इंसान जल्द ही 200 साल जिएगा, और ये होगा अंजाम || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

65 min
85 reads
इंसान जल्द ही 200 साल जिएगा, और ये होगा अंजाम || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, मेरा प्रश्न विज्ञान से सम्बन्धित है। तो काफ़ी समय से वैज्ञानिक समुदाय और प्रकृति में एक तरीक़े का एक तकरार चल रहा है और काफ़ी हद तक विज्ञान सफल भी हुआ है, कोविड वैक्सीन का उन्होंने निर्माण किया और शायद प्रकृति की जो योजना थी उसको असफल किया। और विज्ञान की ये इच्छा ही रही है कि वो इंसान की आयु को बढ़ाते चले जाए। अभी ऐसा हो गया है कि इससे प्रेरणा लेकर यूएस में जो बिलियनेयर कम्युनिटी (अरबपति समुदाय) है सिलिकॉन वैली में, उनका ये मक़सद बन गया है कि सारी चीज़ें प्राप्त कर ली हैं, पावर मिल गया है, पैसा मिल गया है, अभी मृत्यु पर जीत हासिल करनी है।

तो अभी उनका साइंटिफ़िक एक्सपेरीमेंट (वैज्ञानिक प्रयोग) चल रहा है मानव शरीर को अमर कैसे बनायें, इम्मोर्टालिटी (अमरता) तक कैसे पहुँचा जाए। बायो इलेक्ट्रिक आर्म लगा रहे हैं या सिर में चिप डालना है या क्रिस्पर जीन एडिटिंग (जीन सम्पादन) करनी है, ये सारी टेक्नोलॉजीज़ का वो बहुत फंडिंग (अनुदान) कर रहे हैं।

तो और इसके ‘युवाल नोआ हरारी’ ने उनकी पुस्तक में भी लिखा है कि बढ़ते-बढ़ते शायद हम इम्मोर्टालिटी की तरफ़ बढ़ते चले जाएँ। तो एवरेज एज (औसत उम्र) भी अभी जो सत्तर-अस्सी है वो एक-सौ-पचास, एक-सौ-साठ हो जाए बहुत ही जल्द।

तो मेरा प्रश्न ये है कि क्या प्रकृति इस इम्मोर्टालिटी के योजना में सफलता आने देगी इन बिलियनेयर्स को? और अगर है तो थोड़ा डिफ़िकल्ट (कठिन) लग रहा है क्योंकि आप हमेशा बोलते हो कि सिक्स्टी-एट्टी ईयर्स , सेंस ऑफ़ अर्जेंसी (आपातकाल की भावना) होनी चाहिए मुक्ति की ओर। और अगर आयु दोगुनी हो जाएगी, एक सौ पचास, एक सौ अस्सी हो जाएगी तो और भी रिलैक्स (निश्चिन्त) हो जाएँगे लोग, शायद मुक्ति की तरफ़ न बढ़ें। तो इस पर अगर आप थोड़ा व्याख्या कर सकें तो कृपा होगी।

आचार्य प्रशांत: जिसको हम साइंस कह रहे हैं अभी, आपके प्रश्न में, उसका सम्बन्ध एक दर्शन से है जो कि इन्द्रियों के देखे और मन के सोचे पर चलता है, ठीक? और वो कहता है कि कुछ ऐसा है अगर जो इन्द्रियों को दिखाई देता है, पर मन उसके विषय में स्पष्टता से सोच नहीं पाता, तो जाकर के ईमानदारी से प्रयोग करेंगे, जाँचेंगे-परखेंगे, विधियाँ विकसित करेंगे, पता लगाएँगे कि सामने जो प्रक्रियाएँ, फिनोमिना (घटनाएँ) चल रहे हैं उनमें रहस्य क्या हैं, उनमें नियम क्या हैं। और हम तब मानेंगे सफल हो गये, जब हम जो नियम इत्यादि खोजकर निकालें, जो भी हमारी खोज हो, वो ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) हो। ऑब्जेक्टिव माने कोई और भी आकर के स्वतन्त्र रूप से उन्हीं बातों को प्रमाणित कर सके; कोई भी, कभी भी।

और जो हमने खोजकर निकाला है वो फ़ॉल्सिफिकेशन (असत्यीकरण) के लिए भी, अप्रमाणित किये जाने के लिए भी उपलब्ध हो। हम पहले ही बता दें कि हमने ये बात कही है और अगर ये बात ऐसे-ऐसे तरीक़े से सिद्ध न हो, तो ये बात फिर झूठी है, ये विज्ञान का पूरा खेल है। विज्ञान एक ऑब्जेक्टिव रियलिटी (वस्तुगत सच्चाई) पर चलता है, ठीक वैसे जैसे एक आम आदमी या कोई पशु एक ऑब्जेक्टिव यूनिवर्स (वस्तुनिष्ठ ब्रह्मांड) में प्रकृतिगत रूप से ही यक़ीन करता है।

तो विज्ञान आगे कितना भी निकल जाए, लेकिन उसके मूल में धारणा क्या है? शुरू कहाँ से होता है? बहुत आगे निकल सकता है वो, ऐसी-ऐसी खोजें कर सकता है कि मन अचम्भित रह जाए बिलकुल। ये तो आगे निकला, शुरू कहाँ से हुआ? मूल दर्शन क्या है विज्ञान का? जो दिख रहा है वही सच है। हाँ, उसका रूप क्या है, प्रकार क्या है, प्रक्रिया क्या है और उसके पीछे नियम क्या हैं, उसका हम अनुसन्धान करेंगे, प्रयोग करेंगे, ईमानदारी से विचार-विमर्श करेंगे। कोई आकर के हमारे कहे की जाँच-पड़ताल करना चाहे या उसको झुठलाना चाहे तो हम उसके लिए भी प्रस्तुत रहेंगे, वो सब बहुत अच्छी बात है।

लेकिन शुरुआत विज्ञान की यहीं से होती है कि ये जो सामने है सबकुछ, यही तो सत्य है। ठीक? और अगर मन किसी बात को अपने तर्कों के आधार पर स्वीकार कर ले रहा है, तो वो बात स्वीकार करने लायक़ हो गयी।

तो इन्द्रियाँ और मन — मन में मैं बुद्धि को भी शामिल कर रहा हूँ यहाँ पर — इन्द्रियाँ और मन, इन पर चलता है विज्ञान। कोई वस्तु हो ऐसी जो न इन्द्रियों की पकड़ में आती हो, न मन की पकड़ में आती हो, विज्ञान क्या उस पर शोध शुरू भी करेगा? पूछ रहा हूँ।

आप एक रिसर्च प्रोपोज़ल लेकर जाइए, ठीक है? किसी शोधशाला के पास, किसी लैब के पास या सरकार के पास जाइए, आप कहिए कि मुझे रिसर्च करनी है और मुझे उसके लिए ऐसी-ऐसी सुविधाएँ चाहिए और इतनी मुझे ग्रांट (अनुदान) चाहिए। और वो पूछें, ‘किस चीज़ पर करनी है?’ आप कहें, ‘उस चीज़ पर जो इन्द्रियों से दिखाई नहीं देती, इन्द्रियों की पकड़ में नहीं आती और मन जिसके विषय में सोच नहीं सकता’, आपको उस लैब में प्रवेश भी मिलेगा?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: तो विज्ञान जिस दर्शन पर चल रहा है वो दर्शन एक मान्यता पर आधारित है, ठीक है? विज्ञान भी ऐसा नहीं है कि सारी बातों को ठोंक-बजाकर देखता है तभी मानता है। विज्ञान की अपनी शुरुआत एक मान्यता से हुई है और उसको विज्ञान ने कभी परखा नहीं। मान्यता माने बस जो मान लिया, मान लिया कि सच है। और जो भी चीज़ बस मान ली जाए, बस मान लें कि सच है, वही तो अन्धविश्वास कहलाती है न? जिसका कभी प्रयोग-परीक्षण हुआ नहीं, बस मान लिया कि सच है, उसी को क्या बोलते हैं? अन्धविश्वास।

तो विज्ञान स्वयं एक मान्यता पर आधारित है। आगे बहुत निकल गया है, लेकिन शुरुआत उसकी एक मान्यता से हुई है, मान्यता क्या है? दोहराइए।

श्रोता: जो दिख रहा है वही है।

आचार्य: जो दिख रहा है वही है। और दिख नहीं भी रहा हो तो कम-से-कम वो विचार के लिए उपलब्ध होना चाहिए। अब मान लीजिए इलेक्ट्रॉन, आप कहें, ‘नंगी आँखों से दिखता नहीं’, ठीक है नंगी आँखों से नहीं दिखता लेकिन प्रयोगों में वो प्रदर्शित हो जाता है, प्रमाणित हो जाता है, है न?

आप स्क्रीन पर उसका प्रमाण देख सकते हैं, इलेक्ट्रॉन शावर्स होते हैं वो दिख जाएगा स्क्रीन पर, ‘हाँ, ये रहा।’ और मन से आप इलेक्ट्रॉन की गति भी निकाल सकते हैं, इलेक्ट्रॉन का मास (द्रव्यमान) निकाल सकते है, इलेक्ट्रॉन का चार्ज (आवेश) निकाल सकते हैं। और इलेक्ट्रॉन को भी आप तोड़ दें और छोटे हिस्सों में तो उसमें क्वार्क्स कौनसे कितने हैं, अप-डाउन (ऊपर-नीचे, वो सब आप निकाल सकते हैं। वो सब मानसिक आप कैलकुलेशन (गणना) करेंगे बुद्धि से अपनी।

कुछ ऐसा है जो बुद्धि को उपलब्ध ही नहीं है, बुद्धि जिस तक जा ही नहीं सकती? विज्ञान कहता है, ‘अगर बुद्धि उसके विषय में सोच नहीं सकती, तो वो है ही नहीं। मन जिसका विचार नहीं कर सकता, मन जिसको कॉन्सेप्चुअलाइज़ (अवधारण) नहीं कर सकता, वो है ही नहीं।’ अब विज्ञान की इस मान्यता के पीछे वृत्ति कौनसी छुपी है? उसको थोड़ा पकड़ते हैं, वो वृत्ति है देहभाव की।

हमने पहली बात क्या बोली? कि विज्ञान आगे बहुत निकल गया है, निस्सन्देह। और बड़े हर्ष की बात है। आज हम विस्मित होकर वैज्ञानिक उपलब्धियों की ओर देखते हैं और विज्ञान की जो विधि है वो निश्चित रूप से प्रयोग की, परीक्षण की, जाँच-पड़ताल की, ईमानदारी की है; हम उसके क़ायल हैं। लेकिन हम कह रहे हैं, विज्ञान शुरू एक मान्यता से होता है, मान्यता ये है कि जो कुछ मन और इन्द्रिय की पकड़ में आये वही है। ठीक है न? और हम इस मान्यता का भी स्रोत जानना चाहते हैं। ये मान्यता कहाँ से आ रही है, जिस मान्यता से विज्ञान शुरू होता है? हम कह रहे हैं, वो मान्यता आ रही है देहभाव की वृत्ति से।

देहभाव क्या बोलता है? देहभाव बोलता है, ‘मैं हूँ’ और ‘मैं क्यों हूँ? क्योंकि ये देह दिखती है न, ये देह दिखती है।’ आप कब कहते हैं इस कमरे में कोई है?

श्रोता: जब उसकी देह है।

आचार्य: जब उसकी देह है। आप इस कुर्सी पर न बैठे हों, क्या कोई कह पाएगा कि आप हैं? तो मैं कौन हूँ? जो इस कुर्सी पर बैठा है। माने जो इन्द्रियों को दिखाई देता है, जिसको त्वचा स्पर्श कर सकती है, जिसके कहे को कान सुन सकते हैं, वो है। तो बहुत सारे वैज्ञानिक भी इस बात को समझ नहीं पाते हैं कि विज्ञान स्वयं देहभाव पर आधारित है, क्योंकि मूल मटीरियलिज़्म (भौतिकवाद) बॉडी (शरीर) स्वयं है। पदार्थवाद उठता ही देहभाव से है। मैं तभी तक तो हूँ, जब ये शरीर है? और ये शरीर है, इसका प्रमाण क्या है? इन्द्रियाँ गवाही दे रही हैं न, इसलिए है।

मैं कौन हूँ? मैं शरीर हूँ। तो शरीर ही जब मेरा सच है तो आगे भी मैं उसी सच को स्वीकार करूँगा जिसकी गवाही शरीर देगा। शरीर मेरा सच है, तो आगे क्या सच है ये शरीर बताएगा। मैं शरीर और दुनिया में क्या, वो शरीर बताएगा। तो मन और इन्द्रियाँ, इस पर फिर विज्ञान चलता है। तो एक तरह से विज्ञान की पूरी जो शुरुआत ही है वो देहभाव, बॉडी आइडेंटिफ़िकेशन से होती है। तो इसमें कोई ताज्जुब नहीं है कि विज्ञान इस बिन्दु पर आकर के पूरी कोशिश कर रहा है देह की ही उम्र बढ़ाने की। बात अब पूरी गोल होकर के जुड़ी?

