इंद्रियों पर चलना है परधर्म || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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इंद्रियों पर चलना है परधर्म || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ।।३.३४।।

इन्द्रियों का अपने-अपने विषय में आसक्ति और द्वेष का होना अवश्यम्भावी है। उनके वश में नहीं आना चाहिए क्योंकि राग और द्वेष दोनों मोक्ष के बाधक शत्रु हैं।

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३४)

आचार्य प्रशांत: ‘ये अपना काम करेंगी, बस तुम इनके वश में मत आ जाना। इन्हें करने दो इनका काम, तुम करो अपना काम। अपना काम याद रखो!’ और अपना काम क्या होता है, इसी को लेकर के आगे जो बात कृष्ण कहते हैं, वो गीता के प्रबलतम श्लोकों में से एक है।

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।।३.३५।।

सुंदर रूप से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित होने पर भी निजधर्म श्रेष्ठतर है। अपने धर्म में मृत्यु भी कल्याणकारी है, दूसरों का धर्म भययुक्त या हानिकारक है।

~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय ३, श्लोक ३५)

“स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।“ तो अब परधर्म में जान रहे हो न किसका धर्म? चौंतीसवें श्लोक पर जाओ तो पैंतीसवाँ समझ में आ जाता है। ‘इंद्रियाँ अपने धर्म का निर्वाह कर रहीं हैं, तुम अपने धर्म का निर्वाह करो। इंद्रियाँ परायी हैं, इंद्रियों को उनका धर्म निभाने दो, तुम इंद्रियों का धर्म मत निभाने लग जाना, क्योंकि परधर्म भयावह होता है।‘

‘अपने धर्म में तुम आज मर भी जाओ अर्जुन, तो कोई बात नहीं’ – “स्वधर्मे निधनं श्रेयः” – ‘पर इंद्रियों के धर्म पर मत चलने लग जाना! आत्मा के धर्म पर चलते हुए मर जाओ, कोई बात नहीं, मन के धर्म पर मत चलने लग जाना! मन को अपना काम करने दो।‘

‘मन रोएगा, मन शोक करेगा। सामने द्रोण हैं, उनको जब तुम्हारा बाण लगेगा, हो नहीं सकता अर्जुन कि तुम रोओ नहीं। मन को शोक होगा, आँखों को अश्रु होंगे, बिलकुल ठीक है। मन को अधिकार है न अपना काम करने का? आँखों को भी अधिकार है न रोने का? आँखें रोएँ, गला रूँधे, वो उनका धर्म है। निभाने दो उन्हें उनका धर्म, उनके धर्म में भी तुम हस्तक्षेप मत करना; लेकिन तुम्हारा धर्म इस समय तीर की नोंक पर बैठा है, तुम अपने धर्म से भी पीछे मत हटना।‘

समझ में आ रही है बात?

हम दो हैं, और ये जो दो हैं इनका कोई मिलन हो नहीं सकता, और दोनों को रहना एकसाथ ही है। तो कैसे रहें? दोनों को भले ही एक ही घर में रहना है, पर एक अपना काम करे, दूसरा अपना काम करे – ये मनुष्य की स्थिति है। जैसे एक जोड़ा हो जिसे रहना एक ही घर में है, सम्बन्ध-विच्छेद हो नहीं सकता। उस घर का नाम क्या है? शरीर। उसके भीतर दो रहते हैं – पुरुष और प्रकृति; दोनों को एक ही साथ रहना है जब तक जीवन है, लेकिन दोनों में निभ सकती ही नहीं है, क्योंकि दोनों में आयामगत अंतर है।

ये विवाह की सच्चाई बता रहा हूँ आपको, वो हमारे शरीर में ही है सच्चाई बसी हुई। ये (शरीर) घर है, इसके भीतर पुरुष और प्रकृति रहते हैं; उन्हें हमेशा साथ ही रहना होगा, लेकिन वो साथ रह भी नहीं सकते। तो अध्यात्म बस यही सिखाने की कला है कि फिर जिएँ कैसे, ये जो गृह-क्लेश है इससे निपटें कैसे।

उसका तरीका कृष्ण ने बताया है – ‘इंद्रियों को (माने प्रकृति को) अपना काम करने दो, उसकी अपनी रुचियाँ हैं, और अर्जुन तुम अपना काम करो। न तुम उधर बाधा डालो, न उसे अनुमति दो तुममें बाधा डालने की; वो अपना करें, तुम अपना करो, बस! और उसके प्रति सम्मान रखो, नमन ही कर लिया करो। उसको नमस्कार करो, अपना काम करो’ – (ये है) कर्मयोग।

‘सुंदर रूप से अनुष्ठित (माने बहुत आकर्षक लगने वाला) परधर्म की अपेक्षा गुणरहित होने पर भी निजधर्म श्रेष्ठ है।‘ गुणरहित माने जिसमें प्रकृति का आपको कोई लोभ या परिणाम नहीं मिलना है, कोई सुख नहीं मिलना है; गुण माने यही सब होता है। ‘अपने धर्म पर चलकर कुछ न मिलता हो, तो भी अपना धर्म श्रेष्ठ है; और दूसरे का धर्म बड़ा खींचे, लुभाए, मोहित करे, तो भी उधर चले मत जाना।‘

यहाँ ‘दूसरा’ कौन है? यहाँ दूसरे धर्मावलंबियों की नहीं बात हो रही है भाई, कि कहो कि ये सीख दी गई है कि ईसाई या मुसलमान मत बन जाना; ये वो बात नहीं है, यहाँ तुम्हें सिखाया जा रहा है तुम्हारे बारे में। पराया यहाँ किसको बोला जा रहा है? शरीर को, प्रकृति को, इंद्रियों को, मन को – ये पराए हैं। और इनका भी अपना-अपना सबका धर्म है। धर्म तो क्या ही है! ढर्रा है जिसको धर्म कह रहे हैं। तो इनके अपने-अपने ढर्रे हैं, इनका अपना धर्म है, इनको करने दो जो कर रहे हैं।

पेट को भूख लगती है, मन को विचार करना है, वो विचार भी तो सब शरीर से ही उठते हैं! तो शरीर का अपना काम है, उसका कार्यक्रम चलता रहता है। उसके कार्यक्रम में विघ्न मत डालना, जितना हो सके दूरी बनाकर रखो – ‘पड़ा रह, तेरा कुछ कर तो सकते नहीं!’

