इन्होंने विश्वगुरु बनाया भारत को || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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इन्होंने विश्वगुरु बनाया भारत को || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: जिन लोगों को भारतीय संस्कृति की चिंता हो, उन्हें वेदान्त के पास निश्चितरूप से जाना ही पड़ेगा। और अगर तुम नहीं जाओगे वेदान्त के पास, तो जिसको तुम भारतीय संस्कृति कहते हो, इसका भविष्य कोई बहुत उजला नहीं दिख रहा है। नई पीढ़ी बस नाम की भारतीय या सनातनी रह गई है। नई पीढ़ी करीब-करीब पूरे तरीके से छोड़ चुकी है धर्म को, देश को, अध्यात्म को और संस्कृति को। और वजह उसकी यही है, जो ज़बरदस्त ख़जाना है हमारे पास, जो अमूल्य और अनूठी निधि है हमारे पास, उससे हमने अपने आप को भी वंचित रखा है और अपनी युवा पीढ़ी को भी वंचित रखा है।

भारत की शिक्षा व्यवस्था में वेदान्त के लिए कोई स्थान नहीं। ऐसी संस्थाएँ भी बहुत कम है जहाँ ईमानदारी से सच्ची शिक्षा दी जाती हो वेदान्त की। और ऐसी संस्थाएँ अगर हैं भी तो उनके पास जाने वाले लोग कम हैं क्योंकि वो संस्थाएँ या तो ठीक से अपने आप को प्रबंधित नहीं कर पा रहीं हैं या ठीक से अपना प्रचार नहीं कर पा रहीं हैं।

समझ में आ रही है बात?

सिर्फ़ शोर मचाने से नहीं होगा – "संस्कृति! स्वधर्म! स्वदेशी!” नारे लगाने से नहीं होगा। इन बातों का सम्बन्ध हृदय से होता है। जब आपके हृदय को कोई चीज़ भा जाती है तब आपको नारे नहीं लगाने पड़ते उस चीज़ के पक्ष में।

और भूलो नहीं कि सच सबको प्यारा होता है। भारतीय संस्कृति की अनूठी बात ये है कि ये हमें कालातीत सच तक ले जाती है। छोटे-मोटे सच तक भी नहीं। ऐसे सच तक ले जाती है जो समय से भी अनछुआ, अछूता रहता है। ऐसा सच जिसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता, न कोई दुनिया वाला, न बीतती हुई शताब्दियाँ। ऐसा सत्य जो सदा अपरिवर्तनशील और अक्षुण्ण रहना है। ये है आपकी संस्कृति की खूबी। और ऐसी संस्कृति से अगर आपका वास्तविक परिचय करा दिया जाए, किसी युवा आदमी का, तो उसका मन तो प्रेम में पड़ ही जाएगा न? और एक बार मन में वो प्रेम आ गया, फिर आपको नहीं कहना पड़ेगा कि भारतीय संस्कृति ख़तरे में है।

उसके बाद तो भारतीय युवा की तस्वीर ही बदल जाएगी। उसके बाद मुकेश 'मुक्स' नहीं होगा और सत्यम 'सैटि' नहीं होगा। फिर 'सत्य' शब्द आपके लिए बड़ा सम्माननीय ही नहीं, बड़ा प्यारा हो जाएगा। आप सत्यम को 'सैटि' कर ही नहीं पाएँगे। चोट लगेगी यहाँ पर (अपने हृदय की ओर इशारा करते हुए)। कहोगे, "यार! जिस चीज़ से इतना प्यार है उसको मैं बिगाड़ कैसे सकता हूँ? भ्रष्ट कैसे कर सकता हूँ?"

समझ रहे हो बात को?

अब उसके बाद ये नहीं होगा कि चलते हैं, यूट्यूब वग़ैरह पर वीडियो हैं, कि एक देवी जी हैं, उनसे पूछा जा रहा है कि कौरवों के बाप का नाम क्या था और वह बोल रही हैं, "कंस।“ बहुत सारे इस तरह के हैं, देखना। किसी ने पूछा, "अभिमन्यु अर्जुन का क्या लगता था?” बोला, "भाई!” "कुंती और कर्ण का क्या रिश्ता था?” "कुंती कर्ण की पत्नी थी।“ ये सब है।

