अंकित त्यागी: नमस्कार, बहुत-बहुत स्वागत है आपका एनडीटीवी की एक विशेष पेशकश में। और आज जो विशिष्ट व्यक्ति हमारे साथ चर्चा करने के लिए हैं, उनका इंट्रोडक्शन दो-चार शब्दों में देना थोड़ा मुश्किल काम ज़रूर है, क्योंकि फिलहाल उनको काफी सारे लोग, उनके जो चैनल में जिस तरह से वो बात करते हैं, यूट्यूब में जिस तरह से वो बात करते हैं — उससे भी जानते होंगे। लेकिन एक लाइफ लॉन्ग गीता और वेदांत के स्टूडेंट के तौर पर अगर मैं आपको प्रस्तुत करूँ, और उनको अगर मैं साथ ही साथ एक ऑथर, एक फिलॉसफर के तौर पर प्रस्तुत करूँ, तो शायद आप बड़े अच्छे से पहचान पाएँगे।
हमारे साथ आचार्य प्रशांत जी हैं। बहुत-बहुत शुक्रिया, हमें समय देने के लिए।
सबसे पहले जब मैं यहाँ पर आ रहा था, तो मुझे बताया गया कि अभी — बिकॉज़ अगर आप में वैसे ही शायद ही कोई हो जिसको ये पता ना हो — कि आप आईआईटी-आईआईएम एल्युमनाई हैं। तो आईआईटी दिल्ली एल्युमनाई एसोसिएशन ने आपको एक अवार्ड दिया, अभी काफी महत्वपूर्ण अवार्ड है। आपसे पहले जिन लोगों की लिस्ट में उसका नाम आता है, वो बहुत बड़े-बड़े लोग हैं। राष्ट्रीय विकास में उत्कृष्ट योगदान का आपको पुरस्कार से नवाज़ा गया। तो मुझे लगा कि आज की चर्चा जो है, वो इन्हीं कुछ शब्दों के इर्द-गिर्द शुरू करते हैं।
सबसे पहले, कॉन्ग्रैचुलेशन्स आपको इस अवार्ड के लिए। दूसरा, मैं आपसे जानना चाहूँगा कि राष्ट्र विकास — नेशन डेवलपमेंट — राष्ट्र विकास होता क्या है? क्या सिर्फ़ जीडीपी कहीं पहुँचना, ट्रिलियंस में आपकी इकॉनमी पहुँचना — उससे लेबल लग जाता है: विकसित देश, विकासशील देश या गरीब देश? या उसके लिए लोगों का एक आत्मचिंतन, आत्ममंथन, उनका ख़ुद का एक सेल्फ़ डेवलपमेंट भी इंपॉर्टेंट होता है किसी देश को विकसित होने के लिए?
आचार्य प्रशांत: देखिए, सबसे पहले तो हम जितनी भी बातें करें, वो सब इंसानों के लिए हैं। अब और व्यापक तौर पर देखें, तो जितनी प्रजातियाँ हैं पृथ्वी पर, सबके लिए होनी चाहिए। पर उनको अभी अगर हम अलग भी रख दें, तो राष्ट्र इंसानों के लिए होता है — जो लोग वहाँ पर रह रहे हैं।
आप जीडीपी की बात कर रहे हैं, जीडीपी भी हमारे लिए होता है न। तो जो कुछ भी है, जिसको हम वृद्धि का, ग्रोथ का सूचक मानते हैं — वो मुझे बेहतरी दे रहा है कि नहीं दे रहा है, इससे विकास निर्धारित होता है। बाहर जो चीज़ें चल रही हैं, उनको हम बोल देते हैं ग्रोथ — वृद्धि। और उस वृद्धि का भीतरी तौर पर मुझ पर क्या असर पड़ रहा है — वो कहलाता है विकास।
वरना ऐसा बिल्कुल हो सकता है कि ग्रोथ है बहुत, पर डेवलपमेंट नहीं है। इस अवार्ड का भी नाम ग्रोथ नहीं है — डेवलपमेंट अवार्ड है न? "आउटस्टैंडिंग कंट्रीब्यूशन टू नेशनल डेवलपमेंट।"
ये बिल्कुल हो सकता है कि बाहर बहुत सारी चीज़ें हो गई हैं, ये, वो — लेकिन मुझे पता ही नहीं है कि उन चीज़ों से मुझे क्या मिल रहा है। मैं बस हो सकता है, खुश हो रहा हूँ, या कि एक बहुत बड़ा समुदाय हो, समूह हो — वो खुश हो रहा हो कि बाहर इतना कुछ हो गया है। पर भीतरी तौर पर मैं अभी भी बिल्कुल अपरिपक्व हूँ, और बेचैन हूँ, और खोखला हूँ, और डरा हुआ हूँ।
तो हम जो कुछ भी करें ज़िन्दगी में, उसका उद्देश्य मनुष्य होता है। मनुष्य भीतर से बेहतर हो पा रहा है कि नहीं हो पा रहा है?
