इन्हें तुम ज़रूरतें कहते हो?

Acharya Prashant

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इन्हें तुम ज़रूरतें कहते हो?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब हमारी ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाती हैं तो हम उसी में फँस जाते हैं और आगे नहीं बढ़ पाते और फिर अंततः परिस्थितियों के दास बनकर रह जाते हैं। इस स्थिति से कैसे बाहर निकला जा सकता है?

आचार्य प्रशांत: बेटा ज़रूरतें हमारी बहुत ज़्यादा होती नहीं। अक्सर हम जिसको ज़रूरतों का नाम देते हैं, वो कोई और चीज़ होती है। ये सवाल मैं कई बार पूछ चूका हूँ और तुम पढ़ भी चुके हो कई बार, पर फिर से पूछ लेता हूँ — कितनी ज़रूरतें हैं तुम्हारी? कितना खर्च करते हो महीने का? कितना खर्च करते हो, बताओ अपनी ज़रूरतें? पूछना क्या है, मुझे पता ही है, एक्सपीरियंस्ड (अनुभवी) हूँ।

(श्रोतागण हँसते हैं)

अभी पूछा जाए तो जो कम-से-कम संख्या आएगी यहाँ पर, वो होगी तीन-हज़ार के आसपास। और जो ज़्यादा-से-ज़्यादा आएगा, वो होगा आठ-दस-हज़ार के आसपास। अब किसी महीने में बहुत ज़्यादा कर दो तो अलग बात है, वरना इतना ही होगा। ठीक बोला?

श्रोतागण: जी।

आचार्य: तो औसतन, यह जो यहाँ पर ग्रुप बैठा है, वो महीने का क़रीब पाँच-हज़ार खर्च करता होगा, इससे ज़्यादा नहीं। इतना ही करता है न? इंजीनियरिंग के आख़िरी साल के मई महीने तक भी तो इतने ही खर्च करते रहोगे। या इससे थोड़ा बढ़ाकर छः-हज़ार कर दोगे। ये ऐसा ही रहेगा न?

(सभी फ़िर से हामी में सर हिलाते हैं)

लेकिन जिस दिन इंजीनियरिंग पूरी होगी और नौकरी ज्वाइन (शुरू) करोगे, मई के बाद शायद जून में उस दिन कहोगे, “क्या नौकरी मिली है! सिर्फ़ सोलह-हज़ार मिलता है, भिखारी समझा है क्या? ज़रूरतें भी पूरी नहीं होती।”

मैं यह जानना चाहता हूँ कि ये कौन-सी ऐसी ज़रूरतें हैं, जो एक महीने में तीन गुना बढ़ गईं? ज़रूरतें बढ़ीं हैं या लालच बढ़ा है?

श्रोतागण: लालच!

आचार्य: या ऐसा हुआ है कि तीन गुना खाने लग गए हो? या तीन गुना टूथपेस्ट इस्तेमाल करने लग गए हो? या एक के ऊपर एक, तीन पैन्ट पहनने लगे हो? और अगर ऐसा नहीं है तो इस तीन गुने पैसे की ज़रूरत क्यों पड़ने लग जाती है?

ज़रूरत तो तुम्हारी बहुत छोटी होती हैं। तुम्हें पैसा ज़रूरत के लिए नहीं चाहिए होता है। तुम्हें पैसा चाहिए होता है सामाजिक रुतबा बनाने में।

समझ गए न मामला, समझ गए?

(श्रोतागण हँसते हैं)

“कैसे बताएँगे घर पर कि आठ ही हज़ार कमाते हैं?” भले ही आठ हज़ार में मस्त हो। जवान लोग हो, करोगे क्या पैसे का? पर फ़िर घर से फ़ोन आएगा — “अरे तेईस साल का हो गया, अभी तक फ्लैट नहीं बुक कराया?” तुम अभी दो दिन पहले तक एक छोटे-से कमरे में तीन लोगों के साथ रहते थे। अब तुम्हें फ्लैट बुक कराना है। क्यों कराना है? पता नहीं। बस कहते फ़िर रहे हैं कि, "बड़ी ज़रूरत है, फ्लैट नहीं बुक कराया अभी तक। बहुत ज़रूरत है!"