विज्ञान को और कुछ करना था भी नहीं कभी, ये जो पूरी वैज्ञानिक प्रक्रिया है इसकी निष्पत्ति यहीं पर आकर होनी थी कि देह की सुविधा बढ़ा दी जाए, जो आज तक करता रहा विज्ञान। देह की उम्र बढ़ा दी जाए, वो भी आज तक करता रहा विज्ञान और अब आख़िरी चीज़ करने में विज्ञान तत्पर हो गया है, वो क्या? देह को अमर ही कर दो, जो प्रश्नकर्ता कह रहे थे।

और ये बात कोई सांयोगिक नहीं है, विज्ञान को ये करना-ही-करना था उस दिन से जिस दिन से वैज्ञानिक प्रक्रिया का उद्भव हुआ था। ये करना-ही-करना था क्योंकि विज्ञान की हम कह रहे हैं शुरुआत ही कहाँ से है?

श्रोता: देहभाव से।

आचार्य: अरे! जब देह ही विज्ञान की माँ है, जब देह ही विज्ञान का मालिक है तो अन्ततः विज्ञान और करेगा भी क्या? पहले तो देह को तमाम तरह की सुख-सुविधा देने का प्रयास, जो कि करा है विज्ञान ने और सुख-सुविधा मिली भी है। और फिर क्या करेगा विज्ञान? जब देह ही इतनी बड़ी चीज़ है, जब देह ही स्रोत है, प्रथम बिन्दु है तो क्यों न उसको अमर ही कर दिया जाए। तो विज्ञान वही कर रहा है, ‘देह को अमर कर दो!’

ये सारा जो कार्यक्रम चल रहा है, इसमें अब बस लेकिन एक छोटी सी बात बच जाती है। छोटी सी बात ये बच जाती है कि ये जो देह है, इसी देह के साथ-साथ एक चीज़ चलती रहती है जिसको हम ‘चेतना’ बोलते हैं। उस चेतना का गहरा सम्बन्ध है देह से। ठीक, बिलकुल सही बात? लेकिन वो चेतना देह से बहुत भिन्न स्वभाव रखती है। जो चेतना है वो देह से सम्बन्धित तो ज़रूर है, हम यहाँ तक भी दावा कर सकते हैं, मान सकते हैं कि चेतना देह की पैदाइश है कि देह न हो तो चेतना नहीं हो सकती, हम ये भी मान लेंगे।

अगर कोई ऐसा कहना चाहता है, तो चलो मान लिया वो बात भी। हालाँकि वो बात पूरी तरह शुद्ध नहीं है, पर हम कर लेंगे स्वीकार कि भाई अगर देह न हो, तो चेतना नहीं बचेगी; मान लिया। जो कुछ भी आप कहेंगे, चेतना की देह से रिश्ते के बारे में, हम सारी बातें मान लेंगे। विज्ञान तो यहाँ तक कहता है कि कॉन्शियसनेस (चेतना) भी एक फिज़िकल फिनोमिना (भौतिक घटना) है। माना, वो भी माना।

फिज़िकल फिनोमिना है कॉन्शियसनेस माने? वो कहते हैं, ‘जब मस्तिष्क में कुछ क्रियाएँ होती हैं रासायनिक, तो उसी का परिणाम कॉन्शियसनेस (चेतना) होती है, और कुछ नहीं है कॉन्शियसनेस। मस्तिष्क में कुछ-कुछ चलता है, माइक्रो सर्किट्स हैं यहाँ पर (सिर की ओर इंगित करते हुए) और केमिकल एक्टिविटी (रासायनिक गतिविधियाँ) होती है, उसका परिणाम वो होता है, जिसको हम बोल देते हैं कॉन्शियसनेस।’

वो ये तक जानने की कोशिश कर रहे हैं कि जिसको हम कॉन्शियसनेस कहते हैं, वो मस्तिष्क के कौनसे हिस्से में वास करती है। जान लो, ये सब जान लो, कर लो पता। लेकिन उसके बाद भी एक बात तो शेष रह जाती है न कि जिसको हम कॉन्शियसनेस बोलते हैं, वो देह मात्र से सन्तुष्ट होती नहीं है। अब बताओ क्या करें? वो हो सकता है देह की ही उत्पत्ति हो, लेकिन फिर भी उसको देह से, माने भौतिक वस्तु से, माने पदार्थ से, माने इस सकल संसार से चैन मिलता नहीं है, अब बोलो क्या करें?

साइंस ने पहले ही तय कर रखा है कि मटीरियल के अलावा वो और किसी चीज़ का परीक्षण नहीं करेगा, उसे अस्तित्वमान ही नहीं मानेगा। यही कह रखा है न, कि भाई दिखाई देता हो, सुनाई देता हो, पकड़ में आता हो, अनुभव होता हो या कम-से-कम विचार के लिए उपलब्ध हो, तो ही हमारे पास लेकर आना। तब तो हम एडमिट (स्वीकार) करेंगे कि ये जो चीज़ है ये साइंटिफ़िक इन्वेस्टिगेशन (वैज्ञानिक जाँच) के लिए एप्रोप्रिएट (उचित) है, नहीं तो हम उस पर साइंटिफ़िक इन्वेस्टिगेशन शुरू भी नहीं करेंगे।

निर्गुण-निराकार पर विज्ञान कुछ कहेगा भी? कि निर्गुण है, निराकार है, तो माने है ही नहीं! तो हम बात ही नहीं करेंगे। दिक्क़त बस ये है कि जो कुछ सगुण-साकार है, उससे ये हमारी छोटी सी चेतना चैन पाती नहीं और निर्गुण-निराकार को लेकर विज्ञान मौन हो जाता है, निर्गुण-निराकार विज्ञान की परिधि में आता नहीं। निर्गुण-निराकार विज्ञान की परिधि में आता नहीं और सगुण-साकार से हमारी चेतना चैन पाती नहीं, तो अब विज्ञान क्या कर रहा है? विज्ञान कह रहा है, ‘ये जो ‘चैन’ चीज़ होती है इसके लिए हम पदार्थ के ही क्षेत्र में जो कर सकते हैं वो करेंगे।’

तो पदार्थ के क्षेत्र में आपको तमाम तरह की सहूलियतें दी जा रही हैं, आराम के प्रबन्ध करे जा रहे हैं, आपकी जितनी कामनाएँ पूरी की जा सकती हैं सब पूरी की जा रही हैं। और एक कामना और पूरी की जा रही है, जिसकी अभी बात हो रही है कि मौत का बहुत डर लगता है, उम्र बढ़ाओ न, बढ़ाओ न, बढ़ाओ न!

अभी औसत उम्र भारत में ही ले लीजिए चालीस साल होती थी, जब हम आज़ाद हुए थे, और कम होती थी चालीस से। वो औसत उम्र बढ़कर पचहत्तर साल हो गयी है, अस्सी साल होने वाली है। दुनिया के कई ऐसे देश हैं जहाँ पचासी साल हो रखी है औसत उम्र; करा विज्ञान ने। आम आदमी आज पदार्थ का जितना उपभोग करता है उतना कभी नहीं करता था। आप कोयले का उपभोग देखिए, आप स्टील का पर कैपिटा कंजम्पशन (प्रति व्यक्ति उपभोग) देखिए, इलेक्ट्रिसिटी (विद्युत) का पर कैपिटा कंजम्पशन देखिए, आज जितना है उतना दुनिया में कभी नहीं होता था। विज्ञान ने दे दिया, लो भोगो।

उन सब से चैन मिला नहीं, तो अब कही जा रही है, ‘लो उम्र और ले लो, भोगो!’ दे दीजिए, उम्र और बढ़ा दीजिए, लेकिन क्या उससे भी क्या ये (मस्तिष्क) चैन पाएगा? क्या ये चैन पाएगा? मेरे देखे अगर आप आदमी को डेढ़-सौ साल जीने की क्षमता या सुविधा दे दें, तो साथ-ही-साथ आपको उसे एक सुविधा या अधिकार और भी देना पड़ेगा, युथेनेशिया या इच्छामृत्यु का, क्योंकि आप उसे जीने का वरदान नहीं, अभिशाप दे रहे हैं।

चैन उसको है नहीं और उम्र उसकी बढ़ा रहे हैं। और चैन जिस चीज़ से मिल सकता है उससे आप पूरी तरह इनकार कर रहे हैं। जिस चीज़ से चैन मिलेगा उसको तो आप सीधे कह दे रहे हैं, ‘है ही नहीं।’ क्यों? क्योंकि विज्ञान इनका (आँख, कान, नाक, मुँह और त्वचा को इंगित करते हुए) ग़ुलाम है। पाँच इन्द्रियाँ और मन, विज्ञान इनका ग़ुलाम है।

और मैं विज्ञान का बड़ा प्रशंसक हूँ, विज्ञान का बहुत-बहुत सम्मान करता हूँ और जो लोग अवैज्ञानिक बातें करते हैं, आपने कितनी ही बार देखा है कि कितना मैं उनको समझाता हूँ, निन्दा करता हूँ, डाँटता हूँ कि विज्ञान के विरुद्ध कुछ बोल मत देना, अवैज्ञानिक मत हो जाना। जहाँ तक संसार की बात है, वहाँ विज्ञान ही सर्वोच्च है।

संसार में विज्ञान से हटकर कोई और साधन नहीं है तथ्यों तक पहुँचने का। तो विज्ञान को वहाँ पूरा सम्मान देना, लेकिन विज्ञान की हमें सीमा भी पता है और वो सीमा हमने नहीं, विज्ञान ने स्वयं निर्धारित करी है। विज्ञान ने अपनी परिभाषा में ही अपनी सीमा निर्धारित कर दी है, ये बात हम चौथी-पाँचवीं बार दोहरा रहे हैं। विज्ञान ने अपनी परिभाषा में ही स्वयं को क्या बताया है? जो कुछ भी प्रतीत होता है, अनुभव होता है, दिखाई देता है, सुनाई देता है, या कम-से-कम विचार के लिए उपलब्ध है, हम उसको जानना चाहते हैं, उसको जानने की प्रक्रिया-प्रयास का नाम विज्ञान है। ठीक है?

