तुमने कप उठाया है, और एक पुराना पर्दा भी

Acharya Prashant

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तुमने कप उठाया है, और एक पुराना पर्दा भी
तुमने विश्वकप उठाया है, और उसके साथ सदियों से झुके हुए करोड़ों सिरों को भी। ऐसी जीतें मैदान की सीमाओं से आगे जाती हैं, वे दिखाती हैं कि जब तुम आदिम भूमिकाएँ लाँघती हो, तो क्या संभव हो जाता है। मैदान पर बना हर रन, उस रण की याद दिलाए जो स्त्री आज भी हार रही है। मैदान पर लगा हर चौका, उस चौके की याद दिलाए जो रसोई से ज़्यादा जेल है। गेंद तो सीमा रेखा पार कर गई, पर याद रखना कोई अभी भी सीमा में ही कैद है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

(2025 आईसीसी महिला क्रिकेट विश्व कप में भारतीय महिला क्रिकेट टीम की ऐतिहासिक जीत के लिए।)

तुमने विश्वकप उठाया है, और उसके साथ सदियों से झुके हुए करोड़ों सिरों को भी। ऐसी जीतें मैदान की सीमाओं से आगे जाती हैं, वे दिखाती हैं कि जब तुम आदिम भूमिकाएँ लाँघती हो, तो क्या संभव हो जाता है।

युगों से तुम्हें कविता में पूजा गया, जीवन में दबाया गया। मंचों पर गाया गया, पर मैदान से वंचित रखा गया। आज समय ने फिर देखा कि क्या होता है जब तुम न कठपुतली बनती हो न देवी, बल्कि जूझती हो खिलाड़ी, योद्धा, विजेता बनकर।

देखे दुनिया कि दैवीयता किसी ठहरे हुए चलन का नहीं, बल्कि मानवीय क्षमता के पूर्ण प्रस्फुटन का नाम है। कि पवित्रता रीतियों के पुरातन जाल में नहीं बसती, पवित्र वो है जो जंग-खाई जंज़ीरों को बेधड़क उखाड़ फेंके।

सच्ची जीत प्रतिद्वंद्वी पर नहीं, अपने ही बेड़ियों पर होती है: व्यक्तिगत, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक। जब स्त्री स्वतंत्र होकर खेलती है, तब राष्ट्र स्वतंत्र होकर साँस लेता है। जब स्त्री निर्भय होकर नाचती है, तब पृथ्वी पर जीवन प्रश्रय पाता है।

यह जीत किसी उत्सव पर समाप्त न हो। कुछ प्रश्न गूँजते रहें: कितनी भ्रूण-बालिकाएँ जीवन के मैदान पर उतर भी नहीं पातीं? कितनों को अब भी कहा जाता है कि उनका स्थान निचले पायदान पर है? और कितनी जो अब भी शिक्षा, स्वाधीनता, स्वर वंचित सबसे — मूक अशक्त!

मैदान पर बना हर रन, उस रण की याद दिलाए जो स्त्री आज भी हार रही है। मैदान पर लगा हर चौका, उस चौके की याद दिलाए जो रसोई से ज़्यादा जेल है। गेंद तो सीमा रेखा पार कर गई, पर याद रखना कोई अभी भी सीमा में ही कैद है।

इतिहास इस दिन को केवल कप के लिए ही याद न रखे, क्योंकि सच्ची विजय तब है जब औरों के विजयी होने का मार्ग भी प्रशस्त हो। यह दिन सहस्रों नई विजयों की भोर बने — नए कपों की, नए मैदानों की, नई दिशाओं की।

~ आचार्य प्रशांत

~नीचे साझा किया गया लेख जयपुर में हुए बातचीत सत्र से लिया गया है।

प्रश्नकर्ता: सर, अगर हम ओलंपिक्स की बात करें और हम जब पिछले कई सारे आँकड़ों पर नज़र डालते हैं, कई बार हम ये भी देखते हैं कि महिलाएँ और पुरुषों का कंपैरिज़न (तुलना) चलता रहता है। पर जब हम मेडल्स देखते हैं, अगर मैं युएसए (संयुक्त राज्य अमेरिका) की खासतौर पर बात करूँ तो सबसे ज़्यादा जो मेडल हैं, वो महिलाएँ ही लेकर आती हैं पिछले कई वर्षों से। लेकिन हमारे हिंदुस्तान में मेडल्स की संख्या महिलाओं की तरफ़ से इतनी कम क्यों रही हैं?

आचार्य प्रशांत: अब बढ़ने लगी है।

प्रश्नकर्ता: अब बढ़ी है। इसमें दो मेडल्स लेकर आई हैं।

आचार्य प्रशांत: अभी तीन में से दो में तो महिला का ही योगदान है। क्यों कम रही है, क्योंकि हमने महिला को कभी ये क्षेत्र दिया ही नहीं कि वो खेल भी सकती है। ओलंपिक्स में क्या होता है वो तो बहुत दूर की बात है। हमारे गली-मोहल्लों में क्या होता है वो बहुत पास की बात है। जब हमारे घरों में और गलियों में और मोहल्लों में, स्कूलों में ही लड़कियाँ खेल नहीं रही हैं तो ओलंपिक्स में कहाँ पहुँच जाएँगी?

