कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और | हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ||
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, गुरु का रूठना क्या है? बाबा बुल्लेशाह भी कहते हैं, "मैं रूठा यार मनावांगी", कृपया स्पष्ट करें।
आचार्य प्रशांत: गुरु कभी नहीं रूठता। गुरु कौन? जो सिखाये, जो पढ़ाये, जो सच से परिचय कराये। गुरु जब रूठता भी प्रतीत हो तो भी वह सच से ही तुम्हारा परिचय करा रहा है। गुरु का काम है सतत् तुमको रोशनी की ओर ले जाना, और रोशनी की ओर तुम्हें ले जाने के लिए बड़े उपाय करने पड़ते हैं। कभी प्यार से पुचकार के ले जाना पड़ता है तो कभी रूठने का उद्यम भी करना होता है।
पर गुरु के रूठने का यह मतलब नहीं है कि अब उसने तुमको रोशनी की दिशा दिखाना बंद कर दिया है। यह वह कर ही नहीं सकता, यह बात उसकी हस्ती के बाहर की है। गुरु के होने का अर्थ ही है कि वह तुमको प्रकाश तो दिखाएगा ही दिखाएगा। हाँ, कभी पुचकार के दिखलाएगा, कभी डाँटकर दिखलाएगा।
रूठा हुआ गुरु भी अपनी गुरुता का ही प्रदर्शन कर रहा है। रूठा हुआ गुरु भी गुरुता के ही अपने उपक्रम को आगे बढ़ा रहा है। तो जब लगे कि गुरु प्यार से समझा रहा है तब तो तुम्हें समझा ही रहा है और जब लगे कि गुरु तुमसे रूठ गया है और अब नहीं समझा रहा, तब भी वह तुमको समझा ही रहा है।
तो गुरु तो कभी रूठता नहीं। गुरु अगर कभी रूठता नहीं तो सवाल यह है कि क्यों कबीर साहब, क्यों बाबा बुल्लेशाह कह रहे हैं कि "गुरु रूठे नहीं ठौर, मैं रूठा यार मनावांगी"?
तुम रूठते हो गुरु से, तुम रूठते हो। हरि से रूठे हुए रहते हो इसलिए जीवन में गुरु की ज़रूरत है। गुरु जीवन में आता है, तुम्हें हरि का रास्ता बताता है, पर हरि से तो तुमको ज़रा ऐतराज़ है। तो गुरु जब तुम्हें हरि का रास्ता दिखाता है तो तुम गुरु से भी रूठ जाते हो।
वास्तव में अगर तुम हरि से लगातार सम्पृक्त ही होते तो गुरु की कोई आवश्यकता ही नहीं थी। गुरु की तो आवश्यकता है ही इसलिए क्योंकि हरि से ज़रा तुम्हारी अनबन रहती है; छत्तीस का आंकड़ा है। सच्चाई जिधर को होती है तुम उसके विपरीत ही चलते हो। तो इसलिए गुरु चाहिए। गुरु जीवन में आ भी जाए, तुम्हें प्रकाश दिखाए भी, तो भी तुम्हारे भीतर अंधेरे के लिए बड़ा मोह है; अंधेरे के बड़े भक्त, बड़े मुरीद हो तुम।
जो रोशनी से घबराएगा, उसे रोशनी लाने वाला भी क्यों भाएगा!
तो तुम गुरु से भी रूठ जाते हो। तुम कहते हो, ‘सूरज से भाग करके अंधेरे की ओर आये थे और यह लो, यह साहब अंधेरे में भी मशाल लेकर के आ गए।’
कबीर साहब कह रहे हैं — यह तुमने क्या कर डाला! परम सत्य तो अक्रिय होता है, परम सत्य तो करुणा भी नहीं जानता, परम सत्य ने तो तुम्हारे लिए बस कर्मफल का सिद्धांत रख छोड़ा है — जैसी करनी वैसी भरनी; तो परम सत्य को छोड़कर के, उससे विमुख हो करके तुम अपने द्वारा रची किन्हीं अन्य काल्पनिक अंधेरी दिशाओं को भागते हो तो परमात्मा तुम्हें रोकने नहीं आता। वह कहता है — भागो जिधर को भागना है, कर्मफल से थोड़े ही भाग पाओगे। जो करना चाहो करो, बस उसका अंजाम भुगतना।
तुम अंजाम न भुगतो इसलिए गुरु होता है; वह तुम्हारे अंधेरों में भी तुम्हारे पीछे-पीछे चला आता है। तुम सूरज का बहिष्कार कर के आये हो, वह तुममें धीरे-धीरे दीये के प्रति, लौ के प्रति, मशाल के प्रति प्रेम जागृत करता है; इस उम्मीद में कि एक दिन तुम्हें सूरज भी भाने लगेगा।