महाभारत वास्तव में क्या है अगर आप समझ गए, उसके बाद यह सब पात्र आपके खून में रहेंगे, आपकी नस-नस में प्रवाहित होंगे। उसके बाद आप अपनी रोज़मर्रा की बोलचाल में इनका इस्तेमाल करेंगे। ये पात्र और इनकी चरित्र गाथाएँ आपके मुहावरों में सम्मिलित हो जाएँगे, पर पहले आप समझ गए तो कि कर्ण मन की किस दिशा का प्रतिनिधि है।

पहले आप समझिए तो कि इस बात का अर्थ क्या है कि कुंती ने सूर्य देव का आह्वाहन किया और वो आ गए और उन्हें गर्भ सौंप कर चले गए। इस बात का अर्थ क्या है कि दुर्वासा वरदान दे गए थे कि, ‘कन्या तूने मेरी बड़ी सेवा की, अब तू जिस भी देव को बुलाना चाहेगी वो तेरे पास आ जाएगा?’

ये सब बातें क्या हैं? इन बातों को बस यूँ ही सर झुका कर ऐसा न मान लीजिए कि उस ज़माने में ऐसा होता रहा होगा। नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। इन सब बातों में बड़े सुंदर और बड़े उपयोगी इशारे छुपे हुए हैं। वो इशारे आज के जीवन के लिए भी बड़े लाभप्रद हैं। वास्तव में अगर आपको उन इशारों का अर्थ नहीं पता, जैसा कि मैं बार-बार कह रहा हूँ, उन इशारों का अर्थ बताने वाली कुंजी नहीं है अगर आपके पास, तो आपका आज का जीवन भी बड़ा दरिद्र रहेगा, क्योंकि आपको फिर कोई ऐसी बात पता नहीं है जिस बात से जीवन में सुंदरता आती है और वैभव आता है।

बात समझ रहे हैं आप?

वेदान्त की अनुपस्थिति में सभ्यता-संस्कृति सब सिर्फ़ कोरी कहानियाँ बनकर रह जाते हैं। और अगर वेदान्त के सूत्र ज्ञात हैं आपको, तो ये जितनी कहानियाँ हैं, ये अनुप्राणित हो जाती हैं। एक-एक कहानी जीवंत हो उठती है। अब वो कहानी नहीं है, अब वो आपकी कहानी है, क्योंकि अब बात आपके मन के भीतर की किसी वृत्ति की, किसी घटना की हो रही है।

भारतीय संस्कृति को अगर अनुप्राणित करना है, तो तरीका सिर्फ़ एक है, वेदान्त। हर वो व्यक्ति जिसे भारत से प्रेम हो, हर वो व्यक्ति जो भारतीय संस्कृति की दुर्दशा देखकर दुखी हो, उसे 'वेदान्त' की ओर जाना ही होगा।

कोई वजह होगी न कि भारतीय संस्कृति को वैदिक संस्कृति कहा गया? कोई वजह तो होगी? और भूलिएगा नहीं कि वेदान्त में ही जो दर्शन है, उसी दर्शन से समस्त भारतीय अध्यात्म, धर्म और संस्कृति प्रस्फुटित हुए हैं। वास्तव में भारत से धर्म की जितनी भी शाखाएँ फूटी हैं, आप उनमें से अगर किसी को भी गहराई से समझना चाहते हैं तो आपको वेदान्त पता होना चाहिए। यहाँ तक की आपको अगर जैन मत समझना है, बौद्ध मत समझना है, सिख मत समझना है, तो भी वेदान्त आपकी बहुत सहायता करेगा। जिसने वेदान्त पढ़ा हुआ है वो कहीं ज़्यादा आसानी से समझ लेगा कि महावीर क्या कह रहे हैं या बुद्ध क्या कह रहे हैं।

मैं नहीं कह रहा हूँ कि वेदान्त के बिना नहीं समझा जा सकता बुद्ध या महावीर को, लेकिन अगर वेदान्त आपको पता है तो सब संतो, ऋषियों, महात्माओं और मुक्त पुरुषों की बातें आपके लिए बहुत ज़्यादा सुगम-सुसाध्य हो जाती हैं। एकदम आसानी से समझ में आ जाएँगी कि आप कहेंगे, ‘अच्छा, यही तो बात है। समझ में आ गयी।‘

यदि आप वेदान्त में दीक्षित हैं तो आप और ज़्यादा गहराई से समझ भी पाएँगे, अभिभूत हो पाएँगे, प्रशंसा कर पाएँगे सब ज्ञानीजनों की वाणी का। और अगर वेदान्त नहीं पता है तो फिर संस्कृति के नाम पर यही सब करते रहो कि फलाने दिन कहीं जाकर नहा आना है, इतने बजे सुबह-सुबह उठ जाना है। ब्रह्म को जाने बिना ब्रह्ममुहूर्त की बात करते रहो संस्कृति के नाम पर! और इस तरह की बातें जब तुम करते हो तो बड़ी फूहड़ लगती हैं। ब्रह्म का पता नहीं, ब्रह्ममुहूर्त की बात कर रहे हैं; ब्रह्म का पता नहीं, ब्रह्मचर्य की बात कर रहे हैं। और कह रहे हैं ये तो भारतीय संस्कृति है न, ब्रम्हचर्य। क्या है ब्रह्मचर्य? ब्रह्म जानते हो?