हम बाहर भी जो कुछ करें, उसका उद्देश्य आंतरिक बेहतरी ही होता है।
तो विकास माने कि मैं जिस अपूर्णता के साथ पैदा हुआ था, मैं जिस अंधेरे के साथ पैदा हुआ था — सभी होते हैं, बच्चा छोटा पैदा होता है — तो वो तो बस ऐसे ही साधारण वृत्तियों का, जानवर जैसी पाश्विक वृत्तियों का एक पुतला ही होता है।
विकास का मतलब होता है कि मैं अपनी चेतना को ऊँचाइयाँ दे पाया कि नहीं, मैं भीतर के अपने सब बंधनों को काट पाया कि नहीं। और इस विकास के लिए ज़रूरी हो जाता है कि बाहर भी कुछ परिवर्तन किए जाएँ। तो बाहर-बाहर जो परिवर्तन होते हैं, वो आखिरी चीज़ नहीं होते। उनको हम एन एंड इन देमसेल्व्स नहीं कह सकते। वो इसलिए हैं, ताकि हम भीतर से ठीक हो पाएँ। तो ये तो चीज़ हुई विकास की।
दूसरा, आपने बड़ा सुंदर कहा कि, राष्ट्र माने क्या? कुछ लोग हैं, वो कहते हैं कि हम एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, हम एक-दूसरे से एक फ्रेटरनिटी, बंधुत्व अनुभव करते हैं — तो उनको हम कहते हैं: नाउ देइ कंस्टीट्यूट अ नेशन अभी एक राष्ट्र हैं। तो हम, आप — यहाँ 5, 7, 10, 20 या 10-20 लाख या 10-20 करोड़ लोग हो जाएँ, और हम सब आपस में किसी आधार पर एक एकत्व अनुभव करते हों — तो हम अपने आप में एक राष्ट्र कहलाएँगे।
यहाँ तक तो बात बहुत अच्छी है, कि भाई, आपस में आपको लग रहा है कुछ समानता है, कुछ मेल है, कुछ भाईचारा है, कुछ कहीं पर संगम है, मिलाप है — तो आप एक राष्ट्र हो गए। लेकिन राष्ट्रीयता के बड़े गड़बड़ आधार भी हो सकते हैं। और इसीलिए बहुत सारे ऊँचे विचारकों ने राष्ट्रीयता को लेकर के सावधान रहने को कहा है।
अल्बर्ट आइंस्टीन कहा करते थे कि ये जो पूरा नेशनलिज़्म का कॉन्सेप्ट है — उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका देखी थी न, और वो नेशनलिज़्म के कारण ही पूरा भड़का था — बोलते थे कि ये नेशनलिज़्म जो है, दिस इज द इन्फेंसी ऑफ़ कॉन्शसनेस। ये एक इन्फैंटाइल, जुवेनाइल कॉन्सेप्ट है, जिसमें कोई परिपक्वता, मेच्योरिटी नहीं है, बच्चों की बात है। आगे चल के उन्होंने कहा: इट इज़ द मीज़ल्स ऑफ़ मैनकाइंड। जैसे छोटे बच्चों को बीमारी लग जाती है छुटपन में, तो बोलते हैं, वैसे ही जब एक समुदाय की चेतना को बीमारी लग जाती है, तो वहाँ से नेशनलिज़्म का जन्म होता है।
और बिल्कुल घर की तरफ देखें, तो हमारे रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी नेशनलिज़्म को लेकर के — जिस तरह का उग्र राष्ट्रवाद उन दिनों में था, पहले द्विश्व युद्ध के थोड़ा सा पहले से लेकर के दूसरे विश्व युद्ध तक — तो उसको लेकर के वो कहते थे: "सतर्क रहो राष्ट्रवाद से।" क्यों कहते थे?