तो ये सब (भौतिकता) आप खूब बढ़ा लीजिए, बहुत अच्छी बात है बढ़ाएँ। लेकिन वो कोई अन्त नहीं है न, वो एक माध्यम है। आप अपनी सुख-सुविधा बढ़ाते हो ताकि शान्ति मिले, चैन मिले। वो सुख-सुविधा बढ़ाकर भी चैन न मिले तो? फिर क्या करोगे? हम ये नहीं कह रहे कि सुख-सुविधा घटाने से चैन मिल जाएगा, एक बात को अस्वीकार करने का अर्थ उसके विपरीत को स्वीकार करना नहीं होता है, मन में कुतर्क उठे तो जल्दी से बह मत जाइएगा।

हम अगर कह रहे हैं कि सुख-सुविधा बढ़ाने से चैन नहीं मिलता, तो हम ये नहीं कह रहे हैं कि कष्ट बढ़ा दो तो चैन मिलेगा। लेकिन आप उम्र बढ़ा रहे हो और उम्र जिस उद्देश्य के लिए मिली है आपको, उस उद्देश्य की आप बात भी नहीं कर रहे हो, तो जियोगे तो जियोगे कैसे? मौत की भीख माँगोगे।

फिर ये नहीं होने वाला है कि मौत आ रही है और आप कह रहे हो कि अभी कुछ साल और दे दो। आप हाथ जोड़े भाग रहे होओगे कि कोई तो मार दो मुझे, एक-एक पल भारी पड़ रहा है। जब युवा थे तो लगता था कि भविष्य शान्ति दे जाएगा, अब तो सवा-सौ, डेढ़-सौ साल के हो गये, भविष्य का आसरा टूट चुका है, जितने तरीक़ों को आज़मा सकते थे सब आज़मा भी लिये हैं, तरीक़े विफल हैं हमारे।

क्योंकि हमारे सारे तरीक़े क्या हैं? भौतिक हैं। हमारे सारे तरीक़े सकाम हैं। हम कह रहे हैं कि कामना की पूर्ति कर लो तो चैन मिल जाएगा और कामना की पूर्ति से चैन नहीं मिल रहा है क्योंकि कामना स्वयं नहीं जानती कि वो कहाँ से आ रही है, वो चाहती क्या है। कामना के बारे में कितनी मज़ेदार बात! ‘कामना’ का ही नाम होता है ‘चाहत', और कामना ख़ुद ही नहीं जानती कि वो चाहती क्या है। आप जब किसी की ओर आकर्षित होते हैं, या आपको कोई पदार्थ बाज़ार में ख़रीदना है, तो आपको उसकी कामना है, पर क्या आप जानते हैं कि वो कामना क्यों है? वो हमें नहीं पता होता।

उस वस्तु से आपको वास्तव में चाहिए क्या, ये आपको नहीं पता होता। और वस्तु तो एक सरल चीज़ होती है, लेकिन जब बात किसी व्यक्ति की आती है और किसी व्यक्ति की कामना होती है, तब तो हमें एकदम नहीं पता होता कि हम आकर्षित हो क्यों रहे हैं और हमें चाहिए क्या; एकदम नहीं पता होता। और जब पता नहीं होता तो उससे हमको न आश्चर्य होता है, न झटका लगता है, न भय होता है। हमको लगता है ये तो ज़रूर कोई बहुत दैवीय बात है कि हमें पता ही नहीं है कि हम आकर्षित हो क्यों रहे हैं!

हम गाना शुरू कर देते हैं, ‘कैसे बतायें क्यों तुमको चाहें, यारा बता न पायें’ (श्रोता हॅंसते हुए) तुम बता कैसे दोगे, तुम्हें पता ही नहीं है। तुम्हें पता होता तो तुम बता पाते न? लेकिन तुम इतने मक्क़ार आदमी हो कि ये स्वीकार करने की जगह कि तुम नहीं जानते कि तुम्हें आकर्षण क्यों हो रहा है और तुम किसी अन्धे बहाव में बहे जा रहे हो, तुम ये स्वीकार करने की जगह उसी बात को रोमेंटिसाइज़ कर रहे हो, रूमानी बना रहे हो, फ़ालतू की शायरी उछाल रहे हो!

और ये बहुत ख़तरनाक बात है कि आप किसी की ओर आकर्षित हों, कोई चीज़ आपको अपनी ओर खींचे और आपको पता भी नहीं है कि आप क्यों खिंच रहे हैं! और बात ये नहीं है कि जिस वजह से आपको खींचा जा रहा है, वो बात पता की नहीं जा सकती, उसमें मिस्टिसिज़्म (रहस्य) नहीं है। बात बस ये है कि वो जो चीज़ आपको खींच रही है वो इतनी पाशविक है, इतनी दैहिक है, इतनी प्रिमिटिव (प्राचीन) है कि आपसे स्वीकार करा नहीं जाएगा कि आप आकर्षित हो क्यों रहे हैं। बस ये है।

देखिए, दो बातें होती हैं जिनको लेकर हम कहते हैं, ‘मुझे पता नहीं।’ एक तो अज्ञेय है जिसका पता हो नहीं सकता, वो अननोएबल (अज्ञेय) है तो उसका पता हो नहीं सकता। वो तो हमारी ज़िन्दगी में वैसे ही मौजूद नहीं होता, वो तो सत्य का दूसरा नाम है, ‘अज्ञेय’, वो तो होता भी नहीं है मौजूद। उसको लेकर आप कहें कि मुझे नहीं पता कि वो क्यों खींचता है मुझे, या किस दिशा में, तो फिर ठीक है, वो तो है नहीं हमारी ज़िन्दगी में।

और जो दूसरी चीज़ होती है जिसके विषय में हमें नहीं पता होता कि वो हमें क्यों खींच रही है, हमें उसकी चाहत, कामना क्यों है, वो होती है हमारी पशुता। और उसके विषय में मन जान-बूझकर जानना नहीं चाहता क्योंकि अगर जानेगा तो बुरा लगेगा, जानेगा तो आत्मछवि टूटेगी।

समझ में आ रही है बात?

विज्ञान के जितने भी हमें फल मिले हैं, खोजें मिली हैं, उनका उपयोग हमने अपनी कामनाओं की तृप्ति के लिए ही किया है। हाँ, साथ-ही-साथ जिस विषय से विज्ञान सम्मान का बहुत-बहुत अधिकारी है, वो ये है कि दुनिया को ही लेकर के हमने जो सौ प्रकार की व्यर्थ मान्यताएँ बना रखी थीं, विज्ञान ने उन सब को खंडित कर दिया। तो विज्ञान ने अन्धविश्वासों को पूरा तोड़ा है, ये बहुत अच्छा हुआ है। आप किसी चीज़ को कुछ समझते थे, वो वहाँ पर जाकर उसे प्रयोग, एक्सपेरिमेन्ट करके बता देगा कि ये चीज़ वो है ही नहीं जो तुम सोच रहे हो, क्यों फ़ालतू में इसको लेकर धारणा बना रखी है। तुम ऐसी चीज़ को पूज रहे हो जो कि एकदम सामान्य प्राकृतिक नियमों पर चलती है, उसमें पूजनीय कुछ है ही नहीं, पदार्थ है बस।

वो बढ़िया किया है, लेकिन उसके बाद भी ये तो नहीं बताया है न कि जो ह्यूमन कंडीशन (मानव स्थिति) है, जो मानव स्थिति है उसका जो मूल कष्ट है वो दूर कैसे होगा। मूल कष्ट हमारा दैहिक नहीं है। तापत्रय बताते हैं उपनिषद्, तीन तरह के कष्ट होते हैं — पहला कष्ट होता है, ‘आधिभौतिक’, कौनसा होता है?

श्रोता: आधिभौतिक।

आचार्य: वो कष्ट होता है कि मेरे पास पहनने को कपड़ा नहीं है, ये आधिभौतिक कष्ट है। मेरे पास खाने को रोटी नहीं है, मुझे तन में बीमारी लग गयी है और मैं जानता ही नहीं बीमारी है क्या, इलाज कैसे करूँ, ये आधिभौतिक कष्ट है। आधिभौतिक कष्टों का निवारण विज्ञान बखूबी करता है। आज सबके पास पहनने को कपड़ा है, खाने को रोटी है, दवाइयाँ भी लगभग सभी रोगों की बन गयी हैं, बहुत से रोग ऐसे भी हैं जिनकी नहीं बनी है, उन पर चल रहा है प्रयोग।

दूसरी श्रेणी के कष्ट होते हैं ‘आधिदैविक’, इनका भी विज्ञान ने खूब उपचार कर दिया है। आधिदैविक कष्ट कौनसे होते हैं? जो होते तो भौतिक ही हैं पर जिनके विषय में, जिनकी भौतिकता के विषय में आप जानते नहीं थे, तो आपने सोच लिया कि दैवीय बात है कोई, है तो चीज़ वो भौतिक ही, लेकिन उसकी भौतिकता आपको पता नहीं थी तो आपको लग गया कि उसमें कोई दैवीयता है। जैसे कि प्लेग फैल गया है, आप कहते थे, ‘अरे! ये तो ईश क्रोध का परिणाम है कि प्लेग फैल गया है’, विज्ञान ने बता दिया कि जो तुम्हारा दूसरी कोटि का कष्ट है, जिसको तुम ‘आधिदैविक’ बोलते हो वो भी है वास्तव में आधिभौतिक ही।

तो ये जो आधिदैविक कष्ट थे इनका भी विज्ञान ने उपचार कर दिया, इनमें से कुछ का, आधिदैविक में ये सब भी आता है, बाढ़ हो गया, भूकम्प हो गया, ज्वालामुखी फट गया कहीं पर, अतिवृष्टि हो गयी। विज्ञान इसका बहुत कुछ नहीं कर पाया है, लेकिन इतना तो कर ही देता है कि बहुत अगर बारिश होने वाली है तो आपको पूर्व सूचना मिल जाती है तो आप कुछ तैयारी कर लेते हैं। कहीं कोई बहुत बड़ा बवंडर, साइक्लोन (चक्रवात) आने वाला है तो वह भी वो पहले ही दो दिन बता देंगे कि भाई आने वाला है, इधर-उधर हो जाओ, वहाँ मत जाना। इतना तो कर दिया है। उसको रोक नहीं पाया है विज्ञान, लेकिन बता देता है कि आ रहा है, है न?

यहाँ तक कि अगर कोई दूरस्थ उपग्रह या उल्का भी आकर के पृथ्वी पर पड़ने वाली हो, तो वो भी आपको बहुत पहले ही बता दिया जाएगा, भले ही उसको रोक नहीं सकते हैं कि अब वो आकर टकराएगा-ही-टकराएगा लेकिन बता पहले ही देंगे कि आ रहा है, कुछ कर सकते हो तो कर लो। तो उसका भी कुछ कर दिया है विज्ञान ने।

और फिर उपनिषद् कहते हैं, वो कष्ट आता है जो आदमी को एकदम जीने नहीं देगा, भले ही उसने सब भौतिक कष्टों का निवारण कर लिया हो, वो होता है ‘आध्यात्मिक कष्ट’। आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक — यहाँ पर आकर विज्ञान हाथ खड़े कर देता है। वो ये नहीं कहता कि आध्यात्मिक कष्ट का हमारे पास कोई निवारण नहीं है, वो कहता है, ‘आध्यात्मिक कष्ट है ही नहीं', पर आप कहेंगे, ‘लेकिन मुझे है न, मैं जानता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ, मैं सो नहीं पाता रात में, मुझे है कष्ट।’ वो कहेगा, ‘तुम सो इसलिए नहीं पा रहे हो क्योंकि तुम्हारे पास अभी भौतिक सुख कम है।’

तो जैसे आधिदैविक कष्ट निकला क्या वास्तव में? आधिभौतिक। 'उसी तरह से' — अब मैं वैज्ञानिक की तरह बोल रहा हूँ, वैज्ञानिक कहेगा — 'उसी तरह से ये जो तुम आध्यात्मिक कष्ट बता रहे हो न, ये भी है आधिभौतिक ही।’ आप कहेंगे, ‘क्या पता इसकी बात सही हो। अच्छा ठीक है, जो मुझे लग रहा है मेरा आध्यात्मिक कष्ट है वो आधिभौतिक है, तो कुछ भौतिक उपचार भी कर दो उसका।’

तो विज्ञान कहेगा, ‘ठीक है, जाओ पैसा थोड़ा और कमा लो और ये एक नयी तरह की टेक्नोलॉजी आयी है और यहाँ (सिर पर हाथ रखते हुए) इसको ऐसे लगा लिया करो, टोपा पहन लो, नया टोपा है और ये तुमको रात में सुला देगा।’ आप कहेंगे, ‘ठीक है, विज्ञान ने बढ़िया खोज की', आप उसको ले आएँगे। आपको दो-चार दिन उससे लाभ भी होगा और फिर आप पाएँगे कि लाभ और हो नहीं रहा है। आप फिर आएँगे विज्ञान के पास, तो विज्ञान कहेगा, ‘ठहरो! अभी खोज जारी है, अभी रिसर्च चल रही है, हम आगे और नयी ईज़ाद करके तुमको दे देंगे, उससे तुमको लाभ हो जाएगा।’ आप कहेंगे, ‘ठीक है।’ फिर विज्ञान कहेगा, ‘लेकिन ईज़ाद करने के लिए हमको फंड्स (कोष) की ज़रूरत है, वो तुम दोगे।’ तो आप फिर उन्हें फंड्स देंगे। वो और नयी खोज करके लाएँगे कि आपकी जो दिल को खाये जा रही है तड़प, वो किसी तरीक़े से कम हो।

