सारी चीज़ों को, जो सही हैं एक साथ ग्लैमरस बनाओगे तो उसमें कुछ तो अनग्लैमरस (बिना चकाचौंध वाली) हो जाएँगी। एक तो ये है कि मैं उनका वैल्यू सिस्टम वैसा ही छोड़ दूँ, जैसा है और उनका वैल्यू सिस्टम कहता है कि मैं उधर जाऊँगी जिधर ग्लैमर है।

तो मैं लड़का वही चुनूँगी जो ग्लैमरस है, मैं जॉब (नौकरी) भी वही चुनूँगी जो ग्लैमरस है। तो मैं कहूँ, इनके वैल्यू सिस्टम को तो छोड़ दो, एड्रैस (सम्बोधित) मत करो, ठीक मत करो इनके वैल्यू (मूल्य) को। और जो सही चीज़ें हों उनको ग्लैमरस बना दो। इसमें समस्या ये है कि हर सही चीज़ को ग्लैमरस बनाया नहीं जा सकता और आप बनाओगे बहुत सारी चीज़ों को ग्लैमरस तो उनमें से कुछ चीज़ें फिर अपनेआप अनग्लैमरस हो जाएँगी।

उससे कहीं बेहतर रास्ता ये है कि उनको बचपन से ही तमीज़ ये दो न कि ग्लैमर के पीछे नहीं भागा जाता या कि जिसको आप ग्लैमर समझते हो उससे बड़ा ग्लैमर कुछ और होता है। ग्लैमर भी तो एक कॉन्सेप्ट (अवधारणा) है न, भई, किसी को ग्लैमर इसी में दिखता है कि कितना सजा हुआ चेहरा है। और किसी को ग्लैमर सादगी में भी दिख सकता है।

तो ग्लैमर की भी जो परिभाषा है, वो बदली जा सकती है न। उसको हम नहीं बदलेंगे तो आप जो बोल रहे हो वो रास्ता ठीक है, पर वो रास्ता ज़्यादा दूर तक नहीं जाएगा। मैं आज चलो ठीक है, इसरो (ISRO) के जॉब को बना सकता हूँ। गाँव में डॉक्टर (चिकित्सक) की बहुत कमी है और जितने ये एमबीबीएस वाले हैं ये गाँव जाना नहीं चाहते डॉक्टरी करने और बहुत ज़रूरत है कि वो गाँव में जाएँ, मैं कैसे उसको ग्लैमरस जॉब की तरह पेश करूँ? बड़ा मुश्किल है। तो हर वो काम जो ज़रूरी है उसको ग्लैमरस दिखा पाना सम्भव नहीं है।

प्र: सर, ग्लैमर से मेरा मतलब ये है कि आप उस पेशे में सफलता की कहानियों को प्रचारित कर रहे हैं।

आचार्य: विदीन देअर ओन लिमिटेड कॉन्सेप्ट ऑफ सक्सेस न (उनकी सफलता की सीमित अवधारणाओं के साथ ही)।

प्र: ट्रू बट (सही है पर)...

आचार्य: हाउ विल यू प्रूफ़ टू देम फॉर एग्ज़ाम्पल दैट बीइंग अ वेट इन अ बैकवर्ड विलेज इज़ सक्सेस? (आप कैसे प्रमाणित करेंगे कि ग्रामीण क्षेत्रों में एक पशु चिकित्सक होना सफलता की निशानी है?)

प्र: तो उदाहरण के लिए वो फ़िल्म जिसकी में बात कर रही हूँ जिसके गाने में पेशे को बढ़ा-चढ़कर दिखाया गया है। ऐसे ही फिल्मों में अगर आप अलग-अलग प्रकार के पेशों को दर्शा सकते हैं जिनमें चकाचौंध दिखाई जा रही है। तो मैं थोड़ा अलग प्रकार की फ़िल्म की बात करती हूँ जिनमें पशु चिकित्सक को नायक के रूप में दर्शाया गया हो; जैसे एक फ़िल्म में आयुष्यमान खुराना को प्रसूति विशेषज्ञ के रूप में दिखाया गया है। इस प्रकार के विषय आपके सोचने के नज़रिये को बदल सकते हैं कि कैसे एक पुरुष प्रसूति विशेषज्ञ होकर सहायता कर सकता है। चाहे यह शहरों की ही बात क्यों न हो।

दूसरी बात है कि आप जब किसी चीज़ की बाध्यता को तोड़ना चाहते हो, आपको उसके खिलाफ़ जाना है। अगर यह ध्यान में रखते हुए देखें कि इंदौर इतना विकसित है तो अभिभावक अपना नियन्त्रण रखना चाहते हैं और वे अपने तरीक़े से बच्चों को ढालना चाहते हैं। तो इससे बचने का जो तरीका बच्चियों को दिखता है वो यही है कि माता-पिता तो छोटे कपड़े पहनने से रोकते हैं तो उनको ये लगता है कि इस पेशे की आड़ में ये सब करा जा सकता है।