क्योंकि हम-आप बिल्कुल कह सकते हैं कि हम जुड़े हुए हैं। लेकिन अगर हम कह रहे हैं कि हम इस आधार पर जुड़े हुए हैं कि हम ही बेहतर हैं और दूसरा गड़बड़ है — या हमारी खाल का रंग भूरा है, तो हम सब एक लोग हैं, और जिनकी खाल का रंग भूरा नहीं है, वो दूसरे लोग हैं — या हम सब एक भाषा बोलते हैं — या हम सब एक पंथ, धर्म, मज़हब में हैं, तो हम एक राष्ट्र हैं — तो बात गड़बड़ हो जाती है। क्योंकि अब ये जो परिभाषा है, विभाजक है, डिविसिव है। ये कहेगी कि जो मेरी भाषा नहीं बोलता, वो एक दूसरे राष्ट्र का हो गया।
लिंग्विस्टिक नेशनलिज़्म — हम कहते हैं न, जिसके आधार पर बांग्लादेश का जन्म हुआ था। एथनिक नेशनलिज़्म — कि हम एक ख़ास जाति को प्रतिनिधित्व देते हैं, बिलॉन्ग करते हैं, तो हम एक अलग राष्ट्र हो गए। अब जब ऐसा होता है, तो बड़ी भारी लड़ाइयाँ हो जाती हैं पर भारत राष्ट्र अलग है इनसे।
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि जो भारत राष्ट्र है, वो बाँटने के लिए नहीं — दुनिया को ऊँचाई देने के लिए है। तो जो भारतीय राष्ट्रीयता है, इसका अलग आधार है, इसका आधार है — स्वयं को जानना, बेहतर होना, और विभाजन की जितनी दीवारें हैं, इनको गिराना। समझ रहे हैं?
एक राष्ट्रीयता ये हो सकती है — कि आप ईसाई, मैं ईसाई, तो हम एक राष्ट्र हो गए — ठीक है? या आप एक भाषा बोलते हो, मैं एक भाषा बोलता हूँ तो हम एक राष्ट्र हो गए — ठीक है न? या हम एक नस्ल के हैं, जैसे नाज़ी जर्मनी में चलता था — "वी आर द प्योर आर्यन ब्लड" — हम एक नस्ल के हैं, तो हम एक राष्ट्र हो गए। तो एक ये हो सकता है राष्ट्रीयता का आधार — गड़बड़ आधार होता है।
राष्ट्रीयता का असली आधार होता है: कि क्या मैं दुनिया भर के सब लोगों को देख सकता हूँ अपनी ही तरह? क्या मैं अपना बंधन, अपना दुख मिटाने के लिए उपाय कर सकता हूँ? और इस नाते, फिर मैं सबके लिए कल्याण का स्रोत बन सकता हूँ?
तो जो-जो लोग इस तरह देख पा रहे हैं, सोच पा रहे हैं — वो सब एक राष्ट्र बन गए।
तो हमारा संविधान भी इस राष्ट्रीयता के सिद्धांतों का बड़ा उत्कृष्ट प्रतिनिधि है, जो हमारी राष्ट्रीयता है। ले-देकर चाहे मानव विकास की बात हो और चाहे भारत राष्ट्र की बात हो, दोनों के केंद्र में ये जो व्यक्ति है, इंसान है, इसकी चेतना बैठी हुई है। हम भीतर से बेहतर हो पाएँ, हमारे भीतर जो एनीमलिस्टिक टेंडेन्सीज़ होती हैं — दूसरे से छीन-झपट लेना, दूसरे से ईर्ष्या रखना, नफ़रत रखना — वो सब हटें, तो फिर हम एक अच्छे राष्ट्र कहलाने के अधिकारी हुए।
तो नेशनल डेवलपमेंट फिर क्या चीज़ हुई? कि जितने भी राष्ट्र के लोग हैं, जो कहें कि हम भारत राष्ट्र के हैं — उनको सही दिशा दिखाना, ताकि उनका विचार, उनकी चेतना, उनका आत्मचिंतन, एक रोशनी की तरफ बढ़े। नहीं तो भीतर बहुत सारी अंधेरी गुफाएँ होती हैं और रपटीली ढलानें होती हैं — उसमें फिसल जाना बहुत आसान है।
अंकित त्यागी: अगर मैं इससे पूछूँ — तो फिर, क्या जिस तरीक़े का एक पैमाना जीडीपी और इकोनॉमिक ग्रोथ को मान लिया गया है, किसी भी देश को डिवेलप्ड, डिवेलपिंग या अंडरडिवेलप्ड देश बोलने के लिए — उस पे भी एक पुनर्विचार की आवश्यकता है?