वो कुछ दिन काम भी करेगी चीज़, मान लो उन्होंने कोई दवाई दे दी, कहेंगे, ‘ये पिल्स (गोलियॉं) हैं, इनको सोते वक़्त फाँक लेना, इससे खट से नींद आ जाएगी और जितना दिमाग में फ़ितूर है उड़ जाएगा।’ उससे भी कुछ लाभ होगा। पर आप कहेंगे, ‘लाभ जो वास्तव में चाहिए था वो मिल भी नहीं रहा और कई तरीक़े के उससे नुक़सान और हो रहे हैं।’ और जाएँगे कि देखिए साहब आपने ये दिया, गड़बड़ है।’ ‘ठहरो, अभी खोज जारी है। और खोज और आगे बढ़ सके इसके लिए हमें फंड्स चाहिए।’ वही सब चल रहा है।

अभी तड़प को हटाने का एक ये नया तरीक़ा है कि आदमी की उम्र बढ़ा दो, क्योंकि सबसे बड़ा डर तो मौत का डर होता है। तो पूरी दुनिया अगर सो नहीं पा रही है चैन से तो उसकी वजह है मौत का डर। तो एक काम करते हैं, मौत को पीछे धकेलते हैं डेढ़-सौ, दो-सौ, ढाई-सौ करते हैं, उससे लोगों में सुख-शान्ति, चैन व्यापेगा।

कैसा लग रहा है ये सब? सबकुछ ठीक है, दो-तिहाई मामला ठीक है, आधिभौतिक तक भी ठीक है, आधिदैविक तक भी ठीक है। सिर झुका दो न तीसरे पर आकर के कि इसके विषय में हम कुछ कह नहीं सकते, चुप हो जाओ। और अगर मैं विज्ञान के पक्ष से बोलूँ तो विज्ञान चुप ही है। ग़लती वैज्ञानिकों की नहीं है, ग़लती व्यापारियों की है। जो काम विज्ञान कर ही नहीं सकता, व्यापार उससे वो काम करवाना चाह रहा है। विज्ञान ने कब कहा कि मेरा क्षेत्र है मनुष्य का सुख-चैन? विज्ञान ने तो ऐसा दावा भी नहीं करा, पर हम विज्ञान और विज्ञान से उठी टेक्नोलॉजी को इस्तेमाल करना चाहते हैं चैन पाने के लिए।

कोई वैज्ञानिक कभी नहीं कहेगा कि मैं इनर पीस (अन्दरूनी शान्ति) ट्रैंक्विलिटी (स्थिरता), वेलनेस (कल्याण) पर रिसर्च कर रहा हूँ, कोई वैज्ञानिक कहता है क्या? किसी साइंस जर्नल में आपने ये सब बातें पढ़ीं? वो नहीं कहते, लेकिन वो जो भी खोजकर के लाते हैं उससे फिर हम क्या बनाते हैं? टेक्नोलॉजी बनाते हैं, गैजेट्स बनाते हैं और उन गैजेट्स का आपके पास क्या कह कर विज्ञापन आता है व्यापारियों द्वारा? 'इससे तुमको हैप्पीनेस (खुशी) मिल जाएगी।’

अब साइंस ने तो कभी नहीं कहा कि मैं हैप्पीनेस दे सकता हूँ, कोई रिसर्च लैब (शोधशाला) का कभी ये नाम होता है, ‘हैप्पी लैब’, कभी होता है? विज्ञान कभी नहीं बोलता हैप्पीनेस दे दूँगा, पर विज्ञान पर आधारित आप टेक्नोलॉजी बनाते हो, उस टेक्नोलॉजी को आप कमर्शियलाइज़ (व्यवसायीकरण) करते हो, फिर उसको विज्ञापित ऐसे करते हो कि इससे आपको पीस (शान्ति) और हैप्पीनेस और ये सब मिल जाएगा। तो ग़लती वैज्ञानिकों की भी नहीं, व्यापारियों की है, वो विज्ञान का इस्तेमाल करते है मुनाफ़ाखोरी के लिए, क्योंकि उनको लगता है मुनाफ़े से उनको चैन मिल जाएगा, बात ये अलग है कि उनको भी मुनाफ़े से चैन मिलता नहीं।

जिससे चैन मिलना है उसको वो मूल वृत्ति ही स्वीकार नहीं करती जिससे विज्ञान का जन्म हुआ था, वो कौन सी वृत्ति थी? विज्ञान को जन्म किसने दिया था?

श्रोता: देहभाव ने।

आचार्य: जिससे चैन मिलना है, देहभाव उससे थर्राता है, क्यों? क्योंकि जिससे चैन मिलना है वो बात ही यही है कि देहभाव व्यर्थ है। जिससे चैन मिलना है वो बात ही यही है कि देहभाव व्यर्थ है, तो देहभाव उससे थर्राता है। तो कुल-मिलाकर के हमारी हालत ये है कि हम जो कुछ कर रहे हैं वो हमारे काम तो बहुत आ नहीं रहा तीसरे तल पर आकर। पहले दोनों में ठीक है, काम आ चुका।

तीसरे तल पर वो हमारे काम तो आ नहीं रहा, लेकिन फिर भी हम ये मानने को ही तैयार नहीं है कि हम असफल हैं, क्योंकि अगर मान लिया कि हम असफल हैं तो अपने विषय में एक बहुत मूल मान्यता त्यागनी पड़ेगी, कौनसी मूल मान्यता? 'देह ही तो हैं हम और चूँकि हम देह हैं इसीलिए दूसरी देहों से हमें शान्ति, तृप्ति मिल जानी है।' दूसरी देह माने कोई जीवित देह आवश्यक नहीं, ये माइक भी एक देह है, ये कप भी एक देह है। 'हम पदार्थ हैं और पदार्थ ही हमको तृप्ति दे देगा।’

समझ में आ रही है पूरी बात ये?

विज्ञान को विज्ञान का काम करने दीजिए, पर जो काम विज्ञान नहीं कर सकता उससे वो काम मत करवाइए; कुल सार इतना है। भौतिक जगत को जानना बहुत आवश्यक है और विज्ञान बहुत-बहुत महत्वपूर्ण है, अति महत्वपूर्ण है विज्ञान। विज्ञान न हो तो आदमी अपनी ही आदिम, पाशविक धारणाओं और अन्धविश्वासों के तले मर जाएगा।

चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण लगेंगे और वो कहेगा कि वो कोई राक्षस है जो जाकर के चाँद को खा गया इसलिए दिख नहीं रहा। विज्ञान न हो तो हमारी मूर्खतापूर्ण कल्पनाओं को पर लग जाएँगे और हम कोई भी फिर धारणा बना लेंगे, उस धारणा को तोड़ने कौन आएगा?

विज्ञान ने बहुत उपकार किया है मानव जाति पर, लेकिन विज्ञान से वो काम मत करवाइए जिसके लिए वो बना ही नहीं है, जिसके लिए वो स्वयं परिभाषागत रूप से इनकार करता है।

समझ में आ रही है बात?

अध्यात्म को छोड़ दीजिए, विज्ञान को अध्यात्म में मत लाइए और अध्यात्म को वैज्ञानिक बनाने का प्रयास मत करिए। बचिएगा ऐसे लोगों से और किताबों से, जहाँ अध्यात्म में क्वांटम थ्योरी वगैरह डाली जाती हो। विज्ञान अलग है, उसका क्षेत्र भौतिक है। क्वांटम फिजिक्स (क्वांटम भौतिकी), न्यूक्लियर साइंस (परमाणु विज्ञान), एनर्जी (ऊर्जा), वाइब्रेशंस (कम्पन) ये सब किसके क्षेत्र के हैं? ये विज्ञान के क्षेत्र में हैं। किसी को अध्यात्म में इन क्षेत्रों का, इन शब्दों का उपयोग करते देखिए तो तुरन्त हटिए वहाँ से।

ये दोनों बराबर की ग़लतियाँ हैं, सोचना कि विज्ञान आध्यात्मिक काम कर देगा, बहुत बड़ी भूल है और सोचना कि अध्यात्म की प्रक्रिया में वैज्ञानिक शब्दावली का प्रयोग हो सकता है या वैज्ञानिक खोजों का लाभ लिया जा सकता है, वो भी बराबर की भूल है। मन है भाई, उसको क्या लेना-देना है क्वांटम थ्योरी से, उसको प्रेम चाहिए। तुम वहाँ घुसकर के बता रहे हो कॉन्शियसनेस में ये, वो, फ़ालतू की बातें और कह रहे हो कि देखो हमारे शास्त्रों में जो लिखा है, मॉडर्न फिजिक्स (आधुनिक भौतिकी) भी उसी को सिद्ध करती है। ये क्या मूर्खता है!

फिजिक्स का मतलब ही है वो जो फिज़िकल भर से ताल्लुक़ रखे। आपके शास्त्रों ने फिज़िकैलिटी माने भौतिकता से ताल्लुक़ रखा है? तो शास्त्रों में फिजिक्स कहाँ से आ गयी? शास्त्र का अर्थ ही है वो जो कि मात्र अहम् वृत्ति और उसकी मुक्ति की बात करे, उसको शास्त्र कहते हैं। इधर-उधर की बात कोई अगर किताब या ग्रन्थ कर रहा है तो वो शास्त्र कहलाएगा ही नहीं।

शास्त्र क्या है? जो बात करे मात्र अहम् वृत्ति और उसकी मुक्ति की। अब उसमें अगर दूध, पनीर, घी, खोया और दुनिया-ज़हान का यही सब चल रहा है अदरक, लहसुन तो वो शास्त्र कहाँ से हो गया? मन को कल्पनाओं से मुक्त कराना अध्यात्म है। मन को मन की ही सामग्री से मुक्त कराना अध्यात्म है।

या मन को और कल्पनाएँ देना और सिद्धान्त देना और सामग्री देना, ये अध्यात्म है? मन तो जो जानता है, उसके ही बोझ तले दबा हुआ है, तुम उस पर और बोझ क्यों डाल रहे हो? सौ और बातें उसमें क्यों तुम डाल रहे हो? मन को अज्ञान से नहीं, झूठे ज्ञान से मुक्ति चाहिए। और झूठा ज्ञान माने कौनसा? यही सब लौकिक बातें, भौतिक बातें, मटीरियल और वर्ल्डली बातें उसमें घुसी हुई हैं और जिसको उसने महत्वपूर्ण मान लिया। मन तो उन्हीं से परेशान है पहले से ही, तुम और ज़्यादा फिज़िकैलिटी क्यों मन में डाल रहे हो? इतने सारे सिद्धान्त तुमने गढ़ लिये और मन ढो रहा है उन सिद्धान्तों को और रो रहा है, और तुम और नये-नये सिद्धान्त बना रहे हो कि सात प्रकार का ये होता है, अठारह प्रकार का ये होता है, तीन प्रकार का ये होता है, क्यों कर रहे हो ये सब?

और फिर इन सब बातों को कह रहे हो कि ये बातें साइंटिफ़िक (वैज्ञानिक) हैं इसीलिए मानो। अरे बाबा, अध्यात्म के क्षेत्र में अगर कोई बात साइंटिफ़िक है तो मानने लायक़ नहीं है फिर। इसलिए नहीं कि वो साइंटिफ़िक है, इसलिए क्योंकि साइंस का ताल्लुक़ सिर्फ़ मटीरियल से है।

तो आप अगर कह रहे हो कोई बात साइंटिफिक है, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वो बात ग़लत है, इसका मतलब है कि वो बात मटीरियल है। आप मेरे पास कोई बात लेकर आओ, बोलो कि ये बात पूरे तरीक़े से साइंसटिफ़िकली वैलिड (वैज्ञानिक मान्य) है', मैं कहूँगा, ‘वैलिड होगी, लेकिन अगर साइंटिफ़िक है तो इसका मतलब मटीरियल है, फिज़िकल है और अगर फिज़िकल है तो अध्यात्म में उसका क्या उपयोग है भाई?' अध्यात्म का तो अर्थ ही है जो कुछ फिज़िकल है उसकी सीमाओं को जानना और उन सीमाओं से हटना। साइंटिफ़िक बात काहे को लेकर आ गये मेरे पास?