मुझे पता है क्योंकि मैं एक बहुत रूढ़िवादी विचारों वाले परिवार से आती हूँ तो मेरी माँ कहती हैं कि हमारी ओर किसी ने नज़र उठाकर नहीं देखा, हमारी बेटी ऐसे कपड़े पहनेगी, कोई उसे नज़र उठाकर देखे हमें बर्दाश्त नहीं होगा तो इस तरीक़े की चीज़ें हमने सुनी हैं अपने घर में। तो इस प्रकार का माहौल मुझे बन्धनों में जकड़ा हुआ महसूस कराता था और में भी उन्हें तोड़ना चाहती थी। आख़िर में एक उम्र पर आप जड़ों तक वापस पहुँच ही आते हो लेकिन आपको वो उससे एक आज़ादी चाहिए होती है। लड़कियाँ खासकर इन सब से गुज़र रही होती हैं। तो उनका पेशे का चुनाव केवल यही नहीं है पेशे को चुनने में उनका परिवार, पूरा समाज, समुदाय शामिल है।

आचार्य: विच इज़ ऑल द फैमिली एज़ वेल एज़ द गर्ल जस्ट बोथ ऑफ देम वेलोइंग इन देयर डार्कनेस (पूरा परिवार और साथ-ही-साथ ये लड़कियाँ सभी अपने-अपने अन्धेरे में ही डोल रहे हैं।) फैमिली डार्क (परिवार अन्धेरे में) है; बट द एंटायर पॉइंट ऑफ दिस डिसक्रीप्शन इज़ दैट गर्स आर वेरी-वेरी डार्क (पर इस विघटन का महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह है कि ये लड़कियाँ भी बहुत-बहुत अन्धेरे में ही हैं।) तो वो स्कर्ट पहन लेने से कुछ ब्राइटनेस (उजाला) थोड़ी आ गयी उनकी लाइफ़ (ज़िन्दगी) में।

प्र: बिलकुल।

आचार्य: हाँ, तो जो ब्राइटनेस (उजाला) आनी है वो तो एजुकेशन (शिक्षा) से ही आनी है। एक तरह की डार्कनेस (अन्धेरेपन) का इलाज दूसरे तरह की डार्कनेस थोड़े ही होती है। फैमिली कंज़रवेटिव (संकीर्ण सोच की) है, उस कंज़रवेटिज़्म (संकीर्णतावादी सोच) से बचने के लिए आप हॉस्टल में आ गये और हॉस्टल में आकर के आप वो सब कर रहे हो, ये जो बता रहीं हैं; तो इससे क्या जो फॅमिलीरियल डार्कनेस (परिवार का अन्धेरापन) थी उसका इलाज हो गया क्या। तो जो इलाज है वो तो यही है कि एक तो एजुकेशन ठीक हो। मूवी अगर बना भी दी गयी जिसमें किसी पर्टीकुलर प्रोफ़ेशन (किसी एक पेशे) को आपने कर दिया ग्लॅमराइज़, मान लीजिए। वो चलेगी नहीं न; क्योंकि उसे देखने वाले तो हम ही हैं न। हम तो अपने वैल्यू सिस्टम के ही हिसाब से देखेंगे। फ़र्स्ट ऑफ़ ऑल द व्यूअर हैज़ टू बी एजुकेटेड (सबसे पहले तो दर्शकों को ही शिक्षित होना पड़ेगा)। हाँ, ये ज़रूर हो सकता है कि उस एजुकेशन का काम ही वो मूवी करने लगे, ये हो सकता है। पर फिर वो जो मूवी होगी वो एक अलग तरह की मूवी होगी। वो फिर कमर्शियल सक्सेस (वाणिज्यिक लाभ) की नहीं वो एजुकेशन के लिए बनाई जाएगी। या ऐसा करा जाए कि उसमें कमर्शियल और एजुकेशनल दोनों एलीमेंट (तत्त्व) रहें। जब इतना करना ही है, एजुकेशनल एलीमेंट ही हमें पता है कि सेंट्रल (केन्द्रीय) है और हमारे पास एक एजुकेशन सिस्टम (शिक्षा प्रणाली) है ही तो सबसे पहले उसको ही क्यों नहीं ठीक कर दें।

“ह्वाइ डिपेंट ऑन द मूवीज़ टू एजुकेट अस, वेन वी हैव कॉलेजेज़ एंड स्कूल्स” (“हम फ़िल्मों पर निर्भर क्यों रहें शिक्षित करने के लिए, जब हमारे पास स्कूल और कॉलेज उपलब्ध हैं।”) या हम ये बोलें कि जो बेसिक वैल्यूज़ (आधारभूत मूल्य) हैं लिविंग (जीने) की, उनको हमें सीखने की ज़िम्मेदारी मूवी मेकर्स (फ़िल्म निर्माताओं) की है। इफ़ द मूवी मेकर्स डू दैट; वंडरफुल! (अगर फ़िल्म निर्माता ऐसा करते हैं, बहुत बढ़िया) हम उनकी तारीफ़ करेंगे, बहुत अच्छा काम करा कि एक मूवी मेकर ने एजुकेशनल मूवी भी बना दी।