इसी तरीके से भारतीय संस्कृति पर जितने लांछन भी लगाए जाते हैं, उनको भी तुम समझ पाओगे अगर तुम्हें वेदान्त पता है तो। उदाहरण के लिए जो दो सबसे बड़े अभियोग भारत पर हैं कि भारतीय संस्कृति स्त्री विरोधी और जातिवादी रही है। वो बात वास्तव में क्या है ये तुम्हें कैसे पता चलेगा अगर तुम उस संस्कृति के आधार और केंद्र को ही नहीं जानते?

एक बात बताओ मुझे, जो संस्कृति कहती है कि देह ही मिथ्या है और माया है और मुक्ति का अर्थ है देह के अपने तादात्म्य से आज़ाद हो जाना, जो संस्कृति कहती है कि देहभाव ही मूल बंधन है, जो संस्कृति देह को ज़रा भी मूल्य नहीं देती, वो संस्कृति देह (माने लिंग) के आधार पर कैसे स्त्री और पुरुष में भेदभाव कर लेगी? कहो? जो संस्कृति इस आधारभूत तथ्य पर अवलंबित है कि आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है और आत्मा ही सत्य है मात्र, सिर्फ़ आत्मा ही सत्य है, बाकी सब तो मिथ्या ही है सत्य के समक्ष, और आत्मा का कोई लिंग होता नहीं, वो संस्कृति कैसे लिंग पर आधारित भेदभाव कर लेगी या शोषण कर लेगी? निश्चितरूप से वो बात वैदिक नहीं है। निश्चितरूप से वो बात वेदान्त से नहीं आ रही है।

तो अगर किसी तरीके से भारतीय संस्कृति में इस तरह का भ्रष्टाचार और प्रदूषण आया भी कि जातिवाद बढ़ गया या स्त्रियों का शोषण बढ़ गया, तो वो बात भारतीय संस्कृति के मूल में नहीं है, उद्गम में नहीं है, स्रोत में नहीं है। वो बात भारतीय संस्कृति में कहीं बाहर से प्रवेश पा गयी। वो कोई विजातीय तत्व है जो किन्ही संयोगिक कारणों से भारत की संस्कृति में प्रविष्ट हो गया। फिर आप आसानी से कह पाओगे कि, ‘नहीं साहब, हम न स्त्रीविरोधी लोग हैं, न जातिवादी लोग हैं। बहुत पुरानी संस्कृति है हमारी, उसके प्रवाह में बीच में कहीं इस तरह का दूषित जल प्रविष्ट हुआ है।‘

जैसे गंगा चली हों हिमालय से, और बिल्कुल अभी स्वच्छ ही हैं। ऋषिकेश बीता, हरिद्वार बीता, पर पाओ कि कानपुर आते-आते तमाम तरह की गंदगियाँ, मल, रसायन प्रवाह में प्रवेश पा गए हैं, इसका मतलब यह थोड़े ही है कि गंगा का स्रोत, उद्गम ही दूषित है। इसका मतलब ये है कि इतिहास की धारा में बीच में, कहीं बाहर के कुछ तत्व, बाहर के कुछ प्रभाव आकर के गंगा को मलिन कर गए हैं भारत की। और हमें उन मलिनताओं को अपनी संस्कृति का अंग मानने का क्या शौक़ चढ़ा है, भाई? गंगा में अगर कोई प्रदूषक तत्व प्रवेश कर गया है तो उसको तुम हटाओगे या उसको गंगाजल मानकर पूजोगे?