साइंस से इनकार नहीं है, पर हम साइंस की सीमाएँ जानते हैं न। फिज़िकल के आगे साइंस का कोई महत्त्व है ही नहीं। समझ में आ रही है बात?

लेकिन जिन लोगों को अध्यात्म से कुछ लेना-देना नहीं होता, उनको ये बात बड़े गर्व की लगती है, ‘देखो, स्पिरिचुअल (आध्यात्मिक) बात थी और उसका वैलिडेशन (सत्यापन) साइंस ने दे दिया’ और एकदम ज़ोर से चिल्लाएँगे, कहेंगे, ‘देखो, हमारे पुराणों में लिखी थी, आज नासा भी वही बात बोल रहा है।’

(श्रोता हॅंसते हुए)

तुम पागल हो गये हो? पहली बात तो किसी भी ग्रन्थ में अगर भौतिक बातें लिखी हुई हैं तो वो ग्रन्थ आध्यात्मिक नहीं है, नहीं है, नहीं है! और दूसरी बात, विज्ञान की कोई प्रयोगशाला, स्पेस की कोई एजेंसी बड़ी-से-बड़ी बात भी करेगी तो किसके बारे में करेगी? मटीरियल वर्ल्ड के बारे में ही करेगी। वो मटीरियल वर्ल्ड तो पहले ही तुम्हें मिला हुआ है, वही तुम्हारा बोझ है। और नयी बात मटीरियल वर्ल्ड की लेकर के क्यों तुम अपना कष्ट बढ़ा रहे हो?

मन होता है न परेशान? बस मन है जो परेशान है। और मन क्यों परेशान है? क्योंकि अपने ही स्वरूप से अपरिचित है। उस अपरिचय, उस अज्ञान के कारण तरह-तरह की वृत्तियाँ पैदा हो जाती हैं — डर आ जाता है, लालच आ जाता है, ईर्ष्या आ जाती है, मोह आ जाता है, है न? बस यही है, कुल इतना सरल है अध्यात्म, इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है अध्यात्म। बाक़ी सब क्या है? क़िस्सेबाज़ी, गप्पखोरी।

और चूँकि मन परेशान है इसीलिए उसको मनोरंजन बहुत अच्छा लगता है, तो गुरुओं ने तरीक़ा निकाल लिया गप्पखोरी का, गप्पे उड़ाओ, और ऐसे (विस्मय का भाव व्यक्त करते हुए) मृत्यु के बाद ऐसा होता है, ऐसे-ऐसे करके, धीरे-धीरे साँप की तरह रेंगते हुए जीवात्मा बाहर निकलती है। कितना रोचक लगता है, देखे ही जा रहे हैं, देखे ही जा रहे, 'वाह! मज़ा आ गया! कि अभी नहीं मरा, अभी पूरा नहीं मरा, अभी अस्सी प्रतिशत मरा है, अभी धीरे-धीरे मर रहा है।’

क्यों अपना ही नाश कर रहे हो इन सब बातों में घुसकर? तुम्हारी समस्या ये थोड़े ही है कि मरने के बाद कितने दिन में मरोगे। तुम्हारी समस्या ये है कि जी नहीं पा रहे हो। जी पा नहीं रहे हैं, मौत में ज़्यादा रुचि है। गप्पबाज़ी से मन नहीं भरेगा, उससे तो पेट भी नहीं भरता।

कुछ बनी बात या वैसे ही सब?

प्र: हमें पता है कि विज्ञान की एक सीमा है और अध्यात्म का क्षेत्र उससे आगे है।

आचार्य: आगे नहीं है, अलग आयाम पर है। विज्ञान से आगे जो है, वो, वो है जिस तक विज्ञान अभी पहुँचा नहीं है, पर कल पहुँच जाएगा। देखो, तीन अलग-अलग चीज़ें होती हैं — ज्ञात, अज्ञात और अज्ञेय। ज्ञात से आगे अज्ञेय नहीं होता, ज्ञात से आगे?

श्रोता: अज्ञात होता है।

आचार्य: ज्ञात माने जो आज पता है, अज्ञात माने जो कल पता होगा। ज्ञात और अज्ञात दोनों किसके क्षेत्र में आते हैं? विज्ञान के। अच्छे से समझो, सिर्फ़ इसलिए कि कोई चीज़ आज अज्ञात है, वो अध्यात्म के क्षेत्र में नहीं आ गयी। ज्ञात और अज्ञात ये एक ही तल है, ज्ञात (हाथ से सामने की ओर इंगित करते हुए) और अज्ञात (हाथ को उसी दिशा में आगे बढ़ाते हुए)। अज्ञेय यहाँ पर है (हाथ से आकाश की ओर इंगित करते हुए)। ‘ज्ञात’ आगे बढ़ रहा है लगातार, इतिहास की पूरी गति ज्ञात को बढ़ाने की ही है, अज्ञात को हम निरन्तर कम करते जा रहे हैं। लेकिन ज्ञात और अज्ञात दोनों मानसिक क्षेत्र में, दोनों भौतिक क्षेत्र में आते हैं और दोनों किसके प्रतिपाद्य विषय हैं, किसका सब्जेक्ट मैटर (विषय-वस्तु) हैं? विज्ञान का। ज्ञात और अज्ञात दोनों विज्ञान का सब्जेक्ट मैटर हैं।

सिर्फ़ इसलिए कि आज आपको कोई चीज़ नहीं पता, ये मत कह दीजिए कि वो मिस्टिकल (रहस्यमयी) है। ये ऐसी सी बात है कि जैसे प्लेग वाली बात या सूर्यगहण-चन्द्रग्रहण वाली बात या और कितनी ही चीज़ें हैं जो आज आपको पता हैं पर पहले कभी नहीं पता थीं। तो तब लोग क्या बोल देते थे? सब पंडे-पुरोहित, गुरु लोग, पादरी लोग आकर क्या बोला करते थे? 'क्रोध है,श्राप है, मिस्टिकल है कुछ!'

मिस्टिकल कुछ नहीं है, वो फिज़िकल फिनोमिना ही थे। सिर्फ़ इसलिए कि कोई चीज़ आज पता नहीं है, उसको आध्यात्मिक मत मान लीजिएगा।

अध्यात्म ज्ञात और अज्ञात से परे अज्ञेय है। अज्ञेय क्यों है? क्योंकि यदि वो ज्ञात हो पाएगा तो ज्ञाता भी शेष रह जाएगा, ज्ञाता कौन है? ज्ञाता हमेशा कौन होता है? जल्दी-जल्दी करा करो, प्रवाह टूटता है (श्रोतागण से कहते हुए), ज्ञाता हमेशा कौन होता है?

श्रोतागण: मन।

आचार्य: अगर ज्ञान शेष रह गया या ज्ञेय वस्तु शेष रह गयी, तो ज्ञाता को भी बचना पड़ेगा न? और ज्ञाता क्या है? स्वयं अपना कष्ट। और अगर ज्ञाता शेष रह गया तो कष्ट शेष रह गया, ठीक है? इसलिए अज्ञेय का होना आवश्यक है। अगर सबकुछ ज्ञात और अज्ञात में ही रहेगा, तो फिर हमारा कष्ट भी सदा बचा ही रहेगा।

कुछ है जो जान लिया, तो जो जानने वाला है वो बैठा हुआ है मोटा होकर के, ‘मैंने जान लिया! मैंने जान लिया!’ कुछ है जो अभी नहीं जाना, जानने वाला अभी भी बैठा हुआ है तैयार होकर के, ‘मैं जानूँगा, मैं जानूँगा।’ दोनों ही स्थितियों में एकदम तैयार होकर कौन बैठा है? जानने वाला। जो जानने वाला है वो अपना ही अभिशाप है। जो जानने वाला है वो अपने लिए ही तकलीफ़ है बहुत बड़ी। तो अज्ञेय का अर्थ होता है कि जो जानने वाला है वो स्वयं से हट जाए, वो शून्य हो जाए। अज्ञेय का मतलब कोई वस्तु नहीं होती कि यहाँ पर ज्ञात है मामला (मेज़ के एक सिरे को इंगित करते हुए), यहाँ पर अज्ञात है मामला (मेज़ के दूसरे सिरे को इंगित करते हुए) और यहाँ पर (हाथ को ऊपर करते हुए) एक मामला बैठा हुआ है, उसका नाम है अज्ञेय। कोई वस्तु नहीं है अज्ञेय।

अज्ञेयता का अर्थ बस ये होता है कि जो ज्ञाता है वो स्वयं से हट जाए, अपने प्रति जो उसका मोह है वो कटे, वो जो ख़ुद को ही पकड़कर बैठा हुआ है, उसकी पकड़ ढीली हो जाए।

अज्ञेयता का बस इतना सा अर्थ है, ठीक है? तो इस भूल में मत रहिएगा। आपके पास इस तरह का बहुत सारा साहित्य आता होगा, ये व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी वाले वीडियो आते होंगे कि वो फ़लानी आकाश गंगा है उसमें ऐसी हलचल पायी गयी है और वहाँ पर और नये क़िस्म का मनुष्य पाया गया है और ये बात स्पिरिचुअल या मिस्टिकल है। आकाश गंगा में कहीं कुछ भी हो रहा है वो क्या होगा? मटीरियल , तो उसका अध्यात्म से क्या लेना-देना भाई!

कहीं पर किसी विशेष प्रकार का कोई जीव देखा गया है, कुछ भी देखा गया हो — नर, मुनि, यति, देवता, गन्धर्व, किन्नर कुछ देखा गया हो — वो सब किसके द्वारा देखा जाता है? उसका चिन्तन-मनन कौन करता है? तो वो सब क्या हुआ?

श्रोता मटीरियल।

आचार्य: तो क्या वो अध्यात्म की विषय-वस्तु बना? नहीं बना। वो बहुत रोचक लग रहा होगा, उसको हम क़िस्से-कहानी के क्षेत्र में डाल देंगे, वहाँ चले वो अच्छी बात है, उसको आध्यामिक नहीं कहिएगा।

प्र: असल में जो अभी आपने बात की फिर से कि जो अध्यात्म का क्षेत्र है वो फिज़िकल से अलग है, क्या मैं सही समझ रहा हूँ आपकी बात?

आचार्य: क्या शब्द बताऊँ! अतीत कह देते हैं, परे कह देते हैं, बियॉन्ड कह देते हैं, ट्रांसेंडेंटल कह देते हैं।

प्र: वो मटीरियल नहीं है?

आचार्य: वो कोई चीज़ नहीं है, वो कोई चीज़ है ही नहीं। दिक्क़त क्या होती है कि हम कहते हैं, ‘कुछ चीज़ें मटीरियल हैं और कुछ ख़ास चीज़ें स्पिरिचुअल हैं, कोई स्पिरिचुअल चीज़ होती ही नहीं, यदि चीज़ है तो मटीरियल ही है।

प्र: तो फिर वेदान्त का जो विषय-वस्तु है, फिर वो क्या है?

आचार्य: यही। इतनी बार तो बोला!

श्रोता: अज्ञेय।

आचार्य: नहीं, अज्ञेय नहीं, अज्ञेय एकदम नहीं। उपनिषद् समागम मेरे साथ किन्होंने करा है? उपनिषदों में मेरे साथ कौन रहे हैं? अरे, हाथ पूरा उठा दीजिए न, कोई अपराध थोड़े ही करा था (श्रोतागण से कहते हुए)। हम बार-बार क्या बोलते थे? उपनिषदों का प्रतिपाद्य विषय क्या है?

श्रोता: अहम्।

आचार्य: क्या हम बोलते थे कि ब्रह्मज्ञान के लिए हैं उपनिषद्? सौ बार समझाया था, उपनिषद् किसके ज्ञान के लिए हैं? माया के ज्ञान के लिए। वेदान्त आपको माया का ज्ञान कराता है। ब्रह्म को तो छोड़ो, ब्रह्म को तुम क्या जानोगे, अज्ञेय उसको ऐसे ही बोल दिया? है अज्ञेय, पर और उपनिषद् पढ़कर जान जाएँगे, हम हैं न! ऐसे कैसे जान जाओगे? जानने वाला शेष न रहे, उसको कहते हैं ‘ब्रह्मत्व’ और तुम कह रहे हो, ‘ब्रह्म को जान जाएँगे!’ जानने के लिए अभी कोई बचा हुआ है तो ब्रह्म कहाँ?

