इनकी हैसियत नहीं संस्कृत का सम्मान करने की || आचार्य प्रशांत (2020)

Acharya Prashant

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इनकी हैसियत नहीं संस्कृत का सम्मान करने की || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, लोग संस्कृत का मज़ाक उड़ाते हैं, बड़ा दुःख होता है। हाल में भी कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर संस्कृत का अपमान किया।

आचार्य प्रशांत: मैं बहुत सारी बातें बोल सकता हूँ संस्कृत के पक्ष में और वो बातें पारंपरिक तौर से बोली भी गई हैं; कोई विशेष लाभ नहीं होगा। संक्षेप में दोहराए देता हूँ: संस्कृत एक बड़ी तार्किक और वैज्ञानिक भाषा है। एम.आई.टी. का नाम सुना होगा, अमेरिका का प्रख्यात विश्वविद्यालय। जितनी भी रैंकिंग्स होती हैं, उनमें शीर्ष पाँच में उसका नाम होता है, चाहे कोई भी धारा हो। उसके वैज्ञानिकों ने कहा कि 'क्वांटम कंप्यूटिंग' के आउटपुट के लिए संस्कृत एक अच्छी भाषा है क्योंकि इसमें जो क्यूबिट बायस है, वह कम-से-कम होता है। क्यूबिट माने 'क्वांटम बिट'।

और बहुत बातें तुमको बोल सकता हूँ कि भारत के बाहर संस्कृत का अपेक्षतया कहीं ज़्यादा सम्मान है। जर्मनी में ही चौदाह विश्वविद्यालय हैं जहाँ संस्कृत पढ़ाई जा रही है, और वहाँ पर जितने स्थान उपलब्ध होते हैं संस्कृत पढ़ने के लिए, उससे कहीं ज़्यादा आवेदन आते हैं। बहुत सारे आवेदकों को हर साल निराश होना पड़ता है। यहाँ तक कि जो यूनिवर्सिटी है, हाइडेलबर्ग यूनिवर्सिटी, उनका जो इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज़ है, उसको अपने एक्सटेंशन्स खोलने पड़े कई और देशों में भी संस्कृत पढ़ाने के लिए। उनके पास इतने आवेदन आते थे। और यहाँ तक कि उस विश्वविद्यालय ने भारत में भी अपनी एक शाखा खोली, यहाँ के लोगों को संस्कृत पढ़ाने के लिए। उत्तरी अमेरिका में सबसे ज़्यादा संख्या है ऐसे विश्वविद्यालयों की जहाँ संस्कृत पढ़ाई जाती है और लोग शौक से उसको पढ़ते भी हैं, खासतौर पर जो लोग इंडोलॉजी से ताल्लुक रखते हैं या रुचि रखते हैं।

तो यह सब बातें मैं आप से बोल सकता हूँ संस्कृत के विषय में। लेकिन यह बातें तो ज़्यादातर लोगों को पता ही हैं, फिर भी आम भारतीय संस्कृत का इतना अपमान क्यों करता है? देखो, संस्कृत की उपयोगिता क्या है आज के समय में। संस्कृत की उपयोगिता यह तो है नहीं कि तुम्हें संस्कृत आएगी तो उससे तुम्हारी आमदनी बढ़ जाएगी। संस्कृत आम बोलचाल की भाषा भी नहीं रही कि तुम आपस में बातचीत करोगे। यह कोशिश की जा रही है, देश में कुछ संस्थाएँ हैं जो चाह रही हैं कि संस्कृत लौटकर आम बोलचाल की भाषा बने। यह भी हो सकता है कि कुछ लोग संस्कृत में इतने प्रवीण हो जाएँ कि वे संस्कृत का मौखिक इस्तेमाल करना भी सीख जाएँ। लेकिन फिर भी इसकी संभावना तो कम ही है कि संस्कृत आम बोलचाल की और सड़क की भाषा बन पाएगी, या आम संवाद की भाषा बन पाएगी।

तो फिर संस्कृत का महत्व है क्या आज?

संस्कृत का महत्व यह है कि जो संस्कृत को जानेगा, वो भारत के दर्शन को, इतिहास को, विज्ञान को, संस्कृति को, और तमाम भारतीय भाषाओं को बेहतर जान पाएगा। इनसे है संस्कृत का संबंध।

संस्कृत की उपयोगिता क्या है? समझो, गौर से! हम संस्कृत को इसलिए भी बढ़ा-चढ़ाकर, गौरवान्वित करके प्रस्तुत कर सकते हैं कि देव-भाषा है और हमारे सब धार्मिक, आध्यात्मिक ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए थे। वह तो चलो फिर एक बात हो गई। वह आस्था की बात हो गई। लेकिन व्यावहारिक महत्व क्या है आज संस्कृत का?