पर ये भी अजीब प्रथा चल पड़ी है कि तुम कहते हो गंगा जल में तो कोई भी जल मिल जाए तो वो गंगा जल ही हो जाता है। कहते हैं न कि गंगाजल में तो अगर नाले का पानी भी मिल जाए तो वो भी गंगाजल हो जाता है? अरे! ये बात तब तक ठीक है जब तक नाले का पानी थोड़ा बहुत है। उस प्रदूषण की सफाई गंगा नदी स्वयं ही कर लेती है। थोड़ा बहुत कचरा है तो मछलियाँ हीं उसको जज़्ब कर जाती हैं। लेकिन अगर प्रदूषक तत्वों की विशाल और मोटी और निरंतर धाराएँ आकर बार-बार, लगातार गंगा में मिलती जा रही हैं, तब तुम थोड़े ही कहोगे कि तुम्हारी संस्कृति में ये जितने बाहरी और विजातीय तत्व प्रवेश कर गए हैं इन्हें भी गंगा ही मान के इनकी पूजा करनी है। इनकी पूजा नहीं करनी है, इनकी शुद्धि करनी है।

भारतीय संस्कृति में महिलाओं का क्या स्थान है? ये जानना है तो ऋषियों के पास जाओ न, देखो न उन्होंने क्या कहा है। ऋषियों ने थोड़े ही कहा है कि स्त्री पीछे है, पुरुष आगे है, स्त्री को घूंघट और पर्दा करना चाहिए, स्त्री को घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए और स्त्री का स्थान पुरुष के चरणों में है। बताओ मुझे, कौनसे उपनिषद् में ये बात लिखी है?

इसी तरीके से हम कहते हैं कि मनुस्मृति इत्यादि में जाति को लेकर के बड़ी बेहूदी बातें हैं। अरे, मनुस्मृति भारतीय धर्म का कोई केंद्रीय ग्रंथ हो गया क्या? भारतीय धर्म वैदिक धर्म कहलाता है या मनु का धर्म कहलाता है? और वेद सिर्फ़ वेद हैं, वेदों का कोई विकल्प नहीं होता। स्मृतियाँ तो बहुत सारी हैं, मनुस्मृति है, और भी स्मृतियाँ हैं। वेद अकाल हैं, समयातीत हैं, सदा के लिए हैं। स्मृतियाँ तो किसी एक समय पर सामाजिक व्यवस्था का निरूपण करने के लिए लिखी गयी थीं। स्मृतियों को आधार बनाकर के अपनी संस्कृति को पिछड़ा हुआ या दूषित मान लेना बहुत मूर्खता की बात है।

उपनिषदों के पास जाओगे, अभी कुछ दिनों पहले मैं वज्रसूची उपनिषद् पर बोल रहा था। वो तुमको बताएँगे कि 'जाति' का वास्तविक अर्थ क्या है। जो लोग मनुस्मृति की बात करते हैं वो एक बार वज्रसूची उपनिषद् पढ़ लें। और उपनिषद् धर्म के केंद्रीय प्रतीक हैं; मनुस्मृति नहीं प्रतीक है। एक बार आपने उपनिषदों को पढ़ लिया, उसके बाद आपकी अपने धर्म में और अपनी संस्कृति में आस्था जगेगी और गौरव उठेगा। उसके बाद ये जितने आते हैं, वे लोग और तथाकथित लिबरल भी और वामपंथी भी और बुद्धिजीवी भी, जिनका जीवनयापन ही इस अभियोग पर होता है कि भारत पिछड़ा हुआ है, भारत का विचार पिछड़ा हुआ है, भारत की संस्कृति पिछड़ी हुई है, भारत का धर्म व्यर्थ है, इन लोगों को आप करारा जवाब दे पाएँगे। और हो सकता है आपका मन भी न करे इनको बहुत जवाब वग़ैरह देने का, मूर्खों के मुँह कौन लगना चाहता है?

लेकिन फिर आपके मन में एक अटूट और अटल और अकम्प विश्वास रहेगा, अपने प्रति भी, अपने अतीत के प्रति भी, और वैदिक धर्म की सच्चाई के प्रति भी। फिर कोई कुछ बोलता रहे, आप कहेंगे, ‘ये मूर्ख है, अज्ञानी, नादान। इन्हें कुछ पता नहीं है इसीलिए ये व्यर्थ की बातें करते रहते हैं।‘

आज तो स्थिति उल्टी है। जो लोग भारतीय संस्कृति पर इल्ज़ाम और अभियोग लगाते हैं वो आत्मविश्वास से भरे हुए हैं, और आम भारतीय अपनी ही संस्कृति को लेकर शंकित है, डरा हुआ है, और अपनी संस्कृति को वो ठीक से अपनी अगली पीढ़ी को सौंप भी नहीं पा रहा। ये स्थिति सिर्फ़ एक तरीक़े से बदल सकती है, चलो उपनिषदों की ओर।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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