प्र: मेरी समस्या यही थी कि बाई डेफ़िनेशन (परिभाषिक रूप में) जो ब्रह्म है उसको जानते थे। जो मैंने सुना है, जिसके बारे में आप सोच भी नहीं सकते, जान नहीं सकते।

आचार्य: वो परिभाषा थोड़े ही हुई उसकी। ब्रह्म की परिभाषा नहीं, ब्रह्म सब परिभाषाओं के अतीत है। क्यों कहा जाता है? कारण मनोवैज्ञानिक है, जो कुछ भी परिभाषाओं के अन्तर्गत आता है उससे तुमने दुख ही पाया है। ब्रह्म को भी तुम परिभाषित कर दोगे तो वो भी दुख का नया कारण बन जाएगा तुम्हारे लिए, तो इसलिए कहते हैं कि ब्रह्म परिभाषित नहीं हो सकता। परि माने जो बाहर है, बाहर माने जो चीज़ आपकी सीमा खींचती है।

ब्रह्म असीम है, उसकी सीमा मत खींचो। क्योंकि जो कुछ भी सीमित है आज तक उससे सन्तुष्ट हो पाये क्या? कितना भी कुछ मिल गया हो, यदि उसकी कहीं सीमा है तो रो पड़ते हो न? किसी से प्रेम माँगते हो, प्रेम एक जगह आकर रुक जाता है, कोई अनन्त प्रेम नहीं दे सकता, रोने लग जाते हो न?

रुपया-पैसा कमाते हो, तुम्हारे पास सौ-करोड़ आ गया, एक-सौ-एकवे करोड़ के लिए रो रहे हो न? जो कुछ भी सीमित है उसकी सीमा पर आकर रो पड़ते हो, तो इसीलिए ब्रह्म ‘अपरिमित’ कहा गया, ‘परि’ शब्द उस पर नहीं लगता, तो परिभाषा भी नहीं लगेगा, वो ‘अपरिमित’ है।

प्र: तो फिर ये टर्म ही कहाँ से आ गया?

आचार्य: मत लाओ न टर्म , बुद्ध मौन रहे थे इसीलिए। बुद्ध बोले, ‘टर्म भी दे देते हैं तो तुम उसके साथ बड़ा व्यभिचार कर लेते हो’, वो बोले, ‘कुछ नहीं।’ उनसे कोई पूछता था, ‘सत्य बताओ।’ मौन, चुप! बोलते थे, ‘असत्य बताऊँगा, तुम्हारे एक-एक असत्य की पोल खोलूँगा, सत्य नहीं बताऊँगा।’

प्र: क्योंकि मेरा डाउट (सन्देह) यही था कि जब उसके बारे में कुछ बात ही नहीं कर सकते, सोच भी नहीं सकते।

आचार्य: यही।

प्र: तो आचार्य जी की दस-दस, बीस-बीस वीडियो पड़ी हुई हैं परमात्मा के ऊपर, भ्रम के ऊपर?

आचार्य: उन सारी विडियोज़ में मैंने बात किसकी करी है?

श्रोता: अहम् की।

आचार्य: मेरा तो लेना-देना ही उसी से है, ब्रह्म की कौन बात करेगा, क्यों करूँ? हम यहाँ आज तीसरे दिन पर आ गये हैं, हमने ब्रह्म विषयक कितनी चर्चा करी भाई? कितनी करी है? और यही सब बातें तो वीडियो बनकर जाएँगी, इनमें ब्रह्म कहाँ था? था कहीं? दुनिया भर की माया हमने खोल दी।

प्र: और एक डाउट और रह गया है। जो अभी आपने तीन कष्टों की बात की थी उसमें आपने जो थर्ड-वन (तीसरा) बताया था कि वो विज्ञान के आउट ऑफ़ स्कोप (दायरे से बाहर) है।

आचार्य: मन का है, विज्ञान ही नहीं मन के आउट ऑफ़ स्कोप है।

प्र: तो वो है ही, ये कैसे पता फिर?

आचार्य: नहीं है।

प्र: तो फिर वो थर्ड कैटेगरी (तीसरी श्रेणी) आ कहाँ से गयी?

आचार्य: नहीं है, मानो कि नहीं है।

प्र: दो ही हैं फिर?

आचार्य: दो ही हैं। मैं कह दूँ 'है’, तो उसी मुँह से, उसी ज़बान से बोलूँगा जिस मुँह से मैं बोलता हूँ कि ये मेरी ब्लैक टी (चाय के कप को इंगित करते हुए) है, तो दिक्क़त हो जाएगी न? मैंने उसको भी कैसा बना दिया? ब्रह्म को भी ब्लैक टी के तल पर उतार दिया। उसी मुँह से बोल रहा हूँ कि ये चाय है, अस्ति, और उसी मुँह से बोल रहा हूँ कि ब्रह्म भी है, अस्ति। अस्तित्वमान तो मैंने दोनों को बना दिया, तो दोनों को एक ही तल पर ला दिया।

जिस अर्थ में ये चाय है, उस अर्थ में ब्रह्म बिलकुल-बिलकुल भी नहीं है, एकदम नहीं है, है ही नहीं!

प्र: बड़ी समस्या हो रही है हज़म करने में।

आचार्य: चलो मुझे बहुत सन्तोष है कि कम-से-कम समस्या की शुरुआत हुई। समस्या से पहले जो था वो अन्धविश्वास था, स्वयं को ही लेकर और ब्रह्म को लेकर। अब दिक्क़त ये है कि या तो मानो कि ब्रह्म है या मानो ‘मैं हूँ’। क्योंकि मैंने एक बात साफ़ कर दी कि ब्रह्म और चाय एक साथ दोनों सत्य नहीं हो सकते। हम नहीं कह सकते कि चाय है और साथ-ही-साथ ब्रह्म भी है। तो दोनों एक साथ तो हो नहीं सकते, अब फँस गये तुम। या तो अब इसको (चाय को इंगित करते हुए) और ये क्या है? ये, ये (शरीर को इंगित करते हुए) है, क्योंकि ये कहाँ गयी? आधी तो ग़ायब होकर अन्दर (शरीर में) चली गयी थी, ये (चाय) तो ये (शरीर) ही है।

हमने कह दिया, या तो ये (शरीर) होगा या ब्रह्म होगा, अब तुम इसलिए फँस गये हो; समस्या ये है। अब अगर इसको (शरीर को) मानते हो तो ब्रह्म नहीं है। आरोप क्या लगता है? 'नास्तिक कहीं का! ब्रह्म को नहीं मानता।' और अगर ब्रह्म को मानता है तो ये (शरीर) नहीं है, तो फिर फँस गये कि मैं ही नहीं हूँ। दोनों में से एक को चुनना पड़ेगा, यही अध्यात्म है।

प्र: थोड़ा और समझा सकते हैं प्लीज़ ?

आचार्य: क्या समझाऊँ? अब इसके आगे नहीं काम बनता। शेख़ फ़रीद का है — ‘वो है प्रेमी मेरा, मुझे बुला रहा है। अब बारिश हो रही है खूब और रास्ते में कीचड़ हो गया है। अब उसकी ओर अगर जाती हूँ, तो पहली बात भीगूँगी। दूसरी बात, कीचड़-ही-कीचड़ हो जाएगा कपड़ों पर। तीसरी बात, कीचड़ होगा तो पूरा ज़माना जान जाएगा कि बाहर निकली थी रात में कहीं, किसी से मिलने। और न जाऊँ तो प्रेम टूटता है।’ बस यही जो द्वन्द्व है, अध्यात्म के मूल में है। या तो ख़ुद को बचा लो, या जो बुला रहा है उसकी तरफ़ चले जाओ।

ये है! या तो चाय को मान लो कि है या ब्रह्म को मान लो कि है।

प्र: क्या दोनों रास्ते ठीक हैं?

(श्रोतागण हँसते हुए)

आचार्य: प्यार करो तो जानो, मैं क्या बताऊँ इसमें?

प्र: क्योंकि मेरा यहाँ आने का मक़सद यही था, क्योंकि मैंने आपकी काफ़ी सारी वीडियोज़ देखी हैं। मैं एक एग्नोस्टिक (अज्ञेयवादी) कहें या एथीस्ट (नास्तिक) कहें, मेरा झुकाव उस तरफ़ है। लेकिन फिर मैंने आपकी काफ़ी सारी वीडियोज देखीं तरह-तरह के टॉपिक्स (विषयों) के ऊपर और वो लॉजिकल (तार्किक) लगीं मुझे। तो फिर एक श्रद्धा का भाव आ जाता है कि सारी चीज़ें सही बता रहे हैं, तो हो सकता है कि मैं ग़लत समझ रहा हूँ। और हो सकता है कि ये चीज़ भी सही हो, लेकिन मेरी अभी समझ में नहीं आ रही है। तो मेरा आने का मक़सद यही था यहाँ पर कि मैं जान पाऊँ, क्योंकि समझने में बड़ा मुश्किल है ये सब, पराभौतिक वाली चीज़ें जो भी हैं।

आचार्य: कौन कह रहा है कि वो चीज़ें समझने के लिए हैं? समझना बड़ी हिंसक बात होती है। तुम जिस चीज़ को समझ जाते हो उसको खा जाते हो। समझना नहीं होता, सिर झुकाना होता है। अपनी सीमाओं को स्वीकार करना होता है कि यहाँ तक हूँ, इसके आगे का कुछ कह नहीं सकता। चुप, मौन, समर्पण, बस।

प्र: लेकिन उसमें लगता है कि ये तो अतार्किक सी बात हो गयी।

आचार्य: तर्क को निरंकुश नहीं बनने देना चाहिए। तर्क क्या है? तर्क की क्या परिभाषा है? कितनी दूर तक जाएगा तर्क? परिभाषा भी छोड़ो, तर्क का स्रोत क्या है ये भी जानते हो? तर्क कहाँ से उठता है? तर्क स्वयं आत्मरक्षा को उद्यत वृत्ति से उठता है। कभी कोई तर्क कहेगा कि तर्क ही नहीं है, नास्ति? तर्क और कुछ भी बोल ले, एक बात ज़रूर बोलेगा — इसी से समझ जाओ कि तर्क की जाति क्या है, जाति माने उद्गम, जहाँ से वो जात, जन्म लेता है — तर्क हमेशा ये तो कहेगा-ही-कहेगा कि तर्ककार वैध है। तर्क के लिए बहुत आवश्यक है अपनेआप को वैध, वैलिड (वैध) मानना।

तर्क ये तो कह सकता है कि ये वाला तर्क, कोई विशेष तर्क अवैध है, लेकिन तर्ककार को तो हमेशा वैध ही मानता है न, जो लॉजिशियन (तर्ककार) है। लॉजिक अभी ग़लत हो सकता है लेकिन क्या लॉजिशियन ग़लत हो सकता है कभी? तर्ककार ग़लत हो सकता है? नहीं न? हाँ, तो तर्क का जो छिपा हुआ उद्देश्य है उससे परिचित हो जाओ न तर्क की इतनी सेवाएँ लेने से पहले। तर्क का उद्देश्य होता है तर्ककार को बचाकर रखना, लॉजिशियन को सिक्योर्ड (सुरक्षित) रखना। और लॉजिशियन कौन है? जो दिन भर अपना पीठ खुजा रहा हो और बाल नोच रहा है, अपनी ही ज़िन्दगी से परेशान है। उसको बचाकर क्या मिलेगा? अध्यात्म यही पूछता है, तुम्हें मिल क्या रहा है ये सब करके?

और तर्क के अतीत, बियोंड जाने का मतलब अतार्किक हो जाना नहीं होता, बियोंडनेस इज़ ऑब्वियसली नॉट द सेम एज़ बीइंग इलॉजिकल। 'तर्क की सीमा है’, ये कहने का अर्थ ये नहीं है कि कुतर्क करो या अतार्किक हो जाओ, नहीं-नहीं-नहीं। तर्क बड़ी अच्छी चीज़ है, सुन्दर चीज़ है, उपयोगी चीज़ है तर्क। लॉजिक का पूरा-पूरा इस्तेमाल होना चाहिए। पर लॉजिशियन कौन हैं ये तो याद रखो न! तो वेदान्त इसीलिए बार-बार क्या कहता है? जब बहुत सारी बात हो रही होती है, चर्चा हो रही है, बहस आगे बढ़ गयी है तो बीच में वेदान्त फिर से तुम्हारे कान में फुसफुसा देगा, क्या? 'कौन है? कौन है? ये सब करने वाला कौन है? ये सब किसके लिए हो रहा है? कौन है? कोहम्?’