ज़रूरत है? वाकई? और फ़िर इन ज़रूरतों को पूरा करने के लिए तुम अपने-आपको खूब बेचते हो। और दुनिया तुम्हारा खूब शोषण करती है, और वो भी तुमको बता-बता कर कि “देखो! तुम्हारी ज़रूरतें पूरी नहीं हो रही हैं।”

एक फ़िल्म अभी आई थी सिंघम। उसमें बाकी जो था, सो था, पर उसका एक डायलॉग बड़ा बढ़िया था — “मेरी ज़रूरतें कम हैं, इसीलिए मेरे ज़मीर में दम है।” बात समझ रहे हो? मेरी ज़रूरतें चूँकि कम हैं, इसीलिए मेरे ज़मीर में दम है। जिसकी ज़रूरतें जितनी बढ़ेंगी, वो उतना बिकेगा। बिलकुल बिकाऊ हो जाएगा; ख़रीदा ही जा रहा है हर समय।

ये इतने लोग जो घूस खाते हैं, इन्होंने अपने आपको बिलकुल बेच ही रखा है। चाहे सरकारी काम कर रहे हों, चाहे प्राइवेट काम कर रहे हों, चाहे व्यापारी ही हों। ये जो खूब घूस खा रहे हैं, तुम्हें क्या लग रहा है, ये अपने लिए कर रहे हैं? ये सब ये इसीलिए कर रहे हैं कि उस पैसे से कुछ ख़्वाब पूरे किए जाएँगे।

मैं जब सड़क पर चलता हूँ और बड़ा गड्ढा आता है, तो बोलता हूँ “देखो, ये ‘एम.बी.बी.एस’ है।"

(श्रोतागण हँसते हैं)

समझ रहे हो न? वो जो सड़क का पैसा था, उससे अपने बेटी को एम.बी.बी.एस कराया गया है। तो ये एम.बी.बी.एस है। फिर आगे जाऊँगा और वहाँ पर इन्हीं गड्ढों की वजह से कोई बाईक वाला गिरा पड़ा होगा, तो बताऊँगा ये देखो ये एम.टेक है।

ये जो मौत हो रही है सड़क पर, ये इसीलिए हो रही है क्योंकि किसी ने अपने ख्व़ाब पूरे किए हैं। तुम लोग की तो बी.टेक सस्ते में हो रही है। दस-दस, बारह-पंद्रह लाख रूपया लगता है, जब लोग ख्व़ाब पूरा करने के लिए लड़के को साऊथ-इंडिया वगैरह भेजते हैं। वो पैसा कहाँ से आ रहा है और कहाँ को जा रहा है?

“घूस इसलिए उठाई क्योंकि ज़रूरत थी।” ज़रूरत थी? घर में बीवी को इतने गहने पहना रखे हैं तुमने, ये ज़रूरत कहलाती हैं? खाती है वो गहने? क्या करती है? पर उससे पूछो? और मैनें पूछा है। मेरे पास तो दिन-भर हर तरह के लोग आते हैं। और यही सब मुद्दे रहते हैं और मैं पूछता हूँ कि “क्यों करता है तू ये सब?” तो वो बोलते हैं, “क्या बताएँ, ज़रूरत है।” ज़रूरत है वाकई! या लालच है, बेईमानी है?

बाज़ार में एक शर्ट पाँच-हज़ार की भी मिलती है और पाँच-सौ की भी मिलती है। और कई बार पाँच-सौ वाली पाँच-हज़ार वाली से बेहतर होती है। अब ये तुम्हें तय करना है कि ज़रूरत तुम किसको बोलते हो। बहुत घूम रहे हैं। वो कहेंगे, “यार देखो, कम-से-कम महीने की एक लाख तनख्वाह तो होनी चाहिए न? नहीं तो फिर शर्ट भी कैसे खरीदेंगें?” उनसे पूछो, "कौन-सी शर्ट भाई? लाख रूपए में कौन-सी शर्ट?" तो वो पाँच-हज़ार वाली बता देगा।

ज़रूरतें तो हो जाती हैं पूरी। तुम्हारे सामने ये जो कुर्ता पहनकर बैठा हूँ, ये कितने का है? हाँ, अब चाहूँ तो दस-हज़ार वाला भी पहन लूँ।

तो इस चक्कर में कभी मत पड़ना। ईमानदारी से देखो कि कितना चाहिए। ये सब क्यों कह रहा हूँ? क्योंकि बेटा, जितना भी कमाओगे न, वो मुफ़्त में नहीं कमाओगे। जो भी तुम्हें पैसे देगा, तुम्हारा खून चूस कर देगा। तो जब ज़्यादा कमाने की सोचो तो उसके साथ-साथ ये भी याद रखो कि कोई भी व्यापारी, बिजनेसमैन तुम्हें पैसा फ्री में नहीं दे देता। अगर वो तुमको बीस-हज़ार देगा, तो तुमसे एक लाख अर्जित भी करेगा।