आज कोई व्यक्ति है, जो मान लो बहुत आस्थावान नहीं है, जिसकी धर्म में, अध्यात्म में बहुत आस्था नहीं है, वह संस्कृत क्यों सीखे? वह तभी सीखेगा जब उसमें इतनी चेतना होगी कि वह जानना चाहे भारतीय दर्शन के बारे में, इतिहास के बारे में, संस्कृति के बारे में, और तमाम भारतीय भाषाओं के बारे में, क्योंकि संस्कृत तमाम इंडो-यूरोपियन भाषाओं की माँ जैसी है। सिर्फ़ तब तुम संस्कृत को सम्मान दे पाओगे।

अब जो लोग संस्कृत का उपहास करते हैं, ज़रा उनकी हालत देखो। संस्कृत तुम्हें आती होती तो तुम आध्यात्मिक ग्रंथों को बेहतर पढ़ पाते, या अगर अध्यात्म में तुम्हारी आस्था हो तो तुम पाओगे कि जिन आध्यात्मिक ग्रंथों से तुम्हें बहुत फायदा हो रहा है, वह सब लिखे हुए हैं संस्कृत में। तो अपने आप ही तुम्हारा संस्कृत के प्रति सम्मान बढ़ जाएगा। बढ़ जाएगा न?

तुम ज़रा चैतन्य आदमी हो मान लो, ईमानदारी से जीते हो, अध्यात्म की तरफ़ तुम्हारा झुकाव है, जानवर सरीखे ही नहीं हो, मनुष्य हो, ऐसा मनुष्य जो जीवन को समझना चाहता है, जानना चाहता है: "सही कर्म क्या है? ग़लत कर्म क्या है? कैसे जियें? कैसे निर्णय करें?,” तो तुमने उपनिषद पढ़े, तुमने भगवद्गीता पढ़ी, तुम ऋभु गीता की ओर आकर्षित हुए। और जब तुमने इनको पढ़ा, तो तुमने पाया कि वहाँ जो मूल श्लोक है, उसकी भाषा संस्कृत है, तो अपने आप तुम्हारे मन में संस्कृत के प्रति सम्मान उठेगा। तुम कहोगे, "इससे मैंने इतना कुछ सीखा और यह मूलतः संस्कृत में है, तो संस्कृत तो आदरणीय हो गई मेरे लिए।" है न?

लेकिन अगर कभी तुम्हारे भीतर जागृति की कोई इच्छा ही नहीं रही, तुम चैतन्य आदमी ही नहीं हो, गीता से और उपनिषद से और अध्यात्म से तुम्हारा दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं, तो तुम्हें संस्कृत की उपयोगिता क्यों पता चलेगी? बोलो। संस्कृत में जो कुछ है वह आज तक तुम्हारे काम ही नहीं आया तो तुम्हारे मन में संस्कृत के प्रति भी अपमान रहेगा, उपहास रहेगा। ऐसे ही हैं ज़्यादातर लोग। ऐसे ही हैं वह लोग जिनके बारे में तुम कह रहे हो कि वह संस्कृत का मज़ाक बनाते हैं। कुछ दिन पहले यूट्यूब पर भी उन्होंने कुछ खिलवाड़ कर दिया। उनका क्या लेना-देना अध्यात्म से?

इसी तरीक़े से यह ऐसे लोग हैं जो किसी भी तरह की सांस्कृतिक चेतना से बिल्कुल कटे हुए हैं। इनका संस्कृति से क्या ताल्लुक? इनको तो एक ही संस्कृति पता है—वह जो आज की सड़क की प्रचलित संस्कृति है। ये कहाँ जानना चाहते हैं कि —हम कहाँ से आए हैं, हमारी जड़ें क्या हैं, पहले क्या होता था, और आज हम जैसे हैं, वैसे कैसे बन गए? यह सवाल तो वो पूछता है न जिसमें ईमानदार रुचि होती है अपने प्रति और अपनी जागृति, अपनी बेहतरी के प्रति। वह पूछता है कि, "आज मैं जैसा हूँ, मैं वैसा क्यों हूँ?"

