तू घट घट अंतरि सरब निरंतरि जी हरि एको पुरखु समानी
~ रेहरासि साहेब (नितनेम)
प्रश्नकर्ता: कम्पेरिज़न (तुलना) नहीं हो सकती है, कभी-कभी हम अपने को अलग मान कर ही सोचते हैं कि मुझे उनसे ही बड़ा चाहिए। मतलब अगर मेरी सैलरी (वेतन) पंद्रह हज़ार है, उनकी पच्चीस हज़ार है, तो ये कम्पेरिज़न नहीं हो सकता है क्योंकि अगर उसको मिल रहा है, तो ठीक है, उसके हिसाब से मिल रहा है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, कम्पेरिज़न क्यों नहीं हो सकता है? यदि वो सब में है तो कम्पेरिज़न में भी है, नकार तो फिर संभव ही नहीं है न कि कुछ भी कैसे नकारें? कम्पेरिज़न भी ठीक है।
प्र: मन में ये प्रॉब्लम (परेशानी) तो होती है न कम्पेरिज़न की वजह से।
आचार्य: हाँ, कम्पेरिज़न समस्या बने क्या ये आवश्यक है?
प्र: वो सफरिंग नहीं रह सकता, एक ओर नहीं रह सकता।
आचार्य: पर कम्पेरिज़न नहीं सफरिंग बने क्या ये ज़रूरी है? अब मुझे यदि दिख रहा है कि बगल में प्रसन्ना बैठा है वो उम्र में छोटा है तो तुलना हुई कि नहीं हुई? उम्र में किससे छोटा है? बाकियों से तो तुलना तो हो गई है कि नहीं हो गई है? पर ये तुलना मुझे व्यथित करदे ये ज़रूरी है क्या? कि "अरे! इतना छोटा!"
(सब हँसते है)
आदमी किसी भी बात से व्यथित हो सकता है, क्यों नहीं हो सकता है? घट-घट अंतर का मतलब इतना ही नहीं है कि वो प्रत्येक व्यक्ति में है, इसका मतलब वही है समग्र स्वीकार। ठीक है न? कोई दिक़्क़त नहीं है भूत के बारे में सोचने में, कोई दिक़्क़त नहीं है भविष्य की कल्पना में, सब ठीक है।
‘घट-घट अंतरि सरब निरंतरि।’
यदि तुम सही जगह पर आसीन हो, बेशक मन के पास ताक़त है न अतीत की स्मृतियों में जाने की, करो उसका इस्तेमाल। हम अपने छात्रों को जो बार-बार बोलते हैं कि पास्ट फ्यूचर (भूत भविष्य), इनसे बचो, वो ऐसे ही बोला जाता है जैसे किसी नौसिखिये को ये कहा जाता है कि तीस की गति से जाने से बचो। मैं जिस स्विमिंग-पूल में जाता हूँ वहाँ पर एक कोना है, जो थोड़ा सा ज़्यादा गहरा है। पानी वहाँ सर के ऊपर है। वहाँ जितने मेरी तरह अनाड़ी आते हैं, उन सबको नहीं जाने दिया जाता। लेकिन तैरने का मज़ा भी वहीं पर है, लेकिन हमें जाने भी वहाँ नहीं दिया जाएगा और जो हमें वहाँ नहीं जाने दे रहा है, वो बिलकुल ठीक कर रहा है कि हमें वहाँ नहीं जाने दे रहा। पर वहाँ इसीलिए नहीं जाने दे रहा है कि एक दिन वहाँ जा पाओ।
जो पूल के उथले हिस्से में ही रह गया, उसने क्या खाक तैरना सीखा! पर जो जाते ही सबसे गहरे हिस्से में कूद गया, बिना भय से मुक्त हुए, उसका क्या हश्र होगा? अब वो कभी तैरेगा नहीं, भले ही ना डूबे पर उसको ऐसा भय जकड़ेगा कि अब वो कभी तैरेगा नहीं। एक बार झटका लगता है न, नाक, फेफड़ा, मुँह हर जगह जब पानी घुस जाता है, तो उसके बाद आप कहते हो "मेरे लिए नहीं है"।
बात आ रही है समझ में?
सीटेड इन दा प्रेजेंट डू व्हाटेवर यु वांट टू डू विथ द फ्यूचर एंड दा प्रेज़ेंन्ट बट बी सीटेड इन दा प्रेजेंट (वर्तमान में स्थित रहकर जो करना हो वो करो भविष्य और वर्तमान के साथ, परन्तु वर्तमान में स्थित रहो)।
प्र: स्मृति प्रेजेंट में कैसे रहेगी वो तो जाती रहती है, वो तो चलती ही रहती है।
आचार्य: नहीं फिर गड़बड़, फिर गड़बड़ है और जब तक ऐसा हो रहा है कि बार-बार आपको कोई आसन से उठा कर फ़ेंक दे रहा है, तब तक तो आप इस डिसिप्लिन (अनुशासन) का पालन करिए कि आप पास्ट और फ्यूचर से बचिए, तब तक तो बचिए। लेकिन योग का अर्थ ही यही है कि, "अब हम ऐसे उससे एक हुए कि उसके पूरे संसार में अब हम कहीं भी विचर सकते हैं, हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा।" समझ में आ रही है? ‘घट घट अंतरि सरब निरंतरि।' हम इधर भी जा सकते हैं, हम उधर भी जा सकते हैं। हमारा अहंकार ही पवित्र हो गया है जैसे कोई साधारण सी नदी गंगा में मिल गई हो, तो क्या कहलाती है?