तो तुम उतना खटने को अगर तैयार हो, जान गँवाने को तैयार हो, तो ही करना। और कोई तरीका होता नहीं है तुम्हारा शोषण करने का। बस लालच दिखा दिया जाए।

ये जो एम.बी.ए वाले होते हैं, ये क्या करते हैं; अभी गर्मी आ जाएगी और ये बेचारे बाइक लेकर, दिन-भर इधर से उधर मारे-मारे फिरते हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें कह दिया जाता है कि जितने क्रेडिट-कार्ड बेचोगे, तुम्हें उसपर उतना इंसेंटिव मिल जाएगा। और कई बेचारे ऐसे ही घूम रहे हैं, तुम्हारे जैसे ही लड़के।

मैं कई बार इनसे मिलता हूँ तो कहता हूँ कि “तू अपने शहर वापस क्यों नहीं लौट जाता?” तो जवाब मिलता है कि “देखिए, पैसा तो जमा करना होता है न।” मैं पूछूँ कि “तेरी क्या जरूरतें हैं, तू किस लिए पैसे जमा करेगा?” तो उसके पास कोई उत्तर नहीं होता। फिर वो तर्क निकालकर लाता है कि “अभी ज़रूरतें नहीं हैं, पर बुढ़ापे में बीमार होऊँगा तो?”

मैं कहता हूँ कि “तेरी बात वाज़िब है कि बुढ़ापे में बीमार हो गए तो? तो तू बीमार होने के लिए ही तो ये सब कर रहा है। बीमार तू अभी है नहीं, पर तू पूरा पक्का आयोजन कर रहा है कि तुझे कैंसर हो। यहाँ की जलवायु सड़ी, यहाँ का पानी ख़राब, यहाँ की हवा ख़राब। और तू दिनभर बाइक पर बैठकर पैसे इकट्ठा कर रहा है, किसलिए? 'ताकि बुढ़ापे में जब कैंसर होगा तो इलाज करा पाऊँगा।' कैंसर ऐसे हो न हो पर तू ज़रूर कैंसर पैदा कर रहा है। देख अपने दिमाग को और अपना उल्टा तर्क समझ। इससे अच्छा तू अपने छोटे शहर वापस चला जा और वहाँ अपना छोटा काम-धंधा शुरू कर दे। यहाँ से थोड़ा कम पैसा मिलेगा पर यहाँ से खर्चे भी कम होंगे। कम-से-कम चैन की ज़िन्दगी जीएगा।"

पर वो बोलता है कि “ऐसे तो नाक कट जाएगी। बिलकुल ही सब कहेंगें कि पूरा निकम्मा निकला। एम.बी.ए करके वापस घर आ गया।” कहेंगे, “एम.बी.ए करा दिल्ली से और वापस बदायूँ आ गया।” मैंने कहता हूँ कि, “तुझे नाक की फ़िक्र है या ज़िन्दगी की?” तो वो बस सर झुका लेता है।

दूसरे मन पर इतना हावी रहते हैं न कि ज़िन्दगी जाए तो जाए, नाक नहीं कटनी चाहिए। (व्यंग्य कसते हुए) मैं कहता हूँ कि इससे अच्छा तो बच्चा जिस दिन पैदा हो, उसी दिन उसकी नाक काट ही दो। ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी। ये नाक के चक्कर में इंसान अपना बड़ा बेड़ा गर्क कराता है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

ज़िन्दगी को लेकर इतने कल्पना में मत जियो। नहीं तो बड़ी ठेस लगती है, बड़े धक्के लगते हैं। अभी तो फिर भी कैंपस की चार-दीवारों के बीच में हो तो थोड़ा अपने-आपको सुरक्षित अनुभव करते होगे। पर कभी देखा करो कि आसपास क्या चल रहा है।

आज यहाँ, तुम्हारे कॉलेज पहुँचने में देर क्यों हो गई? मैं नॉएडा से आ रहा था। आज शनिवार की सुबह है और इधर गाज़ियाबाद से जो ट्रैफिक दिल्ली जाता है, वो इतना ज़्यादा होता है कि अपनी तरफ़ की सड़क छोड़ कर दूसरी तरफ़ से भी चल रहे होते हैं। तो परिणाम ये होता है कि दोनों तरफ़ का पूरा ट्रैफिक रुक जाता है।