इतिहास इसीलिए तो हम पढ़ते हैं न क्योंकि आज तुम जो कुछ हो, उसको जानना ज़रा आसान हो जाएगा अगर तुम जान पाओ कि अतीत के किन-किन प्रभावों से तुम्हारा निर्माण हुआ है। अन्यथा स्कूलों में और विश्वविद्यालयों में इतिहास पढ़ाया ही क्यों जाए? इतिहास इसलिए पढ़ाया जाता है ताकि आत्मज्ञान आसान हो सके। तुम अपने आप को देखते हो, तुम अपनी किसी आदत को देखते हो, तुम अपने किसी डर को देखते हो, और तुम्हें नहीं समझ में आ रहा कि, "मैं इस बात से इतना डरता क्यों हूँ, या मैं इस तरफ़ को इतना झुकता क्यों हूँ, या फ़लानी चीज़ के प्रति मुझमें इतना लालच क्यों है!" लेकिन अगर तुम्हें बता दिया जाए कि ऐसा-ऐसा तुम्हारा इतिहास रहा है, तो वह बात तुमको ज़्यादा आसानी से समझ में आ जाएगी कि आज तुम्हारा ऐसा हाल क्यों है।

तो इतिहास तुम्हें इसलिए नहीं पढ़ाया जाता ताकि तुम रट सको कि पानीपत की पहली और दूसरी लड़ाई किस वर्ष में हुई थी। इतिहास तुम्हें वास्तव में इसलिए पढ़ाया जाता है ताकि तुम आज की अपनी हालत को बेहतर समझ सको, और इतिहास में जो कुछ हुआ है, उससे सबक लेकर बेहतर भविष्य बना सको। समझ में आ रही है बात?

जिसको बेहतर भविष्य बनाने में कोई रुचि ही नहीं, जो यह जानना ही नहीं चाहता कि आज उसकी हालत कैसी है, जो एकदम बेहोश जीवन जी रहा है, और दूसरों में भी बेहोशी ही फैला रहा है, ऐसा आदमी क्यों इतिहास में रुचि रखेगा? ऐसा आदमी क्यों संस्कृति या संस्कृत को ज़रा भी आदर देगा?

और सबसे ख़तरनाक बात तब होती है जब ऐसा व्यक्ति किसी मंच पर चढ़ जाता है, और ख़ासतौर पर जवान लोगों को संबोधित करने और प्रभावित करने का उसको मौका मिल जाता है। तब वह अपने भीतर का सारा अंधेरा, सारा अज्ञान, और सारी मूर्खता दूसरों में भी फैला देता है। और वो दूसरे कम उम्र के, कच्ची मिट्टी जैसे जवान लोग हों, तो मामला बहुत संगीन हो जाता है। सोलह, अट्ठारह, बीस साल के लड़के-लड़कियाँ, इनका जो मानस होता है, वो गीली मिट्टी जैसा होता है; उसपर प्रभाव के साथ कुछ भी आकर अंकित हो सकता है। तो कुछ ऐसे लोग जो चेतना के तल पर बहुत औसत हैं या साधारण औसत से भी नीचे हैं, ये लोग इनफ्लुएंसर्स बने हुए हैं, लाखों-करोड़ों युवाओं को प्रभावित कर रहे हैं। इस कारण से तुम पा रहे हो कि जो जन चेतना है, उसका स्तर लगातार गिरता ही जा रहा है।

इसी तरीक़े से अगर किसी में आज की भाषा के प्रति सम्मान हो, तो संभावना बनती है कि उसमें संस्कृति के प्रति भी सम्मान बढ़ जाएगा। क्योंकि हिंदी भी अगर तुमको शुद्ध बोलनी है, तत्सम बोलनी है, तो ऐसी हिंदी संस्कृतनिष्ठ ही होगी। हिंदी का जो पूरा शब्दकोश है, वो आ कहाँ से रहा है? उसकी जननी तो संस्कृत ही है न? हाँ, जो आज हिंदुस्तानी बोली जाती है, वह अन्य भाषाओं से भी बहुत कुछ लेती है—फ़ारसी से ले लेती है, अरबी से ले लेती है, उर्दू से ले लेती है, यहाँ तक की अंग्रेज़ी से भी ले लेती है, लेकिन फिर भी हिंदी का अधिकांश शब्दकोश आता संस्कृत से ही है।

तो अगर तुममें हिंदी के प्रति प्यार हो, तो भी तुम संस्कृत का अनादर नहीं कर पाओगे। पर ये लोग, जो संस्कृत का अनादर करते हैं, इनमें सर्वप्रथम तो हिंदी के प्रति और सब भारतीय भाषाओं के प्रति गहरा अनादर है। हिंदी के प्रति क्यों अनादर है? क्योंकि ले देकर इनमें 'हिंद' के प्रति अनादर है। जब भारत को ही तुम इज़्ज़त नहीं दे पाते, तो तुम भारतीय भाषा, भारतीय संस्कृति, भारतीय चेतना को कैसे आदर दोगे? वही जो अनादर है, संस्कृत का जो मज़ाक बनाया जाता है, उसमें दिखाई देता है।