प्र: जैसे पहले सत्र में बात हुई थी अभ्यास की। तो जो मेरा द्वन्द्व है, क्या उसका समाधान अभ्यास ही है या कुछ और भी?

आचार्य: ये जो प्रश्न है ये प्राकृतिक रूप से नहीं उठता, ‘मैं कौन हूँ?’ अभ्यास ही करना पड़ता है। प्राकृतिक रूप से तो एक बड़ी यक़ीन भरी धारणा रहती है, ‘मैं देह हूँ और मुझे पता है, मैं देह हूँ, ये रहा मैं, ये मैं हूँ।' देह-ही-देह की ओर इशारा कर देती है तुरन्त, ये मैं हूँ, ये तुम हो और यही मेरी हस्ती का कुल विवरण है, अ टोटल डिस्क्रिप्शन ऑफ़ माय एग्ज़िस्टेंस (मेरे अस्तित्व का कुल विवरण)। क्या? ये रहा मैं (शरीर को इंगित करते हुए)।

इसके प्रति सन्देह या जिज्ञासा प्राकृतिक रूप से नहीं उठने वाला, उसका अभ्यास ही करना पड़ेगा। बार-बार पूछना होगा, ‘कहाँ से आये? कौन हो भाई?’ कोई मेहमान मिलता है न जैसे। नाम-वाम मत पूछना, नाम तो धोखा होता है। उससे पूछन, ‘कौन गाँव के हो भैया?’ विचार उठा, सशक्त विचार है बहुत, क्या पूछना है उससे? 'कौन गाँव के हो?' भावना उठी भीतर से और भावना का आवेग कितना प्रबल होता है, आदमी पूरा भावुक हो रहा है, क्रोध में गाल लाल हो रहे हैं या शोक में आँखें नम हो रही हैं, तुरन्त पूछना है, क्या? ‘कहाँ से आये?’

नाम पूछोगे, वो नाम बोल देगा, 'मेरा नाम शोक, मेरा नाम क्रोध है।' नाम में कुछ नहीं रखा। कहाँ से आये? उद्गम क्या है?

प्र: तो उससे तो मुझे ऐसा लग रहा है कि जैसे मॉडर्न न्यूरो साइंस (आधुनिक तन्त्रिका विज्ञान) या फिर साइकोलॉजी (मनोविज्ञान) हो गयी और वेदान्त दोनों का जो सब्जेक्ट है, वो एक ही है।

आचार्य: लगभग।

प्र: उससे फिर दूसरा सवाल ये आता है कि क्यों न फिर सिर्फ़ साइंस की तरफ़ चला जाए?

आचार्य: क्योंकि उसको मुक्ति से कोई मतलब नहीं है, प्रेम नहीं है उसके पास।

प्र: तो प्रेम और मुक्ति ये दोनों फिज़िकल (भौतिक) ही लगता है मुझे तो?

आचार्य: है नहीं न। प्रेम का अर्थ ही होता है जो फिज़िकल है उसके आगे का प्रेम। अगर प्रेम फिज़िकल मात्र है तो फिर वो प्रेम नहीं है, वो लिप्सा है, भोग है, आकर्षण मात्र है।

प्र: अभी आपने कहा, फिज़िकल से आगे कुछ है नहीं?

आचार्य: नहीं, है ही नहीं। तो जो है ही नहीं, उससे प्रेम।

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: ये तो पहेली हो गयी है पूरी! ‘तू है भी नहीं और हर जॉं है, तू एक गोरखधन्धा है’, तो वो बड़ा दुखदायक लग रहा है मुझे तो।

आचार्य: चूँकि वो दुखदायी और दुविधादायी दोनों होता है, इसलिए फिर मनुष्य ने एक सगुण ईश्वर की कल्पना करी, क्योंकि ज़्यादातर लोग यहीं पर आकर के अटक जाते थे, बोलते थे, ‘प्रेम करें कैसे उससे? प्रेम नहीं हो पा रहा। और आचार्य जी, आप बोलते हो मुक्ति के लिए प्रेम ज़रूरी है, प्रेम कर ही नहीं पा रहे हैं, निर्गुण से कैसे प्रेम करें? चाहते हैं पर।’

अच्छा ठीक है, तुम मूर्ति बना लो, अब कर लोगे? बना लो। तो फिर प्रेम करने के लिए एक विधि के रूप में मूर्ति की रचना की गयी। फिर और भी ऐसे निकले, बोले, ‘मूर्ति से भी नहीं हो रहा, पत्थर की है! पता तो है न पत्थर है, पता चल जाता है कि पत्थर है!’

बोले, ‘अच्छा एक काम करो, फिर तुम क़िस्से बना लो।’ तो कथाओं की रचना की गयी और उन कथाओं में उनको पत्थर का नहीं, हाड़-माँस का दिखाया गया। कि हाड़-माँस के थे, ऐसे करते थे, इस गाँव में जाते थे, इस शहर में रहते थे। ये सारे उपाय हैं, ये युक्तियाँ हैं क्योंकि तुमसे करा ही नहीं जाता है जो निर्गुण है उससे प्रेम। तो फिर तरह-तरह की युक्तियाँ निकालनी पड़ती हैं कि प्रेम कर पाओ।

प्र: सच में ऐसा ही है? क्योंकि कभी-कभी लगता है कि जो पुरानी चीज़ें हैं उनको वैलिडेट करने के लिए हम उसको अलग डायमेंशन (आयाम) में डिफ़ाइन (परिभाषित) कर रहे हैं?

आचार्य: पुरानी किसी चीज़ को क्यों वैलिडेट करना है? पुराना माने समय में और चीज़ माने पदार्थ, न हमें समय से चैन मिलना है, न पदार्थ से चैन मिलना है। तो उसको वैलिडेट करके क्या मिलना है? अध्यात्म इसलिए नहीं है कि ये पुरानी चीज़ों माने पुरानी कहानियों या परम्पराओं को ही वैधता देता रहे, सत्यापित करता रहे। आजकल होता है न, लोग बहुत ज़ोर से चिंघाड़ते हैं, कहते हैं, ‘फ़लानी परम्परा चल रही थी, अभी-अभी हमने निकाल लिया कि उसका साइंटिफ़िक आधार क्या है।’ वाह! बहुत बढ़िया, साइंटिफ़िक आधार निकाल लिया।

प्र: सर, अभी आपने प्रेम की बात की, तो प्रेम या फिर मोरैलिटी (नैतिकता) वो किस फील्ड (क्षेत्र) के सब्जेक्ट (विषय) हैं, मतलब अध्यात्म का सब्जेक्ट है या फिर साइंस भी डील कर सकती है?

आचार्य: मोरैलिटी तो पूरे तरीक़े से समाजशास्त्र और मनोविज्ञान का विषय है सोसियोलॉजी और साइकोलॉजी। प्रेम शत-प्रतिशत अध्यात्म का विषय है।

प्र: मोरैलिटी का मेरा पूछने का मतलब था कि सही या ग़लत का जो हम चुनाव करते हैं, हमारे सामने दो चीज़ें हैं?

आचार्य: वो मोरैलिटी नहीं होता, वो विवेक होता है। नैतिकता और विवेक अलग-अलग चीज़ हैं।

प्र: हाँ, तो मैं उसकी ही बात करना चाह रहा था।

आचार्य: नैतिकता में चुनाव निहित है ही नहीं, नैतिकता में तुम्हें पहले ही बता दिया गया है, क्या सही, क्या ग़लत; अब चुनना क्या है? विवेक होता है जिसमें तुम्हें मौलिक रूप से तत्क्षण अपने लिए चुनना पड़ता है कि कौनसा रास्ता मुक्ति को जाएगा, कौनसा बन्धन को जाएगा। नैतिकता का तो उद्देश्य भी मुक्ति है ही नहीं, नैतिकता का तो उद्देश्य भी है बस सामाजिक व्यवस्था को चलाते रहना, क्योंकि सामाजिक व्यवस्था नहीं चलेगी सुचारू रूप से तो दंगे हो जाएँगे।

हम इतने बेचैन लोग हैं कि हम हर समय उपद्रव और दंगे करने को तैयार रहते हैं। नैतिकता इसलिए नहीं होती कि आपको मुक्ति मिल जाए, नैतिकता जेल के नियमों की तरह होती है। क्या जेल का कोई भी नियम इसलिए होता है कि क़ैदियों को मुक्ति मिल जाए? जेल के सारे नियम इसलिए होते हैं ताकि जेल का कामकाज और प्रबन्धन सुचारु रूप से चलता रहे, नहीं तो जेल में दंगे हो जाएँगे।

तो नैतिकता का कोई भी तकाज़ा, नैतिकता का कोई भी नियम आपको जेल से मुक्ति नहीं दे देने वाला। हाँ, इतना ज़रूर होगा कि जेल में आपका सिर नहीं फूटेगा। और नैतिकता के नियमों को नहीं मानो तो भी अंजाम वही होता है जो जेल के नियमों को न मानने पर होता है क़ैदियों का; पीटे जाते हो। इम्मोरल एक्ट (अनैतिक कर्म) करो तो अभी कल्चरल पुलिस (सांस्कृतिक पुलिस) और जो तुम्हारी राज्य की पुलिस है वो आकर तुम्हें पीटेगी।

प्र: मोरलिटी मैंने ग़लत शब्द उपयोग कर दिया। जो आपने विवेक की बात की, तो विवेक भी, अगर उसको ब्रेक डाउन (टूट-फूट) किया जाए कि मान लीजिए कुछ आपको डिसीज़न (निर्णय) लेना है, तो वो भी फैक्चुअल फैक्ट्स (तथ्यपरख तथ्य) आपको लेने पड़ेंगे बिलकुल तल में जाकर। और फैक्ट्स , साइंस के माध्यम से आप जा सकते हैं वहाँ पर।

आचार्य: बिलकुल-बिलकुल।

प्र: ये सर्वोत्तम मार्ग लगता है मुझे तो। फिर तो ये साइंस के ही फील्ड में आ गयी चीज़?

आचार्य: इसीलिए तो साइंस को इतना आदर है, इसीलिए तो अगर कोई विज्ञान-विरुद्ध बात करता है तो वो व्यक्ति आध्यात्मिक भी नहीं हो सकता। विज्ञान को ठुकराकर के आध्यात्मिक आप बन ही नहीं सकते।

प्र: तो फिर विवेक वाली बात भी विज्ञान के ही क्षेत्र में है?