और ये सब कौन हैं जो ऐसे ट्रैफिक-जाम लगाते हैं? ये सब तुम्हारी ही तरह के लड़के होते हैं जिन्होंने गले में एक-एक बैग डाल रखे होते हैं और बाइक पर बैठ कर ये जा रहे होते हैं सपने पूरे करने। क्या दुर्गति करा रहे हो! ये सपने पूरे हो रहे हैं? और उनमें से कोई भी इस क्षेत्र के रहने वाले नहीं होते। ये सब इधर-उधर के छोटे शहरों से आए होते हैं, यहाँ पर ‘बड़ा आदमी’ बनने।

“गुड़गाँव में नौकरी करता है लड़का”, करता क्या है, ये भी तो देख लो! मरने के लिए भेज दिया है गुड़गाँव। क्या खाता है? क्या पीता है? कैसे जीता है? देख भी तो लो एक बार। तुम बहुत खुश हो जाते हो कि पंद्रह-बीस हज़ार कमाता है गुड़गाँव में; ये भी तो देख लो कि गुड़गाँव में रहने का खर्च कितना है। सिर्फ़ रहने-रहने का किराया तो दस-हज़ार दे देता है, तो बचता क्या है उसके पास?

पर नहीं पिताजी को पता है कि फ़ायदे बहुत हैं। (व्यंग्य कसते हुए) शुक्लाजी आतुर हैं अपनी बेटी का रिश्ता कराने को। मिश्राजी का आलोक गुड़गांव में नौकरी करता है। और इधर शुक्लाजी की बिटिया बिलकुल ही अघाई जा रही है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

“कितना आनंद आएगा गुड़गाँव में रहेंगे। खूब चिकनी-चिकनी सडकें हैं।” लेटोगे सड़क पर? चाटोगे सड़क को? करोगे क्या? उस सड़क पर सिर्फ़ सड़ते हैं लोग, दिन-रात।

कल रात में सरिस्का से लौट रहे थे। चार घंटे का रास्ता पर रात में ढ़ाई बजे पहुँचा हूँ नॉएडा। रात में ग्यारह बजे, बारह बजे, एक बजे, दो बजे ट्रैफिक लगा हुआ है इस शहर में, गुड़गाँव में। बड़े-बड़े ट्रक, कार और उनके बीच-बीच में बाइक वाले। वो खुशबू ले रहे होते हैं। ट्रक का एग्जॉस्ट और वहाँ कोई बाइक वाला खड़ा होता है; ट्रक धुएँ का ग़ुबार छोड़ता है और बाइकवाला वो सारा ग़ुबार अपने अंदर ले लेता है| ज़रूरतें पूरी कर रहा है भाई, वो अपनी ज़रूरतें पूरी कर रहा है।

और उसके बॉस ने उसे रात में ग्यारह बजे छोड़ा है, अच्छी तरह से उसका खून चूसकर। हाँ लालच दे दिया है कि “जो आज तू देर तक रुका है, इसका ढ़ाई-सौ रुपया इंसेंटिव मिल जाएगा।” और वो उस ढ़ाई-सौ रूपए के पीछे अपना खून जला रहा है, धुआँ पी रहा है। और वहाँ कस्बे में उसके पिताजी चौड़े हो रहे हैं कि बेटा एम.एन.सी की नौकरी करता है।

तुम्हें समझना होना कि ये पूरा खेल क्या है। तो कल रविवार है, कल अखबारों में मैट्रिमोनियल (शादी के विज्ञापन) निकलेंगे, उन्हें पढ़ना। और उसमें तुम देखना कि तुम्हें किस तरीके से बेचा जाता है। तुम्हारी जो अभी उम्र है और एक-दो साल में तुम्हारे भी ऐसे ही इश्तेहार होंगे और ठीक ऐसे ही होंगे। और तुम कोई देवदूत तो हो नहीं; जैसे बाकी समाज के लोग हैं, वैसे ही तुम्हारे घरवाले भी होंगे। तो देखना किन तरीकों से तुम्हारा विज्ञापन निकाला जाता है।

एक दिन ऐसे ही एक इश्तेहार पर नज़र गई — वर्किंग इन गुड़गाँव (गुड़गाँव में काम करता है), वगैरह-वगैरह और फिर लिखा था *लैंग्वेजेज नोन — सी++ और जावा*। ये बीवी से जावा में बात करेगा?