जब संस्कृत का मज़ाक बन रहा हो तो तुम जान लेना कि यह संस्कृत का मज़ाक नहीं बन रहा है, यह 'चेतना' का मज़ाक बन रहा है, क्योंकि संस्कृत, पहले भी कई बार कहा है, साधारण भाषा नहीं थी। वो भाषा ऐसी थी जिसका निर्माण ही जैसे मन को उठाने के लिए किया गया हो, आध्यात्मिक कारणों से किया गया हो। और इसीलिए आध्यात्मिक साहित्य की जितनी प्रचुरता संस्कृत में पाई जाती है, उतनी विश्व की किसी और भाषा में नहीं। तो संस्कृत का और अध्यात्म का, माने चेतना का, बड़ा गहरा रिश्ता है। जो कोई भी मन के तल पर ऊँचा उठना चाहेगा, ईमानदारी से एक सुंदर और बेहतर जीवन जीना चाहेगा, हो ही नहीं सकता कि वह संस्कृत का आदर ना करे।

और अगर तुम किसी फूहड़ आदमी को संस्कृत का मज़ाक बनाते देखो, तो समझ लो कि यह आदमी नहीं, निरा पशु है। पशु इसलिए है क्योंकि पशु ही होता है जिसमें अपनी चेतना को उठाने की कोई चाहत नहीं होती। आदमी और पशुओं में यही अंतर है न? आदमी कहता है, "मुझे अपनी चेतना को, अपनी समझदारी को उठाना है," और पशु कहता है, "खाना है, पीना है, मौज मारनी है, सो जाना है।" तो ऐसे लोग जो संस्कृत को एक भद्दे चुटकुले की तरह इस्तेमाल करते हैं, ऐसों को निरा पशु ही जानना। पर ये ख़तरनाक पशु हैं। इस पशु को काबू में करना बहुत ज़रूरी है। इस पशु को बाँधकर रखना बहुत ज़रूरी है। यह बाज़ार में उपद्रव मचाता हुआ एक मनचला साँड है जिसे कुछ अक़्ल नहीं है कि ये किस चीज़ पर आक्रमण कर रहा है, किस चीज़ को इसने एक लतीफ़ा बना दिया, किस चीज़ को इसने युवा वर्ग की नज़रों में गिरा दिया! ये कुछ जानता नहीं है। हाथ में माइक मिल गया है, मंच मिल गया है, उसपर चढ़कर बेसिर-पैर की गैर ज़िम्मेदार बातें किए जा रहा है। और लड़के होते हैं, टीनएज़र्स होते हैं, उनमें कुछ ज़्यादा समझ नहीं होती, उनकी नज़रों में हीरो बने जा रहा है।

और अगर ऐसे लोगों को हीरो बनकर रहना है, तो उनके लिए ज़रूरी हो जाता है कि युवाओं में समझ बढ़ने भी न पाए क्योंकि युवा अगर समझदार हो गया तो वो तुम्हें हीरो मानेगा ही नहीं। तुम हीरो बने रहो, इसके लिए ज़रूरी है कि साधारण, औसत किशोर की चेतना का स्तर एकदम नीचा, न्यून रहे। इसी तरह की बातें आप करते हो, वही जो तुमने लिखा कि—सोशल मीडिया पर संस्कृत का अपमान किया।

तो बहुत हद तक यह बात अज्ञान की है लेकिन पूरी तरह अज्ञान की भी नहीं है; इसमें एक साज़िश, षड्यंत्र भी शामिल है। हम चाह ही नहीं रहे कि लोग जानें-समझें, लोगों के दिमाग में रोशनी आए, क्योंकि रोशनी अंधेरे को मिटा देती है। अंधेरे को रोशनी दुश्मन की तरह लगती है। तो अंधेरे को तो जब भी मौका मिलेगा, वह रोशनी की फ़ज़ीहत करेगा, उसका मज़ाक बना देगा, उसको नीचा गिरा देगा।

पर फ़िक्र मत करो। जब तक दुनिया में कहीं भी ऐसे लोग हैं जिन्हें सच्चाई प्यारी है, जिन्हें चेतना प्यारी है, संस्कृत भाषा जीवित रहेगी। भारत में नहीं जीवित रहेगी, तो जर्मनी में जीवित रहेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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