गुरु तुम्हारी आख़िरी उम्मीद है। तुम गुरु से भी अगर रूठ गए तो अब कहाँ तुम्हारा ठौर-ठिकाना? कहाँ तुम्हें आश्रय मिलेगा? कहाँ सिर झुकाओगे? न सिर झुकाने को जगह होगी, न छुपाने को। बात बहुत पते की है, बहुत व्यावहारिक है।
परम सत्य तुम्हें समझ में नहीं आया — यह बात क्षमा योग्य है क्योंकि परम सत्य मौन में बोलता है और तुम भाषाओं के कायल हो; परम सत्य निराकार है तुम साकार हो; परम सत्य गुणातीत है तुम सगुण हो; परम सत्य असीम है तुम सीमित हो। परम सत्य का और तुम्हारा कोई साम्य नहीं; परम सत्य और तुम्हारा कोई मेल नहीं; बड़ी दूरी है, बड़ी असमानता है, बड़ा भेद है।
तो परम तुम्हें समझ में नहीं आया, यह बात क्षम्य है, माफ़ी मिल जाएगी। बहुत ऊँची बात थी और तुम बहुत छोटे, बहुत नीचे। नहीं तुम्हें समझ आयी, तुम्हें कैसे दोष दिया जाए। चलो माफ़ी। लेकिन गुरु तो तुम्हारे ही जैसा था न! तुम साकार तो वह भी साकार, तुम जिस भाषा में बोलते हो वह भी उसी भाषा में समझा रहा था; तुम जिस दुनिया की बातें समझते हो वह उसी दुनिया से आ रहा था; तुम्हारा सुख-दुःख जानता था, तुम्हारे तौर-तरीके जानता था और करुणा थी उसमें, और जितने सरल तरीके से वह तुमसे बात कर सकता था उसने करी।
अब तुम्हारे पास क्या बहाना बचा? अब कैसे कहोगे कि तुम्हें बात समझ में नहीं आई? परमात्मा ने मौन में समझाया, तुम नहीं समझ पाए, चलो कोई बात नहीं। गुरु ने तो तुम्हारे शब्दों से समझाया, तुम्हारे तरीक़े से समझाया, तुम्हारा हाथ पकड़ कर समझाया; अभी भी तुम नहीं समझे। अब कैसे तरोगे? अब क्या माफ़ी मिले तुम्हें?
तुमने इतना ही नहीं किया कि तुम नहीं समझे, तुम तो रूठ ही गये। और तुम इसी बात पर रूठ गये कि तुमने हमें समझाया क्यों नहीं? तुम रूठ जाओ, गुरु नहीं रूठेगा। वह भी अव्वल दर्ज़े का ज़िद्दी है, कोई-न-कोई विधि निकालेगा तुम्हें बताने की, तुम्हें जगाने की। वह भी बेचारा है, उसके पास भी कोई और विकल्प नहीं, उसकी हस्ती है ही इसीलिए — तुम्हारे लिए।
प्र २: आचार्य जी, प्रणाम। ऐसा लगता है कि अंदर की शांति बनाए रखने के लिए बाहर एक लड़ाई लड़नी पड़ती है। यह लड़ाई कैसे लड़ी जाए? सम्यक विद्रोह क्या होता है?
आचार्य: लड़ाई तो अपने आप लड़ जाएगी, तुम्हें बहुत करना नहीं है, कपिल (प्रश्नकर्ता को संबोधित करते हुए)। करने की अपेक्षा देखने पर ध्यान दो। देखो कि बाहर लड़ाई क्यों लड़नी पड़ती है; सबसे थोड़ी तुम्हें लड़ाई लड़नी पड़ती है। बाहर लड़ाई उन्हीं से लड़ते हो न जिनके साथ कोई पुराना सम्बन्ध, स्वार्थ का कोई तार जुड़ा हुआ हो। तो तुम्हारा यह कहना कि बाहर लड़ाई लड़नी पड़ती है, पूरे तरीक़े से ठीक नहीं है।
वास्तव में वह बाहरी लड़ाई भी भीतरी ही है। नहीं तो सही काम करने के लिए तुम्हें बाहर से किसी प्रतिरोध का सामना क्यों करना पड़ता। तुम कहते हो कोई बाहर वाला है, वह तुम्हारी शांति में ख़लल डाल रहा है, तुम्हें सही काम करने से रोक रहा है, तुम उसके प्रति विद्रोह करना चाहते हो। बाहर वाला तुम्हें कैसे रोक लेगा सही काम करने से अगर तुम्हारे भीतर डर नहीं होगा, अगर तुम्हारे भीतर अश्रद्धा नहीं होगी?
ज़रूर बाहर वाले के पास कोई उपकरण है, कोई ज़रिया है तुम्हें रोकने का। क्या ज़रिया है उसके पास? कैसे रोक लेता है तुम्हें वो? उसके पास एक ही ज़रिया है — तुम्हारी कमज़ोरी, तुम्हारे डर, तुम्हारे संशय, तुम्हारी अश्रद्धा।
जब बाहर वाला कोई रोके तो समझ जाना कि भीतर अभी कुछ है जो अभी कच्चा है, कमज़ोर है। भीतर की लड़ाई लड़ लो, बाहर की लड़ाइयाँ अपने आप लड़ जाएँगी। बाहर की लड़ाइयाँ फिर बड़ी अर्थहीन लगेंगी। भीतर हार गए तो बाहर हार पक्की है, भीतर जीत गए तो बाहर की लड़ाई पता भी नहीं चलेगी।