आचार्य प्रशांत: नहीं, देखिए — ये तो इकॉनॉमिक्स भी साफ़-साफ़ कहती है कि ग्रोथ और डेवलपमेंट एक चीज़ तो होते नहीं, ये तो बहुत साधारण सा सिद्धांत है, अर्थशास्त्र का भी। दिक़्क़त ये है कि जब हम एक बेहोश बहाव में होते हैं ना — तो हमें लगने लग जाता है कि ग्रोथ ही डेवलपमेंट है और हम जीडीपी,जीडीपी करते रहते हैं। जबकि जो ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स है, उसका एक बहुत छोटा सा हिस्सा है।
और ऐसे दुनिया में कई उदाहरण हैं, जहाँ अच्छा है — लेकिन फिर भी ह्यूमन डेवलपमेंट, जीडीपी के जितने भी कारक हैं और सूचकांक हैं, वो अच्छे नहीं हैं। वहाँ पर आप पाएँगे कि इनकम डिस्पैरिटी बहुत ज़्यादा है, *जेंडर डिस्पैरिटी*बहुत ज़्यादा है, जेंडर एम्पावरमेंट बहुत पुअर है। और अब तो एक हैप्पीनेस इंडेक्स भी आ गया है।
बहुत सारे ऐसे देश हैं, जिनका पर कैपिटा जीडीपी भी बहुत अच्छा है, पर वहाँ पर हैप्पीनेस कोटिएंट जो है, वो बहुत पुअर है।
अंकित त्यागी: या उल्टा भी है कुछ जगह पे — भूटान में है।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल, बिल्कुल, बहुत बढ़िया। तो इससे हमें ये पता चलता है कि जडीपी अपने आप में कोई अंत, कोई लक्ष्य नहीं हो सकता। जडीपी माने — बाहरी तरक्की। मेरी सड़क बन गई, मेरी फैक्ट्रियाँ ज़्यादा उत्पादन कर रही हैं, मैं ज़्यादा दुनिया के साथ व्यापार कर रहा हूँ — इन सबसे जडीपी बढ़ता है। लेकिन ये अपने आप में अंत नहीं हो सकता, वो सब तभी तक अच्छा है, जब तक उससे इंसान को लाभ हो रहा हो।
और इंसान को लाभ हो रहा है कि नहीं — ये जानने के लिए इंसान को पहले ये पता करना पड़ेगा कि वो है कौन? मुझे यही नहीं पता कि मैं कौन हूँ? मेरी बीमारी क्या है? तो मुझे ये कैसे पता चलेगा कि मेरी दवाई क्या है?
तो, ख़ुद को जानना — ये नज़रें, जो लगातार बाहर को देखती रहती हैं, इनको ख़ुद की ओर मोड़ना — विकास की दिशा में पहला क़दम है। क्योंकि अगर मुझे यही नहीं पता — फिर कह रहा हूँ — कि मेरे बंधन कहाँ हैं, तो मैं फिर मुक्ति की, आज़ादी की, या स्वतंत्रता की ओर कैसे बढ़ सकता हूँ?
तो इसलिए — ना तो राष्ट्रीयता पनप सकती है, अच्छी राष्ट्रीयता, सुंदर राष्ट्रीयता और ना राष्ट्र का विकास हो सकता है, जब तक हम इस इकाई "मनुष्य" के तल पर — जो यूनिट है, द ह्यूमन बीइंग — उसके तल पर उसको बेहतर नहीं बनाते। तो राष्ट्र के विकास का सबसे अच्छा तरीका है — राष्ट्र के लोगों को भीतरी तल पर बेहतर बनाना।
अंकित त्यागी: क्या आपको लगता है कि उस जनचेतना में या लोगों को अपने ऊपर, कम से कम, ख़ुद पर ध्यान देने में, अंदर देखने में — क्योंकि ये बड़ा मुश्किल काम होता है — और बहुत लोगों को, जो आपसे बात करते होंगे या आपको सुनते हैं, उनको लगता है कि शायद उसमें आप उनकी मदद कर पाते हैं, अपने ख़ुद के अंदर देखने में?
तो क्या आपको लगता है कि वो जो आपाधापी है, एक ट्रेडिशनल सेंस में तरक्की की, उसमें पीछे छूटती जा रही है जनचेतना — ख़ुद के अंदर देखना, ख़ुद से सवाल पूछना?
आचार्य प्रशांत: देखिए — भीतर हमारे एक खोखलापन है, भीतर एक बेचैनी है, तभी तो हम बाहर भी इतना भागते हैं ना! जितना आदमी परेशान होता है, उतना वो बाहर की दिशा में भागता है। तो मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि बाहर की दिशा में भागना बंद करो — मैं तो कहता हूँ कि बाहर जिस दिशा में भाग रहे हो, पूछो अपने आप से कि क्या तुम्हें वहाँ वो मिल रहा है जो तुम चाहते हो?
कहीं ऐसा तो नहीं कि भागते-भागते तुम ये भूल ही गए हो कि भाग क्यों रहे हो? भाग अपनी ख़ातिर रहे हो।
मैन इज़ द एंड, एंड मेज़र ऑफ एवरीथिंग* है ना? हम जो भी कर रहे हैं, अपने लिए ही कर रहे हैं। अपने लिए कर रहा हूँ — तो जो कर रहा हूँ, उसमें से मुझे कुछ मिल भी रहा है क्या? ये पूछना बहुत ज़रूरी है।
तो, ख़ुद को देखना माने और क्या होता है? मैं इन आँखों को मोड़कर के भीतर तो लगा नहीं सकता। और कोई आप एक्स-रे वग़ैरह कर भी ले इस शरीर के भीतर, कह दे — तो उसमें से क्या निकलेगा? ख़ुद को देखना माने यही होता है।
अपने विचारों, अपनी भावनाओं, अपने कर्मों को साफ-साफ देखना, उनको ऑब्जर्व करना, अवलोकन करना — उनका यही है। तो आप ऑफिस जा रहे हो, भागे जा रहे हो। कहते, थोड़ा सा पूछना — ऑफिस जा रहे हो, समय लगा रहे हो, ऊर्जा लगा रहे हो, कब से किए जा रहे हो? आगे भी यही करने का इरादा है? मिल क्या रहा है?