ये बात बहुत दूर की है कि भारत की महिलाएँ ओलंपिक्स से पदक क्यों नहीं लातीं। ये बात बहुत दूर की है कि भारत की महिलाओं का प्रतिनिधित्व संसद में इतना कम क्यों है, बोर्डरूम्स (कंपनी के अधिकारीयों की बैठक) में इतना कम क्यों है, इकोनॉमी में इतना कम क्यों है…

प्रश्नकर्ता: सैलरीज़ (वेतन) क्यों कम होती हैं।

आचार्य प्रशांत: सैलरीज़ क्यों कम होती हैं, ये बातें तो हमें ऐसा लगता है कहीं और की हैं। ‘अरे वहाँ नाइंसाफ़ी हो रही है, अरे वहाँ भेदभाव हो रहा है।’ वहाँ क्या हो रहा है (छोड़ो), हमारे घरों में क्या हो रहा है? सब कुछ हमारे घरों से, हमारे मोहल्लों से शुरू होता है।

प्रश्नकर्ता: बिल्कुल! बिल्कुल!

आचार्य प्रशांत: लड़कियों को हम कितना खेलने के लिए प्रेरित करते हैं? लड़कियों को हम उनके को-करिक्यूलर्स (सह-पाठ्यक्रम) विकसित करने के लिए कितना प्रेरित करते हैं? भई, उनका तो जो पूरा योगदान है वो ये माना जाता है कि जाकर के घर सवारों और वंश-वृद्धि में अपना योगदान दे दो। उनकी अपनी कोई अस्मिता है! कि वो महिला बाद में है, मनुष्य पहले हैं! ये बात तो जैसे हमारे भीतर, हमारी संस्कृति में आती ही नहीं है।

प्रश्नकर्ता: सर, इसका एक एग्ज़ांपल (उदाहरण) भी मैं देना चाहूँगा। मैंने अपने रेडिओ शो में भी पूछा था कि जो महिला क्रिकेट है, उसको देखने के लिए इतनी भीड़ इकट्ठी क्यों नहीं होती? तो मेरे पास सर कॉल आया एक महिला का, उन्होंने बोला कि मैं फीमेल (महिला) क्रिकेट देख रही थी, मेरी सास ने मुझे बोला कि क्या कर रही है; टीवी बंद कर और जा, रोटी बना। आपकी बात से मुझे याद आ गया कि घर में ही सपोर्ट (समर्थन) नहीं मिलता है तो इतनी बड़े स्तर पर कैसे मिलेगा?

आचार्य प्रशांत: देखिए बल के जितने काम होते हैं; खेल माने बल का, कर्मठता का, पौरुष का, जीवट का, साहस का प्रदर्शन। हम घबराते हैं महिला अगर बल का, पौरुष का, जीवटता का, साहस का प्रदर्शन कर दे तो। हम कहते हैं, ‘ये तो बिल्कुल एकदम अब छा जाएगी, पता नहीं क्या करेगी।’ अब लड़कियाँ हैं उनको कई बार घरों से ही बोला जाता है, ‘जिम जाओगी तो शरीर कोमल नहीं रह जाएगा, कंधे चौड़े हो जाएँगे, तुम्हें पसंद कौन करेगा?’ क्योंकि पुरुषों को भी लड़की ऐसी चाहिए जो कोमलांगिणी हो।

प्रश्नकर्ता: हाँ (हँसते हुए), बिल्कुल!

आचार्य प्रशांत: ताकि उसपर नियंत्रण रखा जा सके। अगर वो आपके ही समकक्ष बलशाली हो गई तो उसकी नाक में नकेल डालकर कैसे रखोगे? और स्पोर्ट्स, और स्पोर्ट्स का तो काम होता है कि आपके भीतर न सिर्फ़ शारीरिक बल्कि मानसिक बल भी विकसित करे।

स्पोर्ट्स का काम होता है कि आपको सिखाए कि हारती हुई हालत में भी जीता कैसे जाता है।

अगर महिला ये सब अगर सीख गई तो हमारे घरों में बड़ी समस्या हो जाएगी। तो इसीलिए हम महिलाओं को प्रेरित ही नहीं करते कि खेलने जाओ। खेलने जाती भी हैं तो हम कहते हैं, ‘लड़कियाँ खेल रही हैं, ये सब कौन देखे, क्या करे।’ हाँ, एक खेल होता है महिलाओं का जो पुरुष बहुत चाव से देखते हैं, वो है स्विमिंग।

प्रश्नकर्ता: (हँसते हैं।)

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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