वास्तव में घर ही उसका है। हम ये भी नहीं कह सकते कि एक घर है जिसके भीतर पुरुष और प्रकृति हैं; घर ही प्रकृति का है। तो पुरुष साहब ज़्यादा यहाँ पर रुआब झाड़ सकते नहीं हैं, क्योंकि रह तो बेटा दूसरे के ही घर में रहे हो। ज़्यादा चेतना-चेतना क्या करते हो, शरीर न होता तो चेतना कहाँ से आती? ‘घर प्रकृति का है, तो उसके साथ ज़्यादा बहस, ज़ोर-ज़बरदस्ती और लड़ाई वगैरह का कोई तुक बनता नहीं, अर्जुन! उसका घर है, यहाँ पर उसके नियम-कायदे चलते हैं, चलने दो, घर उसी के सुपुर्द कर दो। तुम तो अपना एक कोना ले लो और चुपचाप उसमें अपना कार्यक्रम चलाते रहो।‘

इसीलिए आत्मा को बिंदु कहा गया है। प्रकृति को भी बिंदु कहा गया है। प्रकृति को कहा गया है कि अखिल विस्तार उसका है, पूरा घर उसका है; पूरा घर दे दो, अपने लिए तुम कहीं पर एक बिंदु खोज लो, वहीं छुप जाया करो।

बातचीत द्विअर्थी हो रही है, दोनों अर्थों को समझिएगा। समय-समय पर कुरुक्षेत्र बदलते रहते हैं; युद्ध पुराना है, युद्धस्थल अलग-अलग तरह के होते हैं। लेकिन सब युद्धस्थलों पर गीता की सीख लागू होती है। तो सीखिए अर्जुनों!

(श्रोतागण हँसते हैं)

समझ में आ रही है बात?

“स्वधर्मे निधनं श्रेय:” ‘लेकिन तुमने जो अपना कोना पकड़ा है, उसमें फिर किसी की दखलअंदाज़ी मत होने दो, फिर चाहे जान भी देनी पड़े, कोई बात नहीं, ख़त्म। बाकी हम कहीं आकर के कुछ करेंगे नहीं, लेकिन जो हमारा है, उसमें हस्तक्षेप बर्दाश्त बिलकुल नहीं।‘

मैं जब अपनी पहली नौकरी में गया था तो वहाँ ऐसे ही बैठे-बैठे मैं एक ‘शेर’ लिख रहा था, तो उसमें से एक लिखा था, ‘हज़ार दायरों में बाँध लो तुम ज़िंदगी मेरी, मैं बस एक दायरा अपना चाहता हूँ।‘ तब मुझे पता भी नहीं था कि ये मैं तीसरे अध्याय के पैंतीसवें श्लोक की बात कर रहा हूँ, पर बात वही थी – ‘बाकी सब तुम्हारा है, उस पर तुम्हारा ही राज चलेगा।‘

असल में वो उतनी बड़ी व्यवस्था के आगे मैं बड़ा बेबस अनुभव कर रहा था। बहुत बड़ी कम्पनी थी, बहुत विशाल उनके ऑपरेशन्स (कार्य-विधियाँ) थे, और मैं नया-नया एक फ्रेशर (नवप्रवेशी) की तरह वहाँ ज्वॉइन (नियुक्त) किया था। तो उनके नियम-कायदे, ये-वो, पचास चीज़ें – उसके आगे तो मेरा कोई ज़ोर चलना था नहीं। मैंने लिखा, ‘हज़ार दायरों में बाँध लो तुम ज़िंदगी मेरी, मैं बस एक दायरा अपना चाहता हूँ।‘ वो यही था – तीसरा अध्याय, पैंतीसवाँ श्लोक।

और भी थे उसमें:

‘खुल के उड़ने, उड़ के गिरने के किस्से ख़ूब सुने मैंने, सब याद हैं मुझे, अब उड़ना चाहता हूँ।‘

और था, शायद वेबसाइट पर ही पूरी पड़ी हुई है; १९९९ की होगी या २००० की।

तो “परधर्मो भयावह:”। ठीक है? आँखों का काम है कि जो भी दृश्य शारीरिक संस्कार के अनुसार आकर्षक लगे उधर को खिंच जाना, ऐसे देखने लग जाना। आँखें खिच गईं, तुम मत चले जाना, तुम अपनी जगह पर अचल-अटल रहो। और तुम नहीं गए तो आँखें भी कितनी देर तक घूरेंगी? आँखों को भी वहाँ तक जाने के लिए तुम्हारी सहायता, तुम्हारी ऊर्जा चाहिए। तुम नहीं गए तो आँखें भी वापस आ जाएँगी।

समझ में आ रही है बात?

ये भी लिख लेना। जहाँ लिखो ‘युध्यस्व’, उसके नीचे लिख लेना ‘स्वधर्मे निधनं श्रेय:’; अब बात और तीखी हो जाएगी, कि लड़ना भी है और लड़ाई में मौत भी आ गई तो धर्म है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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