लेकिन एजुकेशन की जो मूल, प्राथमिक, प्राइमरी ज़िम्मेदारी है, वो तो स्कूल की है न और परिवार की है और कॉलेज की है तो उसको ठीक करना होगा। हमें अपनी जो फ़ंडामेंटल वैल्यूज़ (आधारभूत मूल्य) हैं उनको ही रिफ़ाइन (परिशोधन) करना होगा और ये कुछ बेसिक बातें हैं कि भैया, मेरी आइडेंटिटी (पहचान) क्या है, मेरा परपज़ (उद्देश्य) क्या है, किन बातों पर मुझे गौरव का, प्राइड का अनुभव होना चाहिए। कौनसी बातों पर शर्माना-झिझकना बिलकुल नहीं है और कौनसी बातें एक्चुअली (वास्तव में), रिग्रेट की (खेद), लज्जा की होनी चाहिए। इसकी जो शिक्षा है, वो जब तक हम घर में नहीं दे रहे, एक स्टेट रन इंस्टीट्यूशन (राज्य संचालित संस्थान) में वो हो सकती है कि नहीं हो सकती है, पता नहीं। पर अगर स्टेट रन नहीं है इंस्टीट्यूशन, तो दूसरी इंस्टिट्यूशन, संस्थाओं को वो काम करना पड़ेगा।

वी नीड लाइट, एंड इफ़ वी डोन्ट हैव इनर लाइट, देन वी विल बी ड्रॉन टू ऑल काइन्ड ऑफ़ एक्सटर्नल अट्रैक्शन्स ( हमें प्रकाश चाहिए, अगर हमारे पास भीतरी प्रकाश नहीं है तो हम ऐसे ही बाहरी प्रभावों पर खिंचे चले जाएँगे) आप किसी शहर की बात कर लो, कुछ भी बोल लो वो सब लोग कौन हैं, वो लोग अपनी-अपनी एक फिलोसॉफी (दर्शन) की किताब हैं। “लोग नहीं होते, लोग वैल्यू सिस्टम होते हैं।” जिसको आप एक व्यक्ति कह रहे हो न वो एक फिलोसॉफी होता है जो कि उसकी व्यक्तिगत, अपनी फिलोसॉफी (दर्शन) है। आप जब तक उसको एड्रेस (सम्बोधित) नहीं करोगे तब तक ग्रॉस लेवल (स्थूल स्तर) पर बातें करने से; इट विल जस्ट बी अ मूवमेंट फ्रॉम डार्कनेस टू डार्कनेस। बट विद द कॉन्सोलेशन दैट देयर इज सम मूवमेंट। ( बात वही होगी, “अन्धेरे से अन्धेरे की ओर बढ़ना।” लेकिन वहाँ एक सांत्वना का भाव होगा कि कुछ गति हो रही है) वो जो कॉन्सोलेशन (सांत्वना) होगी, ऑब्विअस्ली दैट वुड बी नॉट मच अवेल। (वो वास्तव में किसी काम की नहीं होगी) ये जो लड़कियाँ हैं, छह महीने अगर इनकी एचआइडीपी की क्लास हो जाए, किसी अच्छे टीचर (शिक्षक) के साथ, नज़ारा बहुत बदल जाएगा। फिर अगर वो एयर होस्टेस भी बनेंगी तो अच्छी एयर होस्टेस बनेंगी।

प्र: एक्चुअली सर, मुझे ऐसा लगता है कि जो एक इमेज (छवि) होती है न। साथ ही आपकी चीज़ तक पहुँच होना भी एक बहुत बड़ा कारक हो सकता है; जैसे शहरों में जो हैं उनको ये चीज़ें उतनी प्रभावित नहीं करती क्योंकि ये उनकी पहुँच में है और कर सकते हैं।

आचार्य: बट देन दे आर ड्रॉन ईवन हायर ग्लैमर, इट्स नॉट अबाउट एक्सपोजर, इट्स अबाउट एजुकेशन। ( पर वो फिर उससे भी ऊँचे ग्लैमर की ओर खिंचे जाते हैं। ये पहुँच की नहीं शिक्षा की बात है) ये छोटे शहरों की लड़कियाँ हैं तो उनको लग रहा है कि एक छोटे लेवल का ग्लैमर ही बड़ी बात है। बड़े शहर वाले हैं वो भी ग्लैमर के ही पीछे भाग रहे हैं; पर वो ड्रग्स (नशे) की और बड़ी डोज़ (खुराक) माँगते हैं। वो कहते हैं मुझे और बड़ा वाला ग्लैमर दो।

तो एक्सपोज़र (पहुँच) अच्छी बात है अगर वो एजुकेशनल हो, अगर वो एजुकेशनल हो। ले देकर सारी बात एजुकेशन पर आती है। शिक्षा तो देनी ही पड़ेगी और स्टेट (राज्य) वो शिक्षा देने में समर्थ नहीं है तो परिवार को वो शिक्षा देनी पड़ेगी, परिवार नहीं दे सकता तो जो ये काम हमारी संस्था कर रही है, ऐसी संस्थाओं को वो शिक्षा देनी पड़ेगी। शिक्षा का तो कोई विकल्प नहीं है।

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