और हम ये नहीं कह रहे, कुछ नहीं मिल रहा है। हम तो बस पूछ रहे हैं कि — मिल क्या रहा है? एक बहुत मासूम सा सवाल है कि — क्या मिल रहा है? और कुछ तो मिल ही रहा है। देखिए, आदमी को सैलरी मिलती है, पैसा मिलता है। पैसा भी ज़रूरी है, पैसा न हो तो आदमी को शिक्षा भी न मिले, रोटी-पानी में समस्या आ जाए। लेकिन, किस हद तक वो जो पैसा है, हमारे काम आ रहा है, हमें स्वयं से पूछना पड़ेगा।
क्योंकि आज भारत में भी एक बहुत बड़ा तबका उभर के आ रहा है, जिसको अब आप और ज़्यादा पैसा दे दें — तो इससे ऐसा नहीं है कि उसकी जो बेसिक वेलफेयर या नीड्स हैं, वो पूरी होंगी, वो सब पहले ही पूरी हो चुकी हैं। तो उन्हें अपने आप से पूछना पड़ेगा कि — हम जो कर रहे हैं, उसमें अब मेरे लिए है क्या?
काफी सीधा, स्पष्ट और स्वार्थी सवाल है और इस हद तक स्वार्थी हमें होना पड़ेगा। अध्यात्म यही सिखाता है — पूछो तो कि इसमें तुम्हें मिल क्या रहा है?
अंकित त्यागी: मतलब, शून्य सिर्फ़ बढ़ाते ना जाएँ अपनी इनकम में, सोचें कि।
आचार्य प्रशांत: भीतर की शून्यता का क्या हाल है? बाहर आप किन्हीं भी चीज़ों में और शून्य, शून्य, शून्य बढ़ा के — दस गुना, हज़ार गुना। लेकिन भीतर जो बैठा हुआ है — खालीपन, रिक्तता, एम्प्टिनेस, एक वॉयड बैठा है भीतर — वो तो वैसे का वैसा है! और वो परेशान बहुत कर रहा है और वो जितना परेशान करता है, हम उतना बाहर की ओर भागते हैं।
ये तो कोई तरीका नहीं हुआ।
अंकित त्यागी: अगर कोई अभी इसको देख रहा होगा, कहेगा कि — जैसे हमने "आउटस्टैंडिंग कॉन्ट्रिब्यूशन इन नेशनल डेवलपमेंट" से बात शुरू करी थी, तो उसको लगेगा कि — देखिए, मैं टैक्स देता हूँ। मेरा भी तो डेवलपमेंट में कंट्रीब्यूशन हो रहा है। लेकिन हम फिर उस ट्रेडिशनल सेंस में बात कर रहे हैं।
अगर मैं अभी आपसे पूछूँ कि — मैं कैसे, जिस राष्ट्र की हम बात कर रहे हैं, जिस नेशनल डेवलपमेंट की हम बात कर रहे हैं — सिर्फ़ जीडीपी नंबर्स की नहीं — उसमें मैं कैसे योगदान दे सकता हूँ? ख़ुद बेहतर हो के।
आचार्य प्रशांत: आज हम सारी बात यही कर रहे हैं कि जो इकाई है, राष्ट्र की भी और विकास की भी, वो इंसान है — द ह्यूमन बीइंग। अगर मैं बेहतर नहीं हूँ और मैं कहूँ कि — मैं बहुत बड़ा राष्ट्र प्रेमी हूँ, या देशभक्त हूँ, पैट्रियट हूँ, नेशनलिस्ट हूँ, तो ये बात बहुत खोखली है और पाखंड की है।
एक इंसान जो अपने भीतर उलझा हुआ है, वो किसी के लिए अच्छा नहीं हो सकता। तो फिर वो देश के लिए, राष्ट्र के लिए कैसे अच्छा हो जाएगा? एक इंसान जो अपने ही भीतर बिल्कुल परेशान है, और झूठ से भरा हुआ है, वो अपने माँ-बाप, अपने बच्चों, अपने पड़ोसी, अपनी पत्नी, अपने पति — किसी के लिए अच्छा नहीं हो सकता है। तो फिर वो एक वृहदत्तर समुदाय, एक ब्रॉडर कम्युनिटी, जिसको आप नेशन कह रहे हो — वो उनके लिए भी अच्छा कैसे हो सकता है?