आचार्य: देखो, जिन दो चीज़ों में आपको चुनाव करना है, उन दो चीज़ों को जानने में विज्ञान सहायता करेगा। ध्यान से समझो, दो रास्ते हैं आपके पास, उन रास्तों में क्या रखा है ये जानने में विज्ञान आपकी सहायता करेगा। लेकिन आपका सम्बन्ध क्या है उन दोनों रास्तों से, ये विज्ञान आपको नहीं बता पाएगा। तो विवेक में विज्ञान सहयोगी ज़रूर है पर पर्याप्त नहीं। लेकिन ये बात बिलकुल ठीक है कि जो व्यक्ति वैज्ञानिक दृष्टि नहीं रखता, विवेक उसके लिए मुश्किल पड़ेगा।

प्र: क्योंकि जैसा मेरा एक्सपीरियंस (अनुभव) रहा है, शुरू में मैं काफ़ी नॉनवेज (माँसाहार) वगैरह खाया करता था। फिर जब से थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन (विकास का सिद्धान्त) में मैंने पढ़ा-जाना, उसको समझा तो एक वर्ल्ड व्यू (विश्व दृश्य) होता है। वो पूरा होता है कि हम हैं, हमारे लिए सब रचा गया है, हमारे कंज़म्पशन (उपभोग) के लिए। तो फिर मैंने जाना उन चीज़ों को तो इवोल्यूशन (विकास) में घुसने के बाद वो सब चीज़ें पलटीं, और उससे फिर लगा कि नहीं ये सब हम एक ही तल पर हैं अगर फिज़िकल बॉडी (भौतिक शरीर) की बात करें सिर्फ़, तो फिर वहाँ से मैंने छोड़ा वो सब करना।

उसके बाद फिर थोड़ा वीगनिज़्म (शुद्ध शाकाहार) की तरफ़ देख रहा था, लेकिन था नहीं, फिर आपकी वीडियोज़ देखीं और उसमें काफ़ी जो तर्क दिये हैं आपने, वो बिलकुल मुझे अच्छे लगे, पसन्द आये तो फिर मैंने वीगनिज़्म भी शुरू किया। तो जिस तरीक़े से मैं वेजिटेरियन (शाकाहारी) हुआ साइंस के बेस (आधार) पर, तो वो चीज़ बाक़ी क्षेत्रों में भी अप्लाई (लागू) हो सकती है, मैं ऐसा मानता हूँ, ऐसा लगता है मुझे।

आचार्य: (‘हाँ’ का इशारा करते हुए)

प्र: और क्योंकि स्पिरिचुअल कहूँ या वेदान्तिक चीज़ें कहूँ, क्योंकि इसमें बहुत सारी ऐसी चीज़ आ जाती है जो — पराभौतिक जैसे शब्द का कभी-कभी आप उपयोग करते हैं — तो वो लोगों के लिए, हमारे लिए ऐसा हो जाता है कि बहुत बड़ा स्कोप मिल जाता है कुछ चीज़ अडल्टिफ़िकेशन (वयस्कीकरण) का।

आचार्य: वो हुई भी है।

प्र: हाँ, वही चीज़, तो इसलिए मुझे लगता है कि इससे बेहतर मार्ग ये है कि सिर्फ़ साइंस की तरफ़ ही देखा जाए?

आचार्य: एक हद तक बेहतर है लेकिन अपर्याप्त है, फिर रुक जाओगे। उदाहरण के लिए, आपको शाकाहारी बनना है, विज्ञान बता देगा कि शाकाहारी बनने के फ़ायदे क्या हैं आपकी देह के लिए और इस पृथ्वी के लिए। आप शाकाहार की ओर आ रहे हो, तो पृथ्वी को उससे लाभ मिलता है और आपके शरीर को उससे लाभ मिलता है। लेकिन जो मूल बात है वो विज्ञान आपसे नहीं कहेगा न कि हिंसा में रखा क्या है। करुणा तो विज्ञान का विषय होता नहीं है। और फिर अगर ऐसी स्थिति पैदा की जा सके कि आप माँस खाओ बिना पृथ्वी का नुक़सान करे तो आप माँस खाओगे। अगर ऐसी दवाइयाँ विकसित की जा सकें कि आप माँस खूब खाओ लेकिन आपके शरीर को हानि नहीं होगी, तो फिर आप माँस खाओगे, क्योंकि विज्ञान ने कुल तर्क क्या दिया है? माँस खाते हो तो तुम्हारे शरीर को नुक़सान होता है। कल को ऐसी दवाइयाँ बन सकती है, जिनको माँस में मिलाकर खा लो तो माँस नुक़सान नहीं देगा, फिर क्यों नहीं खाओगे माँस?

आज आप यही तो कह रहे हो न, आप माँस खाते हो तो पृथ्वी की हानि हो रही है, जंगल कट रहे हैं वगैरह, और सौ चीज़ें हो रही हैं, यही तो बोलते हो? अगर फिर विज्ञान ऐसा तरीक़ा निकाल दे कि जंगलों को बचाये-बचाये भी जानवरों को मारकर खाया जा सकता है और जिन जानवरों को आप खाते हो, उनको पैदा करने की विधियाँ निकाल दें। विधियाँ निकाल भी दी हैं, फैक्ट्री फार्मिंग और क्या होती है? जो जानवर आपको खाने हैं, निन्यान्वे प्रतिशत तो उनको वैज्ञानिक तरीक़ों से फैक्ट्रीज़ में ही पैदा किया जाता है। वो कोई प्राकृतिक रूप से जंगलों में तो पैदा होते नहीं। तो फिर भई दुनिया के तमाम पशु-पक्षी विलुप्त हो रहे हैं, मुर्गे विलुप्त हो रहे हैं क्या?

खा तुम लगातार मुर्गे रहे हो और मुर्गों की तादाद बढ़ती ही जा रही है। तो आप यही कहोगे कि जो तर्क था कि तुम मारकर खा गये, तुमने जंगल ख़त्म कर दिये, तुमने जानवर ख़त्म कर दिये, वो तर्क तो अब अवैध हो गया न? क्योंकि आप जिसको खा रहे हो वो ख़त्म होने की जगह और बढ़ रहा है। बाक़ी जानवर ख़त्म हो गये, मुर्गे और बकरे सबसे ज़्यादा बढ़ गये हैं पृथ्वी पर, तो आप क्यों नहीं खाओगे? और लोगों का तर्क भी यही है, लोग कहते हैं, ‘हम खाएँगे नहीं तो ये इतने हो जाएँगे कि घरों में घुसेंगे, सड़कों पर यही-यही नज़र आएँगे।’ तो जो वैज्ञानिक तर्क है वो आरम्भ में सहायक हो जाएगा पर बहुत दूर तक नहीं जाएगा, आख़िरी बात तो करुणा ही है। आख़िरी बात तो बिलकुल करुणा ही है।

मैं नीदरलैंड्स में था, वहाँ पर एक कैफ़े में बैठा हुआ था। वहाँ पर मुश्किल होता था मिलना शाकाहारी। तो उससे बातचीत चल रही है, कोशिश चल रही है कि वहीं पर जो मेन्यू है उसमें से किसी चीज़ को वो बिना माँस के बना दे। तो कुछ देर तक ये (साथ वाले) लोग उससे बात-वात करते रहे, फिर उसको थोड़ी उत्सुकता हुई, तो वो पास आकर के, शेफ़ था उनका, वो पास आकर पूछता है, 'पर क्यों नहीं खाना है? दस मिनट से आप बहस कर रहे हो और उपाय निकाल रहे हो, तिकड़म निकाल रहे हो, बोल रहे हो ये वाली चीज़ बना दो पर इसमें वो मत डालना, पर क्यों नहीं खाना है?'

मैंने कहा, ‘वो सामने घूम रहा है जानवर, वो अपना मस्त घास खा रहा है, मैं उसे क्यों मार दूँ? बस इतनी सी बात है, कोई लम्बा-चौड़ा इसमें सिद्धान्त नहीं, बस इतनी सी बात है। वो मस्त है अपनी ज़िन्दगी में, उसको भी एक जीवन मिला है, मौसम अच्छा है, मस्त है, वो पुलकित है, घास चर रहा है, मुझे क्या पड़ी है मैं उसकी जान ले लूँ? वो भी इसलिए कि मुझे पेट भरना है, इससे अच्छा भूखा न मर जाऊँ मैं?’

ये बात किसी बहुत गहरे सिद्धान्त से भी नहीं उठती है न? ये बात तो एकदम सीधी-सीधी है। मुझे भूख लगी है, तो मैं किसी का खून पीने लगूँ, ये तर्क क्या है? या मुझे स्वाद आता है तो मैं किसी की हड्डी और माँस चबाना शुरू कर दूँ, ये तर्क क्या है? बस इतनी सी बात। ये तर्क विज्ञान कभी नहीं देगा न? विज्ञान तो यही कहेगा कि देखो तुमने माँस खाया, रेड मीट से कैंसर हो गया तुमको। विज्ञान बस इतना ही बता पाएगा कि इसलिए तुम माँस खाना छोड़ दो।

पर एक दिन ऐसा आएगा जब रेड मीट से कैंसर नहीं होगा, कैंसर के ख़िलाफ़ वैक्सीन वगैरह निकल रही हैं। सोचो वैक्सीन, दवाई भी नहीं, आप वैक्सीनेट हो गये, अब कैंसर हो नहीं सकता, अब खाओ धड़ल्ले से जो खाना है। अब क्या होगा? तो विज्ञान का तर्क एक सीमा तक जाएगा और फिर रुक जाता है।

प्र: साइंस में अब बातें चल रही हैं इस तरह की भी, मोरैलिटी वाली या फिर एनिमल राइट्स (जानवरों के अधिकार) के लिए जो भी चल रहा है।

आचार्य वो साइंस में नहीं आता। एनिमल राइट्स साइंस का विषय ही नहीं है।

प्र: नहीं, उदाहरण के लिए आपकी वीडियो में सुना था कि आपने तुलना किया था कि पेड़ को या फिर पौधों को खाना कम हिंसक है बनिस्बत कि आप जानवरों को खायें क्योंकि उनमें नर्वस सिस्टम (तन्त्रिका तन्त्र) नहीं होता। तो ये नर्वस सिस्टम वाली बात तो साइंस से ही आयी है?

आचार्य: ये तथ्य साइंस से आया है, लेकिन एनिमल राइट्स का सिद्धान्त साइंस से थोड़े ही आ जाएगा? एनिमल राइट्स के सिद्धान्त में मूल बात क्या है? कि एनिमल्स को भी पर्सन (व्यक्ति) मानो, ये बात है एनिमल राइट्स की। हम एनिमल वेलफेयर (पशु कल्याण) की नहीं बात कर रहे, हम एनिमल राइट्स की बात कर रहे हैं। और एनिमल राइट्स में मूल बात ये है कि पशुओं के भी अधिकार होते हैं क्योंकि उनमें भी पर्सनहुड होती है। उनके भी अधिकार हों, लिखित रूप से हों। आपको उनको भी पर्सन मानना पड़ेगा, ये बात विज्ञान क्यों बोलेगा? विज्ञान को क्या पड़ी है कि कौन पर्सन है, कौन नहीं है? ये तो तुम्हारे मानने की बात है न, तुम उन्हें मानना चाहते हो या नहीं।

अब आप कहें कि रेसिज़्म (जातिवाद) या स्लेवरी (ग़ुलामी) का अन्त क्या विज्ञान कर सकता है? नहीं कर सकता है। हाँ, वैज्ञानिक खोजों से आपको कुछ तर्क मिल जाएँगे जिनके आधार पर आप कह सकते हैं कि देखो, तुम रेसिज़्म चलाते थे ये बोलकर कि कोई रेसेज़ (जातियाँ) सुपीरियर (श्रेष्ठ) होती हैं पर हमने शरीर की पूरी जाँच-पड़ताल कर ली, हमें कोई सुपीरीयोरिटी (श्रेष्ठता) तो मिली नहीं फ़लानी नस्ल में। लेकिन आपके मन में अगर ये है ही है कि गोरा काले से श्रेष्ठ होता है, नर नारी से श्रेष्ठ होता है, एक मज़हब दूसरे से श्रेष्ठ होता है, तो विज्ञान इसमें क्या कर लेगा?

यहाँ बहुत सारे घूम रहे हैं, आप जाकर जो सुपीरियोरिस्ट्स होते हैं, आप उनको जाकर समझा लो। दे दो कोई वैज्ञानिक तर्क, आप कैसे समझाओगे? वहाँ पर वैज्ञानिक तर्क काम नहीं करते, वहाँ तो अध्यात्म ही काम करता है न? उसको मानना है कि भई नॉर्डिक्स सुपीरियर होते हैं, तो वो मानेगा। किसी को मानना है कि जो बाइबल वाले होते हैं वो पूरी दुनिया में सबसे सुपीरियर (श्रेष्ठ) होते हैं। हिटलर मानता था आर्यन सुपीरियर होते हैं, मुसलमान मानते हैं कि मोमिन सुपीरियर हैं और काफ़िर तो किसी श्रेणी के नहीं हैं; आप कैसे समझाओगे उनको वैज्ञानिक आधार पर?

कुछ जाति वाले मानते हैं हम श्रेष्ठ हैं, दूसरी जाति वाले नीचे के हैं, बताओ वैज्ञानिक आधार पर कैसे समझा लोगे उनको? वो कहते हैं, ‘बस हैं, हमें नहीं मानना।’ विज्ञान वहाँ हार जाएगा, वहाँ अध्यात्म ही काम करेगा। अध्यात्म काम करेगा, जब अध्यात्म बता देगा कि बेटा आत्मा की तो कोई जाति होती ही नहीं, और देह तुम्हारा भ्रम है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories