इच्छाओं को नियंत्रित कैसे करूँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

Acharya Prashant

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इच्छाओं को नियंत्रित कैसे करूँ? || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2012)

श्रोता: सर, इच्छाओं को नियंत्रित कैसे करूँ?

वक्ता: कृष्णमोहन पूछ रहे हैं कि इच्छाओं को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है। अच्छा! क्यों नियंत्रित करना है? सवाल यह तुम सब का है। यहाँ पर कोई ऐसा नहीं है जिसके सामने यह सवाल इस रूप में नहीं तो किसी और रूप में आता ना हो। तो इसको यही मान कर सुनो कि सवाल तुम्हारा ही है।

मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ कि इच्छाओं को नियंत्रित करने की बात उठे ही क्यों? निश्चित रूप से अगर तुम्हें इच्छाओं के माध्यम से बहुत आनंद आ रहा होता तो तुम्हारे मन में यह विचार ही नहीं आता कि इच्छाओं को रोकना कैसे है। कहीं ना कहीं यह तुम्हारा अनुभव ज़रूर है कि इच्छाएं तुम्हें कष्ट दे रही हैं, गड्ढे में धकेल रही हैं। तभी यह बात उठ रही है कि इनको किसी तरीके से रोका जाए।

यह जो शब्द है, ‘इच्छा’, इसको समझना बहुत ज़रूरी है कृष्णमोहन ने कहा कि अपनी इच्छाओं को कैसे रोकें। जब आप कहते हैं अपनी इच्छाएं, तब आप कहते हैं “माए डिजायर”। यह जो इच्छा है इसमें क्या कुछ भी मेरा है? अगर इसमें मेरा कुछ हो तो मेरा इसपर नियंत्रण भी हो सकता है। निश्चित रूप से मैं उस ही चीज़ को वश में कर सकता हूँ जो मेरी है। जो मेरी हो ना उसको नियंत्रित करने का कोई उपाय हो नहीं सकता। क्या इच्छाएं मेरी हैं? हम कहते ज़रूर हैं कि इच्छाएं मेरी हैं। पर क्या वह इच्छाएं हमारी होती हैं? हाँ हम उनसे सम्बन्ध बहुत गहरा बिठाते हैं और हम ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर कहते हैं “मेरी इच्छा है, मेरी इच्छा है, मैं यह करना चाहता हूँ, मेरी चाहत है”। पर उसमें मेरा कितना है उसको ज़रा ध्यान से देखिये। क्योंकि ज़ोर जो है, वह इच्छा पर नहीं है। जो ताकत है, जो बल है वह इच्छा में नहीं है। जो ताकत है वह ‘मेरी’ इच्छा में है। इच्छा को ताकत मिलती है इस विचार से कि यह ‘मेरी’ इच्छा है। क्या आप दूसरे की इच्छा से भी उतने ही ज्यादा उद्वेलित हो जाते हैं? आप किसी के साथ होते हैं और उसको इच्छा हो रही है पिज़्ज़ा खाने की तो क्या आप दौड़ पड़ते हैं पिज़्ज़ा खाने? आप इच्छा के वश में तब आते हैं जब आप अपने आप से कह देते हैं कि यह ‘मेरी’ इच्छा है।

तो बात इच्छा की नहीं, बात इस ‘मेरेपन’ की है।

एक कंपनी एक नया मोबाइल फ़ोन बाज़ार में लाती है। वह विज्ञापन दिखाना शुरू करती है और जो आपको विज्ञापन दिखा रहा है, वह बहुत चतुर है। वह करीब-करीब एक मनोवैज्ञानिक ही है। वह अच्छे से जानता है कि सामने वाले के मन को प्रभावित कैसे किया जाता है। और याद रखियेगा कि पिछले सवाल में और इस सवाल में सीधा सम्बन्ध भी है। तो जो विज्ञापन देने वाला है वह भलीभांति जानता है कि आपके मन को कैसे बस में लाना है। तो जब आप पहले पहल उसका विज्ञापन देखते हैं तो कहते हैं, ‘अरे, बेकार ही एक और मोबाइल आ गया और यह कितना भद्दा विज्ञापन है’। पर वह आपसे कहीं ज्यादा चालाक है। टी.वी. पर वह आपको विज्ञापन एक नहीं, पांच सौ बार दिखाएगा। और सिर्फ टी.वी. पर ही नहीं वह आपको इंटरनेट पर भी दिखाएगा और रेडियो पर भी सुनाएगा, अखबार में भी दिखाएगा। आप चल-फिर रहे हैं तो होर्डिंग्स पर दिखाएगा। इतना ही नहीं, आपके कुछ दोस्त वह मोबाइल खरीद लेंगे तो उनके खरीदने के माध्यम से भी उसका प्रचार हो जाएगा। और ऐसे देखते-देखते दो महीना बीतेगा, तीन महीना बीतेगा और एक दिन आप पाएंगे कि आप बाज़ार की तरफ चल दिए हैं वही मोबाइल लेने। और तब आपको रोका जएगा तो आप कहेंगे, नहीं यह तो ‘मेरी’ इच्छा है कि मैं यह मोबाइल खरीदना चाहता हूँ।

विज्ञापन का पूरा मनोविज्ञान यही है, ऐसे ही काम होता है। प्रश्न यह उठता है कि यह इच्छा आपकी थी या आपके भीतर डाली गयी, आरोपित की गयी! पूरी ताकत से आपके भीतर उसको डाला गया। लेकिन इस समय जब आप बाज़ार जा रहे हैं और आपका मन अब पूरे तरीके से उस मोबाइल का हो चुका है, इस समय अगर आपको कोई कहेगा कि यह तो तुम्हारी इच्छा है ही नहीं, तो आप लड़ने को उतारू हो जाएंगे। आप कहेंगे “नहीं, मेरी ही इच्छा है और मुझे खरीदना है”।

कोई भी इच्छा आपकी इच्छा नहीं होती। यह जो हमने उदहारण लिया इसमें कहानी बहुत स्पष्ट है इसलिए देखना आसान है। जो आपकी बाकी इच्छाएं भी होती हैं वह किसी न किसी बाहरी स्रोत से ही आ रही होती हैं। स्रोत बाहर ही है इच्छा का, आपकी अपनी कोई इच्छा होती नहीं। क्योंकि इच्छा हमेशा याद रखिये, किसी बाहरी वास्तु की ही तो है। वह वास्तु, व्यक्ति या जगह जो भी है, जो आपकी इच्छा का केंद्र है वह आपकी इंद्रियों के माध्यम से आप पर एक तरीके का आक्रमण करता है, और दिमाग की प्रकृति यह होती है कि वह रिपीटिशन से प्रभावित हो जाता है। अगर वह आक्रमण बार-बार होगा तो दिमाग उस से तादात्मय स्थापित कर लेगा। इसी का नाम इच्छा है। दिमाग उसको पाना चाहेगा। इसको कंडीशनिंग कहते हैं। आप सोचते भले ही हो कि वह इच्छा मेरी ही है पर वह इच्छा आपकी नहीं है, वह आपके दिमाग की कंडीशनिंग है।

अगर आप एक हिन्दू हैं तो बहुत सम्भावना है कि आप एक मंदिर के सामने से निकलें तो इच्छा हो कि हाथ जोड़ लूँ। आप अगर किसी और धर्म से हैं तो आपके भीतर मंदिर को देखकर यह इच्छा उठने की सम्भावना बहुत कम है। यह इच्छा आपकी है या आपके धर्म की है? याद रखिये कि धर्म आपने चुना नहीं था। आप में से किसी ने भी अपना धर्म चुना नहीं था, लेकिन क्योंकि आपको हिन्दू के रूप में संस्कारित कर दिया गया है तो अब यह इच्छा आ गयी साथ में। यह इच्छा आपकी नहीं है। यह इच्छा उन ताकतों की है जिन्होंने आपको हिन्दू या मुसलमान बनाया। पर आप कहेंगे कि आज तो मेरी इच्छा हो रही थी कि दर्शन कर लूँ।

आपका कुछ नहीं है इसमें। जब आप इस बात को जान जाते हो कि ‘मेरी इच्छा’ में ‘मेरा’ कुछ है ही नहीं सिर्फ इच्छा है, तब उस इच्छा का ज़ोर अपने आप कम हो जाता है। इच्छा से लड़कर इच्छा को नहीं जीत पाओगे, इच्छा को समझकर उसे जीत जाते हो। जब यह समझ जाते हो कि यह इच्छा मेरी नहीं है, और यह किन्ही और ताकतों की है और मैं बस इससे तादात्म बनाय बैठा हूँ पागल की तरह, इच्छा का ज़ोर तुमपर जाता है।

जैसे एक कहानी है कि, कोयल इतनी चालाक होती है कि वह अपने अण्डे कौए के घोंसले में रख देती है और कौवा उनको अपना मान के सेता रहता है। ठीक वैसे ही, इच्छा किसी और की है और दौड़ते उसके पीछे आप हो क्योंकि आपने मान लिया है कि इच्छा मेरी है। जैसे कौवा मान लेता है कि यह अंडे मेरे हैं। अगर उसने ध्यान दिया होता तो व्यर्थ के प्रयत्न और दौड़- धूप से बच जाता। और जब उसमें से पक्षी निकलते हैं छोटे और कौवा का दिल टूटता है, देखता है कि यह बच्चे तो मेरे हैं ही नहीं, वह इस कष्ट से भी बच जाता। आप भी बच सकते हैं इन सब से अगर आप ध्यान से देखें कि यह इच्छा कहाँ से आयी? किसने डाली मेरे भीतर?

अभी तक हमने जिन दो उदाहरणों को लिया उन दोनों में सामाजिक तत्व ज़िम्मेदार हैं आपके भीतर इच्छा बैठाने के लिए।

दो तरह की कंडीशनिंग होती है,

पहली तो सामाजिक, जहाँ पर कोई और व्यक्ति या अवधारणा या धर्म या फिलोसोफी, आपके भीतर किन्ही विचारों को जमा दे। तो यह कहलाती है, सोशल कंडीशनिंग।

दूसरी होती है फिजिकल, जो आपके शरीर में ही बैठी है। जैसे खाने की इच्छा। जैसे आप लोग एक विशेष उम्र में आ गए हैं, आपने कभी सोचा कि आप लड़की हैं, तो लड़को के प्रति रूचि होगी और अगर लड़के हैं तो लड़कियों में रूचि होगी। यह घटना अट्ठारह की उम्र में घटती है, पर आठ की उम्र में क्यों नहीं घटती? अगर हम ज़रा भी विवेकपूर्ण हैं तो हम इस बात को तुरंत समझ जाएंगे कि मैं इस बात से तादात्मय बना लेता हूँ कि यह मेरी इच्छा है कि मैं इस व्यक्ति को देखूं, या इस व्यक्ति से बात करूँ या पास जाऊँ। और हम इस बात को बिलकुल नहीं समझते कि अगर यह ‘मेरा’ होता तो ऐसी इच्छाएं आज से पांच-दस साल पहले भी तो घट सकती थीं।

हम यह बिलकुल नहीं समझ पाते कि अगर कोई चुम्बक लोहे को आकर्षित करता है तो चुम्बक को यह कहने का कोई हक़ नहीं है कि मैंने आकर्षित किया और ना लोहे के पास यह कहने की वजह है कि हम आकर्षित हुए। यह तो एक मॉलिक्यूलर बात है, पूरे तरीके से एक मैकेनिकल चीज़ है जिसका कुछ भी चेतना से लेना देना नहीं है। यह तो प्रकृति के जड़ नियम हैं। एक विशेष प्रकार का मॉलिक्यूल है जो दूसरे प्रकार के मोलेक्यूल को खींच रहा है। ठीक वैसे ही एक उम्र के बाद आपके भीतर बहुत सारे ऐसे मोलेक्यूल पैदा हो गए हैं जिसमें आपने कुछ नहीं किया। यह बस होता है. आपने इसमें कुछ नहीं किया। पर आपकी इतनी बुद्धि नहीं जगी है कि आप कहें इस शरीर के हॉर्मोन्स मेरे भीतर लड़कों या लड़कियों को देखकर कुछ प्रतिक्रियाएँ पैदा करते हैं। आप उसे ‘मेरी’ इच्छा मान लोगे और आप कहोगे ‘वह मेरा प्यार है’। आपकी इतनी बुद्धि नहीं जागेगी कि यही हॉर्मोन आपके भीतर से निकाल दिया जाए तो यह सब इच्छा तुरंत ख़त्म हो जानी है।

सड़क पर सांड को देखा है? उसे गाए को देखकर बड़ी इच्छा होती है। उस प्रेम में उसका कुछ नहीं है, वह फिजिकल कंडीशनिंग है। कुछ मोलेक्यूल्स का खेल है, और उसके लिए तुम बड़े-बड़े गाने गाने लगते हो। मरने मारने पर उतारू हो जाते हो, जैसे सड़क का सांड।

(सभी श्रोतागण हँसते हैं)

सड़क के सांड से पूछो तो कहेगा कि मुझे उस गाए से बड़ा प्रेम हो गया है, और जैसे तुम्हें हंसी आ रही है सांड को देखकर वैसे ही कोई भी विवेकपूर्ण आदमी हो, तो उसे भी हँसी आती है तुम्हारे प्रेम को देखकर। यह कैसा प्रेम है कि जब खून में कुछ रसायन मिल गए तो पैदा हो गया और वही रसायन हटा दिए जाएँ को शिथिल पड़ जाएगा। और उन्ही रसायनों की ओवरडोज़ कर दी जाए, अभी यहाँ बैठे हो, तुम सब लड़को को मेल हॉर्मोन का इंजेक्शन लगा दिया जाए, तुम्हारा यहाँ बैठना मुश्किल हो जाएगा। तुम्हारा जीवन प्रेम से लबालब हो जाएगा।

तुम में से ज़्यादातर लोग इस बात को हंसी में उड़ा देंगे। पर कुछ लोग हैं जिनको यह बात भीतर तक चोट करेगी और उनके लिए यह एक समझ बन जाएगी।

– ‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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