(श्रोतागण हँसते हैं)

पर ऐसे ही इश्तेहार वाले बिकते हैं। और लड़कियों के तो विज्ञापन अलग ही होंगे। उन्हें ऐसे बेचा जाता है कि वो गोरी, छरहरी, सुघड़, सुन्दर, सर्वगुण सम्पन्न। और ये विज्ञापन पिताजी ने निकलवाया है, ऐसे बेच रहे हैं वो! ख़ुद देख लो, कोई मजाक नहीं कर रहा हूँ।

और इस चीज़ को पूरा करने के लिए वो आदमी बीस साल से दहेज जोड़ रहा था। कह रहा था, “ज़रूरत है पैसा इकट्ठा करने की।” अभी आजकल में शादियाँ खूब हो रही हैं। तुम्हें क्या लगता है ये जो शादियों में पैसा खर्च होता है, ये कोई ईमान की कमाई है? ये सब कैश है जो ख़र्च हो रहा है। और ज़रूरतों के नाम पर भ्रष्टाचार चल रहा है।

अगर किसी से पूछो कि, “भाई क्यों तू बिना घूस लिए काम नहीं कर सकता?” तो वो कहेगा, “अरे, रोटी-पानी भी तो चलाना है।” अब वो रोटी-पानी क्या है? बटर रोटी है। अभी शादियों का खूब दौर चल रहा है। अच्छा मौका है जब ये ध्यान से देख पाओ कि तुम्हें ऐसे ख़र्च करना भी है कि नहीं।

अपनी ज़िंदगी में से अगर तुम ऐसे दो-तीन खर्चे भी निकाल दो, तो तुम्हारी ज़िन्दगी कम पैसे में भी बड़े आराम से चलेगी। पहला ये ख्याल कि एक आलिशान मकान होना चाहिए। दूसरा ये कि बच्चों को बड़े-से-बड़े स्कूल में पढ़ाने के लिए खूब जोड़ कर रखना है। और तीसरा कि बुढ़ापे की बीमारी के लिए बचाकर रखना है। ये तीन भ्रम तुम दिमाग से निकाल दो और मुक्त जियोगे। बिलकुल मुक्त जियोगे। जितना भी मिलेगा, बहुत मिलेगा। आराम से ख़र्चा-पानी भी चलेगा और बच भी जाएगा, उधार भी दे दोगे।

आई.आई.टी , आई.आई.एम का मेरा पूरा बैच, अब डायरेक्टर के स्तर पर, सी.इ.ओ के स्तर पर पहुँच चुके हैं। अपने पूरे बैच में कोई अगर सबसे कम तनख्वाह लेता है, तो वो शायद मैं हूँ। और जितनी लेता हूँ, वो भी बच जाती है। राजा की तरह जीता हूँ, तब भी पैसा बच जाता है। और वहाँ वो घनघोर कमाते हैं, फिर भी भिखारी जैसे रहते हैं। कभी-कभी तो उनको कुछ उधार भी दे देता हूँ। और ये किसी एम.एन.सी में सी.इ.ओ हैं, जेब में पचास रूपए नहीं कि चल चाय पी लें। घर में बीवी रखी है और उसको दिलवा दिया है, क्रेडिट-कार्ड। और वो हर महीने पाँच-लाख की शॉपिंग (खरीदारी) करती है। और ये जॉब चेंज करते हैं, एक के बाद एक, क्योंकि पैसा पूरा नहीं पड़ रहा है। और वो मानती नहीं है और कहती है, “न, मलेशिया तो बहुत थर्ड-क्लास है। स्विट्ज़रलैंड भी नहीं, मंगल ग्रह चलेंगे।"

और ये बेचारे घूम रहे हैं कि इन्फ्लेशन (महंगाई) बहुत है, हाईक नहीं मिल रहा है। मैं तो पूछता हूँ, “महीने का बीस लाख तू कमाता है। तुझे कम पड़ता है?” तो वो कहता है, “अरे यार, आठ लाख तो एक मकान की इ.एम.आई में चली जाती है।” वो मकान नहीं हैं, वो बुर्ज़-ख़लीफ़ा हैं और वो इसे कम पड़ता है अभी।

(श्रोतागण हँसते हैं)

पूछो कि “क्या प्रॉब्लम (दिक्कत) है?” तो कहेगा, “दो ही स्विमिंग पूल हैं यार मकान में। एक स्विमिंग पूल छत पर भी तो होना चाहिए न।” और पूछो कि “अरे, करेगा क्या उस स्विमिंग पूल का?”, तो कोई जव़ाब नहीं मिलता। बीवी गाड़ी में समाती नहीं तो नई गाड़ी खरीदनी पड़ रही है।

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये ज़रूरतें हैं? बताओ? तुम ये सब उपद्रव करो और फ़िर कहो कि, “अब ज़रूरतें पूरी करने के लिए, बेचना पड़ेगा अपने-आपको”, तो ये कहाँ की समझदारी है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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