तो ये सोचना कि — मैं आदमी तो गड़बड़ हूँ, मुझे कोई होश नहीं रहता कि मैं कैसे जी रहा हूँ, क्या कर रहा हूँ, क्यों कर रहा हूँ, इधर-उधर भागता रहता हूँ, भीड़ के पीछे, ठोकरें खाता रहता हूँ। मैं आदमी तो ऐसा हूँ, “बट आई लव कॉलिंग माईसेल्फ़ अ नेशनलिस्ट!” मुझे बड़ा अच्छा लगता है जब कोई कहता है — इनसे मिलिए, ये राष्ट्र प्रेमी हैं!
आप राष्ट्र प्रेमी नहीं हो सकते, अगर अभी आप एक सुलझे हुए इंसान ही नहीं हैं तो।
तो शायद ये जो उन्होंने अवार्ड भी मुझे दिया है, यही देख के और समझ कर के दिया है कि — अगर आप इंसान को बेहतर बना रहे हो, तो ये राष्ट्र को बेहतर बनाने का सबसे अच्छा तरीका है।
अंकित त्यागी: क्योंकि अभी आपने वो दोनों शब्दों का इस्तेमाल किया — नेशनलिस्ट और पैट्रियॉटिक या पैट्रियॉटिज़्म वग़ैरह की, उसकी हम बात करें। एक डेफिनेशन आपने शुरुआत में बताई जब हम राष्ट्र की बात कर रहे थे — जो हमने सेकंड वर्ल्ड वार के टाइम में, यानी कि 1930-40 में भी देखी। अभी भी हम कई जगह पर उस तरह की बातों को सुनते हैं, हमारे देश में भी सुनते हैं। फ़र्क़ क्या होता है दोनों में? मैं नेशनलिस्ट हूँ और मैं पैट्रियॉटिक हूँ — इन दोनों में फ़र्क़ क्या है?
आचार्य प्रशांत: देखिए, आदर्श तौर पर दोनों का अर्थ एक होना चाहिए पर जमीनी तौर पर, जैसे हम उसका इस्तेमाल करते हैं, इन दोनों के अर्थ में बड़ा अंतर आ जाता है। अपने आप को पैट्रियॉटिक कहने का मतलब होता है — मैं देश प्रेमी हूँ। ठीक है? ये देश है, ये देश के लोग हैं, ये देश की संपदा है, इसमें देश की तरक्की है, विकास है — और मैं उससे मतलब रखता हूँ।
ये मेरे देश की ज़मीन है, मेरे देश के जंगल हैं, ये मेरे देश की वन-संपदा है, मैं इन सबको बेहतर बनाना चाहता हूँ। इसमें रिश्ता मेरे और देश के बीच का है। देशप्रेमी — मैं, मेरा देश और मुझे मेरे देश से प्यार है, इन दो की बात हो रही है बस, ये पेट्रियट हो गया।
नेशनलिज्म जो है ना, उसमें व्यवहारिक तौर पर एक तीसरे का प्रवेश हो जाता है। पेट्रियोटिज़्म में तो यही दो हैं — मैं और मेरा देश। नेशनलिज़्म में एक तीसरा देश भी आ जाता है। नेशनलिज़्म कहता है, राष्ट्रवाद कहता है, ख़ासकर उग्र राष्ट्रवाद कहता है कि मेरा राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से बेहतर है। अब बात ये नहीं है कि मेरा और मेरे राष्ट्र का रिश्ता क्या है; अब बात ये है कि मेरे राष्ट्र का और दूसरे राष्ट्र का रिश्ता क्या है। तो इसलिए जो नेशनलिज़्म होता है, वो बहुत जल्दी एक उग्र, एक एक्स्ट्रीम, एक क्रोधित और हिंसक रूप अख़्तियार कर लेता है।
तो इसलिए इन दोनों में अंतर आ जाता है। नेशनलिस्ट्स आमतौर पर रह नहीं पाते हैं ये कहे बिना कि — "ये जो मेरे लोग हैं, और मेरा जो विचार है, और जो मेरी संस्कृति है, और जो कुछ भी है जिसको मैं अपना राष्ट्र कहता हूँ, वो पूरी दुनिया में सबसे श्रेष्ठ है।" क्यों? क्योंकि मैं यहाँ पैदा हुआ। मैं कहीं और पैदा हुआ होता तो मैं कहता वो जगह सबसे श्रेष्ठ है।
तो इसलिए फिर पेट्रियोटिज़्म और नेशनलिज्म दो अलग-अलग बातें हो जाती हैं। इन्हें होना नहीं चाहिए अलग-अलग, लेकिन लोगों का अज्ञान इनको अलग बना देता है।
अंकित त्यागी: मतलब अगर मैं थोड़ा ठीक समझा हूँ, तो कहीं न कहीं उग्र नेशनलिज़्म का पर्याय ये हो जाता है कि आप एक कॉन्स्टेंट कम्पटीशन में हैं, औरों को अपने से नीचा दिखाने के लिए।
और एक पेट्रियट जो है, उसका रिलेशनशिप अपने जहाँ पर वो है, उसको बेहतर बनाने में है।
आचार्य प्रशांत: बिल्कुल — मैं हूँ और मेरा देश है और मुझे उसे बेहतर बनाना है, और बहुत ईमानदारी से मैं देखूँगा कि क्या रोक रहा है मेरे देश को तरक्की करने से। मैं बहुत ईमानदारी से देखूँगा कि मैं अपने आप को देशप्रेमी बोलता हूँ, लेकिन क्या सचमुच मैं स्वयं को जानता हूँ, और मैं देश के प्रति अपने कर्तव्य को जानता हूँ?