प्र: गंगा।
आचार्य: हमारा अहंकार ही पवित्र हो गया है, हम कुछ भी कर सकते हैं ‘सरब निरंतरि’ सब ठीक सब वही, सब एक परम। हमारे लिए अब अतीत खेल है, हम जा सकते हैं, क्यों नहीं जा सकते हैं? हम भविष्य की भी सोच सकते हैं। आप ये सब मत करने लगिएगा, एक जायज़ा दे रहा हूँ।
प्र: सर, जो प्रेजेंट में सीटेड (स्थित) है, वो भविष्य और भूत में जाएगा ही क्यों? वो तो अभी को ही बहुत एन्जॉय करेगा।
आचार्य: नहीं जाएगा तो नहीं जाएगा, जाएगा तो जाएगा। उसके लिए ये प्रश्न ही महत्वहीन है कि "क्यों जाए?" मौज है, तो जाएँगे नहीं है तो नहीं जाएँगे तुम्हें क्यों बताएँ? नहीं जाएँगे तो नहीं जाएँगे, निर्विचार में बैठे हैं, मौन, समाधि और कभी विचार से भी खेल रहे हैं। सब हमारा है, पूरी छूट है। अरे! कोई अछूत है भूत और भविष्य, कि छू देंगे, तो गंधाने लगोगे? कि, "अरे! बड़ा पाप हो गया भविष्य के बारे में सोच लिया"? कोई पाप नहीं हो गया।
पाप होता है एक मात्र स्रोत से दूरी, तुम उसके साथ रहो।
तो पहली बात तो कि जिसको ‘उसका’ साथ मिल गया, वो अब भूत भविष्य में प्रेत बनकर भटकेगा ही क्यों? ये वैसी सी ही बात है कि तुम अपने प्रियतम के साथ हो, और इधर-उधर भटक रहे हो उसको छोड़ करके। क्या आवश्यक्ता है तुम्हें? तुम ऐसा करोगे नहीं और कभी किसी दिन मन बन ही गया तो ठीक है न, उसके साथ है न! "चलो साथ-साथ भटकते हैं|" अब तुम जा ही इसलिए रहे हो कि, "गुम हो जाएँ, गुम होने में बड़ा मज़ा है, चलो ज़रा गुम होकर देखते हैं| इकट्ठे गुम होंगे।" कौन? "हम और परम!" भविष्य में भी जा रहे हैं, तो उसको साथ लेकर ही जा रहे हैं, आसन से नहीं हटे। उसके साथ ही हैं, ऐसा कर सको, तो फिर तो जो करना है करो। हम ऐसा नहीं कर पाते इसलिए कुछ बातें वर्जित हैं, इसीलिए उससे कहा कि दूसरों हो हटाओ।
जो अपने में स्थापित में हो गया वो सिर्फ़ दूसरों के बारे में सोचे, तो भी चलेगा क्योंकि वैसे भी उसके पास अब अपने बारे में सोचने को क्या बचा है? उसके पास कोई व्यक्तिगत समस्याएँ तो हैं नहीं कि, "अरे! मेरा बच्चा बीमार है, अरे ए.टी.एम का नंबर खो गया है।" अब कोई व्यक्तिगत समस्या तो उसकी है नहीं तो करेगा क्या? दूसरों के ही मसले में नाक घुसेड़ेगा और क्या करेगा? तो कर लो, पर पहले अपने मसले सुलझा लो न! अपना एक ही मसला है, क्या मसला है? कि, "मेरी पिया से क्या इक्वेशन चल रही है, पहले उसको ठीक करलो।" पुट योर ओन हाउस इन आर्डर, एंड देन पोक योर नोस इन टू अदर हाउसेस, देट इज़ द आर्ट ऑफ़ लिविंग (पहले स्वयं का घर सँवार लो फिर दूसरे के घर में टांग अड़ाओ। यही है जीने की कला)।
(सब हँसते है)
मुझे ‘मरण का चाव’ मरने का डर जाता रहा, अब तो हम सारे काम ही वही करते हैं, जिनमें मरने की नौबत आए। ‘खेत बुहारे सूरमा, मुझे मरण का चाव।’ अब हम वहीं-वहीं जाते हैं जहाँ मरने की सम्भावना है।