अगर मैं ख़ुद को ही नहीं जानता, तो मुझे ये भी नहीं पता कि मेरा मेरे बच्चे के प्रति क्या कर्तव्य है, मेरे पिता के प्रति क्या कर्तव्य है, मैं नहीं जान पाऊँगा। मैं किसी रटी-रटाई चीज़ पर चल दूँगा, मुझे खुद कुछ नहीं पता होगा मौलिक तौर पर। तो उसी तरीके से, जब तक इंसान को अपना न पता हो, वो ये भी नहीं जानता कि देश से उसका रिश्ता क्या है।
मैं और मेरे देश के बीच में, हमारे मध्य एक प्रेम का रिश्ता हो जाए, ये देशप्रेम है, ये पेट्रियोटिज़्म है। वहाँ पर ये आ जाए कि मेरी गाड़ी मेरे पड़ोसी की गाड़ी से ऊपर की है — हमारा यही रहता है ना? "मेरा बच्चा मेरे मोहल्ले में सबसे बेहतर बच्चा है। अब भले ही उसकी टीचर ये न मानती हो, उसका रिपोर्ट कार्ड ये न मानता हो, पर सबको ये लगता है — मेरा बच्चा है न, तो मेरा बच्चा तो बेस्ट होगा ही होगा।" ये जो है, ये कॉम्पिटिटिव नेशनलिज़्म है। ये वायलेंट नेशनलिज़्म है। और ये गड़बड़ चीज़ हो जाती है।
फिर इसलिए — आइंस्टीन हो, चाहे रवींद्रनाथ टैगोर हों — उन्होंने कहा, सतर्क रहना, राष्ट्रवाद गड़बड़ हो सकता है, लेकिन ज़रूरी नहीं है कि गड़बड़ हो। जो भारतीय राष्ट्रवाद है, अगर उसके सही आधार को देखा जाए, तो वो अध्यात्म है। यही बात स्वामी विवेकानंद ने कही थी, यही बात मैं कहता हूँ और वेदांत के ही जो ऊँचे आदर्श हैं, वो हमें हमारे संविधान में भी दिखाई देते हैं।
तो जो इंडियन नेशन है, उसके आधार में हिंसा नहीं है, उसके आधार में प्रतियोगिता नहीं है, उसके आधार में वर्चस्व (डॉमिनेंस) नहीं है। उसके आधार में कुछ और है — उसके आधार में है इंसान की भीतरी तरक्की।
अंकित त्यागी: क्या इसी वजह से आपको लगता है कि भारत में इतनी विविधता होने के बावजूद हम एक अलग-अलग भाषा के लोग, अलग-अलग दिखने वाले लोग — अपने-आप को एक सूत्र में पाते हैं?
आचार्य प्रशांत: और जिस दिन ये जो हमारा भारत देश है, इसके एक हिस्से के लोग दूसरे हिस्से पर चढ़ना शुरू कर देंगे, उस दिन समझ लीजिए कि हमारी राष्ट्रीयता के आधार पर ही हमने फावड़ा चलाना शुरू कर दिया — उसको हथौड़े से गिराना शुरू कर दिया। क्योंकि हमारी राष्ट्रीयता का तो आधार ही बंधुत्व है। हमारा संविधान कहता है न — फ्रेटरनिटी — प्रिएम्बल में, बिल्कुल शुरू में ही आ जाता है प्रस्तावना में।
तो ये कहना कि "मेरी भाषा किसी और की भाषा से बेहतर है, मेरी संस्कृति देश के अन्य लोगों की संस्कृति से बेहतर है, मेरी विचारधारा, मेरी जाति दूसरों की जाति से उच्चतर है" — जो लोग ऐसा सोच रहे हैं, वो कतई न कहें कि वो राष्ट्रप्रेमी हैं।
या कि जो कहते हैं कि "मैं पुरुष हूँ, तो मैं किसी तरीक़े से स्त्रियों से कुछ मामलों में तो बेहतर हो ही गया। मैं उत्तर भारत का हूँ, दक्षिण भारत से ऊपर का हो गया। मैं दक्षिण का हूँ, तो मैं ऊपर का हूँ। या कि उत्तर-पूर्व के जो लोग हैं, वो हमें हमारे जैसे नहीं लगते" — जो ये सब बातें कर रहा है और साथ में ये भी कह रहा है कि "मैं तो राष्ट्रप्रेमी हूँ" — वो मूर्ख भी है, धूर्त भी है।
अंकित त्यागी: बहुत बढ़िया बात भी थी, एडवाइस भी थी। शायद इस देश को उसकी आवश्यकता भी है।
आचार्य प्रशांत: बहुत ज़रूरी है।
अंकित त्यागी: अंत में, बिल्कुल क्योंकि अब इस सेगमेंट का समय ख़त्म हो रहा है, मैं आपसे बस ये पूछना चाहूँगा कि एक जो इंडिविजुअल सेंस ऑफ अचीवमेंट होती है — कुछ भी इस तरीके का मिलने पर, जैसे आपको अवार्ड मिला, या किसी को और कुछ मिलता है — क्या वो कलेक्टिव भी हो सकता है? मतलब ये सिर्फ़ इसी में न रुक जाए कि ये आचार्य प्रशांत को मिला है — एक इस तरह की भावना रहे कि "देखिए, वो देख पाए कि किस कारण से और क्यों और किस तरीके से इसको बाहर वो फैला पा रहे हैं।"
आचार्य प्रशांत: बहुत सुंदर बात, बहुत अच्छी बात। आचार्य प्रशांत को मिला ही नहीं है, मैं कोई नहीं हूँ। बहुत सारे लोग, लाखों लोग — और करोड़ों नहीं तो लाखों लोग — हो सकता है करोड़ों हों — मेरे साथ जिस रोशनी को देख रहे हैं, ये अवार्ड उन सबको मिला है। मैं अधिक से अधिक उनका प्रतिनिधि हूँ — रिप्रेज़ेंटेटिव, एंबेसडर।
तो ज़रूरी हो जाता है कि किसी एक अग्रणी नाम को दिया जाएगा, तो नाम मेरा वहाँ लिख दिया गया है। लेकिन बात कोई व्यक्तिगत तौर पर मेरी नहीं है। इस व्यक्ति में ऐसा कुछ विशेष नहीं है कि आप इसको ले जाकर के कोई भी अवार्ड या सम्मान या कुछ दे दोगे।
हम कुछ मूलभूत सिद्धांतों की बात कर रहे हैं, और ऐसे सिद्धांत जो एक कालातीत सत्य की ओर इशारा करते हैं — हम उसकी बात कर रहे हैं। तो अगर ये सम्मान मिला भी है, तो मैं कहूँगा कि ये इस विचार को मिला है — कि "मुझे एक ज़िन्दगी है, जो व्यर्थ नहीं जानी चाहिए। मुझे दूसरों पर हिंसा नहीं करनी है, मैं इतना मजबूत हूँ कि कोई मुझ पर आघात करे, तो मुझे तत्काल प्रतिक्रिया नहीं कर देनी है। मेरा पहला क़दम ये होगा कि उसको सुधारने की कोशिश करूँ। फिर भी नहीं सुधरता, तो देखेंगे, फिर तो भगवद्गीता भी है।"
वहाँ भी अर्जुन युद्धस्व, फिर युद्ध भी कर लेंगे। लेकिन पहला प्रयास यही रहेगा कि समझाएँ, प्यार से सुधारें और सबके भीतर एक दैवीयता है, उस दैवीयता को उभारने की कोशिश करें। ये जो विचार है, और ये विचार सबसे सुंदर तरीक़े से — जो हमारा उच्चतम दर्शन है, अद्वैत वेदांत — ये उसमें दिखाई देता है। तो ये सम्मान उसको मिला है और उन लाखों-करोड़ों लोगों को मिला है, जिन्होंने अगर मेरे साथ खड़ा होना और कई तरह के ख़तरे उठाना स्वीकार नहीं किया होता, तो जो मैं काम कर रहा हूँ, वो आज यहाँ तक नहीं पहुँच पाता। ये उनको समर्पित है।
अंकित त्यागी: बहुत सुंदर सोच है। उसी पर कम से कम अभी का ये सेगमेंट ज़रूर अंत करते हैं। ये चर्चाएँ जो हैं, और भी विषयों पर जारी रहेंगी। बने रहिए हमारे साथ।